Sunday, September 11, 2011

मेरी त्र्यंबकेश्वर यात्रा(भाग 1)



रायपुर से मुंबई की ओर ट्रेन रूट में की गई यात्रा में मेरे लिए अक्सर आकर्षण का केंद्र होता है डोंगरगढ़ के बाद शुरू होने वाले घने जंगल। मुझे भूगोल की जानकारी नहीं तो केवल अनुमान लगाता हूँ कि ये या तो मैकल पर्वत श्रेणी के होंगे या दंडकारण्य के महान पठार के हिस्से। दुर्भाग्य से उस दिन की रात चाँदनी नहीं थी, अब जंगलों में वैसे जुगनू भी नहीं जिनसे अंधेरी रातें भी गुलजार होती थीं। कुछ सालों पहले मैंने इसी जंगल में सैकड़ों जुगनुओं को देखा था। ऊपर आकाश में तारे दिख रहे थे और नीचे जुगनू। पाकीजा का एक गाना याद आता है जुगनू हैं या जमीन पर उतरे हुए हैं तारें। सुना है कि पहले अरबी लोग इन जुगनुओं को एक काँच के डिब्बे में रख देते थे, रात में डिब्बे में भरे हुए सैकड़ों जुगनू टार्च की तरह काम करते थे। शहरों में रहने वाले हम लोगों को प्रकृति की कितनी थोड़ी जानकारी होती है इसका मुझे तब पता चला, जब मैंने और मेरे दोस्त ने पहली बार दिन में जुगनू देखा। वो हरे रंग का था, हम लोगों ने कहा कि हमने एक नया कीड़ा खोजा है। इसका नाम रखा सोकव। बाद में पता चला जिसे हम लोगों ने सोकव समझा वो तो जुगनू था। चाँदनी रातों में इन जंगलों से गुजरना अद्भुत अनुभव होता है। चाँदनी का मद्धिम प्रकाश पेड़ों और झरनों में गिरता है और पूरे जंगल में एक अजीब सन्नाटा छाया रहता है। शायद जंगल में मौजूद होने से ज्यादा बेहतर ट्रेन के भीतर से इसे देखना है क्योंकि तेज ठंडी हवाओं का थपेड़ा हमें और आनंदित करता है। खिड़की वाली जगह का बचपन का लालच हर बार जाग जाता है। महाराष्ट्र के भीतर प्रवेश करने पर यदि हम सड़क मार्ग से जाएँ तो शायद धुलिया के आसपास से सहयाद्री की श्रृंखला शुरू हो जाती है और यह अद्भुत अनुभव होता है। एक दशक पहले सड़क यात्रा में कवर किये गए कुछ शहर याद आते हैं। एक कस्बे में हमारी गाड़ी रूकी थी। छोटा कस्बा था पहाड़ियों से घिरा। पहली बार आए थे लेकिन ऐसा लगा कि पहले भी इस कस्बे से परिचय रहा। खैर जब नासिक पहुँचे तो स्टेशन छोटा सा लगा लेकिन शहर में पहुँचते ही लगा कि यह बड़ा शहर है और व्यवस्थित भी। त्र्‌यंबकेश्वर यहाँ से संभवतः ४० किमी दूर है। प्राचीन ज्योतिर्लिंग के अलावा यहाँ गोदावरी का उद्गम भी है। बताते हैं कि त्रिम्बक की पहाड़ियों से गोदावरी निकलती है। त्र्‌यंबकेश्वर में एक धारा दिखी लेकिन इतनी गंदी धारा थी कि लगा ही नहीं एक महान नदी की शुरुआती यात्रा यहाँ से हो रही है। रास्ते भर पहाड़ की तलहटी ने हरी घास की चादर ओढ़ ली थी। पास ही त्रिम्बक की मेघाच्छादित पहाड़ी दिख रही थी। नासिक से त्र्‌यंबकेश्वर के बीच एक छोटा सा पहाड़ी गाँव पड़ता है अंजनेरी। नासिक में अपने जीजाजी के घर जब मैं रुका तो उन्होंने अंजनेरी पर आधारित मिथक कथा की जानकारी मुझे दी। उन्होंने मुझे बताया कि अंजनेरी में हनुमान जी का जन्म हुआ था। यहाँ तक पहुँचने का रास्ता काफी कठिन है वे भी अरसे से नासिक में रहने के बाद पहली बार पिछले साल ही अंजनेरी जा पाये थे। त्र्‌यंबकेश्वर में रुकते ही सबसे पहले हम लोग गजानन धर्मशाला में ठहरे। यह शेगाँव वाले गजानन महाराज की धर्मशाला है। इतने सस्ते किराये में सुंदर कक्ष वाली संस्थान की धर्मशाला अन्य धार्मिक संस्थाओं के लिए आदर्श है कि किस प्रकार चढ़ावे के धन का बेहतर उपयोग उन भक्तों के लिए किया जा सकता है जो भक्ति भावना तो रखते हैं लेकिन जो सुदामा की तरह दीन-हीन होते हैं और अपने प्रभु के दर्शन के लिए लंबी कष्टप्रद यात्रा तय करते हैं। धर्मशाला की एक और विशेषता मैंने देखी, यहाँ सभी आर्थिक वर्ग के लोग थे, असली समाजवाद ऐसी ही जगहों में दिखता है जहाँ सब एक से लगें, कोई छोटा-बड़ा नहीं। रूम की टैरेस से हमें वो पहाड़ी दिखती थी जहाँ से गोदावरी की बहुत सी धाराओं में से एक धारा निकली थी। 
  स्नान करने के उपरांत हम मंदिर गये, त्र्‌यंबकेश्वर बारह ज्योतिर्लिंगों में शामिल है। पौराणिक कहानी मैंने नहीं पढ़ी लेकिन यह जरूर पता चला कि इस मंदिर का निर्माण अहिल्याबाई होल्कर ने कराया था। मंदिर की भव्यता महाकाल मंदिर की यादें ताजा करा देती है। भीड़ बहुत थी और भीड़ में मेरा दम घुटता है शायद फोबिया अधिक है सच्चाई कम है। इसलिए थोड़ा असहज महसूस हुआ। फिर सुबह जाना था, भीड़ में हुई परेशानी ने मानसिक रूप से थकाया और भोजन की भी उचित व्यवस्था नहीं थी, इसके चलते परेशानी कुछ और बढ़ी। सुबह के समय शिव जी के अच्छे से दर्शन हुए, फिर हमने परिक्रमा की। इसके बाद साढ़े आठ बजे तक का इंतजार किया। मुझे आशंका थी कि इतनी देर कैसे बैठ पाऊँगा पूजा-वेदी में, लेकिन भगवान की कृपा थी और पूजा करने के दौरान बहुत अच्छा अनुभव हुआ। पंडित जी के घर के तीसरे माले में पूजा हुई। वहाँ घर से वही त्रिम्बक की पहाड़ियाँ दिख रही थीं। इन्हें देखकर लग रहा था कि रास्ता बड़ा लंबा और कठिन है लेकिन असंभव नहीं। नेहरू ने भी लिखा था न अक्सर हमें आलोकित पर्वत शिखरों को प्राप्त करने के लिए थमी अंधेरी घाटियों से गुजरना होता है। लंबे समय से अंधेरी घाटियों से गुजर रहे हैं लेकिन रुके भी तो नहीं है। हौसलों का दिया बूझता प्रतीत होता है लेकिन संकल्प शक्ति भी है मन में, जिससे ये लड़ाई छेड़े हुए हैं। खैर वैदिक रीति से की गई पूजा ने एक बार फिर परंपरा में वापस लौटा दिया। अक्सर ऐसी पूजा के समय मुझे निर्मल वर्मा द्वारा लिखा शब्द याद आता है जब कोई हिंदू अपने संबंधियों की अस्थियाँ हरिद्वार में गंगा में बहाता है तो उसे वैसा ही अनुभव होता होगा जैसा यूनानियों को कैथार्सिस की सम्पूर्ति पर होता होगा।
  इतिहास की पढ़ाई ने काफी कुछ दिया है लेकिन बहुत कुछ छीन भी लिया है जैसाकि जेम्स जॉयस ने लिखा है कि इतिहास वह दुःस्वप्न है जिससे मैं जागने की कोशिश करता हूँ। अक्सर इसके चलते अपनी मान्यताओं पर शक भी हो जाता है। शायद बीते हुए समय में ऐसा होता होगा कि हम अपनी मान्यताओं पर टिके रहते होंगे लेकिन अपनी बदहाली का कारण अपने उन पापों अथवा अज्ञात कारणों पर छोड़ देते होंगे जो हमें भी नहीं मालूम। फिर भी जैसे खंडित देवता की पूजा नहीं होती, वैसे ही अगर आपके व्यक्तित्व में कुछ खंडित अंश रह गया तो उसकी भरपाई नहीं हो पाती और ये जीवन भर सालने वाली बात रहती है। मैं बहुत विषयान्तर कर रहा हूँ लिखते हुए लेकिन ये अनुभव मेरी उस यात्रा से भी जुड़े हुए हैं जिसे यात्रा के दौरान मैंने लगातार महसूस किया।

5 comments:

  1. बड़ी रहस्यभरी और रोमांचक यात्रा -अगले अंक की भी सूचना जरुर दें

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  2. बहुत बढ़िया यात्रा वृतांत .....आभार

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  3. हमने भी त्रयम्बकेश्वर के दर्शन किये थे॥

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  4. सुन्दर वर्णन, अगली कड़ी का इंतज़ार रहेगा।

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  5. Ek Khoobsurat saath ke saath ek nitant dainik yatra bhi majedaar lagane lagati hain. Tumhare shabd usi saath ki kami ko poora karate hain. Triyambkeshwar to khair apane aap mein hi pavitra yaatra hain.

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आपने इतने धैर्यपूर्वक इसे पढ़ा, इसके लिए आपका हृदय से आभार। जो कुछ लिखा, उसमें आपका मार्गदर्शन सदैव से अपेक्षित रहेगा और अपने लेखन के प्रति मेरे संशय को कुछ कम कर पाएगा। हृदय से धन्यवाद