Wednesday, April 13, 2011

भारतीय इतिहास में सहिष्णुता की परंपरा


अगर भारत की पहचान अनेकता में एकता वाले बहुसांस्कृतिक समुदाय की बन पाई है तो इसका पूरा श्रेय इस देश की उदात्त एवं सहिष्णु परंपरा को जाता है। अनेक शताब्दियों तक द्रविण परंपरा से आर्य परंपरा का सुंदर संयोग हुआ और इसके बाद भी लगातार अनेक जातियों से सांस्कृतिक सम्मिलन की प्रक्रिया जारी रही। इसकी सुंदर अभिव्यक्ति वैदिक ऋचाओं में मिलती है। वैदिक ऋचाओं की मूल भावना समवेत की ओर है। वसुधैव कुटुम्बकं उसका लक्ष्य है। विश्वामित्र द्वारा रचा गया गायत्री मंत्र मूलतः अनार्यों को आर्य परंपरा में दीक्षित करने के लिए रचा गया था। अथर्ववेद में उल्लेखित व्रात्यष्टोम यज्ञ जनजातियों को आर्य परंपरा में समाहित करने की प्रक्रिया को विस्तारित रूप से बताता है। उपनिषदों का महान दर्शन भारत की सहिष्णुता के दस्तावेज के रूप में है। वृहदारण्यक उपनिषद के अनुसार जब ऋषि याज्ञवल्क्य ने संन्यास का निर्णय लिया तब गृह त्याग से पूर्व अपनी प्रिय पत्नी मैत्रेयी से मनचाहा वरदान माँगने का आग्रह किया। मैत्रेयी ने उनसे आत्मज्ञान देने का आग्रह किया, तब याज्ञवल्क्य ने उनसे सूत्र वाक्य कहा आत्मनस्तु कामाय सर्व प्रियं भवतु अर्थात अपनी आत्मा में विश्व की आत्मा देखने पर सारे राग-द्वेष समाप्त हो जाएँगे। उपनिषदों की यह सोच भारतीय परंपरा में अक्षत बनी रही। ईसा पूर्व छठी सदी में भारत में अध्यात्मिक बहस प्रखर हुई। इस समय भारत में ६४ संप्रदाय थे। अलग-अलग संप्रदाय होने के होने के बावजूद बहस ने नकारात्मक अथवा हिंसक मोड़ नहीं लिया अपितु गहरे भातृत्व के वातावरण में दार्शनिक वाद-विवाद संपन्न हुए। उदाहरण के लिए आजीवक संप्रदाय के प्रवर्तक मक्खलि गोशाल, जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी के मित्र थे। महाजनपदकालीन जिन राजाओं ने बौद्ध धर्म को प्रश्रय प्रदान किया, उन्होंने जैन धर्म को भी संरक्षण प्रदान किया। ये नये मत सनातन परंपरा से बिल्कुल अलग विचार रखते थे लेकिन विरोध के बावजूद सनातन परंपरा ने इनके प्रति आदर रखा। भौतिकवादी संप्रदाय के दिग्गज आचार्य चार्वाक का प्रसिद्ध श्लोक है। यावज्जीवेत सुखं जीवेत, ऋणं कृत्वा, घृतं पीबेत। भस्मीभूतस्य देह पुनरागमन कुतः।। यानी जब तक जियो सुख से जियो, ऋण लेकर घी पीओ, देह के नष्ट हो जाने के बाद इसकी वापसी कहाँ होगी? यह सोच सनातन परंपरा की सोच के बिल्कुल उलट है इसके बावजूद चार्वाक को परंपरा में ऋषि कहा गया। भारत में नंद वंश के खंडहरों पर खड़े हुए मौर्य साम्राज्य में सहिष्णुता की अनोखी परंपरा मिलती है। भारत के इस प्रथम साम्राज्य की स्थापना के पीछे एक ब्राह्मण चाणक्य की योजना थी। चाणक्य ने चंद्रगुप्त मौर्य को चेहरा बनाकर अपनी प्रसिद्ध पुस्तक अर्थशास्त्र के सिद्धाँतों पर चलते हुए मौर्य साम्राज्य की ठोस नींव रखी। मौर्य राजधानी पाटिलीपुत्र में रहने वाले सेल्युसिड साम्राज्य के राजदूत मेगास्थनीज ने अपनी पुस्तक इंडिका में लिखा है कि राजा धर्मगुरुओं का आदर करता था और चार अवसर जिस पर वह नगर से बाहर जाता था उसमें से एक अवसर यज्ञ संपन्न करने का अवसर भी होता था। चंद्रगुप्त मौर्य ने अपने अंतिम वर्षों में जैन धर्म ग्रहण कर लिया था और संलेखना के माध्यम से श्रवणबेलगोला में अपने प्राण त्यागे थे( संलेखना जैन धर्म में एक पद्धति है जिसमें साधक बिना कुछ खाए-पीए अपना प्राण त्याग देता है आधुनिक काल में विनोबा भावे ने इसी तरह अपनी देह का त्याग किया था)। चंद्रगुप्त के बाद बिंदुसार इस महान साम्राज्य के सम्राट बने। बौद्ध धर्म ग्रंथ दिव्यावदान में लिखा है कि उनके दरबार को आजीवक भिक्षु सुशोभित करते थे। मौर्य शासकों की दर्शन में गहरी रुचि की जानकारी एथेनियस के विवरण से प्राप्त होती है। इसके अनुसार सम्राट बिंदुसार ने सीरिया के राजा से विदेशी मदिरा, अंजीर और दार्शनिक की माँग की। अपनी पुस्तक अद्भुत भारत में एएल बाशम लिखते हैं कि बिंदुसार की कहानी यह बताती है कि भारत के राजा भौतिक सुविधाओं के साथ ही सत्य के बोध के लिए भी सजग रहते थे। सत्य के बोध की चाह ही उन्हें यूनानी दर्शन की ओर ले गई तथा वे भारतीय दर्शन की ओर बढ़े। भारत के सबसे महान सम्राट कहे जाने वाले अशोक अपने आरंभिक काल में शिव के उपासक थे। इसके बाद कलिंग युद्ध के पश्चात हुई ग्लानि से वे बौद्ध धर्म की ओर मुड़े। इसके बाद अशोक ने जीवन धम्म का प्रचार किया। उनका धम्म किसी खास संप्रदाय के विचारों तक सीमित नहीं था अपितु यह एक नैतिक जीवन शैली थी। अशोक ने जो अभिलेख जारी किए वे एक सम्राट के रूप में थे। इनमें बार-बार अशोक सभी संप्रदायों के बीच सहिष्णुता की बात करते हैं। अशोक की बौद्ध साधक के रूप में जानकारी उनके लघु शिलालेखों से होती है जो उन्होंने स्पष्ट रूप से बौद्ध संघ को एक साधक के रूप में संबोधित किए थे। अपने सबसे चर्चित तेरहवें अभिलेख में अशोक ने कलिंग युद्ध में मारे गए सभी संप्रदाय के साधकों के प्रति सहानुभूति व्यक्त की। बौद्ध धर्म के प्रति रूझान रखने के बावजूद अशोक ने सभी धर्मों के कल्याण की चिंता की। इसका प्रमाण गया के पास बराबर की पहाड़ियाँ हैं जिन्हें अशोक ने आजीविकों को दान की थी। मौर्यों के बाद पाटिलीपुत्र में सत्ता संभालने वाले शुंगों के संबंध में बौद्ध धर्म उदार नहीं है और इनमें शुंगों को बौद्ध उत्पीड़क की संज्ञा दी गई है लेकिन ऐतिहासिक स्तर पर मिले प्रमाण इसकी व्याख्या नहीं करते। शुंग काल में साँची और भरहुत के चारों ओर रेलिंग बनी, क्या ऐसा किसी असिहष्णु शासन में हो सकता था? मौर्योत्तर काल में उत्तर भारत जबर्दस्त आक्रमणों का शिकार हुआ, यद्यपि जितने भीषण यह आक्रमण थे, उसी स्तर का गहरा संवाद भी विदेशी जातियों के साथ भारत का हुआ। भारतीय साहित्य में यवन कही जाने वाली यूनानी जातियों के लिए अनेक स्थान पर आदरसूचक शब्द हैं। मसलन वराहमिहिर ने लिखा है कि यद्यपि यवन म्लेच्छ हैं लेकिन ज्योतिष के विद्वान होने की वजह से प्राचीन ऋषियों की तरह पूज्य हैं। महाभारत में भी यवन इंजीनियरिंग की तारीफ करते हुए उन्हें सर्वज्ञ यवन की संज्ञा दी गई है। सांस्कृतिक सम्मिलन को बढ़ावा देने के लिए यवन एवं अन्य विदेशी जातियों का आर्यीकरण किया गया। उदाहरण के लिए मनुस्मृति में लिखा है कि अपने कर्मों से च्युत क्षत्रिय ही शक और पहलव कहलाए। विष्णु की शरण में आने पर और वैष्णव जन की तरह व्यवहार करने पर यह जातियाँ पुनः शुद्ध हो सकती हैं। यवन शासक मिनेंडर ने बौद्ध धर्म ग्रहण किया। नागसेन की पुस्तक मिलिंदपन्हों(मिलिंद के प्रश्न) से इस युग की दिलचस्प दार्शनिक स्थिति का वर्णन मिलता है। कुषाण शासक कनिष्क के पिता विम कैडफिसस जहाँ शिव के उपासक थे वहीं कनिष्क ने हिंदू, बौद्ध, एवं यूनानी देवताओं के प्रति श्रद्धा दिखाई। पेशावर में कनिष्क ने एक महान बौद्ध स्तूप बनाया था। इसके ध्वंसावशेषों को कालांतर में बड़े शाह का मकबरा कहा जाने लगा। जब इसकी खुदाई हुई तो एक छोटे से पात्र में बुद्ध के अवशेष प्राप्त हुए। पात्र में कनिष्क को इंद्र, ब्रह्मा एवं बुद्ध के साथ अंकित किया गया है। यह अंकन पेशावर जैसे नगर की सार्वदेशिक छवि से बिल्कुल मेल खाता है। इस नगर के बाजारों में आज भी सीरियाई अंजीर से लेकर वैदिक सोमरस तक सब कुछ बिकता है। सहिष्णुता की यह परंपरा केवल उत्तर भारत में ही नहीं, दक्षिण भारत में भी दिखती है। जैसे उत्तर भारत सिल्क रूट के माध्यम से रोम साम्राज्य के वैभव का लाभ उठा रहा था, वैसे ही दक्षिण भारत भी रोमन समृद्धि का लाभ उठा रहा था। दो घटनाएँ बताती हैं कि दक्षिण में किस तरह की सांस्कृतिक सहिष्णुता थी। पहला तो केरल के मुजरिस में रोमन राजा ऑगस्टस का मंदिर और दूसरा सेंट टॉमस की भारत यात्रा। ईसा के बारह शिष्यों में से एक सेंट टॉमस ने ईसाई मत का प्रचार करने के लिए फिलीस्तीन से केरल तक कठिन यात्रा की। सेंट टॉमस ने जल्द ही क्रिश्चयन मान्यताओं के प्रति स्थानीय समुदाय में श्रद्धा उत्पन्न की। उनका विरोध भी हुआ। अनुश्रुति है कि मद्रास के पास मायलापुर नामक जगह में सेंट टॉमस की हत्या कर दी गई। भले ही टॉमस की हत्या हुई लेकिन स्थानीय जनता द्वारा उनका विश्वास अपनाए जाने से स्पष्ट है कि भारतीय जनमत हर नए विश्वास को आदर से ग्रहण करता था। सेंट टॉमस की मृत्यु के बाद भी केरल में सीरियाई ईसाई मत फलता-फूलता रहा। इसे संकट का सामना हिंदू अथवा मुस्लिम कट्टरपंथियों से नहीं करना पड़ा। इनके लिए वास्तविक संकट पंद्रहवीं सदी में तब आया जब पुर्तगालियों ने भारत के लिए वैकल्पिक मार्ग की तलाश शुरू की। १४९८ में जब वास्कोडिगामा भारत आया तब उसके पीछे पोप की पूर्वी धरती पर ईसाईयत के प्रसार की इच्छा भी काम कर रही थी। पुर्तगालियों ने सेंट टॉमस संप्रदाय को निशाना बनाया और उनके गिरजाघरों को अपने संप्रदाय के विचारों के अनुरूप नया रूप दिया, उनकी पूजा पद्धतियों को नकारा। फिर भी सेंट टॉमस संप्रदाय की मान्यताएँ भारत के समाज में जीवित रहीं। गुप्त काल को ब्राह्मणिक परंपराओं के उत्कर्ष का काल माना जाता है लेकिन जहाँ तक गुप्त राजाओं का सवाल है कहीं भी ऐसे प्रसंग नहीं आते जिसमें उन्होंने किसी खास धर्म का उत्पीड़न किया हो। चंद्रगुप्त द्वितीय के समय भारत यात्रा पर आए फाह्यान ने बिना चंद्रगुप्त का नाम लिए उनके शासन की प्रशंसा की। प्राचीन भारत के अंतिम हिंदू सम्राट कहे जाने वाले हर्ष ने भी व्यापक धार्मिक सहिष्णुता बरती थी और हिंदू धर्म और बौद्ध धर्म को बराबर महत्व दिया था। उसके समय भारत आए चीनी यात्री हुएनसांग ने तत्कालीन भारतीय समाज की धार्मिक सहिष्णुता की तारीफ की थी। ऐसा भी नहीं है कि कट्टरपंथी घटनाएं हुई ही नहीं। हर्ष के समकालीन राजा गौड़ नरेश शशांक ने प्राचीन बौद्ध वृक्ष को काट डाला जिसके नीचे बुद्ध को निर्वाण की प्राप्ति हुई थी लेकिन ऐसे प्रसंग कम ही मिलते हैं। विवेकानंद ने १८९३ में शिकागो में विश्व धर्म सम्मेलन में दिए गए भाषण में दो बातों को विशेष तौर पर रेखांकित किया था। पहला तो इस्लाम के प्रसार के समय भारत में आए पारसी तथा दूसरा फिलीस्तीन में इस्लाम के उभार के बाद आने वाले यहूदी। यह ऐसी ही घटना थी जैसे आधुनिक काल में तब हुई जब दलाई लामा के नेतृत्व में बड़ी संख्या में तिब्बती बौद्ध धर्म मतावलंबियों ने भारत में शरण ली। भारत में पारसियों को शरण दिए जाने की जानकारी आठवीं शताब्दी के संजन अभिलेख से मिलती है वहीं केरल में ग्यारहवीं सीद का एक ताम्रपत्र प्राप्त हुआ है जिसमें तत्कालीन राजा भास्कर रविवर्मन ने जोसेफ रब्बान नामक यहूदी को भूमि आवंटित की थी। आठवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी का समय जिसे गुप्तोत्तर काल अथवा सामंतवादी युग भी कहा जाता है ऐसा समय था जब धार्मिक रूढ़िवादिता बढ़ी और दार्शनिक बहस को कुछ हद तक विराम लगा। ग्यारहवीं सदी में भारत आने वाले दार्शनिक औऱ लेखक अलबरूनी ने अपनी पुस्तक तहकीक-ए-हिंद में इस तंग नजरिये का विरोध किया है। यह स्थिति अधिक समय तक नहीं टिकी और दक्षिण भारत से उठी भक्ति की तगड़ी लहर से रूढ़िवादिता को तगड़ी चुनौती मिली। इसका सुंदर संयोग सूफी आंदोलन से हुआ और भारत में गंगा-जमुनी संस्कृति की ठोस नींव पड़ी। आक्रांता इस्लामिक सेना के साथ शांति का पैगाम लेकर सूफी संत भी इस धरती पर आए और इस्लामिक रहस्यवाद के भारतीय रहस्यवाद के साथ संयोग की शुरुआत हुई। इस दार्शनिक संवाद की पृष्ठभूमि इस्लाम के वहदत-उल-वजूद और भारतीय दर्शन के अद्वैतवाद में निहित थी। दरअसल इस्लामिक रहस्यवाद का स्कूल वहदत-उल-वुजूद कहता है कि ईश्वर और उसकी बनाई सृष्टि में कोई फर्क नहीं है और अद्वैतवाद भी कहता है कि आत्मा और परमात्मा में कोई भेद नहीं। सूफी मत में वहदत-उल-वजूद की परंपरा को चिश्ती संतों ने आगे बढ़ाया। चिश्ती मत के तीन दिग्गज सूफी संत शेख मोइनुद्दीन चिश्ती, शेख निजामुद्दीन औलिया तथा शेख नसीरूद्दीन चिराग-ए-देहली ने सही मायनों में हिंदू जनता से संवाद की सार्थक शुरुआत की। शेख निजामुद्दीन औलिया के रहस्यवाद से प्रभावित होकर बहुत से हिंदुओं ने इस्लाम को भी अपनाया। औलिया नाथपंथियों के हठयोग से काफी प्रभावित थे और हिंदू रहस्यवाद में गहरी रुचि लेते थे। उनके सबसे प्रखर शिष्य थे अमीर खुसरो। खुसरो न केवल फारसी के बड़े लेखक थे अपितु हिंदवी जबान को अपनाने वाले पहले तुर्क थे। उन्होंने फारसी और हिंदी के संयोग से अनेक सुंदर रचनाएँ लिखीं। बलबन से लेकर गियासुद्दीन तुगलक तक छह राजाओं के दरबारी कवि रहे इस महान लेखक ने अपनी रचना में एक जगह लिखा है कि मैं हिंद का तोता हूँ, हिंदवी जबान में बात करना पसंद करता हूँ। मुझे हिंदुस्तान से प्यार है क्योंकि मातृभूमि से प्यार अहम फर्ज है। यहाँ की हवा खुरासान से बेहतर है और यहाँ के ब्राह्मण अरस्तु जैसे विद्वान हैं। तीन सौ साल पहले भारत आए अलबरूनी ने ब्राह्मणों की रूढ़िवादिता की आलोचना की थी, अमीर खुसरो ने उनकी तारीफ की है। इस्लाम के आगमन से भारत में दिलचस्प बहस की स्थगित परंपरा पुनः आरंभ हुई, वैसे ही जब बौद्ध धर्म के उत्कर्ष के बाद दिग्गज ब्राह्मण दार्शनिकों के बौद्ध दार्शनिकों के साथ शास्त्रार्थ हुए थे और दार्शनिक स्तर पर उपमहाद्वीप और भी समृद्ध हुआ था। सल्तनत के आरंभिक शासकों का रवैया हिंदुओं के प्रति सख्त रहा लेकिन वह कभी अव्यवहारिक नहीं हुआ। मसलन इल्तुतमिश के पास जब अमीरों का एक प्रतिनिधिमंडल शरीयत लागू करने की माँग लेकर गया तो इल्तुतमिश ने कहा कि हिंदुस्तान जैसे बहुलतावादी समाज में शरीयत लागू करना अव्यवहारिक होगा। तीखे तेवर से मध्यकालीन इतिहास लिखने वाले तत्कालीन इतिहासकार जियाउद्दीन बरनी ने अपनी पुस्तक तारीख-ए-फीरोजशाही में लिखा है कि जलालुद्दीन खिलजी अपने महल से चुपचाप यमुना में मूर्तियों को विसर्जित कराने पहुँचे हिंदुओं को देखा करता था। हिंदू गाजेबाजे के साथ जुलूस निकालते थे लेकिन उन पर सख्ती नहीं की जा सकती थी। मोहम्मद बिन तुगलक ने अपने पूर्ववर्तियों के कट्टरपंथ को छोड़ा और दार्शनिक संवाद आरंभ किया। उसने तत्कालीन जैन संत जिनप्रभा सूरी को अपने दरबार में आमंत्रित किया, वह होली खेलना भी पसंद करता था। कट्टर सुल्तानों के दौर में भी कुछ दिलचस्प वाकये मिलते हैं। उदाहरण के लिए कट्टर सुल्तान फिरोजशाह तुगलक के समय में जब ज्वालामुखी मंदिर को ध्वस्त किया गया तब सुल्तान ने वहाँ से प्राप्त दुर्लभ पांडुलिपियों के फारसी में अनुवाद के निर्देश दिए। अशोक के अभिलेखों को पढ़ने के लिए उसने पंडितों को बुलाया लेकिन पंडित इसकी लिपि को समझ नहीं सके। मौलवियों ने कहा कि इसमें काफिरों के लिखे हुए मंत्र हैं और इन्हें नष्ट कर देना चाहिए। फिरोज ने यह सलाह नहीं मानी और यह दुर्लभ अभिलेख बच गए। ऐसा ही वाकया कट्टर सुल्तान सिकंदर लोदी के समय का भी है। कुरूक्षेत्र के दौरे के पर सिकंदर लोदी ने ब्रह्म सरोवर के निकट बहुत से मंदिरों को देखा और इन्हें नष्ट करने के निर्देश दिए लेकिन जब उलेमा ने सलाह दी कि ऐसा करना शरीयत के खिलाफ जाना होगा तो लोदी ने अपने निर्देश वापस ले लिए। समाज में रूढ़िवाद के खिलाफ एक शक्तिशाली धारा चल रही थी और लोदी जैसे प्रतिक्रियावादी शासक इसे चाहकर भी रोक नहीं पाए। अनुश्रुति है कि जब कबीर ने हिंदू और मुसलमानों के रूढ़िवादी विचारों पर प्रहार करना शुरू किया तब सिकंदर लोदी ने उन्हें सख्त निर्देश दिए। कबीर ने इसकी परवाह नहीं की और उनके समर्थकों के बड़े हुजूम को देखते हुए सिकंदर लोदी ने अपने निर्देश वापस ले लिए। नानक के जीवन से जुड़े ऐसी ही प्रसंग हैं। इन दो भक्ति संतों ने धर्मों के असल संदेश को आम जनता तक पहुँचाया, इससे हिंदू और मुस्लिम मतावलंबियों की दूरी और कम हुई। एक बार फिर दक्षिण भारत की बात करें, दक्षिण में धार्मिक सहिष्णुता पहले ही स्थापित थी और यहाँ रहने वाले अरब मूल के इस्लाम मतावलंबियों ने तुर्कों का विरोध किया। अपने सुल्तान के निर्देश पर सुदूर दक्षिण भारत तक हमला करने पहुँचे मलिक काफूर को तब गहरा आश्चर्य हुआ जब उसने मदुराई में मुस्लिमों की बस्ती बसी हुई पाई और इन्होंने सुल्तान की सेना का विरोध किया। विजयनगर साम्राज्य में आए विदेशी यात्री डोमिंगो पेज ने लिखा है कि चाहे मूर हो, ईसाई हो, या अन्य मतावलंबी, राजा की नजरों में सब बराबर हैं। इराक के शाह शाहरूख के राजदूत अब्दुर्रज्जाक ने भी विजयनगर के राजाओं की धर्मनिरपेक्षता की गहरी प्रशंसा की है। बंगाल के इस्लामिक शासकों ने हिंदू धर्म का पूरा आदर किया और यहाँ के सबसे लोकप्रिय सुल्तान अलाऊद्दीन हुसैन शाह को जनता कृष्ण का अवतार कहती थी। हुसैनशाह ने वैष्णव संत चैतन्य का सम्मान किया और उनके शासनकाल में अनेक संस्कृत ग्रंथों का अनुवाद किया गया। सल्तनत का पतन और मुगल साम्राज्य की स्थापना कई मायनों में भारत में गंगा-जमुनी संस्कृति की स्थापना के दृष्टिकोण से अहम रही। अनुश्रुति है कि हुमायूँ ने मेवाड़ की रानी कर्णावती की राखी के जवाब में अपनी सेना गुजरात के राजा बहादुरशाह के विरुद्ध भेजी थी। हुमायूँ की पत्नी और अकबर की माँ हमीदा बानो बेगम एक सूफी संत की पुत्री थी। अकबर का जन्म भी अमरकोट के एक हिंदू राजा वीरसाल के यहाँ हुआ था। इसका अकबर की धार्मिक सहिष्णुता की नीति पर गहरा प्रभाव पड़ा। बादशाह बनने के बाद अकबर ने तीर्थयात्रा कर, जजिया और दासप्रथा समाप्त कर दिए। रहस्यवाद में गहरी रुचि के चलते अकबर ने १५७५ में फतेहपुर सीकरी में इबादतखाने की स्थापना की। इबादतखाने में हुई बहसों में विभिन्न धर्मों की अच्छाईयाँ भी सामने आईं और उनकी बुराईयाँ भी सतह पर आ गईं। विवेकपूर्ण तरीके से सोचने वालों के लिए ऐसी बहसें आँखें खोलने वाली थीं। अपने समय के बारे में टिप्पणी करते हुए अकबर के जीवनी लेखक अबुल फजल ने अपनी पुस्तक अकबरनामा में लिखा है कि जब तकलीद की हवा चलती है तब दानिशमंदी की परत धुँधली हो जाती है अर्थात जब रूढ़िवाद की आंधी चलती है तब आँखों को सच नजर नहीं आता। अकबर द्वारा १५८२ में तौहीद-ए-इलाही का ऐलान भी इसी दिशा में कदम था। अगर इस धार्मिक-दार्शनिक बहस से निकले सत्य को अकबर सार्वजनिक जीवन में आत्मसात नहीं करता तो इन बहसों को बौद्धिक लफ्फाजी मात्र कहा जाता और जनता के लिए इसका कोई विशेष अर्थ नहीं होता। अकबर ने तौहीद को लोगों पर थोपा भी नहीं, यहाँ तक कि अपने बेहद करीब दरबारियों पर भी नहीं। केवल ८० लोगों ने तौहीद की शास्ता ली जिसमें एकमात्र हिंदू के रूप में बीरबल भी शामिल थे। यहाँ उल्लेखनीय है कि इलाही कोई धर्म नहीं था इसे तौहीद के रूप में व्यक्त किया गया है। इस घटना के ८० साल बाद मोहसिन फानी ने इसे दीन-ए-इलाही के रूप में उल्लेखित किया। अकबर के बाद जहाँगीर ने भी अकबर की धर्मनिरपेक्ष परंपराओं को जारी रखा। फारसी में लिखी अपनी आत्मकथा तुजूक-ए-जहाँगीरी में उसने वेदों और इस्लामिक इल्हाम ग्रंथों में समता दिखाई। शाहजहाँ के गद्दीनशीन होते ही कट्टरता बढ़ी लेकिन अपने मित्र पंडित जगन्नाथ और कवीन्द्र आचार्य के कहने पर शाहजहाँ ने आरंभिक कड़ाई शिथिल कर दी। अपने अंतिम वर्षों में शहजादे दारा शिकोह के प्रभाव में शाहजहाँ की कट्टरता और भी शिथिल हुई। शहजादे दारा शिकोह को लेनपूल ने लघु अकबर कहा है। अगर उत्तराधिकार के युद्ध में समीकरण दारा के पक्ष में होते तो भारत में धर्मनिरपेक्षता की एक और इबारत लिखी जाती। दारा में रहस्यवाद के प्रति वैसा ही प्रबल रूझान था जैसा अकबर में। उसने काशी के पंडितों की सहायता से उपनिषदों का अनुवाद सिर्र-ए-अकबर शीर्षक से कराया। उसकी रचना मज्म-उल-बहरीन अर्थात महासागरों के मिलन में इस्लामिक रहस्यवाद की समानता वेदांत से दिखाई गई है। औरंगजेब ने धार्मिक सहिष्णुता की नीति पर गहरी चोट की। साम्राज्य की नींव अकबर ने बहुसंख्यक सांस्कृतिक समुदायों को साथ लेकर रखी थी, औरंगजेब ने इस ताने-बाने को नष्ट कर साम्राज्य की कब्र खुद खोद ली। तमाम मंदिरों को तोड़े जाने की घटनाओं के बीच कुछ दिलचस्प तथ्य भी मिलते हैं। इनमें बनारस एवं चित्रकूट के मंदिरों से मिले दस्तावेज हैं जिनमें औरंगजेब द्वारा इन मंदिरों को धार्मिक अनुदान दिए जाने का जिक्र मिलता है। औरंगजेब के बाद मुगल शासक पुनः धार्मिक सहिष्णुता की नीति की ओर लौटे लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। शिवाजी, जाटों और सिखों ने मुगल साम्राज्य को काफी खोखला कर दिया था। यद्यपि शिवाजी ने हिंदू धर्म उद्धारक की उपाधि धारण की लेकिन ऐसा कोई प्रसंग नहीं मिलता कि उन्होंने इस्लाम के प्रतीकों को किसी प्रकार की क्षति पहुँचाई हो। उनका प्रखर आलोचक खाफी खाँ ने भी अपनी पुस्तक मुन्तखब-उल-लुबाब में लिखा है कि उसने(शिवाजी ने) नियम बना रखा था कि कहीं भी लूटपाट हो तो धार्मिक प्रतीकों को नुकसान न पहुँचाया जाए। पवित्र कुरान अगर कहीं मिल जाती तो उसे सहेजने के लिए किसी मुस्लिम सैनिक को दे दिया जाता था। शिवाजी के नैतिक चरित्र एवं धार्मिक सहिष्णुता का उत्कर्ष तब देखने मिला जब अबीसीनियाई(सीद्दी) सरदार मुल्ला अहमद नवायत खान की अति सुंदर पुत्रवधू को उनके सामने पेश किया गया। शिवाजी ने इस मौके पर कहा कि अगर मेरी माँ भी इतनी सुंदर होती तो मैं भी कुरूप नहीं होता, ऐसा कहकर पूरे सम्मान के साथ उन्होंने खाँ की पुत्रवधू को विदा किया। मुगल बादशाह फर्रूखसियर के समय सैयद बंधुओं ने हिंदुओं के साथ उदारता का व्यवहार शुरू किया। अंतिम रूप से मोहम्मद शाह रंगीला के शासनकाल में जजिया हटा लिया गया। मुगल साम्राज्य के खंडहरों पर बने अवध और हैदराबाद जैसे रियासतों ने धार्मिक सहिष्णुता की नीति जारी रखी। अठारहवीं सदी में सवाई जयसिंह जैसे राजा भी हुए जो वैज्ञानिक सोच रखते थे। अपनी पुस्तक जीज-ए-मोहम्मदशाही की प्रस्तावना में जयसिंह ने लिखा है कि साम्राज्य नष्ट हो जाते हैं धर्म कुहासे की तरह छंट जाता है लेकिन वैज्ञानिक का कृतित्व हमेशा कायम रहता है। पुनर्जागरण के दौर में राजा राममोहनराय जैसे विचारकों ने फारसी और बांग्ला दोनों ही भाषाओं को समान रूप से महत्व दिया। राममोहन पर पूरा भरोसा करते हुए अकबर द्वितीय ने उन्हें राजा की उपाधि देते हुए अपनी पेंशन संबंधी याचिका लेकर इंग्लैंड भेजा जहाँ ब्रिस्टल में उनकी मृत्यु हो गई। धर्मनिरपेक्षता का यह रंग उर्दू और हिंदी कविता में भी मिलता है। मसलन गालिब को जितना प्रेम दिल्ली के प्रति था उतना ही बनारस की गलियों के प्रति अनुराग भी। टीपू सुल्तान के संबंध में कहा जाता है कि उन्होंने मराठा आक्रमण से नष्ट श्रृंगेरी के मंदिर के कुछ हिस्से की मरम्मत कराई। श्रीरंगपट्टनम के किले के भीतर गंगाधारेश्वर मंदिर में पूजा में उन्होंने किसी तरह का हस्तक्षेप नहीं किया। अठारहवीं सदी में अपने कर्म के प्रति निष्ठा सबसे बड़ी थी, मसलन पानीपत के तृतीय युद्ध में पेशवा का तोपखाना इब्राहिम खान गार्दी के हाथ में था जिसने पूरे शौर्य से अब्दाली की सेनाओं का मुकाबला किया। उन्नीसवीं सदी का एक अखबार जाम-ए-जहाँनुमा लालकिले के भीतर दुर्गापूजा का वर्णन करता है। १८५७ के महान विद्रोह के समय हिंदू-मुसलमान मिलकर लड़े। विद्रोह दबा दिया गया और फूट डालो राज करो की नीति का आगाज किया गया। हंटर की पुस्तक इंडियन मुस्लिम से दोनों संप्रदायों को लड़ाने की चालें शुरू हुईं वो १९४७ तक बदस्तूर कायम रहीं। लाख कोशिशों के बावजूद हिंदुस्तान में सहिष्णुता की आत्मा नहीं मरी जिसके लिए कभी इकबाल ने कहा था कि कुछ बात हैं हममें कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।