Wednesday, December 26, 2012

मेरे नाना का घर

जब राजिम जैसे शैक्षणिक केंद्र कमजोर हुए तो मालगुजारों की बस्ती रायपुर शिफ्ट हो चली, ब्राह्मणपारा आबाद हुआ, मालगुजारों ने बाड़े तैयार किए, इनमें कुछ भव्य बाड़े अब भी बचे हुए हैं जो बाड़े नहीं तैयार कर सकते थे, उन्होंने घर बनाए, पटाव वाले घर, जब हम गर्मियों में अपने नाना-दादा के घर आते तो इन पटाव वाले घरों के शांत कमरों में सुकून से दिन गुजारते, कभी तीरी-पासा खेलते तो कभी ताश की महफिलें जमतीं, उन दिनों घरों में टाइल्स नहीं होते थे, स्लेट के पत्थर लगे होते थे, हर पत्थर में एक खास आकृति उभरती जो शायद केवल बच्चों को ही दिखती थी। हम संयुक्त परिवार के स्वर्ग में रहा करते थे तो मामा-मौसी के बच्चे भी छुट्टियों में इस स्वर्ग में पहुँच जाते। उन दिनों सबसे बड़े बच्चे और छोटे बच्चे की एज में काफी फर्क रहता था। मेरे छोटे मामा उन दिनों कालेज में थे और शायद रेखा उनकी प्रिय अभिनेत्री थीं, उसकी फोटो पटाव वाले घर में खूब लगी होती थी।
                                          इस घर को मेरे नाना जी ने २४००० रुपए में खरीदा था, ये घर एक बड़े अधिकारी का था जिनका नाम मैं नहीं लेना चाहूँगा, वे रजिस्ट्री में आनाकानी कर रहे थे, मुझे याद है कि उस समय मैं क्लास ३ में था, मेरी मौसी सारे अधिकारियों के सामने रोकने के बावजूद उस जगह पहुँच गई जहाँ वे वरिष्ठ अधिकारियों की मीटिंग ले रहे थे। उनसे कुछ कहते नहीं बना और उन्होंने रजिस्ट्री के पेपर में साइन कर दिया। घर के स्टोर रूम से भी छोटे कोने में मेरे मामा ने पढ़ाई की।
                                                                                                     दो दिनों पहले जब इस घर को टूटते हुए देखा तो बड़ा अजीब लगा। लगा कि इस घर के साथ कितनी स्मृतियाँ भी बिखर गईं, वो कमरा जहाँ नाना पूजा करते-करते भावुक हो जाते, उस जगह अब केवल मलबा दिखता है। कुँआ तो पहले ही पाट दिया गया। इस कुँए में मेरी मम्मी गिर गई थीं और बहुत मुश्किल से उनकी जान बची थीं। हो सकता है कि मैं विषयान्तर कर रहा हूँ लेकिन ब्राह्मणपारा की चर्चा एक बड़े परिवार की चर्चा है इसलिए अगर मैं अपने परिवार को इसमें शामिल करता हूँ तो कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
                                                                                २५ पैसे की कुल्फी, ५० पैसे की कुल्फी और १ रुपए की कुल्फी तीन श्रेणियाँ होती थीं और अगर नाना मेहरबान हुए तो १ रुपए की कुल्फी मिल जाती थी। यह जन्नत के जैसे सुकून देती थीं। उन दिनों देश में पेप्सी के आने की चर्चा थी। मैं अखबार नियमित रूप से पढ़ा करता था। मैंने जो पेप्सी देखी थी, वो ब्राह्मणपारा के खोमचे में देखी थी, मुझे आश्चर्य होता था कि इस पेप्सी का इतना बड़ा मार्केट कैसे है? इधर की जनरेशन को आश्चर्य होगा कि नारियल के पीस भी बिकते हैं शीतला मंदिर के सामने एक नारियल वाला बैठता था, २५ पैसे में छोटी फांक और ५० पैसे में बड़ी फाँक।  पांडे होटल तक पहुँचने में सड़क की बाधा थी। सड़क कैसे पार करें, मुझे समझाया गया था कि दौड़ के सड़क मत पार करो? मुझे समझ नहीं आता था, ऐसा क्यों? मुझे यह समझ नहीं थी कि यह वार्निंग तो उन बच्चों के लिए होनी चाहिए थी जो रिस्क लेते हैं और तेज गति वाहनों का शिकार हो जाते हैं। मैं तो ऐसा जोखिम लेता ही नहीं क्योंकि मैं हमेशा से बहुत डरपोक था। फिर मुझे ऐसी सलाह देने वालों का आईक्यू आप समझ सकते हैं।
                                                                             इसी आपाधापी में पहली बार संघ को भी जाना, एक शाम भाई ने कहा कि आज शाखा जाएंगे, वहाँ एक घंटा खेल खेले, यह प्रश्न मन में नहीं आया कि इन खेल खिलाने वालों को हममें क्या रुचि हो सकती है?  मेरे मौसी के लड़के पास ही आमापारा में रहते थे, उनके पास पुस्तकों का एक उपयोगी संकलन था, इसी संकलन में एक पुस्तक विक्टोरिया कालीन थी। इस पुस्तक में विक्टोरिया के समय के किस्से थे, एक किस्सा बड़ा मार्मिक था कि कैसे एक बच्चा नंगे पांवों अपनी तकलीफ बताने कई किमी की यात्रा कर बर्मिंघम पैलेस पहुँच गया। इस घटना के बाद मेरे मन में अंग्रेजों के प्रति नफरत कम हो गई।
          कभी आश्रम भी जाना होता, हम सात बच्चे थे, नाना जी दो प्लेट चाट लेते और हर बच्चे को बारी-बारी से एक-एक चम्मच चाट खिलाते। एक दिन उन्होंने कहा कि कालीबाड़ी की दुर्गा देखोगे अथवा रामकुंड का दशहरा। हमने रावण मारना तय किया, पहली बार रामकुंड के तालाब से गुजरे, मैंने देखा कि रायपुर केवल ब्राह्मणपारा नहीं है। पहली बार इंडिया टूडे भी यहीं पर देखा, यह मैग्जीन बहुत अच्छी लगी, पापा द्वारा लाई जाने वाली दिनमान, माया की तुलना में यह काफी अद्यतन लगी।
                                                                                                   मामा उन दिनों बेरोजगार थे, उनके पास जीके बुक्स खूब होती थीं। एक बुक मैंने पढ़ी थीं, उसमें एक छोटी सी क्रोनोलाजी थी बिस्मार्क जर्मनी का चांसलर बना। इस छोटी सी पंक्ति ने मेरे मन में इतिहास को जानने की प्रबल इच्छा पैदा की। बड़े होकर जो सपने देखे, उनके सबसे प्रारंभिक अंश इसी घर में देखे। ब्राह्मणपारा का शौर्य वाला चरित्र मैंने नहीं देखा, हो सकता है इसलिए यह वर्णन उतना दिलचस्प नहीं लगे लेकिन जब ब्राह्मणपारा की बात करें तो हमें अतिथियों के वर्णनों को भी तो जगह देनी ही होगी न....

6 comments:

  1. :-) nanihal..ham kitne bade ho jaayein par bachpan kahin naa nahi wahi rah jaata hai

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  2. सौरभ जी , आप के लेखन का मैं तो कायल हूँ ....कुछ भी लिखें ..पढने में मज़ा
    आता है ! साफ़,सच बनावट से दूर ,आसान ,रोचक ,मुझ जैसों की भी समझ में आने वाला .... मैं तो पाला-पोसा ही अपने ननिहाल में गया हूँ ...नानी के गोद में ...
    माँ को तो देखा ही नही ..अपने बचपन में लौटा दिया फिर आपने ...! बस ऐसे ही लिखतें रहें ..किसी टिप्पणी का इंतज़ार न करें ..???
    शुभकामनायें !
    खुश और स्वस्थ रहें!

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  3. Nana ko to dekha hee nah....haan...dada dadi ka khoob saath paya...bahut sundar aalekh!

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  4. sunder lekhan bachapan simat aaya hum sab ka bhee ....
    Aabhar.
    ek link aapko bhejungee Itihaas eye witness kee tarah padna shayad aapko pasand aae...

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  5. वाह . बहुत उम्दा,सुन्दर व् सार्थक प्रस्तुति . हार्दिक आभार आपका ब्लॉग देखा मैने और कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.

    मंगलमय हो आपको नब बर्ष का त्यौहार
    जीवन में आती रहे पल पल नयी बहार
    ईश्वर से हम कर रहे हर पल यही पुकार
    इश्वर की कृपा रहे भरा रहे घर द्वार.

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आपने इतने धैर्यपूर्वक इसे पढ़ा, इसके लिए आपका हृदय से आभार। जो कुछ लिखा, उसमें आपका मार्गदर्शन सदैव से अपेक्षित रहेगा और अपने लेखन के प्रति मेरे संशय को कुछ कम कर पाएगा। हृदय से धन्यवाद