Thursday, December 17, 2015

बस्तर में मृतक स्तंभ



बस्तर की अंदरूनी सड़कों पर अक्सर पेड़ों में डंगालों में कलश मिल जाते हैं पास ही जली हुई चिता की राख और करीब में बैठे परिजन। यहाँ मौत पर स्यापा नहीं होता। जैसा हमारी अदालतों में होता है किसी को मृत्यु दंड देने से पहले पूछ लिया जाता है कि तुम्हारी आखरी इच्छा क्या है फिर संभव हुआ तो उसकी इच्छा पूरी कर दी जाती है ताकि मरते वक्त अपनी एक रुचि पूरी कर सके, उसकी आत्मा का बोझ थोड़ा सा ही सही कम किया जा सके। ऐसे ही यहाँ भी मरने के बाद वैसे ही कृत्य किए जाते हैं जैसे मृतक अपनी जिंदगी में पसंद करता था। अगर वो नृत्य पसंद करता था तो अहर्निश नृत्य प्रस्तुत किया जाता है। अगर उसकी रुचि गीतों में हैं तो गीत प्रस्तुत किए जाते हैं। फिर उसके पसंद का आहार। ऐसा नौ दिन चलता है।
फिर उसकी स्मारक पर एक पत्थर रख दिया जाता है और उसकी पसंद की चीज यहाँ चित्रित कर दी जाती है। पूरे बस्तर में महापाषाणकालीन स्तंभ बिखरे हैं जो बताते हैं कि इसका इतिहास कितना पुराना है। दिल्ली, मुंबई और कोलकाता से बहुत पुराना और ये लोग ऐसे लोग हैं जो तीन हजार साल या उससे भी पहले इसी इलाके में ऐसा ही जीवन जीते आए हैं।
 अपने पूर्वजों की स्मृतियों को सबसे सुंदर तरीके से रखने के लिए उन्होंने काष्ठ स्तंभ बनाए हैं। इन काष्ठ स्तंभों में शिकार के दृश्य हैं। प्रेम के दृश्य हैं और अजीब बात है कि सैकड़ों बरसों में भी यह खराब नहीं हुए हैं। कटेकल्याण रोड में कल ऐसा ही काष्ठ स्तंभ देखकर मैं मुग्ध रह गया। बेहद खूबसूरती से इसमें अंकन किया गया था। पास ही कुछ महापाषाण कब्र थीं और इससे लगी हुई गाटम की बस्ती।
इस धरोहर के लिए पंचायत चिंतित रही होगी, इसलिए अब एक शेड इस पर लगा दिया गया है। लेकिन पुरातत्व की दुश्मन दीमक नाम की प्रजाति ने जैसे संकल्प ले लिया है कि इसे नष्ट करेगी। बीच से यह स्तंभ टूट रहा है शायद पूर्वजों की अंतिम स्मृति कुछ समय बाद इस क्षेत्र से विदा ले लेगी।
क्रमशः



Thursday, December 10, 2015

श्री शैलं टाइगर रिजर्व एवं हैदराबाद



 

 यह भारत का सबसे बड़ा टाइगर रिजर्व है। श्री शैलं पहुँचने तक लगभग 60 किमी का रास्ता इस टाइगर रिजर्व में हमने गुजारा। उस दिन बंगाल की खाड़ी में विक्षोभ था और घना कोहरा टाइगर रिजर्व में उतर गया था। मैंने जीवन में पहली बार वो घास के मैदान देखें जिन्हें मीडोज कहा जाता है जो शेर का बसेरा बनते हैं। बाँस के झुरमुट के बीचोंबीच यह घास के मैदान फैले हैं। थोड़ी-थोड़ी दूरी पर कुछ-कुछ पेड़। जैसे घास के मैदान के बीच इन पेड़ों ने लीज में अपनी जमीन ले ली है। जंगल के बीच-बीच पिकनिक के चिन्ह नजर आते हैं। यह इलाका ऐसे लगता है जैसे बरसों से यहाँ मनुष्य की प्रजाति नहीं आई। कुछ हिरण मुझे नजर आए। अगर यहाँ शेर न भी दिखे तो भी जंगल इतना खूबसूरत है कि अपने जीवन में हर व्यक्ति को यहाँ कई बार आने की कोशिश करनी चाहिए।

जैसे शाहजहाँ ने काश्मीर को अपनी तफरीह के लिए चुना, वैसे ही विजयनगर के राजाओं ने भी यहाँ आरामगाह बनाए, निजाम के शिकार के लिए कई आरामगाह भी यहाँ बनाए गए। इस जगह की खूबसूरती को देखकर ही लगता है कि जंगल के राजा ने यहाँ रहने का चुनाव क्यों किया होगा। और जब शिव जी को सपत्नीक आंध्र में रहने की इच्छा पैदा हुई तो उन्होंने यह जगह क्यों चुनी हुई होगी। इस मामले में वो विष्णु जी से कहीं आगे बढ़ गए क्योंकि तिरूमाला की पहाड़ियाँ खूबसूरत होने के बावजूद भी उनमें घास के मैदानों की वैसी कशिश नहीं है जो श्री शैलं में है।

आंध्रप्रदेश की बसों में यात्रियों के लिए टीवी भी लगे हैं। टाइगर रिजर्व खत्म होने पर मैंने तेलुगु सिनेमा का आनंद लिया। तेलुगु सिनेमा में दक्षिण की अलग ही दुनिया नजर आती है। मंदिर के धीर-गंभीर लोगों की तुलना में यहाँ लोग काफी उनमुक्त दिखते हैं और यहीं पर यह सिनेमा भोजपुरी सिनेमा जैसा लगने लगता है।

हैदराबाद पहुँचते हुए शाम हो गई थीं। अब केवल एक साइट ही हम लोग देख सकते थे बिरला मंदिर। हमारे आटो ड्राइवर ने बताया कि यह आदर्श नगर में पड़ता है और बंजारा हिल्स के साथ ही यह भी हैदराबाद की सबसे पॉश लोकैलिटी है। उसने हमें एक पूरा काम्पलेक्स दिखाया जहाँ पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव का परिवार रहता है और वो टेनिस परिसर भी जहाँ सानिया मिर्जा की टेनिस परवान चढ़ी। उसने बताया कि सानिया अक्सर यूके में रहती है और कभी-कभी ही हैदराबाद आती है।

फिर हम बिरला मंदिर गए। इसे ऊँची पहाड़ी में बनाया गया है जहाँ हुसैन सागर झील का सुंदर नजारा दिखता है। वहाँ से हमने नैकलेस रोड को भी देखा जिसकी इज्जत हैदराबाद में मरीन ड्राइव की तरह है।

पापा ने बताया कि बिरला ने अभी नया रायपुर में भी मंदिर के लिए जगह माँगी है दुर्भाग्य से हमारे यहाँ कोई ऊँची पहाड़ी नहीं, फिर भी संतोष इस बात का है कि बिरला परिवार की धार्मिक आस्था बनी हुई है।

जब हम बिरला मंदिर जाने वाले थे, उसी समय दूरदर्शन पर गोवा फिल्म फेस्टिवल की शुरूआत हो रही थी। यह प्रोग्राम इतना अच्छा था कि हमारे साथ आए बड़े पिता जी ने होटल में ही रहकर प्रोग्राम देखने का फैसला किया। प्रोग्राम को होस्ट कर रही थीं अदिती राव। अदिती ने एक सुंदर तेलुगु गाना गाया, उनकी आवाज इतनी मीठी लगी कि मैंने बाद में इंटरनेट में उनके बारे में सर्च किया। उन्होंने रॉकस्टार फिल्म में अभिनय किया था। वो राजघराने से हैं और उनके पिता निजाम के नायक थे। वे किरण राव की बहन हैं जो आमिर खान की पत्नी हैं। इस तरह अदिती के बहाने किरण राव की कुंडली भी हाथ लग गई। मैंने केवल परवीन बाबी के बारे में सुन रखा था कि वे जूनागढ़ परिवार से हैं। इसके बाद मैंने सर्च किया कि कौन सी ऐसी एक्ट्रेस हैं जिनके लिंकेज राजपरिवार से है तो पता चला कि भाग्यश्री भी राजपरिवार से हैं उनके पिता महाराष्ट्र की सांगली रियासत के राजा हैं। प्रोग्राम की जो बात सबसे ज्यादा दिल को छू गई। वो इलैयाराजा को सुनना। इलैयाराजा ने कहा कि म्यूजिक को पूरे देश की पढ़ाई में अनिवार्य कर देना चाहिए। आतंकवाद को खत्म करने का यह बड़ा उपाय हो सकता है क्योंकि संगीत मन को बेहद शांत कर देता है। इलैयाराजा ने यह भी कहा कि मैं भारत का एकमात्र संगीतकार हूँ जो एसेंडिंग नोट्स में म्यूजिक देता है।

अगले दिन हमने गोलकुंडा के किले और सालारजंग म्यूजियम के बजाय रामोजी फिल्म सिटी देखने का फैसला किया।

क्रमशः

 

 

 

श्री शैलं मल्लिकार्जुन यात्रा



 

जब बच्चे में ईश्वर गुणों और अवगुणों का बंटवारा करते हैं तो वे खास मेहनत नहीं करते, कम से कम मेरे मामले में तो उन्होंने बिल्कुल ही मेहनत नहीं की। मेरे अंदर पापा और मम्मी के कुछ गुण और अवगुण पूरी तौर पर उतर आए हैं। जैसे मम्मी को साहित्य में अनुराग है पापा को खास नहीं और मैं साहित्यानुरागी हूँ। मम्मी गहराई से धार्मिक हैं पापा ने कभी ईश्वर के संबंध में गहराई से सोचा भी होगा, मुझे नहीं लगता। मैं भी पापा जैसा ही हूँ। पापा दुनिया देखने को उत्सुक रहते हैं मम्मी को घर में ही अच्छा लगता है। मैं भी दुनिया देखना चाहता हूँ।

 मेरी मम्मी को बहुत आकर्षण था कि हम श्रीशैलं के रूप में एक ऐसी जगह हैं जहाँ शिव जी ज्योतिर्लिंग के रूप में और पार्वती माँ शक्ति पीठ के रूप में विराजित हैं जबकि पापा और मेरा आकर्षण नागार्जुन सागर बाँध का था।

फिर भी जब मैं श्री शैलं के मंदिर पहुँचा तो लगा कि मैं मम्मी के ज्यादा नजदीक हूँ पापा से कुछ ज्यादा धार्मिक हूँ। सुबह हम लोग उठे, एमएस सुब्बुलक्ष्मी विष्णु सहस्त्रनाम का पाठ कर रही थीं। सुबह वेणी वाले चारों ओर फैल गए थे। महिलाएँ वेणी खरीद रही थीं, कुछ महिलाएँ वेणी लगाकर मंदिर की ओर बढ़ रही थीं। उनके फूलों की खुशबू वातावरण में बिखर गई थी। मुझे वेणी अपने देवता के प्रति उनकी अगाध श्रद्धा का प्रतीक लगी। वे सुवासित होकर, सुंदर दिखकर अपने परिवेश की सुंदरता बढ़ाती हैं। सत्यम शिवं सुंदरं। सुंदरता सुख देती है। मुझे लगता है कि सुंदर दिखने के पीछे स्त्री की संसार को सुखी बनाने की मंगलकामना है। ऐसा सोचने पर मुझे मेरी बेटी याद आती है। वो तीन साल की है नया ड्रेस पहनती है और पूछती है पापा मैं कैसी लग रही हूँ। उत्तर भारत में यह वेणी अनुपस्थित है और इन फूलों के बगैर यहाँ के मंदिरों में आप वैसा धार्मिक बोध नहीं महसूस कर पाएंगे जैसा आप दक्षिण के मंदिरों में करते हैं। यहाँ मंदिर आपके जीवन का नितांत जरूरी हिस्सा है ईश्वर आपसे पृथक नहीं, आपके बिल्कुल करीब है।

यह मंदिर रेड्डी राजाओं ने बनाया था जो कृष्णदेवराय के समकालीन थें। मंदिर के चारों ओर परकोटा बना है और चारों ओर मूर्तियों का अंकन हुआ है। यह अजंता की तरह की गैलरी है। दुर्भाग्य यह है कि यहाँ धार्मिक लोग आते हैं जिन्हें इतिहास से सरोकार नहीं और इतिहासकार इसलिए नहीं आते क्योंकि यह एक धार्मिक जगह है।

परकोटे में हुए अंकन में कुछ पशुओं से संबंधित भी हैं। यह पशु बहुत विचित्र हैं कुछ चीनी ड्रैगन जैसे लगते हैं शिकार के प्रसंगों का बहुत सुंदर अंकन हुआ है। यह संयोग नहीं है क्योंकि यह पूरा क्षेत्र टाइगर रिजर्व है।

पूर्वी घाट यहाँ सबसे सुंदर रूप में मौजूद है। ऊँचे पर्वत पर बसा श्री शैलं और नीचे घाटियों से नजर आती कृष्णा नदी यात्रियों को अपूर्व आनंद से भर देती है। सबसे निचली जगह है पाताल गंगा। बताते हैं कि जब कलियुग आने वाला था तब साऊथ के ऋषि—मुनि यहीं कृष्णा नदी में प्रवेश कर गए और फिर पाताल लोक से निकल कर गंगा जी से होते हुए स्वर्ग में पहुँचे। इस सेफ पैसेज की महत्वता को देखते हुए देवराय द्वितीय की पत्नी ने यहाँ सीढ़ियाँ लगाई थीं।

धार्मिक क्षेत्र में आपका ज्ञान आपके स्वर्ग और मोक्ष के रास्ते तैयार करता है। श्री शैलं आने के बाद मुझे मालूम हुआ कि काशी में सात जन्म लेकर जीवन गुजारने के बराबर का पुण्य श्री शैलं में भगवान मल्लिकार्जुन के दर्शन से हो जाता है।

क्रमशः

Thursday, October 29, 2015

स्कूल जा रही मेरी बेटी



तब पापा की कलाइयाँ पकड़े
 जाता था स्कूल
मम्मी पैक कर देती थीं
कभी पोहा, कभी पराठा, कभी उपमा
 फरमाइशी आइटमों से लैस टिफिन
चाव से वे मेरे हाथों में पकड़ा देतीं
और वो पोहा, पराठा, उपमा यूँ ही आ जाते वापस
भरे टिफिन में वैसे ही...

एक वाटर बॉटल भी दे देतीं वे
जो मुझे हथकड़ी की तरह लगता
 पापा ऐसे लगते जैसे पुलिस वाला
दुखी मन ले जाता कैदी को ।

कहता पापा से- कैदी की आखरी इच्छा तो पूछोगे
वो हामी भरते
तो कहता, मुझे पहाड़ी का मंदिर दिखा दो
 सप्तगिरी गार्डन घूमा दो।

तफरीह में ऐसा ही निकला वक्त
एक दिन देखा प्रेयर में खड़े-खड़े
बहन चुनी गईं पुरस्कार के लिए
घर आकर माँ से पूछा, मुझे क्यों नहीं मिला ये
जवाब में दिखाई माँ ने खाली कापियाँ....
फिर कभी पेड़ों के नीचे बैठकर, कभी चीटिंयों को दाना देकर
आखिर काट ही ली बारह साल की स्कूली सजा
सजा बामशक्कत मिली थीं, मशक्कत नहीं हुई।
सारी कॉपियाँ रह गईं अधूरीं,  बदले में बढ़ी सजा की अवधि
घंटी बजने के बाद भी देर तक दूसरे कैदियों के साथ गणित बनाने की सजा

अब मेरी बेटी जा रही स्कूल......
बताती पापा वो गोलू-मोलू लड़का मिला था न
बहुत बदमाश है....
वो फरमाइश करती अप्पे का
बॉटल से ही पीती पानी
प्रफुल्लित प्रसन्न मन स्कूल जाने तैयार, जो था मेरा कारावास
उसकी ऊंगलियाँ मेरी कलाइयों से फिसल रही है
उसने तय किया है पिंजरे की मैना नहीं बनेगी
किसी पेड़ के नीचे नहीं बैठेगी, वो ढूँढ़ेगी अपना आकाश




Friday, September 18, 2015

वो कुत्ता स्पेशल था.........



उन दिनों मैं खूब पैदल चला करता था और अपनी चरम बेरोजगारी में हर संभव उपाय से पैसे बचा लेता था। दुनिया का बेहद कम अनुभव था। एक बार नागपुर जाना हुआ, बैंक पीओ का पेपर था। एक्जाम हाल में दस मिनट के संघर्ष के बाद ही मैंने हार मान ली। फिर किफायत से रहने का संकल्प दृढ़ किया। रात को जब दो बजे रायपुर आने की आहट हुई तो मैंने सोचा कि आयुर्वेदिक कॉलेज के पास उतर जाऊँगा और वहाँ से पंद्रह मिनट में घर पहुँच जाऊँगा। मुझे नहीं मालूम था कि इस तरह अकेले जाने में भयंकर संकट से मुझे गुजरना पड़ेगा।

 जब मैं डंगनिया तालाब के पास पहुँचने वाला था मैंने सुना कि दस-बीस कुत्तों के भौंकने की आवाज आ रही है। फिर अलग-अलग दिशा से वे इकट्ठे होने लगे। मैंने शिकारी कुत्तों के बारे में कहानियों में सुना था, अब इनका प्रत्यक्ष अनुभव था। मैंने सोचा कि इनका सामना करने का कोई फायदा नहीं है। समर्पण से ही जिंदगी बच सकती है। मैं अंदरूनी डर और बाहरी दृढ़ता से आगे बढ़ता रहा।

फिर मैंने अद्भुत दृश्य देखा। फोर्स की तरह कुत्तों ने मुझे घेर लिया। रणनीतिक रूप से उन्होंने चक्रव्यूह तैयार किया था। सबसे दूरी पर लगभग २० कुत्ते थे जिन्होंने बाहरी सुरक्षा घेरा बनाया था। फिर १० कुत्ते दूसरे घेरे में थे। ये बिल्कुल प्रधानमंत्री की तरह का सुरक्षा घेरा था। बाहर में सीआरपीएफ, फिर अंदर में स्टेट पुलिस। इसके बाद चार कुत्ते जो काफी बलिष्ठ थे। आगे आए और उन्होंने चारों ओर से मुझे घेर लिया। मैं ठिठक कर रह गया। संभवतः ये उनकी एसपीजी सुरक्षा टुकड़ी थी, सबसे मुस्तैद। आक्रमण आसन्न था लेकिन मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ कि वो वेट कर रहे थे। लगभग एक मिनट बाद एक काला कुत्ता आया। उसकी शानदार पर्सनैलिटी थी। वो आम कुत्तों से डेढ़ गुनी हाइट का था और पूरी तौर पर फिट था। ऐसा लग रहा था कि कि पुलिस का कोई डीजी रैंक का कुत्ता भाग गया हो और इन कुत्तों का लीडर बन गया हो।

वो कुत्ता आया, उसने आधे मिनट मुझे चेक किया। चेकिंग पूरी गरिमा से की, दूसरे कुत्तों की तरह चढ़ा नहीं और न ही इस प्रकार चेकिंग की कि किसी प्रकार से क्लाइंट को गुदगुदी हो। चेकिंग पूरी करने के बाद वो पूरे सम्मान से पीछे हटा। उसके हाव-भाव से ऐसा लगा कि उसने मुझसे खेद प्रकट किया हो और कह रहा हो कि सॉरी, बट ये रूटीन चेकअप है जो सिक्युरिटी के लिए जरूरी होता है। जब वो पीछे हटा तो सारे कुत्ते छंट गए।

मुझे लगा कि वो कुत्तों का कॉप था। पुलिस चीफ की तरह उसने गरिमापूर्ण बरताव किया। जब अमेरिका में राष्ट्रपति कलाम के साथ एयरपोर्ट में दुर्व्यवहार हुआ तो मुझे उस कुत्ते की याद आई। संभवतः वो पिछले जन्म में पोरस था जिसने सिकंदर को सीख थी कि उसे वैसा ही सुलूक करना चाहिए जैसा एक राजा दूसरे राजा के साथ करता है। समस्त शक्तियाँ होने के बावजूद उसने पॉवर का मिसयूज नहीं किया और न ही होने दिया।

लेकिन हमेशा ऐसा नहीं होता, छोटे शहरों के कुत्ते और महानगरों के कुत्तों में बड़ा फर्क होता है। रामेंद्र ने मुझे बैंगलोर का दिलचस्प वाकया बताया। एक रात वो ऐसे ही बैंगलोर की एक सूनी सड़क से लौट रहा था। चारों ओर कुत्तों ने घेर लिया। वहाँ के कुत्ते बेहद माँसाहारी है और उन्हें एक जीता-जागता आदमी मिल गया था। वे हमले के लिए पूरी तौर पर तैयार ही थे कि इतने में कॉल सेंटर की एक बस गुजरी जिसने रामेंद्र को लिफ्ट दी।

संवेदनशील कुत्तों में सबसे बड़ा नाम मैं साधू कुत्ते का रखता हूँ। साधू कुत्ते की कहानी मुझे आकाश ने बताई। जगदलपुर के एक परिवार में साधू कुत्ते का जन्म गुरु पूर्णिमा के अवसर पर हुआ। यह परिवार को महज संयोग जान पड़ा। आश्चर्य तब हुआ कि जब इस पूरे माँसाहारी परिवार में जिसमें केवल दादी शाकाहारी थी, इस कुत्ते ने माँसाहार को छूने से इंकार कर दिया। उसके बाल धवल थे और दादी ने इसे साधू कुत्ता कह दिया। यथा नाम तथा गुण के तर्ज पर साधू कुत्ता एकादशी के अवसर पर कुछ नहीं खाता था क्योंकि दादी भी उपवास रखती थी। वो दादी के खाना खाने पर ही खाता था। दादी के पूजा करने पर वो दोनों पैरों को बढ़ाकर पूजा घर में बैठ जाता और तब तक बैठा रहता जब तक पूजा संपन्न नहीं हो जाती थी। वो बहुत पुण्यात्मा था, उसका निधन एकादशी के दिन हुआ। परिवार ने उसकी तेरहवीं पर तेरह ब्राह्मणों को भोज कराया।

इन दिनों पर रायपुर नगर निगम में कुत्तों पर बेतहाशा संकट आया है। वे वंशवृद्धि नहीं कर पा रहे। उन्हें अपने मादरेवतन से दूर भेजा जा रहा है। ऐसे में एक दिलचस्प किस्सा अनुभव का बताया हुआ याद आता है। सुंदर नगर में उनके घर के सामने एक बड़ा ही बदतमीज कुत्ता रहता था। उसने लोगों के नाक में दम कर रखा था। आखिर में शिकायत हुई और इस कुत्ते को जिला बदर कर दिया गया। निलंबन अवधि में उसका मुख्यालय तय किया गया कुम्हारी। आश्चर्य तब हुआ जब दो दिन बाद वो पुनः प्रकट हो गया, सुंदर नगर में। उसकी यात्रा बजरंगी भाईजान की तरह सुखद नहीं थी, वो साथ में लाया था बहुत सारे जख्म। फिर वो बहुत दिन जिंदा नहीं रहा। शायद उसे काबुलीवाला में गुलजार द्वारा लिखा वो गीत बहुत भा गया। तेरे जर्रों से जो आए, उन हवाओं को सलाम। हम जहाँ पैदा हुए, उस जगह ही निकले जान। ऐ मेरे प्यारे वचन, तुझपे दिल कुर्बान।

बचपन में हम लोगों के घर के पास एक कुत्ता रहता था झबरू। वो बहुत दिलेर और प्यारा था। जब तक वो जिंदा रहा, उसका जीवन दाऊद और छोटा राजन की तरह संघर्षपूर्ण रहा। गैंगवार में उसका प्रतिद्वंद्वी था एक काले रंग का कुत्ता जिसमें बीच-बीच में सफेद स्पॉट थे। गैंगवार के आखरी चरण में झबरू पराजित हुआ। हम लोगों ने कुकुर समाधि कहानी पढ़ी थी। उसके कब्र में फूल चढ़ाए। उसका प्रतिद्वंद्वी जो जीता, उसने कमाल किया। उसकी काफी वंशवृद्धि हुई। सुंदर नगर से लाखे नगर तक अधिकाँश कुत्ते ब्लैक और व्हाइट स्पॉट वाले हैं जिससे यकीन होता है कि वो कुत्ता इनका पितृपुरुष रहा होगा।

इतनी सारी कहानी इसलिए याद आई कि मैं इन दिनों दो हफ्ते में एक बार रायपुर आता हूँ और एक काले कुत्ते से मेरा सामना होता है जो आटो के पहुँचते ही भौंकना शुरू कर देता है लेकिन मुझे देखकर शांत हो जाता है। मेरा घर इस कुत्ते को खाना नहीं देता लेकिन वो भेदभाव नहीं करता और सबको सुरक्षा देता है।

 

 

Wednesday, August 26, 2015

इंतजार हुसैन और जातक कथाएँ


मैं इंतजार हुसैन साहब का शुक्रिया अदा करना चाहता हूँ। उन्हें पाकिस्तान में लिविंग लिजेंड कहा जाता है। इस बार किताबों की दुकान में उनकी कहानी संग्रह कछुए दिखी जिसे मैंने खरीद लिया। इसका नाम आश्चर्य पैदा करता है कछुए और किताब पढ़ने पर शीर्षक से उपजा विस्मय एक नई दुनिया के नजारे आपके लिए खोल देता है।
बचपन में एक कहानी पढ़ी थी एक सरोवर में कछुआ रहता था, उसके दोस्त हंस सर्दियां गुजारने उसके पास आते थे। एक बार जब सरोवर का पानी सूखने लगा तो हंसों ने उसे आफर दिया कि हमारे साथ हिमालय चलो। तुम्हें यह करना है कि डंडी मुँह में रखना है और डंडी के दोनों छोर हम लोग संभाल लेंगे। बस तुम कुछ बोलना नहीं, नहीं तो सारी मेहनत धरी की धरी रह जाएगी। कछुवे का इस तरह मौनी बाबा बने रहना लोगों को रास नहीं आया और लोग हँसने लगे। कछुए ने आक्रोशित होकर बोलना शुरू किया और आसमान से गिर कर सीधा राजा की महल के छत पर गिरा।
यह कहानी और ऐसी ही अन्य कहानियाँ बिल्कुल अलग ढंग से इंतजार हुसैन ने लिखी। उन्हें पढ़कर समझ आया कि इन कहानियों का जो एक सादा अर्थ है उसके भीतर भी एक अर्थ छिपा है।
इंतजार हुसैन ने जातक कहानियों के माध्यम से उस दुनिया की बात बताई जहाँ इंसान केंद्र में नहीं था। पशु-पक्षी सब उस दुनिया में बराबरी से शेयर करते हैं। कहानियाँ उन पर लिखी जाती थीं। बुद्ध पिछले जन्मों में कई योनियों में थे। कभी बंदर और कभी कुत्ते के रूप में। हर बार विलक्षण। विशेष रूप से बनारस में बुद्ध के किस्से क्लासिक हैं शायद प्रेमचंद के अलावा आदमियों के बारे में लिखने वाला कोई कहानीकार इन कहानियों की बराबरी नहीं कर सकता।
इंतजार हुसैन की जातक कथाएँ भिक्षुओं के द्वंद्व पर भी रोशनी डालती हैं। भिक्षु जब द्वार-द्वार भिक्षा माँगने जाते तो सुंदर लड़कियाँ उन्हें भिक्षा देने देहरी तक आतीं। वे उनके पैर देखते जो उन्हें कमल की तरह लगते। फिर एक अजीब सी तृष्णा की शुरुआत होती। कई बार तो संकट में बुद्ध को हस्तक्षेप करना पड़ता और वे भिक्षुओं को उबार लेते।
मैंने इतना सुख और इतनी गहराई से भरा लेखन बहुत लंबे समय बाद पढ़ा। इससे पहले शेखर एक जीवनी पढ़कर ऐसा ही आनंद मुझे मिला था।
अपनी किताब का अंत इंतजार हुसैन ने एक खत के साथ किया है जिसका शीर्षक है नये अफसानानिगार बलराज मेनरा के नाम खत। उन दिनों इंतजार पर आरोप लगे कि वे गुजरे जमाने में रहते हैं और उनकी कहानी हकीकत से दूर अतीत की गलियों में भटकती है। इंतजार ने बड़े फक्र से कहा कि बलराज मैं तुम्हारे मामूली से आज की खातिर अपने मित्र सोमदेव से कैसे दोस्ती तोड़ लूँ। मेरे लिए तो आग का दरिया भी वैसा ही जैसे कथासरितसागर।
इंतजार साहब की तारीफ के बाद मैंने कथासरितसागर के बारे में ज्यादा जानने के लिए विकीपीडिया में सर्च किया। कथासरितसागर मूलतः सोमदेव ने लिखी थी जो कश्मीर के राजा अनंतवर्मन ने अपनी पत्नी रानी सूर्यमती के मनोरंजन के लिए लिखवाई थी। यह रचना मूलतः गुणाढ्य द्वारा लिखी गई वृहतकथा पर आधारित थी।
फिर गुणाढ्य की वृहतकथा को भी खोजा। इसमें एक सुंदर कहानी मुझे मिली जो अनायास ही मुझमें कौंधने लगती है। गुणाढ्य ने अपनी पुस्तक वृहतकथा पैशाची भाषा में लिखी, जब वे इसे सातवाहन राजा के पास लेकर गए तो राजा ने इसे पढ़ने से इंकार कर दिया। गुणाढ्य इतने दुखी हुए कि जंगल चले गए, आग लगाई और सस्वर पाठ कर एक-एक पन्ना जलाने लगे। उनका पाठ इतना ओजस्वी और रुचिकर था कि सारे पशु-पक्षी वहाँ आकर इसे सुनने लगे। उस समय राजा शिकार करने जंगल आया हुआ था उसे आश्चर्य हुआ कि सारे पशु-पक्षी कहाँ चले गए। फिर उसे गुणाढ्य का पाठ सुनने मिला। वो चकित रह गया और गुणाढ्य से माफी माँगी।
 इंतजार हुसैन साहब निर्मल वर्मा स्मृति व्याख्यान माला में शामिल हुए थे और वहाँ उन्होंने उपनिषद की एक कहानी बताई थी। इसमें एक गुरु ने अपने शिष्य को शिक्षा देने के बजाय कहा कि जाओ जंगल चले जाओ और वहाँ शिष्य ने प्रकृति से शिक्षा ली। पशुओं से सीख ली, पक्षियों से सीख ली। उसे पूर्ण ज्ञान प्राप्त हुआ।






Thursday, July 23, 2015

पाप

खेल-खेल में मेरी पाँच साल की भांजी ने मेरी बेटी से कहा कि मानु ऐसा मत कर तुझे पाप लग जाएगा। मेरी बेटी ने पूछा कि पाप क्या होता है। भांजी ने बताया कि गंदा काम करने पर भगवान नाराज हो जाते हैं फिर सजा देते हैं। इतने मासूम बच्चों के शब्दकोष में पाप कहाँ से आ गया। शायद यह पुरानी पीढ़ी के शब्दकोष से लुढ़ककर वहाँ चला आया हो, जहाँ से उसे बहिष्कृत कर दिया गया है।
बड़ों के शब्दकोष में जहाँ पाप रहता हो, शायद वहाँ उसकी जगह डर ने ले ली है। जहाँ पहले पाप का डर होता था अब केवल भय पसर गया है। यह किसी भी तरह का हो सकता है एंटी करप्शन, ज्यूडिशरी, प्रेशर ग्रूप, ईश्वर की दंड संहिता से परे हर प्रकार के दंड का भय। हम बड़े होते गए और ईश्वर देख रहा है शब्द हमारे लिए बेमानी होता गया। ईश्वर ने पूरे बचपन भर हमारी निगरानी की और फिर हमें छोड़ दिया। अपने पापों के साथ, अपने डर के बीच अकेले।
शायद हमसे पिछली पीढ़ी को पाप और पुण्य की चिंता रही और उनका पूरा जीवन इसे संतुलित करने में लग गया। राजे-महाराजों ने जनता का शोषण किया, इस पाप को मिटाने के लिए मंदिर बना दिए, व्यापारियों ने इन्हें अकूत धन से लाद दिया। ब्राह्मणों ने इनमें पूजा कर अपने पुण्य संतुलित कर दिए।
पहले के जनकल्याणकार्य पुण्य के लिए भी कर लिए जाते थे। तालाब खुदवाए जाते थे, गरीबों को दान कर दिया जाता था। ज्योतिष ग्रंथों और पुराणों में पुण्य कार्य की लंबी-चौड़ी सूची है। पुण्य जमा करने की कोशिश हमारे संसार को भी सुंदर बना जाती थी और इतिहास को भी। कितने शहरों और कस्बों का इतिहास हम इसी पुण्य गाथा की वजह से लिख सके। अगर अहिल्याबाई की अमिट पुण्य पिपासा नहीं होती तो क्या हम हर पवित्र भारतीय शहर में एक सुंदर मंदिर और उनकी नदियों के किनारे सुंदर घाटों की झांकी देख पाते।
यदि बिड़ला पाप-पुण्य के चक्कर में नहीं फंसे होते तो क्या भारत के आधुनिक नगरों में भक्ति की अजस्त्र धारा वैसे ही प्रवाहित हो रही होती। मुझे दिल्ली का एक प्रसंग याद है तब मैं छठवें सेमेस्टर की पढ़ाई कर रहा था और इस उम्र में दिलोदिमाग से आध्यात्मिकता सिरे से गायब रहती है तब हम टूरिस्ट के रूप में दिल्ली के बिड़ला मंदिर गए। वहाँ भजन चल रहा था मैली चादर ओढ़ के कैसे द्वार तुम्हारे आऊँ। मैंने यह भजन पहले भी सुना था लेकिन इससे इतना सुख पहले कभी नहीं मिला था जितना उस दिन मिला। बिड़ला ने केवल मंदिर नहीं बनाया, वहाँ ऐसी व्यवस्था भी की ताकि लोग सही तौर पर हिंदू धर्म का मर्म जान पाएँ। उनके पोते कुमारमंगलम बिड़ला शायद उस तरह से धार्मिक नहीं है इसलिए बिड़ला परिवार के प्रति लोगों की श्रद्धा अब वैसी नहीं रही।

बाइबिल की सबसे मशहूर कहानी आदम और हौव्वा का स्वर्ग के बगीचे से निष्कासन का कारण भी वर्जित फल खाना था जो एक पाप था। सृष्टि पाप से पैदा हुई लेकिन इस पाप से छुटकारा पाने के लिए मनुष्य ने जो जतन किए उसने सभ्यता को कितना सुंदर बनाया। चाहे बुद्ध की करूणा हो, कृष्ण का रास हो या ईसा की सहनशीलता, क्या इन सबका सृजन इंसानियत की उस महान कहानी से नहीं हुआ जिसमें वर्जित फल को खाने की सजा भोगने पड़ी। 

Wednesday, June 24, 2015

वेरियर एल्विन और शुभ्रांशु चौधरी के दौर के बीच बदलता बस्तर....

इन दिनों दो पुस्तकें मैंने पढ़ी, पहली
पुस्तक उसका नाम वासु नहीं, यह शुभ्रांशु चौधरी की पुस्तक है दूसरी पुस्तक वेरियर
एल्विन ने लिखी है जिसका नाम मुड़िया एंड देयर घोटुल है। दोनों ही पुस्तकें बहुत
अच्छी भाषा में और कड़ी मेहनत के बाद लिखी गई है दोनों को लिखने का उद्देश्य
बिल्कुल अलग है एक पुस्तक बस्तर में नक्सलवाद को समझने लिखी गई है और दूसरी पुस्तक
बस्तर के सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को समझने।

इन पुस्तकों को लिखे जाने के बीच कितना
अंतराल गुजर गया होगा, मुझे नहीं मालूम लेकिन बस्तर में हुए असाधारण बदलावों की
झांकी देखने इन दोनों पुस्तकों को पढ़ना निहायत ही जरूरी है।



वेरियर एल्विन की पुस्तक में बस्तर की आदिम
महक छिपी है। हर लेखक में अपनी कृति के साथ अमर हो जाने की चाह रहती है और उसका
अक्स हमेशा कृति से झाँकता रहता है उसकी मौजूदगी कृति में हमेशा नजर आती है लेकिन
एल्विन इस लोभ से बच पाए हैं पूरी कृति में एल्विन कहीं नजर नहीं आते। बस्तर का
घोटुल स्वयं अपनी कहानी कहते नजर आता है। वेरियर ने बस्तर के घोटुलों में लंबा
वक्त गुजारा। उन्होंने सबसे जीवंत और सबसे नीरस घोटुलों का वर्गीकरण भी किया। इन
घोटुलों में रहने वाले युवाओं की भावनाओं का सुंदर रेखाचित्र खींचा।

इस पुस्तक को पढ़ना शुरू करने के पहले मेरी
धारणा थी कि ये ऊबाऊ मानव विज्ञान की पुस्तक होगी और इसमें वैसे ही उब भरी बातें
होंगी जैसे मुरिया शिकार प्रिय लोग हैं वे छितरे हुए समूहों में रहते हैं आदि-आदि।
लेकिन पुस्तक में बने घोटुल के चित्र ही पहली नजर में बनी इस धारणा को खारिज कर
देते हैं। रेमावंड के घोटुल में बने रेखाचित्र फ्रेंच आर्ट गैलरी की याद दिलाते
हैं इतनी सुंदर और मुक्त कला का जन्म घोटुल जैसे स्वस्थ औऱ खुले वातावरण में ही
होता होगा जहाँ आप पूरी तौर पर अपने को अभिव्यक्त कर सकते हैं बिना थोड़ी भी बंदिश
के कला की खुलकर अभिव्यक्ति।



एक आम हिंदुस्तानी की एक मुड़िया युवा-युवती
के प्रति धारणा क्या होती है? संभवतः बिल्कुल मेरी जैसी। इनका जीवन शांत नदी की
तरह का जीवन है कोई हलचल नहीं, लगभग विचार शून्य, भावनाएँ भी वैसे ही। वेरियर
प्रथमदृष्टया इस धारणा को तोड़ देते हैं इस पुस्तक में जो भी संग्रहित हुआ, सब कुछ
मुड़िया युवक-युवतियों ने बताया। दरअसल यह मुड़िया यूनिवर्सिटी थी जहाँ कई
शताब्दियों का संग्रहित ज्ञान स्थानांतरित कर दिया जाता था आने वाले पीढ़ियों को।
और यह ज्ञान क्या है प्रेम का ज्ञान। विचारों की उन्मुक्त अभिव्यक्ति का ज्ञान।

 हमारे यहाँ बौद्धिक चर्चा के केंद्र काफी हाउस
होते हैं गाँव में गुड़ी जहाँ अहर्निश संवाद के प्रेमी जमा हो जाते हैं हमारे जैसे
अंतर्मुखी व्यक्ति अगर इस महफिल में आ जाएँ तो दाँतों तले ऊंगलियाँ दबा लेते हैं
कि कितने प्रतिभाशाली लोग होते हैं दुनिया में, हर समस्या के बारे में अपनी खास मौलिक
राय रखने वाले लोग। जैसे वेदों को श्रुति कहा जाता था वैसे ही रेमावंड जैसे किसी
महानतम घोटुल में विचारवान मनीषी द्वारा कहे गए ऐतिहासिक वक्तव्य को श्रुति परंपरा
में रख लिया गया। जैसे भगवान कृष्ण का जीवन लीलाओं से भरा रहा वैसे ही मुड़िया
देवता लिंगोपेन का। लिंगोपेन की कहानियाँ रिसर्च का विषय हैं और फ्रायड ने यदि
इन्हें पढ़ा होता तो गहराई से प्रभावित होते।

मुड़िया पुरुषों की तुलना अगर स्त्रियों से
की जाए तो स्त्री ज्यादा स्वतंत्र व्यक्तित्व वाली होती है और घोटुल में पुरुष के
सारे यत्न स्त्री को रिझाने के लिए। शायद बस्तर की महानतम कला का विकास भी इसी वजह
से हुआ होगा। मुड़िया स्त्री को केश कला बहुत पसंद है और पुरुष इनके लिए सुंदर
कंघियाँ तैयार करते हैं इनकी कला किसी भी मायने में अंजता की चित्रकला और केशसज्जा
से कम नहीं।

लेकिन कुछ दशकों बाद लिखी पुस्तक उसका नाम
वासु नहीं, में बस्तर के चरित्र पूरी तौर पर बदल जाते हैं। इस पुस्तक के पात्र
प्रेम की चर्चा नहीं करते। वे सल्फी के गुणों की चर्चा नहीं करते, छिंद के पेड़ की
छाया उन्हें राहत नहीं देते। पुस्तक में शायद ही घोटुल की चर्चा हो। जिस एक मात्र
मानवीय स्वभाव की चर्चा वे करते हैं वो है लालच। कोई विचारधारा किसी सभ्यता के
जीवन को कितना बदल देती है शुभ्रांशु चौधरी की पुस्तक इसका सच्चा  दस्तावेज है।

इन दोनों पुस्तकों के बीच बस्तर के लिए जो
उम्मीद मुझे नजर आती है वो है साप्ताहिक बाजारों में। एक रात दंतेवाड़ा से रायपुर
जाते हुए मेरी आँख बास्तानार में अचानक खुल गई। वहाँ साप्ताहिक बाजार लगना था, मैंने
देखा उत्साह से भरे लोग उतरे हैं। महिलाएँ अपने छोटे बच्चों के साथ थीं। उनके
चेहरे पर अजीब सी चंचलता थी, वे जीवन से भरी हुई थीं। मुझे लगा कि उस रात स्वर्ग
बास्तानार में उतर गया है। ऐसे ही एक दिन जब मैं ओरछा गया था, वहाँ साप्ताहिक बाजार
में सल्फी की महफिल सजी थी, स्त्री पुरुष इस महफिल में बराबरी से शेयरिंग कर रहे
थे, शायद रात भर वो महफिल सजती। यह एक समतापूर्ण समाज था जहाँ सबकी भागीदारी थी
कोई छोटा-बड़ा नहीं।