Friday, February 15, 2013

spring is the season, that drops the reason, of lovers who truly love





मैं जूली का गाना माई हार्ट इज बीटिंग सुन रहा हूँ, ऐसे तो मैं हमेशा इसे सुनता हूँ लेकिन वसंत के आगमन के मौके पर इसे सुनने में मुझे खास आनंद आता है। इसकी अंतिम लाइनें खास तौर पर वसंत को और अधिक ग्लोरीफाई करती है।  
spring is the season, that drops the reason, of lovers who truly love
                                                         इस खूबसूरत गीत की रचना हरिन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय ने की थी जिन्होंने बावर्ची फिल्म में दद्दु की भूमिका निभाई थी। अरसे पहले हिंदी फिल्म के लिए लिखा यह इंग्लिश का गीत इतना लोकप्रिय हुआ, इससे काफी आश्चर्य होता है। शायद इसमें प्रेम और वसंत का कॉकटेल था जिसने इस गीत को लोकप्रिय किया। जब यह गाना चित्रहार में आता था तो पापा बताते थे कि इसमें जो छोटी लड़की है वो श्रीदेवी है और बड़ी लक्ष्मी।
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मुझे गोलमाल का गीत आने वाला पल जाने वाला है भी याद आता है। इस गाने का वो अंतरा मुझे बहुत भाता है। एक बार वक्त से लम्हा गिरा कोई, वहाँ दास्तां मिली लम्हा कहीं नहीं, वसंत में प्रेमिका अपने प्रेमी को प्राप्त करने की कामना से अशोक वृक्ष पर आघात करती है। फूल गिरते हैं और उसकी कामना पूरी होती है। अजीब सा संयोग है कि पश्चिम में वेलेंटाइन को वसंत में ही सजा मिली और राजा भोज भी इसी दिन वसंतोत्सव का आयोजन करते थे।
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वसंत के आने से निराला भी बहुत याद आते हैं उनकी कविता, यद्यपि ईर्ष्या नहीं मुझे, लेकिन मैं ही वसंत का अग्रदूत, ब्राह्मण समाज में ज्यों अछूत। उनका वसंत हमें ग्लोरीफाई करता है। अपनी पहचान दिलाता है। इसके बाद कितने कवियों में वसंत पर कविताएँ लिखी होंगी लेकिन वसंत के ब्रांड एम्बेसडर निराला ही रहे।
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वसंत पर माँ सरस्वती भी याद आती हैं। वो कितनी सोबर हैं। मुझे याद आता है जब पहली बार ज्ञात स्मृतियों में मैं बाल कटाने गया, तो वहाँ दुकान में सरस्वती जी का एक पोस्टर लगा था। वो वीणा बजा रही थीं, उनके बगल से एक नदी गुजर रही थी। एक मोर पास ही खड़ा था। मुझे लगा कि ये जरूर स्वर्ग का दृश्य होगा। वसंत का यह मेरे जीवन में पहला रंग था, कविता और संगीत से भरा। अरसे बाद पता चला कि ये चित्र राजा रवि वर्मा ने बनाया है। देवी सरस्वती के प्रति जो मन में श्रद्धा के भाव हैं उसमें बहुत बड़ा योगदान राजा रवि वर्मा का है जिन्होंने इस स्वर्गिक दृश्य को साकार किया। मुझे याद आता है कि स्कूल में वासंती परिधान पहने लड़कियां जब देवी सरस्वती की आराधना करती थीं तब लगता था कि दुनिया में कहीं न कहीं पढ़ने वालों के लिए भी स्पेस है भले ही वो बहुत सीमित हो।
                                            

Wednesday, February 6, 2013

मेरी कालोनी के हनुमान



उस घटना को चार सौ साल गुजर गए जब हनुमान जी अंतिम बार इस धरती पर अपने अवतारी रूप में प्रकट हुए। फिर तुलसी जैसा भक्त नहीं आया, उन्हें लीला धरने की जरूरत नहीं हुई। फिर हनुमान किसी को नहीं दिखे, वो इलाहाबाद में लेट गए गंगा के किनारे। यह कथा बार-बार याद आती है और सोचकर अच्छा लगता है कि भविष्य में कभी तुलसी जैसे भक्त दोबारा आए तब हनुमान जी भी उन्हें दर्शन लाभ देने अवतार ले लेंगे।
    फिर भी मुझे कभी हनुमान जी के उस रूप में दर्शन करने की इच्छा नहीं हुई। मेरे कॉलोनी के संकट मोचक हनुमान जी इसकी बड़ी वजह हैं। जब भी उनके दर्शन को जाता हूँ और उनकी द्रवित मूर्ति को देखता हूँ तो जैसे सारे क्लेश क्षरित हो जाते हैं तब पाप का भाव मन से नष्ट हो जाता है। ऐसा लगता है कि चार सौ साल बाद भी वो गए नहीं, भक्तों के प्यार से मजबूर यहीं रह गए।
                              पहले नियम था हम तीन दोस्तों का, मंगलवार को जाते थे, एक खास समय में मिलते थे। प्रसाद का नारियल खाकर लंबी चर्चा शुरू करते थे। अब मैंने वो नियम तोड़ दिया। अब अरसे बाद जाता हूँ तब जाता हूँ जब बड़ी खुशी मिलती है तब जाता हूँ जब जन्मदिन होता है। कई महीनों से ऐसा नहीं हुआ कि मन में भाव आया कि दर्शन कर लूँ। बहुत देर से जाने के बाद उनके चेहरे पर शिकायत का भाव दिखता है लेकिन वे ऐसे देवता हैं जिनसे डर नहीं लगता। गणेश जी की तरह ही हनुमान जी बेहद सरल भगवान हैं।
                      पहले उनके सामने मैं मन्नतों की लंबी किश्त रख देता था, अब डिप्लोमैट हो गया हूँ। कह देता हूँ भगवान सुख-शांति दो, मन का अहंकार भी पुष्ट हो जाता है कि मैं अब माँगता नहीं और माँग भी रख देता हूँ।
                                               अजीब सी बात है कि मुझे हनुमान क्यों अच्छे लगते हैं क्योंकि मैं कभी शक्ति के पीछे नहीं पड़ा। हनुमान की बलिष्ठ भुजाओं और पहाड़ उठा लेने, समुद्र को पार करने की अदा की वजह से उनका भक्त नहीं बना। हो सकता था कि एक ताकतवर भगवान मुझे डरा देते और देवी पूजा की तरह ही पूजा में थोड़ा सा भी खलल होने से मैं घबरा जाता लेकिन हनुमान जी शक्ति के शिखर पर खड़े हो जाने के बावजूद भी विनम्र हैं उन्होंने अपने लिए सबसे निचली सीट ली है।
       ग्रुप फोटो खिंचाने के वक्त अपने महत्व का एहसास कराते हुए हम सबसे महत्वपूर्ण आदमी के बगल की सीटों में बैठते हैं। जमीन में बैठे लोग सबसे निचली श्रेणी के होते हैं लेकिन हनुमान जी ने हमेशा वही मुद्रा अपनाई और वो भी सेवा की मुद्रा।
                            समर्पण का ऐसा भाव किसी देवता में नहीं दिखता। शक्ति के शिखर पर होने के बावजूद वैराग्य की ऐसी भावना किसी देवता में नहीं।
              आज जब मैं मंदिर के करीब से गुजरा और युवाओं को मंदिर पर मत्था टेककर बाहर तिलक लगाकर आते हुए देखा तो आश्वस्त हुआ कि हमारे संकटमोचन अभी यहीं है। उनका आशीर्वाद हमेशा सुलभ है और रहेगा।

Friday, February 1, 2013

जब साड़ी पहनने वाली महिलाएँ दिखनी बंद हो जाएंगी



 सुबह की गुनगुनी धूप में जब मैं स्कूल जाता था पीछे बस्ता लटकाये तब न जाने कितनी बातें सोचता रहता था। मैं सड़क के दोनों किनारे सर्पिल गति से चलता था जो अक्सर साइकिल सवारों के लिए परेशानी का सबब हो जाया करता था। उस दौर में भी मेरे जेहन में था कि जो मैं यह सब देखता हूँ वो हमेशा रहने वाला नहीं। वो पूरी तरह साड़ियों का दौर था, सलवार में शायद ही किसी महिला को हम देखते थे लेकिन उस समय भी लगता था कि मेरे साथ की जो लड़कियाँ हैं जो अभी फ्राक पहनती हैं क्या बड़ी होकर साड़ी पहनेंगी, यह बहुत अजीब लगता और मुझे लगता कि तब तक समय बदल जाएगा और साड़ी परिदृश्य से गायब हो जाएगी।
                                      एक दस साल के लड़के के लिए यह सोचना सचमुच में अजीब होगा कि उसके साथ की लड़कियाँ वैसे ही परिधान पहनेंगी जैसा उसकी माँ और अन्य रिश्तेदार महिलाएँ अथवा पड़ोस की महिलाएँ पहनती हैं। इतना लंबा अंतराल गुजरने के बाद अब भी साड़ी में महिलाएँ दिखती हैं इससे मुझे गहरा सुकून मिलता है। मुझे लगता है कि मेरा बचपन अभी खत्म नहीं हुआ है, जब साड़ी पहनने वाली महिलाएँ पूरी तौर पर दिखनी बंद हो जाएंगी तब मुझसे जुड़ा मेरे बचपन का समय भी पूरी तौर पर खत्म हो जाएगा। ऐसा मुझे लगता है।
                                        अजीब बात यह है कि जो पुरुषों को सुकून पहुँचाता है वो स्त्रियों के लिए कई बार विरोधी होता है। मैंने अपनी बुआ को एवं कई अन्य महिलाओं को कहते हुए सुना कि साड़ी की तुलना में सलवार बहुत बेटर ड्रेस है और इसके पीछे के उनके तर्क बड़े अजीब हैं जो सामंती लगते हैं और जिन्हें कहना मुझे अच्छा नहीं लगता।
                मुझे सेरेमनियल रूप से साड़ी पहनने की प्रथा भी बड़ी अजीब लगती है. त्योहार के दिनों में अथवा मंदिरों में महिलाएँ अक्सर साड़ी ही पहनती हैं। सीरियल्स में भी इन बदलावों को खास तौर पर रेखांकित किया जाता है। ये रिश्ता क्या कहलाता है में अक्षरा का कैरेक्टर देखिये, जब महिला वर्किंग वूमेन हुई तो उसने सलवार पहनना शुरू कर दिया। ऐसा संक्रमण क्यों?
                          साड़ी पर इतना स्ट्रेस क्यों? यह प्रश्न ड्रेस कोड से जुड़ा अथवा रुचि से जुड़ा नहीं है। असल में ये २००० साल की परंपरा है हमारी संस्कृति और इतिहास इससे जुड़ा है और हमारी पहचान भी। जापान ने मेइजी रेस्टोरेशन के बाद वेस्टर्न ड्रेसकोड अपना लिया, जापानी पहचान समाप्त हो गई। हमारी भी पहचान समाप्त हो जाएगी, यदि भारत की महिलाएँ साड़ी की जगह दूसरे परिधानों को अपनाने लगें। भारतीय महिलाएं सलवार भी पहनें, जींस भी पहनें और दूसरे वेस्टर्न परिधानों का प्रयोग भी करें लेकिन साड़ी न छोड़े। सेरेमनियल रूप से ही सहीं, उसे पहनें जरूर।
          दिल्ली और मुंबई देश के दो महानगर हैं मुझे मुंबई में बड़ा सुकून मिला, वहाँ दादर में एक मॉल में मुझे अत्याधुनिक वस्त्रों से सजी महिलाएँ भी मिलीं और कांजीवरम की साड़ी पहने सीढ़ी पर चढ़ने में हिचकती महिलाएँ भी मिलीं। इसके विपरीत दिल्ली में एक तरह की ही महिलाएँ, वहाँ भारत का रंग नहीं है केवल रेशमी राजधानी ही दिखती है।
            मेरी मम्मी अभी पंजाब गई थीं कुछ दिनों पहले, उन्होंने बताया अमृतसर की लड़कियाँ चोटी लगाती हैं और खूबसूरत साड़ियाँ पहनती हैं उन्होंने वहाँ की लड़कियों की काफी तारीफ की।
            जिंदगी की खूबसूरती जींस में भी खिलती है सलवार में भी लेकिन साड़ी में परंपरा की भी खूबसूरती खिलती है। इतिहास की किताबों में पढ़ी हुई वत्सभट्टि द्वारा मंदसौर शिलालेख में लिखी पंक्ति याद आती है।
तारुण्य कान्त्युपचितौअपि सुवर्ण हार,
तांबुल पुष्प विधिनां समंगलकृतौअपि
नीराजनः प्रियैमुपैति न तावद प्रियो
यावन्न पट्टमयवस्त्र युगानि धत्ते।
स्पर्श-न्तार-विभाग-चित्रेण-नेभ शुभगेन।
यसैस कलामिदं क्षितितलमलकृतं पट्ट वस्त्रेण।

            अर्थात किसी तरूण स्त्री ने भले ही सोने का हार पहन लिया हो, फूलों से सजी हो और ओठों को पान से सुशोभित किया हो, सभी तरह के मंगल लक्षणों से युक्त हो लेकिन जब तक वो रेशमी साड़ी का धारण नहीं करेगी तब तक उसका प्रेमी उसे पसंद नहीं करेगा। साड़ी का पहला विज्ञापन, बिना रैंप में किसी महिला को चलाए एक कवि ने सूर्य मंदिर में रेशम बुनकरों के लिए लिखा। उनकी कामना जब तक सूरज का प्रकाश हम पर रहे तब तक फलीभूत होती रहे, यही कामना है।