फाक्स हिस्ट्री ने
गंगा पर एक कार्यक्रम बनाया था गंगेज. , इसकी प्रस्तुति विलयम डेलरिंपल ने की।
गंगा की यात्रा गोमुख से शुरु होती है। विलियम डेलरिंपल बताते हैं कि गंगोत्री से
गोमुख १३ किमी दूर है अधिकांश लोग गंगोत्री से लौट जाते हैं। संभवतः पहले गोमुख
यहीं रहा हो। थोड़े यात्री गोमुख तक पहुँच पाने का साहस करते हैं। डाक्यूमेंट्री
में जब विलियम को गोमुख की ओर बढ़ते देखा तो अजीब सी सिहरन शरीर में फैल गई। गोमुख
के किनारे एक अगरबत्ती जल रही थी। बैकग्राउंड में जिस श्लोक का चयन किया गया वो था
शिव मानस स्रोत.............रत्नै कल्पित मासनं हिमजलै.....। शिव और गंगा के इतने
सारे श्लोकों के होने के बावजूद डेलरिंपल ने इस श्लोक का चयन क्यों किया होगा?
शायद ये उनका आदि शंकराचार्य के प्रति आदर भाव था।
केरल के कलादि से निकलकर जब आदि
शंकराचार्य हिमालय में गंगोत्री पर पहुँचे होंगे तो उनके मन में हर्ष और विस्मय के
अजीब से भाव रहे होंगे। वही हिमालय जहाँ केरल के किसी चेर राजा ने विजय चिन्ह
अंकित करने का दावा किया था। ऐसे ही विस्मय के बीच आदि शंकराचार्य ने शिव को नमन
किया होगा। अजीब बात है कि शंकराचार्य अद्वैत दर्शन में विश्वास रखते थे, वेदांत
में भरोसा रखते थे लेकिन उन्होंने रत्नै कल्पित मासनं हिमजलै जैसी महान रचना की।
उन्होंने गीता की नव विधा भक्ति की परंपरा के अनुसार शिव जी की पूजा की।
रत्नै कल्पित मासनं हिमजलै में शंकराचार्य
प्रकृति के दिव्य रूप से अभिभूत हैं और शिव को उनके अपने संसार में निहार रहे हैं इस महान गीत में सारी दिव्य वस्तुएँ शंकराचार्य
ने भगवान शिव को भेंट की हैं लेकिन सारी चीजें कल्पना से प्रकट की हुई हैं।
शंकराचार्य की उतनी ही महान रचना देवी से क्षमा
याचना न मंत्रम नो यंत्रम भी है। ईश्वर के दिव्य रूप के समक्ष इतना अभिभूत कवि
शंकराचार्य से पहले कोई नहीं दिखता, उसके बाद तुलसी और निराला हुए होंगे। तुलसी की
समझ मुझमें नहीं, निराला की कविता में जरूर वो रूप दिखता है। इसकी आखिरी पंक्तियाँ
तो एकदम क्लासिकल हैं और साहित्य के इतिहास में इन्हें सबसे ऊँचे दर्जे में रखा
जाना चाहिए।
न मोक्षस्या कांक्षा
भव विभव वांछा पिचन मे
न विज्ञाना पेक्षा
शशि मुखी सुखेक्षा पि न पुनः
अतस्तवाम संयाचे
जननी जननं यातु मम वई
मृडाणी रूद्राणी शिव
शिव भवानी ती जपतः
मुझे मुक्ति की कोई
आकांक्षा नहीं
मुझे धन अथवा ज्ञान
की आकांक्षा भी नहीं
माँ मुझे सुखी होने
की आकांक्षा भी नहीं
पर मैं तुमसे यही
माँगता हूँ
कि जीवन भर मैं
तुम्हारे नाम का स्मरण करता रहूँ।
संस्कृत में लिखी कालिदास की कविताएँ साहित्य की
धरोहर हैं लेकिन अपनी आध्यात्मिक ऊँचाई लिये आदि शंकराचार्य की कविता को आलोचकों
ने अपनी समीक्षा के योग्य नहीं समझा क्योंकि बहुत पहले से ही धार्मिक साहित्य और
लौकिक साहित्य में भेद करने की परंपरा भारत में डाल दी गई, इस मायने में केवल
तुलसी भाग्यशाली साहित्यकार रहे और इस शताब्दी में कबीर भी।
शंकराचार्य की इन दो रचनाओं को जब भी पूजा करते हुए मम्मी गुनगुनाती हैं तो
मुझे लगता है कि शंकराचार्य का योगदान हिंदू धर्म के लिए वैसा ही है जैसा सेंट
पीटर का ईसाईयत के लिए।
हिंदू धर्म ही क्यों, शंकर का योगदान देश को एक सांस्कृतिक ईकाई के रूप में
जोड़ने को लेकर भी है, चारों कोनों पर धार्मिक मठ स्थापित कर शंकर ने इस देश को
जोड़ा।
किताबों में पढ़ा था कि शंकर को प्रच्छन्न
बौद्ध कहा जाता था, उन्होंने बुद्ध के विचारों की आड़ लेकर बौद्ध धर्म को ही नष्ट
कर दिया लेकिन बिना शंकराचार्य पर ज्यादा पढ़े ये दो रचनाएँ ही यह समझ देती हैं कि
हिंदू धर्म के उद्धार के पीछे शंकर की गहरी आध्यात्मिकता, उनके भीतर की विशाल
करूणा और एक मिशनरी का उनका उत्साह बड़ा कारण रहा है।
मुझे तो लगता है कि उनकी कविता ने भी यह कमाल किया होगा, शंकराचार्य यह
समझते होंगे तभी उन्होंने अपने साहित्यकार रूप को पीछे रखा, संन्यासी के रूप पर
इतना बल दिया। अन्यथा उन्हें भी एक साहित्यकार के रूप में बिना अलौकिक शक्ति के एक
आदमी के रूप में खारिज कर दिया जाता और उनके जीवन का असल उद्देश्य पूरा नहीं हो
पाता।