Friday, December 19, 2014

प्रयाग शुक्ल

हिंदी साहित्य के प्रेमियों के साथ यह विडंबना है कि उनके समय के साहित्यकारों की फैनफालोविंग वैसी नहीं जैसी प्रसाद- निराला के दौर में रही होगी लेकिन यह इतनी भी कम नहीं हुई कि कोई भी साहित्य प्रेमी उनसे मिल ले। मैं अशोक वाजपेयी जी से मिलना चाहता था और काफी प्रश्न सोच रखे थे लेकिन जैसे ही उन्होंने अपना वक्तव्य समाप्त किया, उनके श्रोताओं ने उन्हें घेर लिया और वाजपेयी जी से मुलाकात टल गई। उनसे मुलाकात टल जाना बड़ी विडंबना होती लेकिन प्रयाग शुक्ल जी के साथ गुजारी आधे घंटे की दो यात्राओं ने इस कमी को पूरा कर दिया।
प्रयाग जी के साथ उन्हें छोड़ने हम होटल कैनयन तक गए, यह गोधूलि बेला का वक्त था लेकिन उन्होंने गोधूलि बेला शब्द का प्रयोग नहीं किया, उन्होंने कहा कि दिन ढलने और शाम शुरू होने से पहले का यह समय मुझे बहुत अच्छा लगता है। यह नये रायपुर की गोधूलि बेला थी, दूर तक घास के निर्जन मैदान। मैंने उनसे कहा कि हिंदी के कई शब्द अब उपयोग में नहीं आते, मसलन बनारस में बार-बार मुझे पंत की वो पंक्तियाँ याद आती रहीं सैकत शैया पर दुग्ध धवल, तन्वंगी गंगा ग्रीष्म विरल। अब स्लिम शब्द प्रचलन में है किसी स्लिम लड़की को तन्वंगी कह देंगे तो उसे अजीब लगेगा। फिर पंत की वो पंक्तियाँ याद आईं, प्रिये आज रहने दो यह गृह काज, आज जाने कैसी वातास छोड़ती सौरभ श्लथ उच्छवास, आज भी क्या तुम्हें सुहाती लाज।
मैंने उन्हें बताया कि कैसे आज अशोक जी ने अपने संबोधन में धवलकेशी शब्द का इस्तेमाल किया, मैंने यह शब्द सुना नहीं था लेकिन बहुत आकर्षक लगा।
फिर प्रयाग जी ने कहा कि सचमुच हिंदी के कई शब्द अब जिंदा नहीं है। उन्होंने कहा कि कविता से लय का जाना एक दुर्घटना थी। उन्होंने प्रसाद की एक पंक्ति सुनाई, मैंने इसे कभी सुना नहीं था लेकिन वे बड़ी विलक्षण पंक्तियाँ लगीं। फिर उन्होंने निराला जी के साथ अपने संस्मरण सुनाएँ। वे जब 19 वर्ष के थे तो एक बार उनके बड़े भैया उन्हें निराला जी के दारागंज स्थित घर ले गए। घर में शमशेर भी थे और नागार्जुन भी। शमशेर ने इनका परिचय कराया और कहा कि यह लड़का भी साहित्य में रुचि रखता है और आपका सानिध्य चाहता है। निराला जी ने कहा कि तुम कहाँ रहते हो, प्रयाग जी ने बताया कि कलकत्ता में। फिर निराला जी ने उनसे बंगला में बातचीत शुरू की। प्रयाग जी बांग्ला के एक शब्द का सही उच्चारण नहीं कर पाए तो निराला जी का चेहरा तमतमा गया और उन्होंने प्रयाग जी को बुरी तौर पर डाँटा।
फिर बस्तर पर चर्चा हुई। मैंने उन्हें लाला जगदलपुरी द्वारा लिखी रोपित पुत्र सल्फी नामक कविता के बारे में बताया। उन्होंने बताया कि कैसे एक बार स्वामीनाथन के साथ बस्तर प्रवास के दौरान एक आदिवासी ने उनकी कार रूकवा ली। कहाँ जाओगे पूछने पर उसने सड़क की दोनों दिशाओं की ओर इशारे किए, स्वामीनाथन ने कहा कि इसे सल्फी चढ़ गई है। इसे गाड़ी में नहीं बिठाना है। ऐसे ही नारायणपुर में पता पूछने के दौरान एक व्यक्ति ने स्वामीनाथन को पहचान लिया। उसने पता बताकर खुद पूछा कि क्या आप स्वामीनाथन हैं जिनके चित्र और तस्वीर इस बार दिनमान के अंक में छपी है। स्वामीनाथन खुश हुए और उन्होंने मेरा भी परिचय देते हुए कहा कि प्रयाग जी भी दिनमान में लिखते हैं।
प्रयाग जी ने मुझे राजिम प्रेम के बारे में भी बताया, उन्होंने कहा कि बीस साल पहले राजिम गया था, वहां संगम देखना और प्राचीन मंदिरों का दर्शन करना अविस्मरणीय अनुभव रहा। मैंने जाते ही डिस्पैच लिखा। मैंने उनसे पुनः आग्रह किया कि आप फिर राजिम चलें लेकिन समयाभाव की वजह से यह संभव नहीं हो सका।
वे एनएसडी से करीबी रूप से जुड़े हैं और संगीत-नाटक से जुड़ी एक पत्रिका निकाल रहे हैं जिसका नाम संगना है। उन्होंने मेरा पता लिया है उम्मीद है मुझे वे अपनी पत्रिका प्रेषित करेंगे।

Monday, December 15, 2014

निकष भैया और उनकी कविता

धमतरी की कुछ स्मृतियाँ मेरे दिमाग में रह गई हैं उसमें सबसे खास है बया का घोसला। मेरे घर के सामने एक कॉलेज था और उसमें बया ने तीन घोसले बनाए थे। पीले रंग की चिड़िया जब इसमें आती थी तो मुझे लगता था कि झांक की देखूँ, बया की फैमिली कैसी है। घर के पीछे भी कुछ खास था एक आम का पेड़, वो बुजुर्ग आम का पेड़ हर दिन सुबह कुछ छोटे आम गिरा देता था और हम उन्हें चटनी बनवाने के लिए घर ले आया करते थे।
वो घर इसलिए भी खास था कि मेरे युवा चाचा वहाँ रहते थे, वैसे वो युवा थे भी और नहीं भी, इसका कारण यह है कि मुझे सुराग मिलते रहे कि उनकी स्कूली शिक्षा की डगर फिसलन भरी रही। बुजुर्ग दादा जी भी इसी घर में रहते थे लेकिन अधिकतर बिस्तर में रहते थे और अक्सर मैं सुनता था कि वो कहते हैं कि मैं अस्पताल नहीं जाउँगा। मुझे तब नहीं मालूम था कि अस्पताल इतनी बुरी जगह होती होगी और मरने जाने के लिए सचमुच बहुत बुरी। उनकी केवल एक स्मृति है एक दिन हम कहीं जा रहे थे, पापा ने उन्हें बताया कि इन्हें लेकर घूमने जा रहा हूँ और तब पापा और दादा दोनों ने मुझे आशीर्वाद दिया था। उस छोटे से घर की कई यादें आती हैं इनमें से एक हैं नारायण लाल परमार जी। हमने दूसरी कक्षा में उनकी कविता पढ़ी थी और हमें बताया गया कि था कि यह कवि हमारे बगल में रहते हैं। मुझे बड़ा आश्चर्य होता था कि पाठ्यक्रम के कवि क्या सचमुच किसी के पड़ोसी हो सकते हैं। मैंने उन्हें कभी नहीं देखा, या देखा होगा तो अब उन्हें देखने की स्मृति नहीं।
एक बार पड़ोस के सभी बच्चों ने तय किया कि आज पुलाव बनेगा, किसी के घर से चावल लिया गया, कहीं से सब्जी। सब बच्चों ने निकष भैया के घर भोजन किया। दीदी को फिर कभी नहीं देख पाया।
फिर  हम लोगों ने धमतरी छोड़ दिया और कई बरस बाद निकष भैया से सामना हुआ।
देशबंधु पर टेबल पर बैठे अच्छे दिनों का इंतजार करते हुए किसी ने प्रतिक्रिया की, लिखो तो निकष परमार जैसा लिखो, नहीं तो उसी सैलरी पर घिसटते रहो। यह वाक्य मुझे बड़ा शुभ लगा क्योंकि इससे यह भी संभावना बनती थी कि अच्छा लिख पाने पर कुछ उम्मीद यहाँ भी बनती है और दूसरा निकष भैया यहीं पत्रकारिता में हैं।
एक बार अपने प्रिय लेखक निर्मल वर्मा पर डॉ. राजेंद्र मिश्र या किसी और की संकलित एक किताब देखी, उस पर एक चैप्टर निकष भैया ने लिखा था। उसकी एक लाइन हमेशा दिमाग में अंकित रहती है पहली बार निर्मल को पढ़कर जाना कि शराब पीने वाले लोग भी अच्छे हो सकते हैं।
अब जब हाथ में एक पूरा कविता संग्रह लग गया है तो यह जैकपॉट हाथ आने जैसा है।
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 उनके कविता संग्रह  का नाम है पृथ्वी पर जन्म लेने के बाद, इसकी पहली कविता इसी नाम से है।
दुनिया में हैं और भी लड़कियाँ
पर मैं तुम जैसी किसी लड़की को नहीं जानता

आकाशगंगा में हैं और भी नक्षत्र
मगर उनमें से
हम नहीं चुनते अपना सूर्य

और ग्रहों पर भी होगा जीवन
उसे कौन ढूढ़ता है
पृथ्वी पर जन्म लेने के बाद।

उनकी कविता अवकाश की कविता है। जैसे समंदर की रेत में एक शाम गुजार रहें हों और कविता बन रही हो। जैसे घर के सामने घोसला बना रही बया और एक कविता बन रही हो। जैसे सर्दियों में देर तक लिहाफ में दुबके हों और बन रही है कविता। उनकी कविता आदमी को मशीन बनाने के विरुद्ध है और शहर को कांक्रीट का जंगल बनाने के विरुद्ध भी, इसलिए ही उनकी दृष्टि सड़क बनाने पर कट गए उस पेड़ की ओर भी जाती है जिसका कुसूर यह था कि इस शहर में जिंदा रहने के लिए एक पेड़ का पेड़ होना काफी नहीं था।

उनकी कविता सर्दियाँ मुझे बहुत खास लगी जो छोटी-छोटी उम्मीदों और सपनों को लेकर आती है। उसके कुछ अंश

सर्दियों का मतलब है
नींद खुलने पर अंधेरा देखना
और यह सोचकर खुश होना
कि हम कितनी जल्दी उठ गए।

सर्दियों का मतलब है
तेंदू के पत्ते जलाकर तापी गई आग
और देर तक उसके आसपास बैठे रहने का सुख

सर्दियों का मतलब है बगीचे में जाना
कसरत करना
और ब्रूस ली बनने के सपने देखना

सर्दियों का मतलब है
सुबह दौड़ने के लिए बलदेव का आना
और छोटे भाई के साथ सारे घर को जगा जाना

सर्दियाँ
अब पहले जैसी नहीं रहीं

छोटा भाई काम से देर रात लौटता है
और सुबह जल्दी नहीं उठा पाता
बलदेव ट्रक चलाता है
और अक्सर शहर से बाहर रहता है।

जैसे मुक्तिबोध एक ही तरह की कविता हर बार लिखते रहे, अलग-अलग बिंबों से, वैसे ही निकष भैया की कविता भी अलग-अलग बिंबों में एक ही ओर जाती है। उनका वक्त और अवकाश जो खो गया शहर में।

दोस्तों के पते कविता से भी इसका आभास मिलता है।

जिंदा रहने की लड़ाई ने
जिंदा रहने की वजह के बारे में
सोचने का समय नहीं दिया
भीड़ के साथ दौड़ते-दौड़ते
मैं घर से बहुत दूर चला आया।

कुछ बरस पुरखों का पुण्य बेचकर पेट भरता रहा
फिर रोजी-रोटी के लिए मुझे गिरवी रखना पड़ा अपना वक्त
जिसे फिर छुड़ा नहीं सका।

घर वालों को जब जब जरूरत पड़ी
मेरे पास उनके लिए कुछ भी नहीं था
सिवा बहानों के

धीरे-धीरे बहाने खत्म हो गए
खत्म हो गए घर वालों के सवाल
दोस्तों की चिट्ठियों में लिखने लायक बातें खत्म हो गईं
और एक-एक कर उनके पते खो गए।

जब निकष भैया ब्रूस ली को कविता में ले आए हैं तो मैं भी नमक हराम फिल्म को उनकी कविता समीक्षा के दौरान ले आने की छूट ले सकता हूँ और दिये जलते हैं फूल खिलते हैं गाने के बीच अंतरे के दौरान राजेश खन्ना के लिए कहे गए अमिताभ बच्चन के शब्द मेरे लिए तो बड़े गुलाम अली, छोटे गुलाम अली तुम्ही हो को कुछ परिवर्तित कर यूँ कह सकता हूँ कि मेरे लिए तो विनोद कुमार शुक्ल और अशोक वाजपेयी निकष भैया ही हैं।