Monday, July 22, 2013

ईश्वर आप इस वक्त क्या कर रहे होंगे?

भगवान इस वक्त क्या रहे होंगे, ये मेरी प्राथमिक दिलचस्पी का विषय है? क्या इस दौर में उनका रूटीन वैसा ही होगा, जैसा सतयुग में, द्वापर अथवा त्रेता में था? सतयुग का उनका रूटीन तो आँखों के सामने झलक जाता है। वे क्षीर सागर में सोये हैं। लक्ष्मी पैर दबा रही हैं। उनका पीआरओ नारद बहुत एक्टिव है डेली न्यूज सुना जाता है। जय-विजय उनके द्वारपाल हैं। घमंड से भरे हुए। इससे ज्यादा कुछ नहीं मालूम उनके बारे में। अब कलियुग में कैसा सिस्टम है। नारद की भूमिका का विशेष मतलब नहीं होगा उनके लिए, वे आईफोन इस्तेमाल करते होंगे, भक्तों की सारी शिकायतें आनलाइन दर्ज हो जाती होंगी निराकरण भी होता होगा और कुछ शिकायतें पड़ी रह जाती होंगी।
                                                      धरती पर चढ़ाए गए सारे फूल उन तक पहुँच जाते होंगे लेकिन पहले जैसे नहीं। ईश्वर तक फूल पहुँचते रहे, यह ईश्वर से मेरी सबसे बड़ी प्रार्थना है। कल न्यूज में राजेश खन्ना की बरसी पर एक कार्यक्रम दिखा रहा था, जब वे सुपरस्टार थे तो रोज एक ट्रक फूल उनके घर तक पहुंचते थे और उनका बंगला आशीर्वाद फूलों से महक जाता था, जब अमिताभ आये तो उनके स्टारडम की चमक फीकी हो गई और एक दिन ऐसा हुआ कि एक फूल भी उनके बंगले में नहीं आया।
              धरती से उनका संबंध काफी कम हो गया होगा, क्योंकि कलियुग के बारे में उन्होंने पहले ही चुनौती दे दी थी लेकिन उन्हें धार्मिक सीरियल देखना अच्छा लगता होगा, उन्हें कलियुग में भी त्रेता का आभास जरूर मिला होगा जब उन्होंने रामानंद सागर का सीरियल रामायण देखा होगा और जब नीतीश भारद्वाज महाभारत में गीता का संदेश दे रहे होंगे तो उन्हें जरूर भ्रम हुआ होगा कि कहीं द्वापर लौट तो नहीं आया और उन्होंने कृष्ण का रूप एक बार फिर धर लिया है।
                                         वे धरती से जरूर दुखी होंगे, इसलिए उन्होंने आकाशवाणी भी नहीं की, सतयुग में इस बात का संतोष था, आकाशवाणी होती थी और ईश्वर कई बार तफरीह के लिए धरती में भी आ जाते थे।
                                                      क्या अपने लोक में वे सनातन सुख भोग रहे होंगे? जब-जब दिव्यलोक के ऐसे पौराणिक किस्से सुनने मिलते हैं मुझे जयदेव के गीत गोविंद की वो लाइनें जरूर याद आती हैं।
वसति विपिन विताने, त्यजति ललित धाम
लुठति धरणि शयने, बहु विलपति तव नाम
  अपने ललित धाम को छोड़कर , सूर्य की रश्मियों से आलोकित गोलोक को छोड़कर कृष्ण धरती में सोते हैं राधिका का नाम लेते हैं.........
                                             कलियुग अपने अंतिम छोर की ओर बढ़ रहा है और चमत्कार नहीं हो रहे, आखिरी आध्यात्मिक कहानी विवेकानंद और रामकृष्ण की सुनी। अपने थोड़े से अंश में ईश्वर गांधी जी के साथ भी आ गये थे। अब कहीं नहीं है केवल उन करोड़ों बच्चों की मुस्कान में ही वे खिल जाते हैं हरदम, इसके अलावा कलियुग में उनकी दिलचस्पी धरती से एकदम घट गई है।

Saturday, July 20, 2013

स्कूल की पहली स्मृति





 स्कूल की सबसे पहली स्मृति दल्ली राजहरा की है। दो-तीन बातें ही याद रह गई हैं। पहली तो यह कि कक्षा की खिड़कियों से पहाड़ियाँ दिखती थीं, उस समय पहाड़ियाँ हरी-भरी थीं। बैठने के लिए डेस्क की व्यवस्था थी। मैं देर तक पहाड़ियों की ओर देखता रहता था। न टीचर याद हैं न साथ के बच्चे। केवल एक दोस्त था उसका नाम था दामोदर, वो इसलिए याद है कि उसके हाथों में छह ऊँगलियाँ थीं। स्कूल में पढ़ा हुआ कुछ भी याद नहीं, बस एक पाठ याद आता है नैतिक शिक्षा का। एक साधु की कहानी थी, उसे एक बिच्छू काट रहा था लेकिन वो कष्ट सह रहा था। घर आकर नये अक्षर लिखना सीखता था, जीवन का सबसे पहला कठिन अनुभव यही था लेकिन इसका लाभ हुआ, मैं कविता पढ़ना सीख गया था और बहन की क्लास फोर्थ की एक कविता मुझे बहुत अच्छी लगती थी, खूब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी।
                                                        स्कूल की इतनी कम स्मृतियाँ इसलिए हैं कि मैं शायद ही कभी स्कूल जाता था, घर से टिफिन लेकर पापा के साथ निकलता था, जिद करता था पहाड़ दिखाओ, पहाड़ के ऊपर वाला मंदिर दिखाओ, बस मैं टाइम पास करना चाहता था लेकिन एक अजीब किस्म का अपराध बोध भी मेरे मन में घिरता था। मुझे उस दौर में कापियाँ बहुत अच्छी लगती थीं। उस समय सरकारी राशन दुकानों में कापियाँ भी मिलती थीं, उनकी प्रिंटिंग क्वालिटी बहुत अच्छी होती थी। हमारा स्कूल बहुत प्रोग्रेसिव था और अच्छे नंबर पाने वालों बच्चों को कॉपियाँ गिफ्ट की जाती थीं, ऐसे ही एक मौके पर जब प्रतिभाशाली बच्चों को कॉपियाँ बंटी, मैं बहुत निराश हुआ, कॉपी बहन को मिली, मुझे नहीं। बच्चों को गणवेश भी फ्री में बाँटे जाते थे, मुफ्त की चीजों में मुझे हमेशा से रुचि थी लेकिन जब मैं गणवेश लेने पहुँचा तो बताया गया कि गणवेश नियमों के अनुसार मिलेंगे और कुछ ही बच्चों को मिलेंगे।
                                                               बचपन का असल रंग मैंने शाम को देखा, शाम को बहुत से बच्चे इकट्ठे हो जाते थे, शाम को पहाड़ी से सूर्य ढलता था और एक रेस लगती थी बच्चों में कौन सूरज को पकड़ेगा। सूरज और चाँद की तुलना में मैं सूरज के अधिक करीब था क्योंकि एक कहानी सुन रखी थी। एक बूढ़ी माँ के दो बच्चे थे चाँद और सूरज। वो उन्हें एक जगह खाना खिलाने ले गई। यहाँ कुछ हादसा हुआ और चाँद ने बूढ़ी माँ के साथ बदमाशी की, तब मुझे लगने लगा कि सूरज अच्छा है चाँद बुरा। पर चाँद के बारे में धारणा बदली, हम लोग दूसरी मंजिल में रहते थे और हर दिन चाँद दिखता था, एक बार शाम ढलने के समय मैंने चाँद को अपनी छत से देखा, वो इतना बड़ा, इतना करीब था कि मुझे अजीब सी अनुभूति हुई। यह घटना मुझे आध्यात्मिक अनुभव की तरह लगती है। शायद चाँद के ऐसे ही कौतूहल ने श्री कृष्ण को यह कहने के लिए प्रेरित किया होगा, मैंया मैं तो चंद्र खिलौना लेहौं।

Sunday, July 7, 2013

सरकारें भूल रही पहली प्राथमिकता





बीती रात इंडिया न्यूज ने केदारनाथ हादसे से ठीक पहले दिन का फूटेज जारी किया, उसमें एक बच्चे को गौरीघाट से ऊपर पालकी वाले ले जा रहे थे। बच्चा रो रहा था, शायद उसे डर था कि उसे कहाँ ले जाया जा रहा है? अगले दिन बच्चे के साथ क्या हुआ, हम नहीं सकते? अजीब सा यह दृश्य था, इसे देखकर डिस्कवरी चैनल में देखा हुआ हिटलर के पोलैंड स्थित आश्वित्ज कैंप का दृश्य याद आ गया। एक दिन कैंप के अधिकारियों ने पकड़े हुए छोटे यहूदी बच्चों को बुलाया। उन्हें एक बिल्डिंग का मुआयना कराना था। बच्चे बहुत खुश थे, बच्चों के कपड़े निकलवा लिए गए। उन्हें कतार से बिल्डिंग के भीतर भेज दिया गया। दरवाजा बाहर से बंद कर दिया गया और जहरीली गैस अंदर छोड़ दी गई। इस तरह गोरिंग और हिटलर ने अपने फाइनल साल्यूशन को मूर्त रूप दे दिया।

                                   इन दो घटनाओं की समता नहीं की जा सकती लेकिन मेरे मन में इसके बाद तत्काल यही बिंब उभरा। इतने छोटे बच्चे जिन्होंने अभी जीवन शुरु भी नहीं किया था जिन्होंने पहाड़ केवल जैक एंड जिल जैसे पोयम्स में ही जाने थे, उनके लिए जीवन के इतने डरावने रूप को देखना कितना भयावह होगा? इसका दोष किसे है? इसका मंथन हमें करना होगा? तभी हमारे बचे रहने की सूरत नजर आयेगी?
          मुझे लगता है कि सबसे पहला प्रश्न राजनीति के स्वरूप पर होना चाहिए कि हमें सरकार आखिर क्यों चाहिए और इस दौर में सरकार की जरूरत हमें सबसे पहले किस चीज के लिए है। अगर परंपरा में इसकी जड़ें ढूँढे तो एक कहानी मिलती है बौद्ध ग्रंथों में। पहले लोग सुखी रहते थे, लेकिन जब संपत्ति का उदय हुआ तो लोगों में झगड़े होने लगे, इनके निपटारे के लिए और इन पर नियंत्रण रखने के लिए एक समवेत शक्ति का गठन किया गया जिसे राज्य का रूप दिया गया और इसका प्रधान राजा कहलाया। अर्थात राजा जो सुरक्षा दे। हिंदू ग्रंथों में भी यही बात है जब धरती में अत्याचार बढ़ गए तो देवताओं ने पृथु को धरती पर राज्य करने भेजा। उसने राक्षसों का दमन किया और लोगों को सुरक्षा दी।
                   नई सरकारों के लिए सुरक्षा सबसे आखिरी विषय होता है क्योंकि लोगों को सुरक्षा देने से उन्हें वोट नहीं मिलते, कुंभ मेले में सिक्योरिटी बढ़ा दी जाए तो जनता का ध्यान उस पर नहीं जाएगा, हाँ यहाँ पर सरकार द्वारा प्रायोजित भंडारा खोल दिया जाए तो पब्लिक जरूर दुआ देगी, कई चीजें जो पब्लिक को बहुत अच्छी लगती है और इससे वोट भी भरपूर मिलते हैं और इनसे विकास भी होता है वो राजनेताओं को बहुत भाती है क्योंकि इनसे उनकी जेबें भी भरती हैं। लोगों को सुकून के लिए हर पल बिजली देना भी उनमें से एक है। यह पूरी तौर पर विन-विन सिचुएशन होती है। पर्यटन भी ऐसा ही धंधा है। उत्तराखंड सरकार ने तमाम आशंकाओं के बावजूद लाखों लोगों को केदारघाटी में आने दिया। पर्यटकों को बड़ी आबादी को पोषित करने के लिए उत्तराखंड की आधारिक संरचना को झोंक दिया गया और पहाड़ों को खोखला कर दिया गया। इससे अनिष्ट आना ही था। एक बार अरूंधति राय ने वीक में एक आलेख लिखा था, उसकी हेडिंग मेरे दिमाग में आज तक कौंधती है। बिग डैम एवं न्यूक्लियर वीपन आर वीपन ऑफ मॉस डिस्ट्रक्शन।
                    गांधी की बातें उस दौर में पाश्चात्यवादियों को बकवास लगती थी लेकिन जब वे कहते थे कि हमें अपनी आवश्कताएँ सीमित रखनी चाहिए तो इसके पीछे गहरी सोच छिपी थी।
                   उत्तराखंड की विपदा को हमें नहीं भूलना चाहिए, हमारे समय के संकट से जूझने के लिए इसे सबक के रूप में याद रखना चाहिए और कुछ सचमुच में संतोष देने वाली चीज करने की कोशिश करनी चाहिए। इस समय थियो को लिखा वॉन गॉग का एक पत्र याद आ रहा है जिसमें उन्होंने रेनन को उद्धत करते हुए लिखा था। मनुष्य इस धरती में केवल खुश होने के लिए नहीं भेजा आया, वो केवल इमानदार होने के लिए भी नहीं भेजा गया, उसे भेजा गया है कुछ बड़ा हासिल करने, महान कार्य करने और उस क्षुद्रता से बाहर निकलने जिसमें हम सबका अस्तित्व घिसटता रहता है।