Monday, December 5, 2011

क्यों अच्छा नहीं लगेगा, ऐसे जीना...


88 की उम्र में टि्वट करते थे देवानंद
फिक्र को धुंए में उड़ाते जुट जाते थे नई फिल्म की शूटिंग के लिए
82 की उम्र में डायलिसिस करा सीधे सेट पर पहुँचते थे शम्मी
भारत के अगले रॉकस्टार को तैयार करने का जुनून
दिखता था उनके अंदर

82 में ही आडवाणी निकालते हैं लंबी रथयात्रा
घंटों खड़े स्वीकार करते हैं अभिवादन जनता का
पीएम बनने का सपना युवा जो है
100 की उम्र में मैराथन दौड़ते हैं फौजा सिंह
बढ़ती उम्र से पैदा होने वाली निराशा को पीछे छोड़ते हुए
और 82 की उम्र में ही मेरे बड़े पिता जी
मंदिर में गिरने से पैर टूटने के बाद
फिर जाने लगे हैं मंदिर
78 की मेरी बुआ
कमर टूटने के बाद फिर खड़ी हो गई है
 शहर छोड़कर वो जा रही है उसी गाँव में,
 जहाँ उसकी कमर टूटी थी।
  86 की मेरी बुआ
  हड्डियाँ टूटने के इतने समाचार सुनकर
  चिंतित होकर कहती हैं ये इतने अधीर क्यों हैं
शांति से बैठें तो जी लेंगे कुछ और दिन...
सबको जीना अच्छा लगता है
क्यों अच्छा नहीं लगेगा, ऐसे जीना..

Tuesday, November 15, 2011

डिबिया में बंद जिंदगी

      जिंदगी न मिलेगी दोबारा में एक संवाद है कटरीना से ऋतिक कहता है कि तुमसे मिलने से पहले मैं डिबिया में बंद जीवन जी रहा था। मेरी जिंदगी डिबिया से शुरू होती थी और उसी में खत्म। कटरीना कहती है कि आदमी को डिबिया में तभी बंद होना चाहिए जब वो मर जाए। इस पूरे संवाद को मैंने बार-बार सोचा। सचमुच डिबिया में बंद जिंदगी बहुत विकट है। इस संवाद को सुनकर अपने हिंदू होने पर मुझे खुशी हुई। यह नहीं कि मैं दूसरे धर्मों की आस्था में चोट पहुँचाना चाहता हूँ सच्चा धार्मिक बोध चाहे किसी भी धर्म गुरु, किताब अथवा विचारधारा से आए, उसमें उतनी ही पवित्रता होती है जितनी हिंदू सनातन परंपरा को निभाने में मुझे मिलती है। मुझे खुशी अंतिम संस्कार की हिंदू पद्धति को लेकर है। पवित्र नदियों के किनारे अंतिम संस्कार कर दिया जाता है। हमारी देह हवाओं में घुल जाती है। हमारी अस्थियाँ गंगा में प्रवाहित होती हैं। उस गंगा में जिन्हें हम मानते हैं कि स्वर्ग से उतरी हैं और शिव की जटाओं का इसने संस्पर्श किया है। निर्मल वर्मा ने लिखा है कि कोई हिंदू जब अपने संबंधी की अस्थियाँ गंगा में प्रवाहित करता है तो उसी तरह की आत्मतुष्टि मिलती है जैसे यूनानी लेखकों को कैथार्सिस की संपूर्ति में मिलती होगी। मेरे लिए कफन में बंद हो जाना भयावह अनुभव है। अगर भूत प्रेतों की बात  सच हो तो मेरे भूत का तो दम ही घुट जाएगा। मैं हिंदू हूँ और अगर मरने के बाद भूत बन जाता हूँ तो कम से नदी की ठंडी छाँव का आनंद तो ले पाऊँगा। मौत का डर तो हमेशा रहता है हमारे जैसे लोगों को और, क्योंकि हम इससे जुड़ा दर्शन नहीं समझ पाते। संस्कृत में एक सुभाषित श्लोक है दुनिया में दो प्रकार के लोग ही दुख से मुक्त हैं एक तो महामूर्ख, क्योंकि उन्हें समस्या का भान ही नहीं होता। दूसरे वो जो विद्वान हैं और हर समस्या का समाधान खोज निकालते हैं। बीच के लोग हमेशा तकलीफ में रहते हैं। अंतिम संस्कार के तरीके भी बदल रहे हैं कुछ आधुनिक तरीके आ गए हैं जो निराश करने वाले हैं। इनमें से एक है विद्युत शवदाह गृह। पहली बार १९९२ में इस संबंध में एक खबर देखी थी। उस जमाने में दूरदर्शन में ही न्यूज आती थी। मुख्य न्यायाधीश सब्यसाची मुखर्जी की मौत हुई थी, उनका अंतिम संस्कार विद्युत शवदाह गृह में हुआ। उस समय मैं एक बालक ही था लेकिन मौत के ऐसे तरीके को देखकर मुझे काफी निराशा हुई थी, मौत से भी बुरी त्रासदी।
                     इसका मतलब यह नहीं कि अंतिम संस्कार की हमारी परंपरा में सब कुछ अच्छा है। इससे सबसे ज्यादा क्षति हमारे इतिहास को हुई है। जैसे मध्यएशिया में यह उम्मीद रहती है कि कभी सिकंदर की कब्र मिलेगी और उसके साथ ही मिलेगा इतिहास का समृद्ध खजाना। ऐसा हमारे लिए संभव नहीं है। मिस्त्र का इतिहास अपने कब्रों के लिए ही मशहूर हुआ है। मैसापोटामिया के भव्य अवशेषों में बहुत कुछ उनके कब्रों की भी देन है। भारत में सिंधु घाटी सभ्यता के बाद यह परंपरा स्थगित हो गई। भारत में बुद्ध परंपरा के जो पुरातात्विक सबूत बचे हैं उसमें बहुत कुछ उनके स्तूप निर्माण की प्रणाली के चलते भी हैं जिनमें अवशेषों को सुरक्षित रखने पर इतना ध्यान दिया जाता था। मेरे एक सहयोगी हैं वर्मा जी, वो देह दान करना चाहते हैं मैं इसके लिए साहस नहीं जुटा पाता।

Tuesday, November 1, 2011


क्या यह भयानक समय है?

रौशन होर्डिंग्स में सुंदरियों की मुस्कानरेखा देखते हुए,

जब मैं राजधानी की रेशमी सड़कों से गुजरता हूँ,

सिविल लाइन में बने भव्य बंगलों से गुजरते हुए,

उनके इंटीरियर की तुलना गोथिक शैली से करता हूँ,

अबाधित ब्राडबैंड स्पीड के बीच जब फेसबुक के फीचर की तुलना गूगल प्लस से करता हूँ,

टैक सेवी होने का दंभ भरता हूँ,

सिटी मॉल में आइनाक्स में बैठा हुआ स्विट्जरलैंड के नजारे देखता हूँ,

तब सोचता हूँ कि मैं कितने खुशकिस्मत समय में हूँ?

यद्यपि मेरी किस्मत में फूल नहीं, उनकी खुशबू जरूर है

जैकपॉट खुला होता तो हैरिटेज होटल और रिसार्ट्स की तफरीह भी हो पाती,

एक पाँव जमीं में और एक आसमान पर होता,

इतना खुशकिस्मत समय?

फिर भी कुछ लोग क्यों इस समय को कोस रहे हैं,

ऐसे समय को जन्नत है जो एचजी वैल्स की टाइम मशीन को जीता है,

क्या वो उन जंगलों की चिंता कर रहे हैं जहाँ के बाशिंदे अब एंटीक पीस बनने जा रहे हैं हमारी दुनिया के लिए नुमाइश की चीज...

क्या उन्होंने बुद्धा इंटरनेशनल सर्किट में बने फार्मूला वन रेस ट्रैक की भव्यता को नहीं देखा?

क्या उन्होंने सर्किट में पॉप गायिका गागा को गाते हुए नहीं सुना?

सर्किट में सिद्धार्थ माल्या की बाँहों में झूलती दीपिका पादुकोण की अदाएँ उन्हें क्यों नहीं भातीं?

उन्हें आखिर कब समझ आएगा कि सिद्धार्थ के पिता विजय माल्या ने गाँधी की घड़ी खरीद ली है और अब समय भी उनका है?

इतने खुशकिस्मत समय में वो रुदालियों की तरह प्रलाप क्यों कर रहे हैं?

(बर्तोल्त ब्रेख्त की भयानक खबर की कविता से प्रेरित, अनुभव को शुक्रिया जिसने मुझे फिर से कविता लिखने की प्रेरणा दी)

Wednesday, September 21, 2011

सैन्योरिटा जिंदगी न मिलेगी दोबारा का सुंदर गाना


Quien eres tu? (Who are you?)

Donde has estado? (where have you been?)

He removido cielo y tierra y no te encontre

(I moved heaven and earth and not find you)

Y llegas hoy (but you arrive today)

Tan de repente (So suddenly)

Y das sentido a toda mi vida con tu querer

(and give meaning to my life with your love)

Sunday, September 11, 2011

मेरी त्र्यंबकेश्वर यात्रा(भाग 1)



रायपुर से मुंबई की ओर ट्रेन रूट में की गई यात्रा में मेरे लिए अक्सर आकर्षण का केंद्र होता है डोंगरगढ़ के बाद शुरू होने वाले घने जंगल। मुझे भूगोल की जानकारी नहीं तो केवल अनुमान लगाता हूँ कि ये या तो मैकल पर्वत श्रेणी के होंगे या दंडकारण्य के महान पठार के हिस्से। दुर्भाग्य से उस दिन की रात चाँदनी नहीं थी, अब जंगलों में वैसे जुगनू भी नहीं जिनसे अंधेरी रातें भी गुलजार होती थीं। कुछ सालों पहले मैंने इसी जंगल में सैकड़ों जुगनुओं को देखा था। ऊपर आकाश में तारे दिख रहे थे और नीचे जुगनू। पाकीजा का एक गाना याद आता है जुगनू हैं या जमीन पर उतरे हुए हैं तारें। सुना है कि पहले अरबी लोग इन जुगनुओं को एक काँच के डिब्बे में रख देते थे, रात में डिब्बे में भरे हुए सैकड़ों जुगनू टार्च की तरह काम करते थे। शहरों में रहने वाले हम लोगों को प्रकृति की कितनी थोड़ी जानकारी होती है इसका मुझे तब पता चला, जब मैंने और मेरे दोस्त ने पहली बार दिन में जुगनू देखा। वो हरे रंग का था, हम लोगों ने कहा कि हमने एक नया कीड़ा खोजा है। इसका नाम रखा सोकव। बाद में पता चला जिसे हम लोगों ने सोकव समझा वो तो जुगनू था। चाँदनी रातों में इन जंगलों से गुजरना अद्भुत अनुभव होता है। चाँदनी का मद्धिम प्रकाश पेड़ों और झरनों में गिरता है और पूरे जंगल में एक अजीब सन्नाटा छाया रहता है। शायद जंगल में मौजूद होने से ज्यादा बेहतर ट्रेन के भीतर से इसे देखना है क्योंकि तेज ठंडी हवाओं का थपेड़ा हमें और आनंदित करता है। खिड़की वाली जगह का बचपन का लालच हर बार जाग जाता है। महाराष्ट्र के भीतर प्रवेश करने पर यदि हम सड़क मार्ग से जाएँ तो शायद धुलिया के आसपास से सहयाद्री की श्रृंखला शुरू हो जाती है और यह अद्भुत अनुभव होता है। एक दशक पहले सड़क यात्रा में कवर किये गए कुछ शहर याद आते हैं। एक कस्बे में हमारी गाड़ी रूकी थी। छोटा कस्बा था पहाड़ियों से घिरा। पहली बार आए थे लेकिन ऐसा लगा कि पहले भी इस कस्बे से परिचय रहा। खैर जब नासिक पहुँचे तो स्टेशन छोटा सा लगा लेकिन शहर में पहुँचते ही लगा कि यह बड़ा शहर है और व्यवस्थित भी। त्र्‌यंबकेश्वर यहाँ से संभवतः ४० किमी दूर है। प्राचीन ज्योतिर्लिंग के अलावा यहाँ गोदावरी का उद्गम भी है। बताते हैं कि त्रिम्बक की पहाड़ियों से गोदावरी निकलती है। त्र्‌यंबकेश्वर में एक धारा दिखी लेकिन इतनी गंदी धारा थी कि लगा ही नहीं एक महान नदी की शुरुआती यात्रा यहाँ से हो रही है। रास्ते भर पहाड़ की तलहटी ने हरी घास की चादर ओढ़ ली थी। पास ही त्रिम्बक की मेघाच्छादित पहाड़ी दिख रही थी। नासिक से त्र्‌यंबकेश्वर के बीच एक छोटा सा पहाड़ी गाँव पड़ता है अंजनेरी। नासिक में अपने जीजाजी के घर जब मैं रुका तो उन्होंने अंजनेरी पर आधारित मिथक कथा की जानकारी मुझे दी। उन्होंने मुझे बताया कि अंजनेरी में हनुमान जी का जन्म हुआ था। यहाँ तक पहुँचने का रास्ता काफी कठिन है वे भी अरसे से नासिक में रहने के बाद पहली बार पिछले साल ही अंजनेरी जा पाये थे। त्र्‌यंबकेश्वर में रुकते ही सबसे पहले हम लोग गजानन धर्मशाला में ठहरे। यह शेगाँव वाले गजानन महाराज की धर्मशाला है। इतने सस्ते किराये में सुंदर कक्ष वाली संस्थान की धर्मशाला अन्य धार्मिक संस्थाओं के लिए आदर्श है कि किस प्रकार चढ़ावे के धन का बेहतर उपयोग उन भक्तों के लिए किया जा सकता है जो भक्ति भावना तो रखते हैं लेकिन जो सुदामा की तरह दीन-हीन होते हैं और अपने प्रभु के दर्शन के लिए लंबी कष्टप्रद यात्रा तय करते हैं। धर्मशाला की एक और विशेषता मैंने देखी, यहाँ सभी आर्थिक वर्ग के लोग थे, असली समाजवाद ऐसी ही जगहों में दिखता है जहाँ सब एक से लगें, कोई छोटा-बड़ा नहीं। रूम की टैरेस से हमें वो पहाड़ी दिखती थी जहाँ से गोदावरी की बहुत सी धाराओं में से एक धारा निकली थी। 
  स्नान करने के उपरांत हम मंदिर गये, त्र्‌यंबकेश्वर बारह ज्योतिर्लिंगों में शामिल है। पौराणिक कहानी मैंने नहीं पढ़ी लेकिन यह जरूर पता चला कि इस मंदिर का निर्माण अहिल्याबाई होल्कर ने कराया था। मंदिर की भव्यता महाकाल मंदिर की यादें ताजा करा देती है। भीड़ बहुत थी और भीड़ में मेरा दम घुटता है शायद फोबिया अधिक है सच्चाई कम है। इसलिए थोड़ा असहज महसूस हुआ। फिर सुबह जाना था, भीड़ में हुई परेशानी ने मानसिक रूप से थकाया और भोजन की भी उचित व्यवस्था नहीं थी, इसके चलते परेशानी कुछ और बढ़ी। सुबह के समय शिव जी के अच्छे से दर्शन हुए, फिर हमने परिक्रमा की। इसके बाद साढ़े आठ बजे तक का इंतजार किया। मुझे आशंका थी कि इतनी देर कैसे बैठ पाऊँगा पूजा-वेदी में, लेकिन भगवान की कृपा थी और पूजा करने के दौरान बहुत अच्छा अनुभव हुआ। पंडित जी के घर के तीसरे माले में पूजा हुई। वहाँ घर से वही त्रिम्बक की पहाड़ियाँ दिख रही थीं। इन्हें देखकर लग रहा था कि रास्ता बड़ा लंबा और कठिन है लेकिन असंभव नहीं। नेहरू ने भी लिखा था न अक्सर हमें आलोकित पर्वत शिखरों को प्राप्त करने के लिए थमी अंधेरी घाटियों से गुजरना होता है। लंबे समय से अंधेरी घाटियों से गुजर रहे हैं लेकिन रुके भी तो नहीं है। हौसलों का दिया बूझता प्रतीत होता है लेकिन संकल्प शक्ति भी है मन में, जिससे ये लड़ाई छेड़े हुए हैं। खैर वैदिक रीति से की गई पूजा ने एक बार फिर परंपरा में वापस लौटा दिया। अक्सर ऐसी पूजा के समय मुझे निर्मल वर्मा द्वारा लिखा शब्द याद आता है जब कोई हिंदू अपने संबंधियों की अस्थियाँ हरिद्वार में गंगा में बहाता है तो उसे वैसा ही अनुभव होता होगा जैसा यूनानियों को कैथार्सिस की सम्पूर्ति पर होता होगा।
  इतिहास की पढ़ाई ने काफी कुछ दिया है लेकिन बहुत कुछ छीन भी लिया है जैसाकि जेम्स जॉयस ने लिखा है कि इतिहास वह दुःस्वप्न है जिससे मैं जागने की कोशिश करता हूँ। अक्सर इसके चलते अपनी मान्यताओं पर शक भी हो जाता है। शायद बीते हुए समय में ऐसा होता होगा कि हम अपनी मान्यताओं पर टिके रहते होंगे लेकिन अपनी बदहाली का कारण अपने उन पापों अथवा अज्ञात कारणों पर छोड़ देते होंगे जो हमें भी नहीं मालूम। फिर भी जैसे खंडित देवता की पूजा नहीं होती, वैसे ही अगर आपके व्यक्तित्व में कुछ खंडित अंश रह गया तो उसकी भरपाई नहीं हो पाती और ये जीवन भर सालने वाली बात रहती है। मैं बहुत विषयान्तर कर रहा हूँ लिखते हुए लेकिन ये अनुभव मेरी उस यात्रा से भी जुड़े हुए हैं जिसे यात्रा के दौरान मैंने लगातार महसूस किया।

Tuesday, September 6, 2011

राहुल गाँधी कितने गाँधी!




कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी अपने पूर्वजों की तरह खद्दर पहनना पसंद करते हैं। उनके सहयोगी मंत्री कपिल सिब्बल, पी चिदंबरम आदि को भी इसी वेशभूषा में देखा जा सकता है। अग्निवेश जैसे इनके सहयोगी भी एक खास किस्म का चोला धारण किये रहते हैं। हालांकि यह भी इतना ही सच है कि इनकी आत्मा कहीं से भी खद्दर नहीं है। 
  दरअसल खादी केवल एक वेशभूषा नहीं अथवा वो केवल कांग्रेस की पहचान नहीं। खादी आत्मनिर्भरता का प्रतीक है। खादी स्वदेशी का प्रतीक है। आक्सफोर्ड और हावर्ड से शिक्षित यूपीए सरकार के कर्ताधर्ता यह नेता क्या सही मायने में खादी को धारण करने लायक हैं। कैंब्रिज में शिक्षा गांधी ने भी ली, वे उस जमाने में बैरिस्टर बने थे जब गिने-चुने लोग ही अपने बच्चों को विदेशों में भेज पाने की हिम्मत करते थे। गांधी ने अपनी आत्मकथा में अपने को सामान्य दर्जे का विद्यार्थी कहा था लेकिन क्या सचमुच ऐसा था, अगर ऐसा होता तो इतना आर्थिक बोझ सहकर उनका परिवार उन्हें कभी भी विदेश नहीं भेजता। गांधी विदेश तो गये लेकिन अंदर से स्वदेशी रहे। उनके सबसे करीबी सहयोगी नेहरू जीवन भर भारतीयता और अंग्रेजियत के द्वंद्व में फंसे रहे, भारतीय उनके बहुत करीब नहीं जा पाए लेकिन वे उनसे उतने दूर भी नहीं थे क्योंकि नेहरू बहुत गहरे से भारतीय समाज में उतरे थे। गांधी पूरी तरह से भारतीय हो गए, उनकी धोती, उनकी सादगी, उनकी गहरी आध्यात्मिकता सबमें असल भारतीय चरित्र देखने को मिलता था। शायद गांधी ऐसी शख्सियत रहे होंगे जिनके इतने बड़े नेता होने के बावजूद बेहिचक कोई बच्चा भी उनसे बिना डरे और बिल्कुल आत्मीयता के भाव से मिल सकता था। बच्चों के साथ मुस्कुराते हुए उनके चेहरे वाली तस्वीरें दिखाती हैं कि इस महापुरुष में बिल्कुल बच्चों वाला दिल धड़कता था। उनके उत्तराधिकारी नेहरू में भी ये गुण था, बच्चों के उनके प्रेम से ही उनका जन्मदिवस बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है। इंदिरा के लिए लिखा नेहरू का साहित्य उनके बच्चों के प्रेम का जीवंत उदाहरण है। 
  आप यह प्रश्न पूछ सकते हैं कि जब हम अपनी बात राहुल गांधी से शुरू कर रहे हैं तो फिर महात्मा गांधी और जवाहरलाल के संदर्भ बार-बार क्यों दे रहे हैं। दरअसल राहुल गांधी अपने को इस महान परंपरा से संबद्ध करते हैं। अगर वो न भी करें तो जनता राहुल को उनका अक्स समझती है। सार्वजनिक जीवन में आपको हर पल जनता के लिए जिम्मेदार होना पड़ता है। आपको अपना पक्ष हर मुद्दे पर जनता के सामने रखना ही होता है लेकिन भ्रष्टाचार के मुद्दे पर लगातार बोलने वाले राहुल अपनी सरकार के भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सफाई देने आगे क्यों नहीं आते? क्यों उन्होंने अन्ना हजारे के लिए वैसी अतिशय उदारता दिखाई जितनी प्रच्चनमंत्री मनमोहन सिंह ने दिखाई जब उन्होंने कहा कि आई रेस्पेक्ट अन्ना, आई सेल्यूट अन्ना । शून्य काल में पूरे भाषण के दौरान राहुल दृढ़ दिखे लेकिन उनकी दृढ़ता में एक तरह का एरोगेंस झलका। जनता ने देखा कि राहुल केवल एक पक्षीय लग रहे थे, वे सत्ता पक्ष से हैं और उन्हें लंबे समय तक सत्ता का सुख भोगना है तो जनलोकपाल बिल पारित होने के अधिकारहीन सत्ता का क्या वैसा उपभोग वो कर पाएंगे। युवराज को इस बात की गहरी नाराजगी थी। वे यह तर्क रखने लगे कि संवैच्चनिक संस्था बनाना अधिक प्रभावी रहेगा। जब राहुल को यह उचित लग रहा था तो उन्होंने यह सलाह पहले ही सरकार को क्यों नहीं दी। 
  पूरे मामले में सबसे बुरा पक्ष यह रहा कि कांग्रेस का बुजुर्ग और अनुभवी चेहरा पूरी तरह से हाशिये पर दिखा। मनमोहन द्वारा जनलोकपाल बिल पर आश्वासन देने के बाद अगले दिन राहुल का बयान निराश करने वाला था। उन्होंने भ्रष्टाचार से लड़ने पर तो बल दिया लेकिन उसके बेहतर तरीकों से सहमत नहीं दिखे। उनके पास अपना कोई मॉडल भी नहीं था, वे केवल एक आशंका लेकर आये थे कि इससे संसदीय प्रजातंत्र और इसकी निर्णयन प्रक्रिया कमजोर होगी। आप जनलोकपाल से असहमत हो सकते हैं लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ी जा रही बड़ी लड़ाई से भावनात्मक रूप से अभिभूत तो दिख ही सकते हैं। यही निराशा का बिन्दु है, सत्ता तंत्र का संचालन इन्हीं हाथों से होना है और अन्ना के आंदोलन को संभालने के तरीकों में दिखी नाकामी और गंभीर गलतियाँ इस सत्ता तंत्र के थिंक टैंक के खोखलेपन को दर्शाती हैं। एक सामान्य आदमी भी यह समझ सकता था कि ऐसे भावनात्मक आंदोलनों को सख्ती से दबाया नहीं जा सकता, इसके लिए डिप्लोमैटिक तरीके अख्तियार करने होते हैं। आपको लचीला रूख रखना होता है और आपको ऐसे प्रवक्ता रखने चाहिए जो सरकार का पक्ष जनता तक सही ढंग से रख सकें। कपिल सिब्बल बड़े वकील हैं लेकिन वे मीडिया में ऐसे नजर आये जैसे अन्ना हजारे एक क्रिमिनल हों और सरकारी अभियोजक के रूप में वे उन पर बड़ा मुकदमा दर्ज कराना चाह रहे हों। दिग्विजय सिंह के लगातार बयानों से हुई फजीहत से भी सरकार ने सबक नहीं लिया और उनसे भी खुला मुँह रखने वाले मनीष तिवारी को अन्ना पर हमले के लिए आगे कर दिया। 
  अंततः जब संकेत मिलने लगे थे कि सरकार सरेंडर के मूड में है उस समय भी राहुल गांधी संसद में संजीदगी से जनलोकपाल से सैद्धांतिक सहमति जताते हुए भ्रष्टाचार से लड़ने के अपने तरीकों को रख सकते थे लेकिन राहुल वहां भी भटक गए। राहुल का एकमात्र सही फैसला संदीप दीक्षित को आगे करने का रहा। संदीप अपनी बातें संसद में प्रभावी ढंग से नहीं रख पाये लेकिन उनकी बातों में एक सचाई नजर आई और उन्होंने पार्टी पर लगी कालिख को कम करने में अपना सहयोग जरूर दिया। एक बात और रामबहादुर राय ने इस संबंध में एक अच्छा लेख लिखा, उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री के मंत्रिमंडल के सहयोगियों ने उन्हें जनउफान के संबंध में वस्तुस्थिति से अंधेरे में रखा लेकिन नौकरशाहों ने उन्हें अच्छा फीडबैक दिया। जब प्रधानमंत्री को भी वस्तुस्थिति की जानकारी न हो पाये तो ये दुख होता है कि सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर बैठे हुए लोग जनता के दुखों से कितने अनभिज्ञ हैं। वे २० साल बाद देश को महाशक्ति बनाना चाहते हैं लेकिन डबल डिजिट ग्रोथ पाने के लिए आज जो पीढ़ी पीस रही है उसके दुखों का हाल क्या इस सरकार को है? अब वक्त आ गया है कि शरद यादव और लालू यादव जैसे विदूषकों से हमें मुक्ति मिले, मनीष तिवारी जैसे अहंकारी लोग जो सफेद खद्दर पहनते हैं लेकिन गांधी की विनम्रता उन्हें छू भी नहीं गई हैं गांधीगिरी का सहारा लें और ऐसे लोगों को सत्ता से पदच्युत करें।

Thursday, August 25, 2011

मैडम अरुंधति की नीयत गलत, सवाल सहीं



अन्ना हजारे पर दिये गए अरुंधति राय का पूरा बयान पढ़ने के लिए टाइम्स आफ इंडिया की इस संबंध में खबर पर नजर डाली। खबर के साथ दिलचस्प बात यह थी कि पहली बार खबर के भीतर ही खबर पर आई टिप्पणियों की चर्चा भी थी। खबर में लिखा था कि इस बयान पर हमें कई रोचक टिप्पणियाँ प्राप्त हुई हैं। इनमें से एक टिप्पणी का जिक्र भी किया गया था। मैंने उत्सुकतावश टिप्पणियाँ देखी, ३९२ टिप्पणियाँ थीं, इनमें से अधिकाँश पढ़ने के बाद मैंने खुद टिप्पणी करनी चाही लेकिन कमेंट बाक्स ओपन नहीं हुआ, शायद इसके लिए प्रतिक्रिया समय समाप्त हो गया था। सामान्यतः ऐसे बयानों पर मिश्रित प्रतिक्रिया आती है। भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन चल रहा हो तो मामला कुछ ज्यादा संवेदनशील होता है तो अधिकतर बयान भावनाओं से प्रभावित होते हैं। ऐसे में अरुंधति राय ने नकारात्मक टिप्पणी की तो जाहिर है कि लोग अपने कमेंट में इसका विरोध करेंगे लेकिन इस मामले में एक भी व्यक्ति ने अरुंधति राय का साथ नहीं दिया।
  तो हम क्या सोचें। अखबार ने अरुंधति राय के हवाले से हेडिंग लगाई थी अन्ना सेकुलर नहीं हैं। सवाल यह उठता है कि जब अन्ना ने मामला भ्रष्टाचार का उठाया है तो यहाँ धर्मनिरपेक्षतावाद की बात कहाँ से आती है। अगर अरुंधति अण्णा से असहमत हैं तो उनके द्वारा प्रस्तावित लोकपाल बिल पर बात करें। जनता के संबंध में इस किस्म की अच्छी डिबेट होनी चाहिये। सरकार के नुमाइंदों को, सिविल सोसायटी के नुमाइंदे को और दीगर पक्षों को रामलीला मैदान के मंच से इस डिबेट को बढ़ाना चाहिए। जाहिर है जनता के सामने दूध का दूध और पानी का पानी होगा। अरुंधति ने कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न उठाये हैं। मसलन लोकपाल में जो सदस्य होंगे, उनमें से अधिकाँश उसी न्यायपालिका और कार्यपालिका से आयेंगे जिसमें हो रहे भ्रष्टाचार के लिए देश लोकपाल की माँग कर रहा है। सिविल सोसायटी के लोगों को भी शामिल करने की बात की जा रही है। विरोधियों को तर्क है कि इंडिया अंगेस्ट करप्शन के सदस्यों को ही इससे लाभ मिलेगा। अरुंधति ने यह बेहद महत्वपूर्ण प्रश्न उठाया है। अगर लोकपाल के लिए सदस्यों के चुनाव की प्रक्रिया गलत हुई तो देश को भ्रष्टाचार का दोहरा बोझ उठाना पड़ेगा। मौजूदा तंत्र के भ्रष्टाचार का और लोकपाल के भ्रष्टाचार का। 
  साफ है कि बहस हुई तो चीजें ज्यादा स्पष्ट होंगी और इनका समाधान भी सामने आयेगा लेकिन यहाँ बहस की बात नहीं हो रही है। यहाँ आपस में कीचड़ उछालने का दौर चल रहा है। बड़ा सवाल नीयत का भी है। अरुंधति राय की बात भले ही सही हो लेकिन इसके कहने के पीछे उनकी नीयत बिल्कुल ही गलत है। यह बेहद व्यक्तिगत किस्म का हमला अन्ना के चरित्र पर है। बोल कि लब आजाद हैं तेरे वाले इस देश में अरुंधति का अन्ना पर कुछ टिप्पणी करना गलत नहीं है। उन्होंने बिल्कुल सही कहा कि अन्ना को राज ठाकरे को दिये आशीर्वाद और मोदी की थपथपाई पीठ पर भी जनता को अपनी सफाई देनी चाहिये लेकिन अरुंधति यह कैसे भूल गईं कि अन्ना ने इसके ठीक बाद नीतीश कुमार की तारीफ भी की थी लेकिन जब आप व्यक्तिगत आरोप लगा रहे हों तो ऐसी बातों को प्रकट नहीं करते क्योंकि इससे आपके तर्क भोथरे साबित होने लगते हैं। 
  भारत की जनता स्वस्थ बहस का हमेशा स्वागत करती है उदाहरण के लिए अरुणा राय का मामला लें, उन्होंने जनलोकपाल बिल पर अपनी आपत्ति रखी, जनता ने उनके प्रति विरोध प्रकट नहीं किया। इंडिया अगेंस्ट करप्शन के कार्यकर्ता तो चाह रहे हैं कि ऐसी बहस हो लेकिन सरकार इसके लिए तैयार नहीं है। जब सिविल सोसायटी और सरकार के नुमाइंदों के बीच बहस हुई तो भी सिविल सोसायटी ने बहस को जनता के बीच चलाने कहा लेकिन सरकार तैयार नहीं हुई। सरकार कहती है कि उसका बिल मजबूत है। अगर सरकार ने बिल मजबूत बनाया है तो जनता इसे क्यों पसंद नहीं कर रही है। अगर यह संविधान और देश की व्यवस्था को बनाये रखने के लिए लिया गया निर्णय है तो सरकार के नुमाइंदों को खुलकर जनता को इसके प्रावधानों के संबंध में और जनलोकपाल की खामियों के संबंध में जनता को बताना चाहिये। 
  अभी हाल ही में हिंदुस्तान टाइम्स में एक चर्चित कॉलमनिस्ट का लेख पढ़ा, इसमें उन्होंने कहा कि अन्न के आंदोलन का समर्थन मध्यवर्ग कर रहा है जो खाया-अघाया है। अगर मध्यवर्ग खाया-अघाया है तो उसे तफरीह करने मैकडोनल्ड के रेस्तरां में जाना चाहिये, आपने दिल्ली में तफरीह करने के लिए बहुत से शापिंग मॉल बनवाये हैं तो फिर वो रामलीला मैदान में भरी बारिश, कीचड़ और भीड़-भड़क्के के बीच क्या कर रहा है क्या वो महज फोटो खिंचवाने के लिए वहाँ यहाँ गया है अथवा उसे यहाँ मेले-ठेले जैसा आनंद आ रहा है?
  अरुंधति जैसी मार्क्सवादी लेखिका कभी इस बात को समझ नहीं पायेंगी कि मध्यवर्ग के लिए मान-सम्मान भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितनी की गाढ़ी मेहनत की कमाई। जब मध्यवर्गीय व्यक्ति सरकारी दफ्तरों में अपना काम कराने जाता है तो उसे अधिकारी तो दूर क्लर्क के सामने भी लगभग गिड़गिड़ाना पड़ता है, हाथ गर्म करने के बाद भी उसके हिस्से में क्लर्क की मुस्कान नहीं आती, बड़ी दुत्कार के साथ उसका काम किया जाता है जैसे उसके ऊपर बड़ी अनुकंपा की गई हो, रूडयार्ड किपलिंग के शब्दों की तरह, व्हाइट मैन बर्डन। चेहरे बदल गए हैं और मैकाले का ब्राऊन मैन सर्वोच्च सत्ता में पहुँच गया है भ्रष्टाचार और शोषण के उसी तेवर के साथ, जिसकी कल्पना मैकाले ने ब्राऊन मैन के लिए की थी।


Friday, July 15, 2011

गंगा सी मेरी माँ




सिर पर हो उबलता सूरज

पाँव के नीचे जलती सड़क हो

पैदल दूर तलक जाना हो

प्यास से सूख रहा हलक हो

मन करता है शिशु सा बनकर माँ की गोद समाऊँ

उसके प्यार की ठंडक से

गर्मी से लड़ जाऊँ

                                                          माँ का स्मरण आते ही मुझे याद आने लगती है पतित पावनी गंगा जो हिमालय का स्वच्छ धवल आवरण छोड़कर मटमैले मैदानी इलाकों में बेसुध दौड़ती है ताकि उसके बच्चों को निर्मलता मिले, अन्न-वस्त्र जुटाने का सामर्थ्य प्राप्त हो, अपने बच्चों की गंदगी साफ करते स्वयं के गंदे होने का भय भी उसे नहीं होता। मुक्ति देने वाली माँ मुक्ति भी नहीं चाहती। उसकी करुणा, त्याग, तपस्या से प्रसन्न हो परमात्मा उसे सागर की गोद सुलाते हैं वहाँ भी उसे चैन नहीं मिलता, वह सूरज की उपासना करती है और मेघों के माध्यम से फिर नई ऊर्जा से धरती पर आ जाती है। ईश्वर को अवतार लेने में समय लगता है पर माँ का अवतरण किसी पूजा, प्रार्थना, अर्चना, वंदन की प्रतीक्षा नहीं करता। कहते हैं मृत्यु के समय राम कहने से मुक्ति मिलती है पर मेरा मानना है मृत्यु के समय माँ का स्मरण मुक्ति भले ही न दे, पर ऐसा जीवन अवश्य देगा जो देवताओं के लिए दुर्लभ है! मुझे ईश्वर के वरदान से ज्यादा माँ का आशीष प्रिय है। 

  मेरी माँ स्कूल नहीं गई थी पर वह निरक्षर नहीं थी, क्योंकि अक्षर(ईश्वर) से उनका गहरा प्रेम था, वस्तुतः निरक्षर तो हम है, शब्दों की बाजीगरी करने वाले मदारी से ज्यादा नहीं हैं हम। वेदों, पुराणों, शास्त्रों एवं धर्मग्रंथों के अध्ययन से ईश्वर को पाना उतना सहज नहीं है, जितना सहज निःस्वार्थ सेवा, प्रेम व त्याग से है “ रामहिं केवल प्रेम पिआरा” भौतिक रूप से संपन्न बनाने वाली शिक्षा(वर्तमान) आँखों की भाषा नहीं समझती, मेरी माँ आँखों की भाषा समझती थीं। वे जानती थी कि ईश्वर की दी हुई संपन्नता अपने स्वार्थपूर्ति या अहंकार की पुष्टि के लिए नहीं है, अपने दरवाजे पर आए परिचित-अपरिचित साधु, असाधु सभी के प्रति वे ईश्वर का भाव रखती। चरम अभाव की स्थिति में भी वे आगंतुक को पानी जरूर पिला देती थीं, वे वृक्षारोपण का सरकारी कार्यक्रम नहीं जानती थीं, स्वयं प्रेरित होकर तालाब के किनारे वृक्ष लगवाती, स्वयं तालाब में स्नान के बाद उन वृक्षों को सींचती। प्रयाग, वाराणसी, वृंदावन से आने वाले साधुओं को वे ऐसे पूजती, मानो वे उसके आत्मीय हों। हम कहते, अम्मा साधु तुम्हें ठग ले गए, तो वे हँस कर कहतीं, कृष्ण से बड़ा ठगिया कोई नहीं है! वे साधु तो केवल द्रव्य, अन्न या वस्त्र ले जाते हैं, परंतु मेरे कृष्ण तो मेरा सर्वस्व ले गए हैं इसलिए मुझसे दूर-दूर रहते हैं, मुझे विश्वास है देहत्याग के बाद वह ठगिया उन्हें जरूर मिल गया होगा। इसी से वे हमें भुलाए बैठी हैं। मां कि याद करता हूँ, आँखों में क्या होता है जिससे मिलना होगा ही नहीं, उसके लिए क्यूँ रोता है।

(मेरे मामा अशोक तिवारी का मेरी काकी के लिए लिखा लेख)

Monday, June 27, 2011

क्या २५ प्रतिशत आरक्षण व्यवस्था सफल हो पाएगी?


शिक्षा के अधिकार के अंतर्गत सरकार ने निजी स्कूलों में कमजोर आर्थिक परिस्थिति वाले बच्चों के लिए २५ फीसदी आरक्षण रखा है। इसके क्रियान्वयन के लिए नोडल अधिकारी नियुक्त किए हैं। अधिकारी किस सीमा तक बच्चों को निजी स्कूलों में एडमिशन दिलाने में सफल होते हैं यह तो वक्त ही बताएगा। अगर वे सफल भी हुए तो भी कई ऐसे ज्वलंत सवाल हैं जिनका उत्तर दे पाना तंत्र के लिए कठिन होगा। पहली बात तो यह कि अधिकतर निजी स्कूल अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा देते हैं। अगर एडमिशन होना है तो केवल प्राथमिक स्तर पर ही संभव है। इसका मतलब यह कि बच्चे का एडमिशन केवल क्लास वन में संभव है। अगर यह मान भी लें कि हिंदी माध्यम के बच्चों को अंग्रेजी माध्यम में स्विच करने की सुविधा दी जाती है तो भी इतने वर्षों तक अंग्रेजी के ए बी सी डी.. से अपरिचित बच्चे नये माध्यम में कैसे अपने को अभ्यस्त कर पाएँगे।
दरअसल दोष हमारी शिक्षा पद्धति में है, इसे एकरूपता नहीं दी गई है। मातृभाषा में शिक्षा देने वाले स्कूलों में केवल हिंदी चलती है जबकि अंग्रेजी माध्यम के स्कूल अंग्रेजी में ही पूरी शिक्षा देने पर जोर देते हैं। आमतौर पर अंग्रेजी का आतंक हर जगह है लेकिन निजी स्कूलों में तो इस पर कुछ ज्यादा ही जोर दिया जाता है। महँगी फीस वसूलने वाले स्कूलों में तो बच्चों के लिए कक्षा में अंग्रेजी में बात करना अनिवार्य कर दिया जाता है। वहीं मामूली फीस वसूलने वाले स्कूल भी हिंग्लिश पर जोर देते हैं मतलब भले ही बच्चे इंग्लिश न बोल सकें लेकिन उनकी भाषा में अंग्रेजी के शब्द प्रवेश कर जाएँ। कमजोर परिस्थिति से आने वाले बच्चे को कितनी दिक्कत होगी, इसका आसानी से अनुमान लगाया जा सकता है। इस बात की भी आशंका है कि सुनियोजित तरीके से इन बच्चों को निकालने के लिए प्रबंधन षड़यंत्र बुनना शुरू कर दें, बच्चों को इतना परेशान किया जाए कि उनके अभिभावक खुद ही उन्हें स्कूल से बाहर निकाल लें।
  हाल ही में एक खबर आई है कि केरल के किसी जिले के कलेक्टर ने अपनी बिटिया का एडमिशन सरकारी स्कूल में कराया। इस खबर में दिलचस्प यह भी है कि कलेक्टर ने प्रबंधन को खासतौर पर हिदायत दी कि उनकी बिटिया के साथ दूसरे बच्चों की तरह ही व्यवहार किया जाए। उन्हें इस बात की पूरी आशंका थी कि उनकी बिटिया के साथ वीआईपी ट्रीटमेंट किया जा सकता है। जब हम स्कूल में पढ़ते थे तब भी तो बताया जाता था कि फलाना सहपाठी थानेदार का लड़का है और फलाना सहपाठी के पिता पालिटिक्स में हैं। जाहिर है जब सत्तातंत्र के इतने करीबी लोगों के बच्चे आपके स्कूल में पढ़ाई करेंगे, तो वजन पाने के लिए शिक्षक भी इनके प्रति एक उदार नजरिया रखेंगे।
खैर, अब यह तकलीफ दूर हो गई क्योंकि बड़े अधिकारियों और साधन संपन्न लोगों के बच्चे सरकारी स्कूल में पढ़ते ही नहीं। यह समस्या अब दूसरे रूप में सामने आ सकती है जब कमजोर परिस्थिति के बच्चे इन महंगे स्कूलों में प्रवेश करेंगे। इन स्कूलों से पढ़कर निकलने वाले बच्चे अपनी जड़ों से कभी नहीं जुड़ पाएँगे। वे हमेशा हीनता का भाव अपने भीतर लेकर जीएँगे। संभवतः उन्हें अपने परिवार से ही वितृष्णा हो जाए। यह त्रिशंकु जैसी स्थिति होगी जिसे स्वर्ग से तो निकाल दिया गया लेकिन धरती में भी जगह नहीं दी गई।

Wednesday, April 13, 2011

भारतीय इतिहास में सहिष्णुता की परंपरा


अगर भारत की पहचान अनेकता में एकता वाले बहुसांस्कृतिक समुदाय की बन पाई है तो इसका पूरा श्रेय इस देश की उदात्त एवं सहिष्णु परंपरा को जाता है। अनेक शताब्दियों तक द्रविण परंपरा से आर्य परंपरा का सुंदर संयोग हुआ और इसके बाद भी लगातार अनेक जातियों से सांस्कृतिक सम्मिलन की प्रक्रिया जारी रही। इसकी सुंदर अभिव्यक्ति वैदिक ऋचाओं में मिलती है। वैदिक ऋचाओं की मूल भावना समवेत की ओर है। वसुधैव कुटुम्बकं उसका लक्ष्य है। विश्वामित्र द्वारा रचा गया गायत्री मंत्र मूलतः अनार्यों को आर्य परंपरा में दीक्षित करने के लिए रचा गया था। अथर्ववेद में उल्लेखित व्रात्यष्टोम यज्ञ जनजातियों को आर्य परंपरा में समाहित करने की प्रक्रिया को विस्तारित रूप से बताता है। उपनिषदों का महान दर्शन भारत की सहिष्णुता के दस्तावेज के रूप में है। वृहदारण्यक उपनिषद के अनुसार जब ऋषि याज्ञवल्क्य ने संन्यास का निर्णय लिया तब गृह त्याग से पूर्व अपनी प्रिय पत्नी मैत्रेयी से मनचाहा वरदान माँगने का आग्रह किया। मैत्रेयी ने उनसे आत्मज्ञान देने का आग्रह किया, तब याज्ञवल्क्य ने उनसे सूत्र वाक्य कहा आत्मनस्तु कामाय सर्व प्रियं भवतु अर्थात अपनी आत्मा में विश्व की आत्मा देखने पर सारे राग-द्वेष समाप्त हो जाएँगे। उपनिषदों की यह सोच भारतीय परंपरा में अक्षत बनी रही। ईसा पूर्व छठी सदी में भारत में अध्यात्मिक बहस प्रखर हुई। इस समय भारत में ६४ संप्रदाय थे। अलग-अलग संप्रदाय होने के होने के बावजूद बहस ने नकारात्मक अथवा हिंसक मोड़ नहीं लिया अपितु गहरे भातृत्व के वातावरण में दार्शनिक वाद-विवाद संपन्न हुए। उदाहरण के लिए आजीवक संप्रदाय के प्रवर्तक मक्खलि गोशाल, जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी के मित्र थे। महाजनपदकालीन जिन राजाओं ने बौद्ध धर्म को प्रश्रय प्रदान किया, उन्होंने जैन धर्म को भी संरक्षण प्रदान किया। ये नये मत सनातन परंपरा से बिल्कुल अलग विचार रखते थे लेकिन विरोध के बावजूद सनातन परंपरा ने इनके प्रति आदर रखा। भौतिकवादी संप्रदाय के दिग्गज आचार्य चार्वाक का प्रसिद्ध श्लोक है। यावज्जीवेत सुखं जीवेत, ऋणं कृत्वा, घृतं पीबेत। भस्मीभूतस्य देह पुनरागमन कुतः।। यानी जब तक जियो सुख से जियो, ऋण लेकर घी पीओ, देह के नष्ट हो जाने के बाद इसकी वापसी कहाँ होगी? यह सोच सनातन परंपरा की सोच के बिल्कुल उलट है इसके बावजूद चार्वाक को परंपरा में ऋषि कहा गया। भारत में नंद वंश के खंडहरों पर खड़े हुए मौर्य साम्राज्य में सहिष्णुता की अनोखी परंपरा मिलती है। भारत के इस प्रथम साम्राज्य की स्थापना के पीछे एक ब्राह्मण चाणक्य की योजना थी। चाणक्य ने चंद्रगुप्त मौर्य को चेहरा बनाकर अपनी प्रसिद्ध पुस्तक अर्थशास्त्र के सिद्धाँतों पर चलते हुए मौर्य साम्राज्य की ठोस नींव रखी। मौर्य राजधानी पाटिलीपुत्र में रहने वाले सेल्युसिड साम्राज्य के राजदूत मेगास्थनीज ने अपनी पुस्तक इंडिका में लिखा है कि राजा धर्मगुरुओं का आदर करता था और चार अवसर जिस पर वह नगर से बाहर जाता था उसमें से एक अवसर यज्ञ संपन्न करने का अवसर भी होता था। चंद्रगुप्त मौर्य ने अपने अंतिम वर्षों में जैन धर्म ग्रहण कर लिया था और संलेखना के माध्यम से श्रवणबेलगोला में अपने प्राण त्यागे थे( संलेखना जैन धर्म में एक पद्धति है जिसमें साधक बिना कुछ खाए-पीए अपना प्राण त्याग देता है आधुनिक काल में विनोबा भावे ने इसी तरह अपनी देह का त्याग किया था)। चंद्रगुप्त के बाद बिंदुसार इस महान साम्राज्य के सम्राट बने। बौद्ध धर्म ग्रंथ दिव्यावदान में लिखा है कि उनके दरबार को आजीवक भिक्षु सुशोभित करते थे। मौर्य शासकों की दर्शन में गहरी रुचि की जानकारी एथेनियस के विवरण से प्राप्त होती है। इसके अनुसार सम्राट बिंदुसार ने सीरिया के राजा से विदेशी मदिरा, अंजीर और दार्शनिक की माँग की। अपनी पुस्तक अद्भुत भारत में एएल बाशम लिखते हैं कि बिंदुसार की कहानी यह बताती है कि भारत के राजा भौतिक सुविधाओं के साथ ही सत्य के बोध के लिए भी सजग रहते थे। सत्य के बोध की चाह ही उन्हें यूनानी दर्शन की ओर ले गई तथा वे भारतीय दर्शन की ओर बढ़े। भारत के सबसे महान सम्राट कहे जाने वाले अशोक अपने आरंभिक काल में शिव के उपासक थे। इसके बाद कलिंग युद्ध के पश्चात हुई ग्लानि से वे बौद्ध धर्म की ओर मुड़े। इसके बाद अशोक ने जीवन धम्म का प्रचार किया। उनका धम्म किसी खास संप्रदाय के विचारों तक सीमित नहीं था अपितु यह एक नैतिक जीवन शैली थी। अशोक ने जो अभिलेख जारी किए वे एक सम्राट के रूप में थे। इनमें बार-बार अशोक सभी संप्रदायों के बीच सहिष्णुता की बात करते हैं। अशोक की बौद्ध साधक के रूप में जानकारी उनके लघु शिलालेखों से होती है जो उन्होंने स्पष्ट रूप से बौद्ध संघ को एक साधक के रूप में संबोधित किए थे। अपने सबसे चर्चित तेरहवें अभिलेख में अशोक ने कलिंग युद्ध में मारे गए सभी संप्रदाय के साधकों के प्रति सहानुभूति व्यक्त की। बौद्ध धर्म के प्रति रूझान रखने के बावजूद अशोक ने सभी धर्मों के कल्याण की चिंता की। इसका प्रमाण गया के पास बराबर की पहाड़ियाँ हैं जिन्हें अशोक ने आजीविकों को दान की थी। मौर्यों के बाद पाटिलीपुत्र में सत्ता संभालने वाले शुंगों के संबंध में बौद्ध धर्म उदार नहीं है और इनमें शुंगों को बौद्ध उत्पीड़क की संज्ञा दी गई है लेकिन ऐतिहासिक स्तर पर मिले प्रमाण इसकी व्याख्या नहीं करते। शुंग काल में साँची और भरहुत के चारों ओर रेलिंग बनी, क्या ऐसा किसी असिहष्णु शासन में हो सकता था? मौर्योत्तर काल में उत्तर भारत जबर्दस्त आक्रमणों का शिकार हुआ, यद्यपि जितने भीषण यह आक्रमण थे, उसी स्तर का गहरा संवाद भी विदेशी जातियों के साथ भारत का हुआ। भारतीय साहित्य में यवन कही जाने वाली यूनानी जातियों के लिए अनेक स्थान पर आदरसूचक शब्द हैं। मसलन वराहमिहिर ने लिखा है कि यद्यपि यवन म्लेच्छ हैं लेकिन ज्योतिष के विद्वान होने की वजह से प्राचीन ऋषियों की तरह पूज्य हैं। महाभारत में भी यवन इंजीनियरिंग की तारीफ करते हुए उन्हें सर्वज्ञ यवन की संज्ञा दी गई है। सांस्कृतिक सम्मिलन को बढ़ावा देने के लिए यवन एवं अन्य विदेशी जातियों का आर्यीकरण किया गया। उदाहरण के लिए मनुस्मृति में लिखा है कि अपने कर्मों से च्युत क्षत्रिय ही शक और पहलव कहलाए। विष्णु की शरण में आने पर और वैष्णव जन की तरह व्यवहार करने पर यह जातियाँ पुनः शुद्ध हो सकती हैं। यवन शासक मिनेंडर ने बौद्ध धर्म ग्रहण किया। नागसेन की पुस्तक मिलिंदपन्हों(मिलिंद के प्रश्न) से इस युग की दिलचस्प दार्शनिक स्थिति का वर्णन मिलता है। कुषाण शासक कनिष्क के पिता विम कैडफिसस जहाँ शिव के उपासक थे वहीं कनिष्क ने हिंदू, बौद्ध, एवं यूनानी देवताओं के प्रति श्रद्धा दिखाई। पेशावर में कनिष्क ने एक महान बौद्ध स्तूप बनाया था। इसके ध्वंसावशेषों को कालांतर में बड़े शाह का मकबरा कहा जाने लगा। जब इसकी खुदाई हुई तो एक छोटे से पात्र में बुद्ध के अवशेष प्राप्त हुए। पात्र में कनिष्क को इंद्र, ब्रह्मा एवं बुद्ध के साथ अंकित किया गया है। यह अंकन पेशावर जैसे नगर की सार्वदेशिक छवि से बिल्कुल मेल खाता है। इस नगर के बाजारों में आज भी सीरियाई अंजीर से लेकर वैदिक सोमरस तक सब कुछ बिकता है। सहिष्णुता की यह परंपरा केवल उत्तर भारत में ही नहीं, दक्षिण भारत में भी दिखती है। जैसे उत्तर भारत सिल्क रूट के माध्यम से रोम साम्राज्य के वैभव का लाभ उठा रहा था, वैसे ही दक्षिण भारत भी रोमन समृद्धि का लाभ उठा रहा था। दो घटनाएँ बताती हैं कि दक्षिण में किस तरह की सांस्कृतिक सहिष्णुता थी। पहला तो केरल के मुजरिस में रोमन राजा ऑगस्टस का मंदिर और दूसरा सेंट टॉमस की भारत यात्रा। ईसा के बारह शिष्यों में से एक सेंट टॉमस ने ईसाई मत का प्रचार करने के लिए फिलीस्तीन से केरल तक कठिन यात्रा की। सेंट टॉमस ने जल्द ही क्रिश्चयन मान्यताओं के प्रति स्थानीय समुदाय में श्रद्धा उत्पन्न की। उनका विरोध भी हुआ। अनुश्रुति है कि मद्रास के पास मायलापुर नामक जगह में सेंट टॉमस की हत्या कर दी गई। भले ही टॉमस की हत्या हुई लेकिन स्थानीय जनता द्वारा उनका विश्वास अपनाए जाने से स्पष्ट है कि भारतीय जनमत हर नए विश्वास को आदर से ग्रहण करता था। सेंट टॉमस की मृत्यु के बाद भी केरल में सीरियाई ईसाई मत फलता-फूलता रहा। इसे संकट का सामना हिंदू अथवा मुस्लिम कट्टरपंथियों से नहीं करना पड़ा। इनके लिए वास्तविक संकट पंद्रहवीं सदी में तब आया जब पुर्तगालियों ने भारत के लिए वैकल्पिक मार्ग की तलाश शुरू की। १४९८ में जब वास्कोडिगामा भारत आया तब उसके पीछे पोप की पूर्वी धरती पर ईसाईयत के प्रसार की इच्छा भी काम कर रही थी। पुर्तगालियों ने सेंट टॉमस संप्रदाय को निशाना बनाया और उनके गिरजाघरों को अपने संप्रदाय के विचारों के अनुरूप नया रूप दिया, उनकी पूजा पद्धतियों को नकारा। फिर भी सेंट टॉमस संप्रदाय की मान्यताएँ भारत के समाज में जीवित रहीं। गुप्त काल को ब्राह्मणिक परंपराओं के उत्कर्ष का काल माना जाता है लेकिन जहाँ तक गुप्त राजाओं का सवाल है कहीं भी ऐसे प्रसंग नहीं आते जिसमें उन्होंने किसी खास धर्म का उत्पीड़न किया हो। चंद्रगुप्त द्वितीय के समय भारत यात्रा पर आए फाह्यान ने बिना चंद्रगुप्त का नाम लिए उनके शासन की प्रशंसा की। प्राचीन भारत के अंतिम हिंदू सम्राट कहे जाने वाले हर्ष ने भी व्यापक धार्मिक सहिष्णुता बरती थी और हिंदू धर्म और बौद्ध धर्म को बराबर महत्व दिया था। उसके समय भारत आए चीनी यात्री हुएनसांग ने तत्कालीन भारतीय समाज की धार्मिक सहिष्णुता की तारीफ की थी। ऐसा भी नहीं है कि कट्टरपंथी घटनाएं हुई ही नहीं। हर्ष के समकालीन राजा गौड़ नरेश शशांक ने प्राचीन बौद्ध वृक्ष को काट डाला जिसके नीचे बुद्ध को निर्वाण की प्राप्ति हुई थी लेकिन ऐसे प्रसंग कम ही मिलते हैं। विवेकानंद ने १८९३ में शिकागो में विश्व धर्म सम्मेलन में दिए गए भाषण में दो बातों को विशेष तौर पर रेखांकित किया था। पहला तो इस्लाम के प्रसार के समय भारत में आए पारसी तथा दूसरा फिलीस्तीन में इस्लाम के उभार के बाद आने वाले यहूदी। यह ऐसी ही घटना थी जैसे आधुनिक काल में तब हुई जब दलाई लामा के नेतृत्व में बड़ी संख्या में तिब्बती बौद्ध धर्म मतावलंबियों ने भारत में शरण ली। भारत में पारसियों को शरण दिए जाने की जानकारी आठवीं शताब्दी के संजन अभिलेख से मिलती है वहीं केरल में ग्यारहवीं सीद का एक ताम्रपत्र प्राप्त हुआ है जिसमें तत्कालीन राजा भास्कर रविवर्मन ने जोसेफ रब्बान नामक यहूदी को भूमि आवंटित की थी। आठवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी का समय जिसे गुप्तोत्तर काल अथवा सामंतवादी युग भी कहा जाता है ऐसा समय था जब धार्मिक रूढ़िवादिता बढ़ी और दार्शनिक बहस को कुछ हद तक विराम लगा। ग्यारहवीं सदी में भारत आने वाले दार्शनिक औऱ लेखक अलबरूनी ने अपनी पुस्तक तहकीक-ए-हिंद में इस तंग नजरिये का विरोध किया है। यह स्थिति अधिक समय तक नहीं टिकी और दक्षिण भारत से उठी भक्ति की तगड़ी लहर से रूढ़िवादिता को तगड़ी चुनौती मिली। इसका सुंदर संयोग सूफी आंदोलन से हुआ और भारत में गंगा-जमुनी संस्कृति की ठोस नींव पड़ी। आक्रांता इस्लामिक सेना के साथ शांति का पैगाम लेकर सूफी संत भी इस धरती पर आए और इस्लामिक रहस्यवाद के भारतीय रहस्यवाद के साथ संयोग की शुरुआत हुई। इस दार्शनिक संवाद की पृष्ठभूमि इस्लाम के वहदत-उल-वजूद और भारतीय दर्शन के अद्वैतवाद में निहित थी। दरअसल इस्लामिक रहस्यवाद का स्कूल वहदत-उल-वुजूद कहता है कि ईश्वर और उसकी बनाई सृष्टि में कोई फर्क नहीं है और अद्वैतवाद भी कहता है कि आत्मा और परमात्मा में कोई भेद नहीं। सूफी मत में वहदत-उल-वजूद की परंपरा को चिश्ती संतों ने आगे बढ़ाया। चिश्ती मत के तीन दिग्गज सूफी संत शेख मोइनुद्दीन चिश्ती, शेख निजामुद्दीन औलिया तथा शेख नसीरूद्दीन चिराग-ए-देहली ने सही मायनों में हिंदू जनता से संवाद की सार्थक शुरुआत की। शेख निजामुद्दीन औलिया के रहस्यवाद से प्रभावित होकर बहुत से हिंदुओं ने इस्लाम को भी अपनाया। औलिया नाथपंथियों के हठयोग से काफी प्रभावित थे और हिंदू रहस्यवाद में गहरी रुचि लेते थे। उनके सबसे प्रखर शिष्य थे अमीर खुसरो। खुसरो न केवल फारसी के बड़े लेखक थे अपितु हिंदवी जबान को अपनाने वाले पहले तुर्क थे। उन्होंने फारसी और हिंदी के संयोग से अनेक सुंदर रचनाएँ लिखीं। बलबन से लेकर गियासुद्दीन तुगलक तक छह राजाओं के दरबारी कवि रहे इस महान लेखक ने अपनी रचना में एक जगह लिखा है कि मैं हिंद का तोता हूँ, हिंदवी जबान में बात करना पसंद करता हूँ। मुझे हिंदुस्तान से प्यार है क्योंकि मातृभूमि से प्यार अहम फर्ज है। यहाँ की हवा खुरासान से बेहतर है और यहाँ के ब्राह्मण अरस्तु जैसे विद्वान हैं। तीन सौ साल पहले भारत आए अलबरूनी ने ब्राह्मणों की रूढ़िवादिता की आलोचना की थी, अमीर खुसरो ने उनकी तारीफ की है। इस्लाम के आगमन से भारत में दिलचस्प बहस की स्थगित परंपरा पुनः आरंभ हुई, वैसे ही जब बौद्ध धर्म के उत्कर्ष के बाद दिग्गज ब्राह्मण दार्शनिकों के बौद्ध दार्शनिकों के साथ शास्त्रार्थ हुए थे और दार्शनिक स्तर पर उपमहाद्वीप और भी समृद्ध हुआ था। सल्तनत के आरंभिक शासकों का रवैया हिंदुओं के प्रति सख्त रहा लेकिन वह कभी अव्यवहारिक नहीं हुआ। मसलन इल्तुतमिश के पास जब अमीरों का एक प्रतिनिधिमंडल शरीयत लागू करने की माँग लेकर गया तो इल्तुतमिश ने कहा कि हिंदुस्तान जैसे बहुलतावादी समाज में शरीयत लागू करना अव्यवहारिक होगा। तीखे तेवर से मध्यकालीन इतिहास लिखने वाले तत्कालीन इतिहासकार जियाउद्दीन बरनी ने अपनी पुस्तक तारीख-ए-फीरोजशाही में लिखा है कि जलालुद्दीन खिलजी अपने महल से चुपचाप यमुना में मूर्तियों को विसर्जित कराने पहुँचे हिंदुओं को देखा करता था। हिंदू गाजेबाजे के साथ जुलूस निकालते थे लेकिन उन पर सख्ती नहीं की जा सकती थी। मोहम्मद बिन तुगलक ने अपने पूर्ववर्तियों के कट्टरपंथ को छोड़ा और दार्शनिक संवाद आरंभ किया। उसने तत्कालीन जैन संत जिनप्रभा सूरी को अपने दरबार में आमंत्रित किया, वह होली खेलना भी पसंद करता था। कट्टर सुल्तानों के दौर में भी कुछ दिलचस्प वाकये मिलते हैं। उदाहरण के लिए कट्टर सुल्तान फिरोजशाह तुगलक के समय में जब ज्वालामुखी मंदिर को ध्वस्त किया गया तब सुल्तान ने वहाँ से प्राप्त दुर्लभ पांडुलिपियों के फारसी में अनुवाद के निर्देश दिए। अशोक के अभिलेखों को पढ़ने के लिए उसने पंडितों को बुलाया लेकिन पंडित इसकी लिपि को समझ नहीं सके। मौलवियों ने कहा कि इसमें काफिरों के लिखे हुए मंत्र हैं और इन्हें नष्ट कर देना चाहिए। फिरोज ने यह सलाह नहीं मानी और यह दुर्लभ अभिलेख बच गए। ऐसा ही वाकया कट्टर सुल्तान सिकंदर लोदी के समय का भी है। कुरूक्षेत्र के दौरे के पर सिकंदर लोदी ने ब्रह्म सरोवर के निकट बहुत से मंदिरों को देखा और इन्हें नष्ट करने के निर्देश दिए लेकिन जब उलेमा ने सलाह दी कि ऐसा करना शरीयत के खिलाफ जाना होगा तो लोदी ने अपने निर्देश वापस ले लिए। समाज में रूढ़िवाद के खिलाफ एक शक्तिशाली धारा चल रही थी और लोदी जैसे प्रतिक्रियावादी शासक इसे चाहकर भी रोक नहीं पाए। अनुश्रुति है कि जब कबीर ने हिंदू और मुसलमानों के रूढ़िवादी विचारों पर प्रहार करना शुरू किया तब सिकंदर लोदी ने उन्हें सख्त निर्देश दिए। कबीर ने इसकी परवाह नहीं की और उनके समर्थकों के बड़े हुजूम को देखते हुए सिकंदर लोदी ने अपने निर्देश वापस ले लिए। नानक के जीवन से जुड़े ऐसी ही प्रसंग हैं। इन दो भक्ति संतों ने धर्मों के असल संदेश को आम जनता तक पहुँचाया, इससे हिंदू और मुस्लिम मतावलंबियों की दूरी और कम हुई। एक बार फिर दक्षिण भारत की बात करें, दक्षिण में धार्मिक सहिष्णुता पहले ही स्थापित थी और यहाँ रहने वाले अरब मूल के इस्लाम मतावलंबियों ने तुर्कों का विरोध किया। अपने सुल्तान के निर्देश पर सुदूर दक्षिण भारत तक हमला करने पहुँचे मलिक काफूर को तब गहरा आश्चर्य हुआ जब उसने मदुराई में मुस्लिमों की बस्ती बसी हुई पाई और इन्होंने सुल्तान की सेना का विरोध किया। विजयनगर साम्राज्य में आए विदेशी यात्री डोमिंगो पेज ने लिखा है कि चाहे मूर हो, ईसाई हो, या अन्य मतावलंबी, राजा की नजरों में सब बराबर हैं। इराक के शाह शाहरूख के राजदूत अब्दुर्रज्जाक ने भी विजयनगर के राजाओं की धर्मनिरपेक्षता की गहरी प्रशंसा की है। बंगाल के इस्लामिक शासकों ने हिंदू धर्म का पूरा आदर किया और यहाँ के सबसे लोकप्रिय सुल्तान अलाऊद्दीन हुसैन शाह को जनता कृष्ण का अवतार कहती थी। हुसैनशाह ने वैष्णव संत चैतन्य का सम्मान किया और उनके शासनकाल में अनेक संस्कृत ग्रंथों का अनुवाद किया गया। सल्तनत का पतन और मुगल साम्राज्य की स्थापना कई मायनों में भारत में गंगा-जमुनी संस्कृति की स्थापना के दृष्टिकोण से अहम रही। अनुश्रुति है कि हुमायूँ ने मेवाड़ की रानी कर्णावती की राखी के जवाब में अपनी सेना गुजरात के राजा बहादुरशाह के विरुद्ध भेजी थी। हुमायूँ की पत्नी और अकबर की माँ हमीदा बानो बेगम एक सूफी संत की पुत्री थी। अकबर का जन्म भी अमरकोट के एक हिंदू राजा वीरसाल के यहाँ हुआ था। इसका अकबर की धार्मिक सहिष्णुता की नीति पर गहरा प्रभाव पड़ा। बादशाह बनने के बाद अकबर ने तीर्थयात्रा कर, जजिया और दासप्रथा समाप्त कर दिए। रहस्यवाद में गहरी रुचि के चलते अकबर ने १५७५ में फतेहपुर सीकरी में इबादतखाने की स्थापना की। इबादतखाने में हुई बहसों में विभिन्न धर्मों की अच्छाईयाँ भी सामने आईं और उनकी बुराईयाँ भी सतह पर आ गईं। विवेकपूर्ण तरीके से सोचने वालों के लिए ऐसी बहसें आँखें खोलने वाली थीं। अपने समय के बारे में टिप्पणी करते हुए अकबर के जीवनी लेखक अबुल फजल ने अपनी पुस्तक अकबरनामा में लिखा है कि जब तकलीद की हवा चलती है तब दानिशमंदी की परत धुँधली हो जाती है अर्थात जब रूढ़िवाद की आंधी चलती है तब आँखों को सच नजर नहीं आता। अकबर द्वारा १५८२ में तौहीद-ए-इलाही का ऐलान भी इसी दिशा में कदम था। अगर इस धार्मिक-दार्शनिक बहस से निकले सत्य को अकबर सार्वजनिक जीवन में आत्मसात नहीं करता तो इन बहसों को बौद्धिक लफ्फाजी मात्र कहा जाता और जनता के लिए इसका कोई विशेष अर्थ नहीं होता। अकबर ने तौहीद को लोगों पर थोपा भी नहीं, यहाँ तक कि अपने बेहद करीब दरबारियों पर भी नहीं। केवल ८० लोगों ने तौहीद की शास्ता ली जिसमें एकमात्र हिंदू के रूप में बीरबल भी शामिल थे। यहाँ उल्लेखनीय है कि इलाही कोई धर्म नहीं था इसे तौहीद के रूप में व्यक्त किया गया है। इस घटना के ८० साल बाद मोहसिन फानी ने इसे दीन-ए-इलाही के रूप में उल्लेखित किया। अकबर के बाद जहाँगीर ने भी अकबर की धर्मनिरपेक्ष परंपराओं को जारी रखा। फारसी में लिखी अपनी आत्मकथा तुजूक-ए-जहाँगीरी में उसने वेदों और इस्लामिक इल्हाम ग्रंथों में समता दिखाई। शाहजहाँ के गद्दीनशीन होते ही कट्टरता बढ़ी लेकिन अपने मित्र पंडित जगन्नाथ और कवीन्द्र आचार्य के कहने पर शाहजहाँ ने आरंभिक कड़ाई शिथिल कर दी। अपने अंतिम वर्षों में शहजादे दारा शिकोह के प्रभाव में शाहजहाँ की कट्टरता और भी शिथिल हुई। शहजादे दारा शिकोह को लेनपूल ने लघु अकबर कहा है। अगर उत्तराधिकार के युद्ध में समीकरण दारा के पक्ष में होते तो भारत में धर्मनिरपेक्षता की एक और इबारत लिखी जाती। दारा में रहस्यवाद के प्रति वैसा ही प्रबल रूझान था जैसा अकबर में। उसने काशी के पंडितों की सहायता से उपनिषदों का अनुवाद सिर्र-ए-अकबर शीर्षक से कराया। उसकी रचना मज्म-उल-बहरीन अर्थात महासागरों के मिलन में इस्लामिक रहस्यवाद की समानता वेदांत से दिखाई गई है। औरंगजेब ने धार्मिक सहिष्णुता की नीति पर गहरी चोट की। साम्राज्य की नींव अकबर ने बहुसंख्यक सांस्कृतिक समुदायों को साथ लेकर रखी थी, औरंगजेब ने इस ताने-बाने को नष्ट कर साम्राज्य की कब्र खुद खोद ली। तमाम मंदिरों को तोड़े जाने की घटनाओं के बीच कुछ दिलचस्प तथ्य भी मिलते हैं। इनमें बनारस एवं चित्रकूट के मंदिरों से मिले दस्तावेज हैं जिनमें औरंगजेब द्वारा इन मंदिरों को धार्मिक अनुदान दिए जाने का जिक्र मिलता है। औरंगजेब के बाद मुगल शासक पुनः धार्मिक सहिष्णुता की नीति की ओर लौटे लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। शिवाजी, जाटों और सिखों ने मुगल साम्राज्य को काफी खोखला कर दिया था। यद्यपि शिवाजी ने हिंदू धर्म उद्धारक की उपाधि धारण की लेकिन ऐसा कोई प्रसंग नहीं मिलता कि उन्होंने इस्लाम के प्रतीकों को किसी प्रकार की क्षति पहुँचाई हो। उनका प्रखर आलोचक खाफी खाँ ने भी अपनी पुस्तक मुन्तखब-उल-लुबाब में लिखा है कि उसने(शिवाजी ने) नियम बना रखा था कि कहीं भी लूटपाट हो तो धार्मिक प्रतीकों को नुकसान न पहुँचाया जाए। पवित्र कुरान अगर कहीं मिल जाती तो उसे सहेजने के लिए किसी मुस्लिम सैनिक को दे दिया जाता था। शिवाजी के नैतिक चरित्र एवं धार्मिक सहिष्णुता का उत्कर्ष तब देखने मिला जब अबीसीनियाई(सीद्दी) सरदार मुल्ला अहमद नवायत खान की अति सुंदर पुत्रवधू को उनके सामने पेश किया गया। शिवाजी ने इस मौके पर कहा कि अगर मेरी माँ भी इतनी सुंदर होती तो मैं भी कुरूप नहीं होता, ऐसा कहकर पूरे सम्मान के साथ उन्होंने खाँ की पुत्रवधू को विदा किया। मुगल बादशाह फर्रूखसियर के समय सैयद बंधुओं ने हिंदुओं के साथ उदारता का व्यवहार शुरू किया। अंतिम रूप से मोहम्मद शाह रंगीला के शासनकाल में जजिया हटा लिया गया। मुगल साम्राज्य के खंडहरों पर बने अवध और हैदराबाद जैसे रियासतों ने धार्मिक सहिष्णुता की नीति जारी रखी। अठारहवीं सदी में सवाई जयसिंह जैसे राजा भी हुए जो वैज्ञानिक सोच रखते थे। अपनी पुस्तक जीज-ए-मोहम्मदशाही की प्रस्तावना में जयसिंह ने लिखा है कि साम्राज्य नष्ट हो जाते हैं धर्म कुहासे की तरह छंट जाता है लेकिन वैज्ञानिक का कृतित्व हमेशा कायम रहता है। पुनर्जागरण के दौर में राजा राममोहनराय जैसे विचारकों ने फारसी और बांग्ला दोनों ही भाषाओं को समान रूप से महत्व दिया। राममोहन पर पूरा भरोसा करते हुए अकबर द्वितीय ने उन्हें राजा की उपाधि देते हुए अपनी पेंशन संबंधी याचिका लेकर इंग्लैंड भेजा जहाँ ब्रिस्टल में उनकी मृत्यु हो गई। धर्मनिरपेक्षता का यह रंग उर्दू और हिंदी कविता में भी मिलता है। मसलन गालिब को जितना प्रेम दिल्ली के प्रति था उतना ही बनारस की गलियों के प्रति अनुराग भी। टीपू सुल्तान के संबंध में कहा जाता है कि उन्होंने मराठा आक्रमण से नष्ट श्रृंगेरी के मंदिर के कुछ हिस्से की मरम्मत कराई। श्रीरंगपट्टनम के किले के भीतर गंगाधारेश्वर मंदिर में पूजा में उन्होंने किसी तरह का हस्तक्षेप नहीं किया। अठारहवीं सदी में अपने कर्म के प्रति निष्ठा सबसे बड़ी थी, मसलन पानीपत के तृतीय युद्ध में पेशवा का तोपखाना इब्राहिम खान गार्दी के हाथ में था जिसने पूरे शौर्य से अब्दाली की सेनाओं का मुकाबला किया। उन्नीसवीं सदी का एक अखबार जाम-ए-जहाँनुमा लालकिले के भीतर दुर्गापूजा का वर्णन करता है। १८५७ के महान विद्रोह के समय हिंदू-मुसलमान मिलकर लड़े। विद्रोह दबा दिया गया और फूट डालो राज करो की नीति का आगाज किया गया। हंटर की पुस्तक इंडियन मुस्लिम से दोनों संप्रदायों को लड़ाने की चालें शुरू हुईं वो १९४७ तक बदस्तूर कायम रहीं। लाख कोशिशों के बावजूद हिंदुस्तान में सहिष्णुता की आत्मा नहीं मरी जिसके लिए कभी इकबाल ने कहा था कि कुछ बात हैं हममें कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।