छत्तीसगढ़ में हमारी पीढ़ी की राजनीति को जानने और समझने की शुरूआत वीसी से
हुई। अखबार वीसी की खबरों से भरे रहते थे और अखबारों से बाहर उनके फार्महाउस
सिपहसालारों और उनकी दबंगई की चर्चा। चार गोलियाँ लगे होने के बावजूद भी उनकी दृढ़ता
को देखा तो ये बात समझ आई कि चार दशक की दबंगई उन्होंने कैसे कायम की और कैसे ८४
की पकी उम्र में भी समर्थकों की बड़ी फौज अपने भैया के साथ खड़ी है। एक किस्सा याद
आता है जो मेरे एक परिचित ने मुझसे शेयर किया था। पुरानी बात है तब वीसी और
पुरुषोत्तम कौशिक दोनों ही दिल्ली में थे। मेरे परिचित दिल्ली में किसी संस्थान
में एडमिशन के लिए गए थे। उनके एक राजनीतिक रिश्तेदार ने उन्हें दिल्ली में किसी
तरह की मदद के लिए दो पर्चियाँ दी थीं। पहली पर्ची कौशिक के नाम थी और दूसरी वीसी
के नाम। उन्हें लगा कि पहले कौशिक के दरवाजे खटखटाने चाहिए। कौशिक ने उन्हें रूम
दिला दिया लेकिन यह उन्हें पहले ही ठहरे कुछ और लोगों के साथ शेयर करना था,
आने-जाने में किसी तरह की मदद नहीं। कौशिक ने साफ कह दिया कि तुम अगर चाहते हो कि
मैं सरकारी खजाने से खर्च कर यह मदद कर पाऊँ तो ऐसा नहीं हो पायेगा। मेरे परिचित
ने सोचा कि क्यों न वीसी के पास कोशिश की जाए। वो वीसी के पास गए, वीसी ने उन्हें
अच्छा कमरा दिलवाया, एक अटेंडेंट की व्यवस्था की उन्हें संस्थान तक छुड़वाने के
लिए, वे अभिभूत थे। ये खास वीसी की स्टाइल थी और इसके किस्से हम सबने अपने करीबी
लोगों से सुने होंगे।
पटेल से जुड़ा हुआ एक अनुभव याद आता है। उन दिनों मैं देशबंधु में था और
जिंदल ने एक बिजनेस कांफ्रेंस का आयोजन किया था रायगढ़ में। बिजनेस रिपोर्टर के
नाते मुझे भी बुलाया गया था। जिंदल की चार्टर प्लेन जिस पर हमें ले जाया जा रहा था
उसमें पटेल भी सवार थे। पटेल को मैंने इसी यात्रा में जाना और जो छाप मेरे मन में
पड़ी वो अब तक कायम रही। उनके बैठते ही प्लेन शुरू हो गया और जब उड़ने को तैयार हो
गया तो उन्होंने कहा कि देख मोर वजन कतका बढ़ गे हे, प्लेन घलो उल्ला हो गे हे।
फिर आधे घंटे के रास्ते में वो लगातार बोलते रहे, अधिकतर छत्तीसगढ़ी में ही बोले।
एक छत्तीसगढ़ी आदमी की सरलता उनमें थी, रमन का कोई विकल्प अगर कांग्रेस में था तो
पटेल ही थे।
कर्मा की शख्सियत सबसे अलग थी, मैं
उनसे उस वक्त मिला जब पार्टी में वे हाशिये पर किये जा चुके थे। कर्मा के पक्ष में
आज जो लोग इतना बोल रहे हैं वे सबके सब उनके विरोधी हो चुके थे और इसका गहरा दुख
उन्हें था। मैंने उनका इंटरव्यू लेना चाहा तो उन्होंने एक बजे का समय दिया, मुझे
याद आता है कि मैं सही समय पर नहीं पहुँच पाया था और वे मुझ पर नाराज हुए थे। उनसे
पूछे गए सारे सवाल मैं भूल चुका हूँ लेकिन उनका कड़क चेहरा और तेवर मुझे याद हैं।
वे उत्तर नहीं देते थे, नाराजगी जाहिर करते थे। भीतर ही भीतर पार्टी में हाशिये पर
किए जाने से वे दुखी थे। मुलाकात के दौरान उन्होंने खुलकर अपने विरोधियों को कोसा।
कर्मा से मिलने के पहले मैं पुरानी रटी-रटाई बात मानता था कि आदिवासी भोले होते
हैं। कर्मा को देखकर बस्तर का सही चरित्र समझ आया और तभी समझ आया कि कर्मा सलवा
जुड़ूम पर इतना भरोसा क्यों रखते थे?
उदय मुदलियार पर
मेरी जानकारी कम है क्योंकि मैं राजनीति में गहरी रुचि नहीं रखता लेकिन इतना जरूर
याद आता है कि विधानसभा चुनावों के समय अखबार के दफ्तर में जब हम बैठे थे तो हमारे
सीनियर रिपोर्टर ने नांदगांव चुनावों के बारे में अपनी सर्वे रिपोर्ट जाहिर की,
उन्होंने कहा कि मुदलियार का पक्ष भी काफी मजबूत है। छत्तीसगढ़ की राजनीति में
जहाँ टिकटों का समीकरण जातिगत आधार पर तय होता है एक साउथ इंडियन का अपना प्रभाव
जमाना उसकी गहरी काबिलियत को बताता है।
इतने
प्रतिभाशाली नेतृत्व की हत्या की कोशिश को केवल नक्सली हमला कह देना इसे छोटा कर
देखना होगा, जयराम रमेश ने इसके लिए सही शब्द का उपयोग किया है हॉलोकॉस्ट। इस घटना
के बाद मुझे पानीपत के तीसरे युद्ध से जुड़ा वो वाकया याद आता है जब काशीराज पंडित
ने युद्धभूमि से लौटकर पेशवा को पानीपत की लड़ाई का नतीजा सुनाया था। तीन हीरे खो
गए, २७ मोती खो गए और रत्नों का तो हिसाब ही नहीं........