Wednesday, September 21, 2011

सैन्योरिटा जिंदगी न मिलेगी दोबारा का सुंदर गाना


Quien eres tu? (Who are you?)

Donde has estado? (where have you been?)

He removido cielo y tierra y no te encontre

(I moved heaven and earth and not find you)

Y llegas hoy (but you arrive today)

Tan de repente (So suddenly)

Y das sentido a toda mi vida con tu querer

(and give meaning to my life with your love)

Sunday, September 11, 2011

मेरी त्र्यंबकेश्वर यात्रा(भाग 1)



रायपुर से मुंबई की ओर ट्रेन रूट में की गई यात्रा में मेरे लिए अक्सर आकर्षण का केंद्र होता है डोंगरगढ़ के बाद शुरू होने वाले घने जंगल। मुझे भूगोल की जानकारी नहीं तो केवल अनुमान लगाता हूँ कि ये या तो मैकल पर्वत श्रेणी के होंगे या दंडकारण्य के महान पठार के हिस्से। दुर्भाग्य से उस दिन की रात चाँदनी नहीं थी, अब जंगलों में वैसे जुगनू भी नहीं जिनसे अंधेरी रातें भी गुलजार होती थीं। कुछ सालों पहले मैंने इसी जंगल में सैकड़ों जुगनुओं को देखा था। ऊपर आकाश में तारे दिख रहे थे और नीचे जुगनू। पाकीजा का एक गाना याद आता है जुगनू हैं या जमीन पर उतरे हुए हैं तारें। सुना है कि पहले अरबी लोग इन जुगनुओं को एक काँच के डिब्बे में रख देते थे, रात में डिब्बे में भरे हुए सैकड़ों जुगनू टार्च की तरह काम करते थे। शहरों में रहने वाले हम लोगों को प्रकृति की कितनी थोड़ी जानकारी होती है इसका मुझे तब पता चला, जब मैंने और मेरे दोस्त ने पहली बार दिन में जुगनू देखा। वो हरे रंग का था, हम लोगों ने कहा कि हमने एक नया कीड़ा खोजा है। इसका नाम रखा सोकव। बाद में पता चला जिसे हम लोगों ने सोकव समझा वो तो जुगनू था। चाँदनी रातों में इन जंगलों से गुजरना अद्भुत अनुभव होता है। चाँदनी का मद्धिम प्रकाश पेड़ों और झरनों में गिरता है और पूरे जंगल में एक अजीब सन्नाटा छाया रहता है। शायद जंगल में मौजूद होने से ज्यादा बेहतर ट्रेन के भीतर से इसे देखना है क्योंकि तेज ठंडी हवाओं का थपेड़ा हमें और आनंदित करता है। खिड़की वाली जगह का बचपन का लालच हर बार जाग जाता है। महाराष्ट्र के भीतर प्रवेश करने पर यदि हम सड़क मार्ग से जाएँ तो शायद धुलिया के आसपास से सहयाद्री की श्रृंखला शुरू हो जाती है और यह अद्भुत अनुभव होता है। एक दशक पहले सड़क यात्रा में कवर किये गए कुछ शहर याद आते हैं। एक कस्बे में हमारी गाड़ी रूकी थी। छोटा कस्बा था पहाड़ियों से घिरा। पहली बार आए थे लेकिन ऐसा लगा कि पहले भी इस कस्बे से परिचय रहा। खैर जब नासिक पहुँचे तो स्टेशन छोटा सा लगा लेकिन शहर में पहुँचते ही लगा कि यह बड़ा शहर है और व्यवस्थित भी। त्र्‌यंबकेश्वर यहाँ से संभवतः ४० किमी दूर है। प्राचीन ज्योतिर्लिंग के अलावा यहाँ गोदावरी का उद्गम भी है। बताते हैं कि त्रिम्बक की पहाड़ियों से गोदावरी निकलती है। त्र्‌यंबकेश्वर में एक धारा दिखी लेकिन इतनी गंदी धारा थी कि लगा ही नहीं एक महान नदी की शुरुआती यात्रा यहाँ से हो रही है। रास्ते भर पहाड़ की तलहटी ने हरी घास की चादर ओढ़ ली थी। पास ही त्रिम्बक की मेघाच्छादित पहाड़ी दिख रही थी। नासिक से त्र्‌यंबकेश्वर के बीच एक छोटा सा पहाड़ी गाँव पड़ता है अंजनेरी। नासिक में अपने जीजाजी के घर जब मैं रुका तो उन्होंने अंजनेरी पर आधारित मिथक कथा की जानकारी मुझे दी। उन्होंने मुझे बताया कि अंजनेरी में हनुमान जी का जन्म हुआ था। यहाँ तक पहुँचने का रास्ता काफी कठिन है वे भी अरसे से नासिक में रहने के बाद पहली बार पिछले साल ही अंजनेरी जा पाये थे। त्र्‌यंबकेश्वर में रुकते ही सबसे पहले हम लोग गजानन धर्मशाला में ठहरे। यह शेगाँव वाले गजानन महाराज की धर्मशाला है। इतने सस्ते किराये में सुंदर कक्ष वाली संस्थान की धर्मशाला अन्य धार्मिक संस्थाओं के लिए आदर्श है कि किस प्रकार चढ़ावे के धन का बेहतर उपयोग उन भक्तों के लिए किया जा सकता है जो भक्ति भावना तो रखते हैं लेकिन जो सुदामा की तरह दीन-हीन होते हैं और अपने प्रभु के दर्शन के लिए लंबी कष्टप्रद यात्रा तय करते हैं। धर्मशाला की एक और विशेषता मैंने देखी, यहाँ सभी आर्थिक वर्ग के लोग थे, असली समाजवाद ऐसी ही जगहों में दिखता है जहाँ सब एक से लगें, कोई छोटा-बड़ा नहीं। रूम की टैरेस से हमें वो पहाड़ी दिखती थी जहाँ से गोदावरी की बहुत सी धाराओं में से एक धारा निकली थी। 
  स्नान करने के उपरांत हम मंदिर गये, त्र्‌यंबकेश्वर बारह ज्योतिर्लिंगों में शामिल है। पौराणिक कहानी मैंने नहीं पढ़ी लेकिन यह जरूर पता चला कि इस मंदिर का निर्माण अहिल्याबाई होल्कर ने कराया था। मंदिर की भव्यता महाकाल मंदिर की यादें ताजा करा देती है। भीड़ बहुत थी और भीड़ में मेरा दम घुटता है शायद फोबिया अधिक है सच्चाई कम है। इसलिए थोड़ा असहज महसूस हुआ। फिर सुबह जाना था, भीड़ में हुई परेशानी ने मानसिक रूप से थकाया और भोजन की भी उचित व्यवस्था नहीं थी, इसके चलते परेशानी कुछ और बढ़ी। सुबह के समय शिव जी के अच्छे से दर्शन हुए, फिर हमने परिक्रमा की। इसके बाद साढ़े आठ बजे तक का इंतजार किया। मुझे आशंका थी कि इतनी देर कैसे बैठ पाऊँगा पूजा-वेदी में, लेकिन भगवान की कृपा थी और पूजा करने के दौरान बहुत अच्छा अनुभव हुआ। पंडित जी के घर के तीसरे माले में पूजा हुई। वहाँ घर से वही त्रिम्बक की पहाड़ियाँ दिख रही थीं। इन्हें देखकर लग रहा था कि रास्ता बड़ा लंबा और कठिन है लेकिन असंभव नहीं। नेहरू ने भी लिखा था न अक्सर हमें आलोकित पर्वत शिखरों को प्राप्त करने के लिए थमी अंधेरी घाटियों से गुजरना होता है। लंबे समय से अंधेरी घाटियों से गुजर रहे हैं लेकिन रुके भी तो नहीं है। हौसलों का दिया बूझता प्रतीत होता है लेकिन संकल्प शक्ति भी है मन में, जिससे ये लड़ाई छेड़े हुए हैं। खैर वैदिक रीति से की गई पूजा ने एक बार फिर परंपरा में वापस लौटा दिया। अक्सर ऐसी पूजा के समय मुझे निर्मल वर्मा द्वारा लिखा शब्द याद आता है जब कोई हिंदू अपने संबंधियों की अस्थियाँ हरिद्वार में गंगा में बहाता है तो उसे वैसा ही अनुभव होता होगा जैसा यूनानियों को कैथार्सिस की सम्पूर्ति पर होता होगा।
  इतिहास की पढ़ाई ने काफी कुछ दिया है लेकिन बहुत कुछ छीन भी लिया है जैसाकि जेम्स जॉयस ने लिखा है कि इतिहास वह दुःस्वप्न है जिससे मैं जागने की कोशिश करता हूँ। अक्सर इसके चलते अपनी मान्यताओं पर शक भी हो जाता है। शायद बीते हुए समय में ऐसा होता होगा कि हम अपनी मान्यताओं पर टिके रहते होंगे लेकिन अपनी बदहाली का कारण अपने उन पापों अथवा अज्ञात कारणों पर छोड़ देते होंगे जो हमें भी नहीं मालूम। फिर भी जैसे खंडित देवता की पूजा नहीं होती, वैसे ही अगर आपके व्यक्तित्व में कुछ खंडित अंश रह गया तो उसकी भरपाई नहीं हो पाती और ये जीवन भर सालने वाली बात रहती है। मैं बहुत विषयान्तर कर रहा हूँ लिखते हुए लेकिन ये अनुभव मेरी उस यात्रा से भी जुड़े हुए हैं जिसे यात्रा के दौरान मैंने लगातार महसूस किया।

Tuesday, September 6, 2011

राहुल गाँधी कितने गाँधी!




कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी अपने पूर्वजों की तरह खद्दर पहनना पसंद करते हैं। उनके सहयोगी मंत्री कपिल सिब्बल, पी चिदंबरम आदि को भी इसी वेशभूषा में देखा जा सकता है। अग्निवेश जैसे इनके सहयोगी भी एक खास किस्म का चोला धारण किये रहते हैं। हालांकि यह भी इतना ही सच है कि इनकी आत्मा कहीं से भी खद्दर नहीं है। 
  दरअसल खादी केवल एक वेशभूषा नहीं अथवा वो केवल कांग्रेस की पहचान नहीं। खादी आत्मनिर्भरता का प्रतीक है। खादी स्वदेशी का प्रतीक है। आक्सफोर्ड और हावर्ड से शिक्षित यूपीए सरकार के कर्ताधर्ता यह नेता क्या सही मायने में खादी को धारण करने लायक हैं। कैंब्रिज में शिक्षा गांधी ने भी ली, वे उस जमाने में बैरिस्टर बने थे जब गिने-चुने लोग ही अपने बच्चों को विदेशों में भेज पाने की हिम्मत करते थे। गांधी ने अपनी आत्मकथा में अपने को सामान्य दर्जे का विद्यार्थी कहा था लेकिन क्या सचमुच ऐसा था, अगर ऐसा होता तो इतना आर्थिक बोझ सहकर उनका परिवार उन्हें कभी भी विदेश नहीं भेजता। गांधी विदेश तो गये लेकिन अंदर से स्वदेशी रहे। उनके सबसे करीबी सहयोगी नेहरू जीवन भर भारतीयता और अंग्रेजियत के द्वंद्व में फंसे रहे, भारतीय उनके बहुत करीब नहीं जा पाए लेकिन वे उनसे उतने दूर भी नहीं थे क्योंकि नेहरू बहुत गहरे से भारतीय समाज में उतरे थे। गांधी पूरी तरह से भारतीय हो गए, उनकी धोती, उनकी सादगी, उनकी गहरी आध्यात्मिकता सबमें असल भारतीय चरित्र देखने को मिलता था। शायद गांधी ऐसी शख्सियत रहे होंगे जिनके इतने बड़े नेता होने के बावजूद बेहिचक कोई बच्चा भी उनसे बिना डरे और बिल्कुल आत्मीयता के भाव से मिल सकता था। बच्चों के साथ मुस्कुराते हुए उनके चेहरे वाली तस्वीरें दिखाती हैं कि इस महापुरुष में बिल्कुल बच्चों वाला दिल धड़कता था। उनके उत्तराधिकारी नेहरू में भी ये गुण था, बच्चों के उनके प्रेम से ही उनका जन्मदिवस बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है। इंदिरा के लिए लिखा नेहरू का साहित्य उनके बच्चों के प्रेम का जीवंत उदाहरण है। 
  आप यह प्रश्न पूछ सकते हैं कि जब हम अपनी बात राहुल गांधी से शुरू कर रहे हैं तो फिर महात्मा गांधी और जवाहरलाल के संदर्भ बार-बार क्यों दे रहे हैं। दरअसल राहुल गांधी अपने को इस महान परंपरा से संबद्ध करते हैं। अगर वो न भी करें तो जनता राहुल को उनका अक्स समझती है। सार्वजनिक जीवन में आपको हर पल जनता के लिए जिम्मेदार होना पड़ता है। आपको अपना पक्ष हर मुद्दे पर जनता के सामने रखना ही होता है लेकिन भ्रष्टाचार के मुद्दे पर लगातार बोलने वाले राहुल अपनी सरकार के भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सफाई देने आगे क्यों नहीं आते? क्यों उन्होंने अन्ना हजारे के लिए वैसी अतिशय उदारता दिखाई जितनी प्रच्चनमंत्री मनमोहन सिंह ने दिखाई जब उन्होंने कहा कि आई रेस्पेक्ट अन्ना, आई सेल्यूट अन्ना । शून्य काल में पूरे भाषण के दौरान राहुल दृढ़ दिखे लेकिन उनकी दृढ़ता में एक तरह का एरोगेंस झलका। जनता ने देखा कि राहुल केवल एक पक्षीय लग रहे थे, वे सत्ता पक्ष से हैं और उन्हें लंबे समय तक सत्ता का सुख भोगना है तो जनलोकपाल बिल पारित होने के अधिकारहीन सत्ता का क्या वैसा उपभोग वो कर पाएंगे। युवराज को इस बात की गहरी नाराजगी थी। वे यह तर्क रखने लगे कि संवैच्चनिक संस्था बनाना अधिक प्रभावी रहेगा। जब राहुल को यह उचित लग रहा था तो उन्होंने यह सलाह पहले ही सरकार को क्यों नहीं दी। 
  पूरे मामले में सबसे बुरा पक्ष यह रहा कि कांग्रेस का बुजुर्ग और अनुभवी चेहरा पूरी तरह से हाशिये पर दिखा। मनमोहन द्वारा जनलोकपाल बिल पर आश्वासन देने के बाद अगले दिन राहुल का बयान निराश करने वाला था। उन्होंने भ्रष्टाचार से लड़ने पर तो बल दिया लेकिन उसके बेहतर तरीकों से सहमत नहीं दिखे। उनके पास अपना कोई मॉडल भी नहीं था, वे केवल एक आशंका लेकर आये थे कि इससे संसदीय प्रजातंत्र और इसकी निर्णयन प्रक्रिया कमजोर होगी। आप जनलोकपाल से असहमत हो सकते हैं लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ी जा रही बड़ी लड़ाई से भावनात्मक रूप से अभिभूत तो दिख ही सकते हैं। यही निराशा का बिन्दु है, सत्ता तंत्र का संचालन इन्हीं हाथों से होना है और अन्ना के आंदोलन को संभालने के तरीकों में दिखी नाकामी और गंभीर गलतियाँ इस सत्ता तंत्र के थिंक टैंक के खोखलेपन को दर्शाती हैं। एक सामान्य आदमी भी यह समझ सकता था कि ऐसे भावनात्मक आंदोलनों को सख्ती से दबाया नहीं जा सकता, इसके लिए डिप्लोमैटिक तरीके अख्तियार करने होते हैं। आपको लचीला रूख रखना होता है और आपको ऐसे प्रवक्ता रखने चाहिए जो सरकार का पक्ष जनता तक सही ढंग से रख सकें। कपिल सिब्बल बड़े वकील हैं लेकिन वे मीडिया में ऐसे नजर आये जैसे अन्ना हजारे एक क्रिमिनल हों और सरकारी अभियोजक के रूप में वे उन पर बड़ा मुकदमा दर्ज कराना चाह रहे हों। दिग्विजय सिंह के लगातार बयानों से हुई फजीहत से भी सरकार ने सबक नहीं लिया और उनसे भी खुला मुँह रखने वाले मनीष तिवारी को अन्ना पर हमले के लिए आगे कर दिया। 
  अंततः जब संकेत मिलने लगे थे कि सरकार सरेंडर के मूड में है उस समय भी राहुल गांधी संसद में संजीदगी से जनलोकपाल से सैद्धांतिक सहमति जताते हुए भ्रष्टाचार से लड़ने के अपने तरीकों को रख सकते थे लेकिन राहुल वहां भी भटक गए। राहुल का एकमात्र सही फैसला संदीप दीक्षित को आगे करने का रहा। संदीप अपनी बातें संसद में प्रभावी ढंग से नहीं रख पाये लेकिन उनकी बातों में एक सचाई नजर आई और उन्होंने पार्टी पर लगी कालिख को कम करने में अपना सहयोग जरूर दिया। एक बात और रामबहादुर राय ने इस संबंध में एक अच्छा लेख लिखा, उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री के मंत्रिमंडल के सहयोगियों ने उन्हें जनउफान के संबंध में वस्तुस्थिति से अंधेरे में रखा लेकिन नौकरशाहों ने उन्हें अच्छा फीडबैक दिया। जब प्रधानमंत्री को भी वस्तुस्थिति की जानकारी न हो पाये तो ये दुख होता है कि सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर बैठे हुए लोग जनता के दुखों से कितने अनभिज्ञ हैं। वे २० साल बाद देश को महाशक्ति बनाना चाहते हैं लेकिन डबल डिजिट ग्रोथ पाने के लिए आज जो पीढ़ी पीस रही है उसके दुखों का हाल क्या इस सरकार को है? अब वक्त आ गया है कि शरद यादव और लालू यादव जैसे विदूषकों से हमें मुक्ति मिले, मनीष तिवारी जैसे अहंकारी लोग जो सफेद खद्दर पहनते हैं लेकिन गांधी की विनम्रता उन्हें छू भी नहीं गई हैं गांधीगिरी का सहारा लें और ऐसे लोगों को सत्ता से पदच्युत करें।