Monday, December 30, 2013

फारूख शेख का जाना


फारूख शेख को विदा करने का सबसे अच्छा तरीका था उनकी फिल्म साथ-साथ के तीन गाने सुन और देख लेना। तुमको देखा तो ये ख्याल आया, ये तेरा घर और प्यार मुझसे किया तो क्या पाओगी। वो बिना इन किया हुआ शर्ट पहनते थे फिर भी दीप्ति नवल फिल्मों में उन्हें प्यार करती थीं, यह देखकर मुझे आश्चर्य होता था। साथ-साथ तो इस मामले में अद्भुत फिल्म थी, दीप्ति नवल उनके पीछे घूमती रहीं पूरी फिल्म में।
एक पत्रकार के जीवन पर इतनी सुंदर फिल्म बन सकती है यह सोचने से परे है लेकिन यह इसलिए बन पाई क्योंकि इसमें फारूख शेख थे। उनके चेहरे पर एक खास तरह की मासूमियत और ईमानदारी थी, चश्मेबद्दूर में जो शरारती केरेक्टर उन्होंने किया था, मुझे लगता है कि असली फारूख वैसे ही रहे होंगे। उनके जाने के बाद मैंने विकीपीडिया में उनके बारे में पढ़ा। जानकर आश्चर्य हुआ कि उनका एकेडमिक रिकार्ड वैसा ही है जैसा चश्मेबद्दूर के केरेक्टर का जो अर्थशास्त्र की पढ़ाई करता है।
दूरदर्शन पर जीना इसी का नाम है प्रोग्राम में भी फारूख शेख अलग रंग में नजर आते थे, इस कार्यक्रम में देखा हेमा मालिनी का एपिसोड बार-बार याद आता है।
साथ-साथ फिल्म देखने के बाद मैंने दीप्ति नवल के वेब पेज पर कमेंट किया था कि रिश्ते ऊपर वाला बनाता है या नहीं मुझे नहीं मालूम, हो सकता है कि यह काम अपने असिस्टेंट के भरोसे छोड़ देता हो लेकिन आपका और दीप्ति नवल का रिश्ता जरूर ऊपर वाले ने बनाया होगा, यह दैवी संयोग से कहीं अधिक है।

Sunday, September 22, 2013

लंच बाक्स


फिल्म कितनी ही खूबसूरत क्यों हो, ध्यान घड़ी पर चला जाता है कि अब कितना समय बाकी है। कुछ फिल्मों में यह इंतजार बड़ा नागवार गुजरता है। विवाह फिल्म तो ऐतिहासिक रही, मैं टॉकीज से इंटर में ही बाहर गया था, पार्किंग कर्मचारी ने पूछा था कि क्या आपकी शादी हो गई है, मैंने कहा नहीं, उसने कहा आप अजीब आदमी हैं कुँआरे तो दो-दो बार देख रहे हैं इसे। एक ऐसी ही नाग-नागिन वाली फिल्म देखने चला गया था, फिल्म के पूरी होते ही मुझे बुखार चढ़ गया और साँप सपने में आने लगे।

तब से मैंने फार्मूला बनाया है कि जिस फिल्म में मैं घड़ी पर नजर डालूँ वो सचमुच अच्छी है। शुद्ध देसी रोमांस इतनी बुरी लगी कि लगा कि बीच में ही चला जाऊँ लेकिन मल्टीप्लेक्स वालों से डर लगता है वो टॉकीज वालों की तरह शालीन नहीं होते, उनके यहाँ पर चिल्ला नहीं सकते, जोर-जोर से हँस नहीं सकते।

वैसे अच्छी फिल्मों के मामले में इंडियन टेस्ट कई मायनों में समानता रखता है अच्छे संवाद और दृश्यों में लोग दाद देते हैं। शुद्ध देसी रोमांस सबके लिए प्रताड़ना की तरह थी, यहीं पर कलाकार की मैच्योरिटी पता चलती है। सुशांत की दोनों फिल्में मैंने देखी है और दोनों ही एवरेज हैं। उनका दोष नहीं वे नये एक्टर हैं जो काम मिलता है करते हैं। आमिर खान ने भी शुरूआती दौर में मन जैसी खराब फिल्में की थीं।

लेकिन जब हम लंच बाक्स देखते हैं तो इसके जादू में खो जाते हैं। ऐसा लगता है कि हमारा मिडिल क्लास सिनेमा हमें वापस मिल गया, इसका हीरो महंगी कारों में नहीं घूमता, वो एलसीडी स्क्रीन पर फिल्में नहीं देखता,  अद्भुत बात यह है कि वो हीरो भी नहीं है वो 60 साल का आदमी है जो रिटायरमेंट की कगार पर खड़ा है।

फिर कुछ ऐसा होता है कि उसकी जिंदगी बदल जाती है। एक दिन खाने का डिब्बा बदल जाता है और सिलसिला शुरू होता है इला से बातचीत का। बातचीत भी क्या, एक छोटे से संवाद से शुरू होती है और उसका रिप्लाई आता है संक्षिप्त सा, डियर इला, साल्ट इज इन हायर साइड, ऐसा ही कुछ।

संवादों का सिलसिला शुरू होता है और आश्चर्य यह होता है कि हीरो की उम्र घटने लगती है उसके अंदर एक युवा का जन्म होने लगता है।

फिल्म का प्रोमो मैंने यूट्यूब पर देखा था, कुछ कमेंट थे कि ऐसी फिल्में एक्सट्रा मैरिटल अफेयर को बढ़ावा देंगी लेकिन फिल्म देखे बगैर ऐसे जजमेंट देना कितना बुरा हो सकता है यह भी मैंने जाना।

आखिर में वो मिलना तय करते हैं और इसके बाद आता है फिल्म में अजीब सा ट्विस्ट जो बिल्कुल भारतीय है।

इस फिल्म का सुख भारतीय घरों के सुख में है। परिवार के सुख में है जब परिवार का सुख दरक जाता है तो जिंदगी भी बिखर जाती है। शायद इसीलिए फिल्म में भूटान का जिक्र है जहाँ जीडीपी नहीं ग्रास हैप्पीनेस इंडेक्स है।

अस्सी तक हमारे मनोरंजन माध्यमों की बनावट ऐसी थी और खुशहाल परिवार उसके केंद्र में थे तब ये जो है जिंदगी जैसे सीरियल और गोलमाल जैसी फिल्में लोकप्रिय हुए।
फिल्म की खूबसूरती इस बात में है कि इसमें दुख है लेकिन निगेटिविटी नहीं, दुख भी कोई हार्ड कोर दुख नहीं।

लंचबाक्स देखते वक्त दर्शक खूबसूरत कमेंट कर रहे थे, एक सुंदर पटकथा पर उतनी ही सुंदर फिल्म चल रही थी। मैं अगर समीक्षक होता तो इसे पाँच में पाँच देता।

Tuesday, September 17, 2013

बेशर्म और खुदगर्ज सियासत



सियासत को देखने का मेरा अनुभव तीन दशक का है लेकिन इसका इतना बेशरम और खुदगर्ज रूप मैंने कभी नहीं देखा जो इन दिनों भारत के उत्तरी सूबे में नजर आ रहा है। इस सूबे की सरकार ने लोकतंत्र की परिभाषा ही बदल कर रख दी है गुंडों की, गुंडों द्वारा चलाई गई और गुंडों के लिए चलाई जा रही सरकार। अगर आपको ऐतराज हो तो गुंडों को बख्श सकते हैं और इसकी जगह ज्यादा इज्जतदार शब्द माफिया को जगह दे सकते हैं जो रेत से लेकर रेल के ठेकों तक हर मौजूद है।
 उन्होंने अपना जमीर खो दिया है लेकिन इज्जत खूब कमा ली है क्योंकि वहाँ इज्जत अब जमीर में नहीं रही, वो रूतबे में पलती है। जब मैडम गद्दी में थी तब मैडम के चप्पल उठाया करते थे, अब कुँअर साहब गद्दी में है तो उनके जूते साफ करते हैं। इस उत्तरी सूबे में केवल चेहरे बदल जाते हैं चरित्र नहीं बदलते। जब स्टिंग आपरेशन होते हैं तो सब हमाम में नंगे हो जाते हैं और नंगों की इतनी फौज खड़ी हो जाती है कि यकीन कर पाना मुश्किल होता है कि सियासत ने सभ्यता की राह में दो-चार कदम बढ़ाए भी या नहीं।
लूटी-पिटी और दागदार हो चुकी सियासत को बचाने वे न्यूज चैनलों में अपने नुमायंदे भेजते हैं फेस सेविंग की इस कोशिश में उनके दाग और फैल जाते हैं। स्टिंग आपरेशन में दिखाए तथ्यों से इंसानियत भले ही तार-तार हो जाए, मेहमानों की चुहल देखते ही बनती है आखिर लाइट मूड में ही तो बेहतर संवाद हो पाता है।

Thursday, August 29, 2013

लिव लाइफ किंग साइज




सिगरेट में कभी दिलचस्पी नहीं रही, केवल इतनी कि इसकी बनावट बहुत सुंदर होती है और बचपन में इसका रेपर अच्छा लगता था। उन दिनों फोर स्क्वायर की सिगरेट का एक एड आता था। मैगजीन में अंग्रेजी के विज्ञापन में ऊपर चार शब्द लिखे होते थे लिव लाइफ किंग साइज। इसमें जादू था, उसके हाथों में सिगरेट होती थी, चारों ओर किताबें, टेबल पर एक प्रोजेक्ट, उसके आँखों में बड़े सपने थे। मुझे लगता कि वो शख्स ऐसे ही जिंदगी जीता भी है लिव लाइफ, किंग साइज। इस एड को देखकर मैंने मन में एक बिंब बना लिया था कि मैं सबसे बड़ी प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करूँगा, ऐसे ही एक रूम में, हाँ सिगरेट मेरे हाथों में नहीं होगी।
बाद में यह एड आना बंद हो गया.... एक बार काफ्का की सेल्समैन पर एक कहानी का एक हिस्सा कहीं पढ़ने मिला, उसकी एक लाइन थी, एक सुबह वो सोकर उठा और उसने देखा कि वो अपनी जिंदगी में कीड़े की तरह रेंग रहा है, उसके जीवन का कोई अस्तित्व नहीं, केवल कीड़े की तरह। व्यर्थ।
लिव लाइफ किंग साइज का यह एड उस वक्त फिर याद हो आया....... हम सब की डेस्टिनी किंग की तरह होती है लेकिन हम उसे क्या बना देते हैं काफ्का के उसी सेल्समैन की तरह, क्योंकि जिंदगी के हर जरूरी मौके पर हम अपना साहस कायम नहीं रख पाते, हम छोटी-छोटी छुद्रता के लिए अपनी गरिमा खो देते हैं।
इस एड को सोचते हुए और भी कई बातें दिमाग में आती हैं नशे के बारे में भी, क्या हम गाफिल होकर ही अपने सपनों को पा सकते हैं। क्या किसी नशे के बगैर अथवा वृहत्तर रूप में सोचें तो क्या किसी साथ के बगैर अकेले ही हम अपने महान उद्देश्यों की ओर नहीं बढ़ सकते। यह काफी कठिन है मुझे वो शेर याद आता है।
मैं मैकदे की राह पर आगे निकल गया, वरना सफर हयात का काफी तवील था।

फिर भी मुझे लगता है कि पान-मसाला और गुटखा की तुलना में सिगरेट बड़ी चीज है उसके पीने में थोड़ी ज्यादा गरिमा है। मुँह में रजनीगंधा, कदमों में दुनिया जैसे विज्ञापनों की तुलना में लिव लाइफ, किंग साइज में ज्यादा गहरापन है।
वैसे नशे के इतने सारे तर्कों के बीच और देवानंद को सिगरेट पीते देखकर दिल के बहुत खुश होने के बावजूद भी शाहिद कपूर का मौसम फिल्म में कहा हुआ वो डॉयलॉग मुझे सब पर बहुत भारी लगता है। मैं नशा नहीं करता क्योंकि मुझे लगता है कि जीवन का नशा सबसे बड़ा नशा है।




Wednesday, August 14, 2013

कल मैं दोनों भाषण नहीं सुनुँगा................

 अभी फेसबुक पर नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी के पेज पर गया, नरेंद्र मोदी को लाइक करने वालों की संख्या थी २९ लाख, राहुल गांधी को पसंद करने वाले २ लाख, यानी यहाँ भी .... फेल, .... पास। इनके पेज में अपने फेसबुक दोस्तों को देखा। दो राहुल गांधी को पसंद करने वाले और दस नरेंद्र मोदी को पसंद करने वाले। साफ है हवा मोदी के पक्ष में है।
                                       मेरे अधिकतर दोस्त नरेंद्र मोदी को पसंद करते हैं लेकिन उनके विरोध की आफत को मोल लेते हुए भी मैं अपने अंदर की आवाज लिखना चाहता हूँ जिससे मुझे संतोष होगा।

जो मैं कहना चाहता हूँ वो कुछ यूँ है...........

कल प्रधानमंत्री का भाषण लाल किले से होगा, दशक भर से चल रही परंपरा के अनुकूल यह भाषण हम जैसों को बेहद उबाऊ लगेगा, भाषण के कुछ बिन्दुओं को छोड़कर जिनमें प्रधानमंत्री हर साल की तरह पाकिस्तान को प्रेम भरी नसीहत देंगे और अंत में कह देंगे कि देश इसे सहन नहीं करेगा, अन्य हिस्सों को लिखने में प्रधानमंत्री के भाषण लेखकों को काफी दिक्कत का सामना करना होगा। या वे हर बार कहते जाएंगे, हमारे सामने कठिन चुनौतियाँ है लेकिन हम इसका सामना दृढ़ता से करेंगे। वे इतने भावहीन अंदाज में इतनी बड़ी बातें कह जाएंगे कि साल भर में एक दिन जगने वाला हमारा राष्ट्रप्रेम भी सो जायेगा।


एक भाषण गुजरात से होगा, यह भाषण ओजमयी होगा, वक्ता सीधे प्रधानमंत्री को टारगेट करेंगे, दिल्ली की सरकार को टारगेट करेंगे। मित्रों गुजरात में... जैसे शब्द उनके भाषण में भी आएंगे, पहले के उलट इसकी भाषा इतनी कठोर होगी कि मैं उत्तेजना से नहीं, एक अजीब से विषाद से भर जाउँगा। क्या गांधी के देश में दुश्मन के प्रति भी इतना सख्त लहजा उपयोग में लाया जा सकता है?


दो भाषण होंगे, एक पीएम के और दूसरा पीएम इन वेटिंग के, दोनों ही भाषणों में कुछ चीजें मैं मिस कर जाऊँगा जो मैं हर साल भावपूर्ण होकर वाजपेयी जी के भाषण में सुनता था। उनका भाषण किसी को टारगेट नहीं करता था, किसी को चुनौती नहीं देता था, वो आत्मस्वाभिमान का प्रकटीकरण मात्र होता था। एक ऐसा भाव जो भारत का केंद्रीय भाव है। भारत किसी देश से छोटा या बड़ा नहीं होना चाहता, अन्य देशों की तरह उसका अपना वैशिष्ट्य है। उनका भाषण चुनाव के मकसद से नहीं होता था, वे प्रधानमंत्री के रूप में चीजों को देखते थे, कड़े फैसले लेते थे लेकिन जो सरकारें दामादों की बैसाखियों पर टिकी रहती हैं उनके नेता क्या इतना प्रखर भाषण दे सकते हैं। दो भाषण होंगे, एक भाषण बिल्कुल अर्थहीन और दूसरा भाषण राजनीतिक निहितार्थ लिये, इसके बड़े इम्पैक्ट भारत के भविष्य पर पड़ सकते हैं।

कल मैं दोनों भाषण नहीं सुनुँगा................

Friday, August 2, 2013

रत्नै कल्पित मासनं हिमजलै.......



फाक्स हिस्ट्री ने गंगा पर एक कार्यक्रम बनाया था गंगेज. , इसकी प्रस्तुति विलयम डेलरिंपल ने की। गंगा की यात्रा गोमुख से शुरु होती है। विलियम डेलरिंपल बताते हैं कि गंगोत्री से गोमुख १३ किमी दूर है अधिकांश लोग गंगोत्री से लौट जाते हैं। संभवतः पहले गोमुख यहीं रहा हो। थोड़े यात्री गोमुख तक पहुँच पाने का साहस करते हैं। डाक्यूमेंट्री में जब विलियम को गोमुख की ओर बढ़ते देखा तो अजीब सी सिहरन शरीर में फैल गई। गोमुख के किनारे एक अगरबत्ती जल रही थी। बैकग्राउंड में जिस श्लोक का चयन किया गया वो था शिव मानस स्रोत.............रत्नै कल्पित मासनं हिमजलै.....। शिव और गंगा के इतने सारे श्लोकों के होने के बावजूद डेलरिंपल ने इस श्लोक का चयन क्यों किया होगा? शायद ये उनका आदि शंकराचार्य के प्रति आदर भाव था।
                                                     केरल के कलादि से निकलकर जब आदि शंकराचार्य हिमालय में गंगोत्री पर पहुँचे होंगे तो उनके मन में हर्ष और विस्मय के अजीब से भाव रहे होंगे। वही हिमालय जहाँ केरल के किसी चेर राजा ने विजय चिन्ह अंकित करने का दावा किया था। ऐसे ही विस्मय के बीच आदि शंकराचार्य ने शिव को नमन किया होगा। अजीब बात है कि शंकराचार्य अद्वैत दर्शन में विश्वास रखते थे, वेदांत में भरोसा रखते थे लेकिन उन्होंने रत्नै कल्पित मासनं हिमजलै जैसी महान रचना की। उन्होंने गीता की नव विधा भक्ति की परंपरा के अनुसार शिव जी की पूजा की।
            रत्नै कल्पित मासनं हिमजलै में शंकराचार्य प्रकृति के दिव्य रूप से अभिभूत हैं और शिव को उनके अपने संसार में निहार रहे हैं  इस महान गीत में सारी दिव्य वस्तुएँ शंकराचार्य ने भगवान शिव को भेंट की हैं लेकिन सारी चीजें कल्पना से प्रकट की हुई हैं।
               शंकराचार्य की उतनी ही महान रचना देवी से क्षमा याचना न मंत्रम नो यंत्रम भी है। ईश्वर के दिव्य रूप के समक्ष इतना अभिभूत कवि शंकराचार्य से पहले कोई नहीं दिखता, उसके बाद तुलसी और निराला हुए होंगे। तुलसी की समझ मुझमें नहीं, निराला की कविता में जरूर वो रूप दिखता है। इसकी आखिरी पंक्तियाँ तो एकदम क्लासिकल हैं और साहित्य के इतिहास में इन्हें सबसे ऊँचे दर्जे में रखा जाना चाहिए।

न मोक्षस्या कांक्षा भव विभव वांछा पिचन मे
न विज्ञाना पेक्षा शशि मुखी सुखेक्षा पि न पुनः
अतस्तवाम संयाचे जननी जननं यातु मम वई
मृडाणी रूद्राणी शिव शिव भवानी ती जपतः

मुझे मुक्ति की कोई आकांक्षा नहीं
मुझे धन अथवा ज्ञान की आकांक्षा भी नहीं
माँ मुझे सुखी होने की आकांक्षा भी नहीं
पर मैं तुमसे यही माँगता हूँ
कि जीवन भर मैं तुम्हारे नाम का स्मरण करता रहूँ।


 संस्कृत में लिखी कालिदास की कविताएँ साहित्य की धरोहर हैं लेकिन अपनी आध्यात्मिक ऊँचाई लिये आदि शंकराचार्य की कविता को आलोचकों ने अपनी समीक्षा के योग्य नहीं समझा क्योंकि बहुत पहले से ही धार्मिक साहित्य और लौकिक साहित्य में भेद करने की परंपरा भारत में डाल दी गई, इस मायने में केवल तुलसी भाग्यशाली साहित्यकार रहे और इस शताब्दी में कबीर भी।
                                        शंकराचार्य की इन दो रचनाओं को जब भी पूजा करते हुए मम्मी गुनगुनाती हैं तो मुझे लगता है कि शंकराचार्य का योगदान हिंदू धर्म के लिए वैसा ही है जैसा सेंट पीटर का ईसाईयत के लिए।
                                                   हिंदू धर्म ही क्यों, शंकर का योगदान देश को एक सांस्कृतिक ईकाई के रूप में जोड़ने को लेकर भी है, चारों कोनों पर धार्मिक मठ स्थापित कर शंकर ने इस देश को जोड़ा।
                                                किताबों में पढ़ा था कि शंकर को प्रच्छन्न बौद्ध कहा जाता था, उन्होंने बुद्ध के विचारों की आड़ लेकर बौद्ध धर्म को ही नष्ट कर दिया लेकिन बिना शंकराचार्य पर ज्यादा पढ़े ये दो रचनाएँ ही यह समझ देती हैं कि हिंदू धर्म के उद्धार के पीछे शंकर की गहरी आध्यात्मिकता, उनके भीतर की विशाल करूणा और एक मिशनरी का उनका उत्साह बड़ा कारण रहा है।
                                                     मुझे तो लगता है कि उनकी कविता ने भी यह कमाल किया होगा, शंकराचार्य यह समझते होंगे तभी उन्होंने अपने साहित्यकार रूप को पीछे रखा, संन्यासी के रूप पर इतना बल दिया। अन्यथा उन्हें भी एक साहित्यकार के रूप में बिना अलौकिक शक्ति के एक आदमी के रूप में खारिज कर दिया जाता और उनके जीवन का असल उद्देश्य पूरा नहीं हो पाता।
                                                      
                                                

Monday, July 22, 2013

ईश्वर आप इस वक्त क्या कर रहे होंगे?

भगवान इस वक्त क्या रहे होंगे, ये मेरी प्राथमिक दिलचस्पी का विषय है? क्या इस दौर में उनका रूटीन वैसा ही होगा, जैसा सतयुग में, द्वापर अथवा त्रेता में था? सतयुग का उनका रूटीन तो आँखों के सामने झलक जाता है। वे क्षीर सागर में सोये हैं। लक्ष्मी पैर दबा रही हैं। उनका पीआरओ नारद बहुत एक्टिव है डेली न्यूज सुना जाता है। जय-विजय उनके द्वारपाल हैं। घमंड से भरे हुए। इससे ज्यादा कुछ नहीं मालूम उनके बारे में। अब कलियुग में कैसा सिस्टम है। नारद की भूमिका का विशेष मतलब नहीं होगा उनके लिए, वे आईफोन इस्तेमाल करते होंगे, भक्तों की सारी शिकायतें आनलाइन दर्ज हो जाती होंगी निराकरण भी होता होगा और कुछ शिकायतें पड़ी रह जाती होंगी।
                                                      धरती पर चढ़ाए गए सारे फूल उन तक पहुँच जाते होंगे लेकिन पहले जैसे नहीं। ईश्वर तक फूल पहुँचते रहे, यह ईश्वर से मेरी सबसे बड़ी प्रार्थना है। कल न्यूज में राजेश खन्ना की बरसी पर एक कार्यक्रम दिखा रहा था, जब वे सुपरस्टार थे तो रोज एक ट्रक फूल उनके घर तक पहुंचते थे और उनका बंगला आशीर्वाद फूलों से महक जाता था, जब अमिताभ आये तो उनके स्टारडम की चमक फीकी हो गई और एक दिन ऐसा हुआ कि एक फूल भी उनके बंगले में नहीं आया।
              धरती से उनका संबंध काफी कम हो गया होगा, क्योंकि कलियुग के बारे में उन्होंने पहले ही चुनौती दे दी थी लेकिन उन्हें धार्मिक सीरियल देखना अच्छा लगता होगा, उन्हें कलियुग में भी त्रेता का आभास जरूर मिला होगा जब उन्होंने रामानंद सागर का सीरियल रामायण देखा होगा और जब नीतीश भारद्वाज महाभारत में गीता का संदेश दे रहे होंगे तो उन्हें जरूर भ्रम हुआ होगा कि कहीं द्वापर लौट तो नहीं आया और उन्होंने कृष्ण का रूप एक बार फिर धर लिया है।
                                         वे धरती से जरूर दुखी होंगे, इसलिए उन्होंने आकाशवाणी भी नहीं की, सतयुग में इस बात का संतोष था, आकाशवाणी होती थी और ईश्वर कई बार तफरीह के लिए धरती में भी आ जाते थे।
                                                      क्या अपने लोक में वे सनातन सुख भोग रहे होंगे? जब-जब दिव्यलोक के ऐसे पौराणिक किस्से सुनने मिलते हैं मुझे जयदेव के गीत गोविंद की वो लाइनें जरूर याद आती हैं।
वसति विपिन विताने, त्यजति ललित धाम
लुठति धरणि शयने, बहु विलपति तव नाम
  अपने ललित धाम को छोड़कर , सूर्य की रश्मियों से आलोकित गोलोक को छोड़कर कृष्ण धरती में सोते हैं राधिका का नाम लेते हैं.........
                                             कलियुग अपने अंतिम छोर की ओर बढ़ रहा है और चमत्कार नहीं हो रहे, आखिरी आध्यात्मिक कहानी विवेकानंद और रामकृष्ण की सुनी। अपने थोड़े से अंश में ईश्वर गांधी जी के साथ भी आ गये थे। अब कहीं नहीं है केवल उन करोड़ों बच्चों की मुस्कान में ही वे खिल जाते हैं हरदम, इसके अलावा कलियुग में उनकी दिलचस्पी धरती से एकदम घट गई है।

Saturday, July 20, 2013

स्कूल की पहली स्मृति





 स्कूल की सबसे पहली स्मृति दल्ली राजहरा की है। दो-तीन बातें ही याद रह गई हैं। पहली तो यह कि कक्षा की खिड़कियों से पहाड़ियाँ दिखती थीं, उस समय पहाड़ियाँ हरी-भरी थीं। बैठने के लिए डेस्क की व्यवस्था थी। मैं देर तक पहाड़ियों की ओर देखता रहता था। न टीचर याद हैं न साथ के बच्चे। केवल एक दोस्त था उसका नाम था दामोदर, वो इसलिए याद है कि उसके हाथों में छह ऊँगलियाँ थीं। स्कूल में पढ़ा हुआ कुछ भी याद नहीं, बस एक पाठ याद आता है नैतिक शिक्षा का। एक साधु की कहानी थी, उसे एक बिच्छू काट रहा था लेकिन वो कष्ट सह रहा था। घर आकर नये अक्षर लिखना सीखता था, जीवन का सबसे पहला कठिन अनुभव यही था लेकिन इसका लाभ हुआ, मैं कविता पढ़ना सीख गया था और बहन की क्लास फोर्थ की एक कविता मुझे बहुत अच्छी लगती थी, खूब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी।
                                                        स्कूल की इतनी कम स्मृतियाँ इसलिए हैं कि मैं शायद ही कभी स्कूल जाता था, घर से टिफिन लेकर पापा के साथ निकलता था, जिद करता था पहाड़ दिखाओ, पहाड़ के ऊपर वाला मंदिर दिखाओ, बस मैं टाइम पास करना चाहता था लेकिन एक अजीब किस्म का अपराध बोध भी मेरे मन में घिरता था। मुझे उस दौर में कापियाँ बहुत अच्छी लगती थीं। उस समय सरकारी राशन दुकानों में कापियाँ भी मिलती थीं, उनकी प्रिंटिंग क्वालिटी बहुत अच्छी होती थी। हमारा स्कूल बहुत प्रोग्रेसिव था और अच्छे नंबर पाने वालों बच्चों को कॉपियाँ गिफ्ट की जाती थीं, ऐसे ही एक मौके पर जब प्रतिभाशाली बच्चों को कॉपियाँ बंटी, मैं बहुत निराश हुआ, कॉपी बहन को मिली, मुझे नहीं। बच्चों को गणवेश भी फ्री में बाँटे जाते थे, मुफ्त की चीजों में मुझे हमेशा से रुचि थी लेकिन जब मैं गणवेश लेने पहुँचा तो बताया गया कि गणवेश नियमों के अनुसार मिलेंगे और कुछ ही बच्चों को मिलेंगे।
                                                               बचपन का असल रंग मैंने शाम को देखा, शाम को बहुत से बच्चे इकट्ठे हो जाते थे, शाम को पहाड़ी से सूर्य ढलता था और एक रेस लगती थी बच्चों में कौन सूरज को पकड़ेगा। सूरज और चाँद की तुलना में मैं सूरज के अधिक करीब था क्योंकि एक कहानी सुन रखी थी। एक बूढ़ी माँ के दो बच्चे थे चाँद और सूरज। वो उन्हें एक जगह खाना खिलाने ले गई। यहाँ कुछ हादसा हुआ और चाँद ने बूढ़ी माँ के साथ बदमाशी की, तब मुझे लगने लगा कि सूरज अच्छा है चाँद बुरा। पर चाँद के बारे में धारणा बदली, हम लोग दूसरी मंजिल में रहते थे और हर दिन चाँद दिखता था, एक बार शाम ढलने के समय मैंने चाँद को अपनी छत से देखा, वो इतना बड़ा, इतना करीब था कि मुझे अजीब सी अनुभूति हुई। यह घटना मुझे आध्यात्मिक अनुभव की तरह लगती है। शायद चाँद के ऐसे ही कौतूहल ने श्री कृष्ण को यह कहने के लिए प्रेरित किया होगा, मैंया मैं तो चंद्र खिलौना लेहौं।

Sunday, July 7, 2013

सरकारें भूल रही पहली प्राथमिकता





बीती रात इंडिया न्यूज ने केदारनाथ हादसे से ठीक पहले दिन का फूटेज जारी किया, उसमें एक बच्चे को गौरीघाट से ऊपर पालकी वाले ले जा रहे थे। बच्चा रो रहा था, शायद उसे डर था कि उसे कहाँ ले जाया जा रहा है? अगले दिन बच्चे के साथ क्या हुआ, हम नहीं सकते? अजीब सा यह दृश्य था, इसे देखकर डिस्कवरी चैनल में देखा हुआ हिटलर के पोलैंड स्थित आश्वित्ज कैंप का दृश्य याद आ गया। एक दिन कैंप के अधिकारियों ने पकड़े हुए छोटे यहूदी बच्चों को बुलाया। उन्हें एक बिल्डिंग का मुआयना कराना था। बच्चे बहुत खुश थे, बच्चों के कपड़े निकलवा लिए गए। उन्हें कतार से बिल्डिंग के भीतर भेज दिया गया। दरवाजा बाहर से बंद कर दिया गया और जहरीली गैस अंदर छोड़ दी गई। इस तरह गोरिंग और हिटलर ने अपने फाइनल साल्यूशन को मूर्त रूप दे दिया।

                                   इन दो घटनाओं की समता नहीं की जा सकती लेकिन मेरे मन में इसके बाद तत्काल यही बिंब उभरा। इतने छोटे बच्चे जिन्होंने अभी जीवन शुरु भी नहीं किया था जिन्होंने पहाड़ केवल जैक एंड जिल जैसे पोयम्स में ही जाने थे, उनके लिए जीवन के इतने डरावने रूप को देखना कितना भयावह होगा? इसका दोष किसे है? इसका मंथन हमें करना होगा? तभी हमारे बचे रहने की सूरत नजर आयेगी?
          मुझे लगता है कि सबसे पहला प्रश्न राजनीति के स्वरूप पर होना चाहिए कि हमें सरकार आखिर क्यों चाहिए और इस दौर में सरकार की जरूरत हमें सबसे पहले किस चीज के लिए है। अगर परंपरा में इसकी जड़ें ढूँढे तो एक कहानी मिलती है बौद्ध ग्रंथों में। पहले लोग सुखी रहते थे, लेकिन जब संपत्ति का उदय हुआ तो लोगों में झगड़े होने लगे, इनके निपटारे के लिए और इन पर नियंत्रण रखने के लिए एक समवेत शक्ति का गठन किया गया जिसे राज्य का रूप दिया गया और इसका प्रधान राजा कहलाया। अर्थात राजा जो सुरक्षा दे। हिंदू ग्रंथों में भी यही बात है जब धरती में अत्याचार बढ़ गए तो देवताओं ने पृथु को धरती पर राज्य करने भेजा। उसने राक्षसों का दमन किया और लोगों को सुरक्षा दी।
                   नई सरकारों के लिए सुरक्षा सबसे आखिरी विषय होता है क्योंकि लोगों को सुरक्षा देने से उन्हें वोट नहीं मिलते, कुंभ मेले में सिक्योरिटी बढ़ा दी जाए तो जनता का ध्यान उस पर नहीं जाएगा, हाँ यहाँ पर सरकार द्वारा प्रायोजित भंडारा खोल दिया जाए तो पब्लिक जरूर दुआ देगी, कई चीजें जो पब्लिक को बहुत अच्छी लगती है और इससे वोट भी भरपूर मिलते हैं और इनसे विकास भी होता है वो राजनेताओं को बहुत भाती है क्योंकि इनसे उनकी जेबें भी भरती हैं। लोगों को सुकून के लिए हर पल बिजली देना भी उनमें से एक है। यह पूरी तौर पर विन-विन सिचुएशन होती है। पर्यटन भी ऐसा ही धंधा है। उत्तराखंड सरकार ने तमाम आशंकाओं के बावजूद लाखों लोगों को केदारघाटी में आने दिया। पर्यटकों को बड़ी आबादी को पोषित करने के लिए उत्तराखंड की आधारिक संरचना को झोंक दिया गया और पहाड़ों को खोखला कर दिया गया। इससे अनिष्ट आना ही था। एक बार अरूंधति राय ने वीक में एक आलेख लिखा था, उसकी हेडिंग मेरे दिमाग में आज तक कौंधती है। बिग डैम एवं न्यूक्लियर वीपन आर वीपन ऑफ मॉस डिस्ट्रक्शन।
                    गांधी की बातें उस दौर में पाश्चात्यवादियों को बकवास लगती थी लेकिन जब वे कहते थे कि हमें अपनी आवश्कताएँ सीमित रखनी चाहिए तो इसके पीछे गहरी सोच छिपी थी।
                   उत्तराखंड की विपदा को हमें नहीं भूलना चाहिए, हमारे समय के संकट से जूझने के लिए इसे सबक के रूप में याद रखना चाहिए और कुछ सचमुच में संतोष देने वाली चीज करने की कोशिश करनी चाहिए। इस समय थियो को लिखा वॉन गॉग का एक पत्र याद आ रहा है जिसमें उन्होंने रेनन को उद्धत करते हुए लिखा था। मनुष्य इस धरती में केवल खुश होने के लिए नहीं भेजा आया, वो केवल इमानदार होने के लिए भी नहीं भेजा गया, उसे भेजा गया है कुछ बड़ा हासिल करने, महान कार्य करने और उस क्षुद्रता से बाहर निकलने जिसमें हम सबका अस्तित्व घिसटता रहता है।



Sunday, June 23, 2013

उत्तराखंड की घटना के लिए क्या हम दोषी नहीं?





हरिद्वार की एक पुरानी स्मृति हमेशा याद आती है। देर शाम जब हम लोग परिवार सहित इस शहर में पहुँचे तो थोड़ा विश्राम कर हर की पौड़ी चले आए। यहाँ मैंने और मेरी बहन ने फूल के दो दोनें खरीदे। इनमें एक-एक दिया जल रहा था। हमने इसे गंगा जी में बहा दिया। दोना लहरों से संघर्ष करता हुआ कुछ आगे बढ़ा और गंगा जी में विलीन हो गया। पंखुड़िया गंगा में बहती दिखीं। अरसे तक जब भी मन में कोई द्वेष घिरता था, मैं इस बिंब को याद करता। सोचता कि मैंने जैसे फूल गंगा जी में बहा दिया, वैसे ही अपना अहंकार भी, अपनी चिंताएं भी बहा रहा हूँ।
                                     यहाँ स्नान कर मिली पवित्रता से पता चला कि आखिर भागीरथ को गंगा को धरती पर लाने की जरूरत क्यों पड़ी? इस घटना के एक दशक बाद मेरी मम्मी हरिद्वार गई। उन्होंने बताया कि गंगा में अब वैसा प्रवाह, वैसी कलकल ध्वनि नहीं रही जो दशक भर पहले थी। उन्होंने कहा कि मुझे वैसा आत्मिक संतोष महसूस नहीं हुआ। माँ ने इसका कारण भी बताया, उन्होंने बताया कि एक बाँध बना है ऊपर गंगा में, जिसकी वजह से यह प्रवाह बाधित हो गया। उनका इशारा टिहरी बांध की ओर था।
               उत्तराखंड आगे बढ़ रहा था और किसी को ध्यान नहीं था कि आपदा इंतजार कर रही है। पिछले साल जब बाबा रामदेव दिल्ली के जंतर-मंतर में अनशन कर रहे थे, उसी समय एक अनाम से कोई संन्यासी गंगा में अवैध खनन कर रहे माफिया के खिलाफ संघर्ष में बैठे थे, अंततः उन्होंने जान दे दी लेकिन किसी ने प्रतिक्रिया नहीं दी। आज जब गंगा ने अपनी सीमाएँ लाँघ दी, तब पहाड़ों पर हो रही छेड़छाड़ सबको दिख रही है।
       हममें से अधिकांश घटना की भयावहता के लिए सरकार को जिम्मेवार ठहरा रहे हैं लेकिन सच तो यह भी है कि विकास हमें भी चाहिए और हम विकास के साइड इफेक्ट्स झेलने के लिए भी तैयार नहीं। हमें घरों में अबाधित बिजली चाहिए, नई गाड़ियाँ चाहिए, सारी सुख-सुविधाएँ चाहिए। मेरे एक बहुत अजीज रिश्तेदार हैं वे कहते हैं कि एसी के बगैर उन्हें नींद ही नहीं आती। एक करीबी मित्र के घर मैं जाता हूँ उनके यहाँ खाना हीटर से बनता है और वे अपना घरेलू सिलेंडर बेच देते हैं। उनके यहाँ सारे कमरों में पंखे-बिजली चौबीस घंटे चलते हैं। मैं खुद भी लाइट और पंखे चलाकर भूल जाता हूँ और दूसरे कमरे में चला जाता हूँ।
                     पहले थोड़ी परवाह होती थी क्योंकि मीडिया उद्देश्यपरक था। एक एड आता था दूरदर्शन के दिनों में, एक आदमी ब्रश करते हुए वाश बेसिन का नल चला देता है और ब्रश करने के दौरान पानी बहते रहता है। आखिर में टैग लाइन होती, जो पानी साल भर में बर्बाद हुआ, उससे गेंहूँ के एक खेत की सिंचाई हो सकती थी।
                 
                                  उत्तराखंड में जिन लोगों की जिंदगियाँ गईं, उसके पीछे दोषी हम भी हैं, विकास के नाम पर जो प्रकृति को नष्ट किया गया, उसका सुख तो हमने उठाया लेकिन उसकी कीमत केवल उन्होंने चुकाई जो दुर्भाग्य से उस दिन उत्तराखंड में मौजूद थे।
                         

Friday, June 21, 2013

जो अपने घर कभी नहीं आएंगे................



 आफिस से घर आने पर जब मेरी बेटी खुश होकर मुझसे लिपटती है तो एक अजीब सी संवेदना मुझे घेर लेती है। उन हजारों लोगों के प्रति जिन्होंने अपने परिजनों को उत्तराखंड में खो दिया। अब वे कभी नहीं आएंगे। सबसे वीभत्स तो यह कि इन धार्मिक यात्रियों की वे अंत्येष्टि भी नहीं कर पाएंगे। लाशें चारों ओर बिखरी हैं जो जिंदा बच गए हैं उन तक भी सहायता नहीं पहुँच पा रही है। एक माँ की व्यथा आज पढ़ी कि मेरे बच्चों पर बम गिरा दो लेकिन मैं उन्हें भूख से मरते नहीं देख सकती।
                                          राष्ट्रीय आपदा के इस क्षण में क्या इस देश को वैसा ही संकल्प नहीं दिखाना चाहिए जैसा अमेरिका में ९-११ के वक्त दिखा था फायर ब्रिगेड के कितने लोगों ने अपनी जान दी थी लेकिन इस देश की कितनी विडंबना है कि लोग विपदा में फंसे लोगों की मदद के बजाय उनसे बलात्कार करते हैं मृत लोगों के गहने और पैसे निकालते हैं। क्या मंत्रियों को अपने सारे हेलिकॉप्टर बाढ़ आपदा के लिए नहीं भेज देने चाहिए, क्या मंहगे एंटीलिया में रहने वाले और केदारनाथ की कृपा से करोड़ों बनाने वाले मुकेश अंबानी को थोड़ी सी सहायता अपने साथी भक्तों की नहीं करनी चाहिए। दुख की इस घड़ी में करने को बहुत कुछ है कितने लोग फंसे हुए हैं। अगर शासन तंत्र और पूंजीपति चाहे तो कितने घरों के चिराग लौटाए जा सकते हैं।
                                  जब छोटा था और जब किसी हादसे की खबर आती थी तो सोचता था कि आदमी के मर जाने पर लाश का क्या, लाश न मिले, अंतिम संस्कार न हो तो भी क्या? बाद में पता चला कि एक हिंदू के लिए अंतिम संस्कार का कितना महत्व है। हम गीता को मानते हैं जिसमें लिखा है कि आत्मा केवल वस्त्र बदलती है और एक संस्कार के रूप में अंतिम संस्कार कितना जरूरी होता है।
                                                        एक भजन याद आता है कभी प्यासे को पानी पिलाया नहीं, फिर गंगा नहाने से क्या फायदा? मैं यह भजन उनके लिए नहीं याद कर रहा हूँ जो केदारनाथ में गए और जिनकी जान चली गई। उनमें से बहुत से शुद्ध हृदय से गए थे। यह भजन इसलिए याद कर रहा हूँ कि ईश्वर को प्राप्त करने के लिए कर्मकांड जरूरी नहीं, शुद्ध हृदय से की गई प्रार्थना जरूरी है।
                                      एक मित्र ने अभी बताया कि उनके पेरेंट्स हर साल केदारनाथ जाते हैं। इतनी कठिन और जोखिम भरी यात्रा करने की क्या जरूरत? यह अजीब लगता है कुंभ मेले में भी भयंकर भीड़ को सहते हुए लाखों लोग पहुँच जाते हैं और हमेशा हादसे होते हैं? ऐसी अंधश्रद्धा का क्या करें?
                                                       दस साल पहले की कैलाश मानसरोवर का वाकया मुझे याद आता है। उस दल में कत्थक नृत्यांगना प्रोतिमा बेदी भी गई थीं। भारी भूस्खलन हुआ, बहुत थोड़े लोग बच पाए। एक माँ ने कहा कि मेरा बेटा शिव के दर्शन के लिए गया है वो जरूर वापस आयेगा। वो नहीं लौटा होगा और माँ पर क्या गुजरी होगी, हम सोच सकते हैं। ऐसे सबक हम भूल जाते हैं और तफरीह के लिए ऐसा जोखिम ले लेते हैं जिसकी हम सपने में भी कल्पना नहीं कर सकते।