Sunday, June 23, 2013

उत्तराखंड की घटना के लिए क्या हम दोषी नहीं?





हरिद्वार की एक पुरानी स्मृति हमेशा याद आती है। देर शाम जब हम लोग परिवार सहित इस शहर में पहुँचे तो थोड़ा विश्राम कर हर की पौड़ी चले आए। यहाँ मैंने और मेरी बहन ने फूल के दो दोनें खरीदे। इनमें एक-एक दिया जल रहा था। हमने इसे गंगा जी में बहा दिया। दोना लहरों से संघर्ष करता हुआ कुछ आगे बढ़ा और गंगा जी में विलीन हो गया। पंखुड़िया गंगा में बहती दिखीं। अरसे तक जब भी मन में कोई द्वेष घिरता था, मैं इस बिंब को याद करता। सोचता कि मैंने जैसे फूल गंगा जी में बहा दिया, वैसे ही अपना अहंकार भी, अपनी चिंताएं भी बहा रहा हूँ।
                                     यहाँ स्नान कर मिली पवित्रता से पता चला कि आखिर भागीरथ को गंगा को धरती पर लाने की जरूरत क्यों पड़ी? इस घटना के एक दशक बाद मेरी मम्मी हरिद्वार गई। उन्होंने बताया कि गंगा में अब वैसा प्रवाह, वैसी कलकल ध्वनि नहीं रही जो दशक भर पहले थी। उन्होंने कहा कि मुझे वैसा आत्मिक संतोष महसूस नहीं हुआ। माँ ने इसका कारण भी बताया, उन्होंने बताया कि एक बाँध बना है ऊपर गंगा में, जिसकी वजह से यह प्रवाह बाधित हो गया। उनका इशारा टिहरी बांध की ओर था।
               उत्तराखंड आगे बढ़ रहा था और किसी को ध्यान नहीं था कि आपदा इंतजार कर रही है। पिछले साल जब बाबा रामदेव दिल्ली के जंतर-मंतर में अनशन कर रहे थे, उसी समय एक अनाम से कोई संन्यासी गंगा में अवैध खनन कर रहे माफिया के खिलाफ संघर्ष में बैठे थे, अंततः उन्होंने जान दे दी लेकिन किसी ने प्रतिक्रिया नहीं दी। आज जब गंगा ने अपनी सीमाएँ लाँघ दी, तब पहाड़ों पर हो रही छेड़छाड़ सबको दिख रही है।
       हममें से अधिकांश घटना की भयावहता के लिए सरकार को जिम्मेवार ठहरा रहे हैं लेकिन सच तो यह भी है कि विकास हमें भी चाहिए और हम विकास के साइड इफेक्ट्स झेलने के लिए भी तैयार नहीं। हमें घरों में अबाधित बिजली चाहिए, नई गाड़ियाँ चाहिए, सारी सुख-सुविधाएँ चाहिए। मेरे एक बहुत अजीज रिश्तेदार हैं वे कहते हैं कि एसी के बगैर उन्हें नींद ही नहीं आती। एक करीबी मित्र के घर मैं जाता हूँ उनके यहाँ खाना हीटर से बनता है और वे अपना घरेलू सिलेंडर बेच देते हैं। उनके यहाँ सारे कमरों में पंखे-बिजली चौबीस घंटे चलते हैं। मैं खुद भी लाइट और पंखे चलाकर भूल जाता हूँ और दूसरे कमरे में चला जाता हूँ।
                     पहले थोड़ी परवाह होती थी क्योंकि मीडिया उद्देश्यपरक था। एक एड आता था दूरदर्शन के दिनों में, एक आदमी ब्रश करते हुए वाश बेसिन का नल चला देता है और ब्रश करने के दौरान पानी बहते रहता है। आखिर में टैग लाइन होती, जो पानी साल भर में बर्बाद हुआ, उससे गेंहूँ के एक खेत की सिंचाई हो सकती थी।
                 
                                  उत्तराखंड में जिन लोगों की जिंदगियाँ गईं, उसके पीछे दोषी हम भी हैं, विकास के नाम पर जो प्रकृति को नष्ट किया गया, उसका सुख तो हमने उठाया लेकिन उसकी कीमत केवल उन्होंने चुकाई जो दुर्भाग्य से उस दिन उत्तराखंड में मौजूद थे।
                         

Friday, June 21, 2013

जो अपने घर कभी नहीं आएंगे................



 आफिस से घर आने पर जब मेरी बेटी खुश होकर मुझसे लिपटती है तो एक अजीब सी संवेदना मुझे घेर लेती है। उन हजारों लोगों के प्रति जिन्होंने अपने परिजनों को उत्तराखंड में खो दिया। अब वे कभी नहीं आएंगे। सबसे वीभत्स तो यह कि इन धार्मिक यात्रियों की वे अंत्येष्टि भी नहीं कर पाएंगे। लाशें चारों ओर बिखरी हैं जो जिंदा बच गए हैं उन तक भी सहायता नहीं पहुँच पा रही है। एक माँ की व्यथा आज पढ़ी कि मेरे बच्चों पर बम गिरा दो लेकिन मैं उन्हें भूख से मरते नहीं देख सकती।
                                          राष्ट्रीय आपदा के इस क्षण में क्या इस देश को वैसा ही संकल्प नहीं दिखाना चाहिए जैसा अमेरिका में ९-११ के वक्त दिखा था फायर ब्रिगेड के कितने लोगों ने अपनी जान दी थी लेकिन इस देश की कितनी विडंबना है कि लोग विपदा में फंसे लोगों की मदद के बजाय उनसे बलात्कार करते हैं मृत लोगों के गहने और पैसे निकालते हैं। क्या मंत्रियों को अपने सारे हेलिकॉप्टर बाढ़ आपदा के लिए नहीं भेज देने चाहिए, क्या मंहगे एंटीलिया में रहने वाले और केदारनाथ की कृपा से करोड़ों बनाने वाले मुकेश अंबानी को थोड़ी सी सहायता अपने साथी भक्तों की नहीं करनी चाहिए। दुख की इस घड़ी में करने को बहुत कुछ है कितने लोग फंसे हुए हैं। अगर शासन तंत्र और पूंजीपति चाहे तो कितने घरों के चिराग लौटाए जा सकते हैं।
                                  जब छोटा था और जब किसी हादसे की खबर आती थी तो सोचता था कि आदमी के मर जाने पर लाश का क्या, लाश न मिले, अंतिम संस्कार न हो तो भी क्या? बाद में पता चला कि एक हिंदू के लिए अंतिम संस्कार का कितना महत्व है। हम गीता को मानते हैं जिसमें लिखा है कि आत्मा केवल वस्त्र बदलती है और एक संस्कार के रूप में अंतिम संस्कार कितना जरूरी होता है।
                                                        एक भजन याद आता है कभी प्यासे को पानी पिलाया नहीं, फिर गंगा नहाने से क्या फायदा? मैं यह भजन उनके लिए नहीं याद कर रहा हूँ जो केदारनाथ में गए और जिनकी जान चली गई। उनमें से बहुत से शुद्ध हृदय से गए थे। यह भजन इसलिए याद कर रहा हूँ कि ईश्वर को प्राप्त करने के लिए कर्मकांड जरूरी नहीं, शुद्ध हृदय से की गई प्रार्थना जरूरी है।
                                      एक मित्र ने अभी बताया कि उनके पेरेंट्स हर साल केदारनाथ जाते हैं। इतनी कठिन और जोखिम भरी यात्रा करने की क्या जरूरत? यह अजीब लगता है कुंभ मेले में भी भयंकर भीड़ को सहते हुए लाखों लोग पहुँच जाते हैं और हमेशा हादसे होते हैं? ऐसी अंधश्रद्धा का क्या करें?
                                                       दस साल पहले की कैलाश मानसरोवर का वाकया मुझे याद आता है। उस दल में कत्थक नृत्यांगना प्रोतिमा बेदी भी गई थीं। भारी भूस्खलन हुआ, बहुत थोड़े लोग बच पाए। एक माँ ने कहा कि मेरा बेटा शिव के दर्शन के लिए गया है वो जरूर वापस आयेगा। वो नहीं लौटा होगा और माँ पर क्या गुजरी होगी, हम सोच सकते हैं। ऐसे सबक हम भूल जाते हैं और तफरीह के लिए ऐसा जोखिम ले लेते हैं जिसकी हम सपने में भी कल्पना नहीं कर सकते।

Wednesday, June 19, 2013

आज तक......... सबसे तेज?




२५ मई को जब दरभा घाटी में देश का सबसे बड़ा नक्सल हमला हुआ तब रात दस बजे मैंने आज तक चैनल लगाया। देश पर आई विपदा को आज तक किस रूप में देखता है। केवल तीन मिनट में इस त्रासदी को निपटा दिया गया और मैच फिक्सिंग पर खबरें दिखाई जाने लगी। चार दिनों से जब पूरा देश उत्तराखंड की चिंता कर रहा है। आज तक को बड़ी चिंता नीतिश सरकार की है। कल का प्राइम टाइम नीतिश कुमार और नरेंद्र मोदी पर कुर्बान रहा। अंत में रिपोर्टर श्वेता सिंह ने पुण्य प्रसून वाजपेयी की स्टाइल में बड़े हास्यास्पद तरीके से एक लीची को दिखाते हुए बिहार की राजनीति की इससे तुलना की। खैर बिहार में हो रहे घटनाक्रम देश की राजनैतिक रूपरेखा तय करेंगे इसलिए प्राइम टाइम पर इस खबर के दिखाये जाने को किसी हद तक तर्कसंगत ठहराया जा सकता है लेकिन जब हजारों लोग हिमालय में जिंदगी और मौत का सामना कर रहे हैं तब आज तक में प्राइम टाइम में क्रिकेट में लंका फतह कर लो दिखाया जाना बेहद अश्लील लगता है। इसके तुरंत बाद बिहार में नई राजनैतिक परिस्थितियों पर एक सर्वे दिखाया जाना लगा।
     शाम पाँच बजे मैंने अब एबीपी न्यूज बन चुके स्टार न्यूज में एक खबर देखी। यमुना खतरे के निशान से ऊपर बह रही है लेकिन दिल्ली में किसी तरह से बाढ़ की आशंका नहीं है अफवाहों से सावधान रहें। लेकिन इंडिया न्यूज में नजारा ही दूसरा था। इसकी हेडिंग थी आज की रात बेहद सावधान रहो दिल्ली। सीधे नहीं कहा गया लेकिन आशय कुछ ऐसा ही डराने वाला था कि दिल्ली वालों आज की रात तुम्हारे लिए कत्ल की रात होगी। चूँकि पहाड़ में टीवी बंद होगा और अन्य लोगों को पहाड़ से क्या सरोकार होगा, इसलिए आज तक ने भी दिल्ली के आसन्न संकट पर समाचार लगातार दिखाया। जो संकटग्रस्त हैं उनके लिए अब क्या किया जा सकता है।
                                                भाजपा चुनाव समिति के प्रमुख नरेंद्र मोदी विधानसभा चुनावों पर गणित जमाते दिखे और राहुल तो नजर ही नहीं आ रहे। संकट की इस घड़ी में देश को खुलकर उत्तराखंड के साथ खड़ा होना था लेकिन अफसोस पहाड़ों से नीचे मातम जैसा कोई माहौल नहीं है। जश्न की तैयारी चल रही है लंका फतह होने पर ग्रैंड पार्टी होगी। जब पुरुष सर्वे से बोर हो जाते हैं तो टीवी में महिलाओं के सीरियल शुरू हो जाते हैं। आखिर हादसों को कौन रोक सकता है, जिंदगी तो चलनी ही चाहिए?

Monday, June 17, 2013

समय यात्रा के हमारे जोखिम


हमारा बचपन शीतयुद्ध के साये में बीता। शीतयुद्ध के दौर में सबसे बड़ा खतरा तीसरे विश्वयुद्ध का था और हम बार-बार सुनते थे कि तीसरे विश्वयुद्ध में परमाणु बम का प्रयोग होगा जिससे समूची दुनिया नष्ट हो जायेगी। इसका बड़ा असर मेरे अवचेतन मन में हुआ और मैं यह समझने लगा कि कभी भी दुनिया नष्ट हो सकती है। सोवियत संघ के बिखरने के बाद तीसरे विश्वयुद्ध का खतरा अब नहीं रहा लेकिन मन में बैठी हुई बात अक्सर नहीं निकलती। अगले तीस या चालीस साल बाद या अगले सौ साल के बाद दुनिया कायम रहेगी, इस पर मुझे संशय होता है। यह प्रश्न मेरे मन की भीतरी तहों में था लेकिन इसे प्रत्यक्ष रूप तब मिला जब स्टीफन हॉकिंग का एक कोटेशन पढ़ा। उनका कहना था कि अगले कुछ वर्षों में दुनिया नष्ट हो जाएगी क्योंकि मनुष्य सारे संसाधनों का प्रयोग कर चुका होगा और मनुष्य जाति को अगर जिंदा रहना है तो उसे एलियंस की तरह ही स्पेस के ठिकानों पर कब्जा करना होगा जहाँ वो पृथ्वी की तरह ही नये सिरे से संसाधनों का प्रयोग कर सके।
                                                        मैं इस तरह से नहीं सोच सकता क्योंकि मुझे नहीं मालूम धरती में कितने संसाधन है लेकिन मुझे जो चीज चकित करती है वो है मेरे समय की गति। जैसे हमे स्पेसशिप में बिठा दिया गया हो और हम युगों के समय को क्षणों में पार कर रहे हों। इतनी तेज गति से बढ़ती दुनिया को पहली बार हमारी पीढ़ी ने ही देखा, जब पहली बार कैल्कुलेटर देखा तो लगा कि एक अद्भुत आविष्कार मेरे हाथ लग गया है अब जो सुनता हूँ तो हैरानी होती है। ऐसे मोबाइल फोन आ गए हैं जिनकी स्क्रीन आँखों के मूवमेंट से सरकती है। यह साइंस का अद्भुत आविष्कार है इसमें दिमाग का बड़ा प्रयोग किया गया है लेकिन मुझे नहीं लगता कि इसकी कोई जरूरत भी है। एक किस्सा याद आता है कि एक आदमी ने चौदह बरस तक हठयोग कर पानी में चलने की विद्या प्राप्त कर ली, जब उसने अपनी विद्या को दयानंद सरस्वती के सामने प्रदर्शित करना चाहा तो स्वामी जी ने कहा कि यह काम तो तुम नाव से भी कर सकते थे, इतना समय क्यों बर्बाद किया। प्रश्न यही सामने आता है कि हम इतनी तेज गति से प्रगति कर रहे हैं लेकिन कितनी यह प्रगति कितनी बेतरतीब है। जैसे तेज चाल जब जरूरत से ज्यादा तेज हो जाती है तो जोखिम में बदल जाती है मुझे लगता है कि वैसा ही इस समय के साथ भी है। ऐसे ही हम इस समय यात्रा में हम हवाई झूले के रूप में एक ऐसे स्पेसशिप में बैठ गये हैं जिसकी गति बेहिसाब रूप से बढ़ रही है जो समय हमें अभी रोमांच प्रदान कर रहा है वो कब गहरी उत्तेजना में और कब एक चीख में बदल जाए, हम नहीं कह सकते।
                                                               इस बात का संतोष पुराने समय में जरूर था। उनके लिए उनकी पीढ़ी का समय अल्प विराम जैसा रहा होगा। इसके पहले भी कथा चल रही था, उनके आगे भी कथा चलती रहेगी क्योंकि समय उनकी पीढ़ी के लिए थम सा गया था। जहाँ तक मुझे याद आता है इसे पहली बार कार्ल मार्क्स ने लक्षित किया। उन्होंने कहा कि एशियाई समाज एक ठहरा हुआ समाज है यहाँ समय जैसे ठहर सा गया है। भगवदगीता इसी शाश्वत समय की कहानी कहती है। आत्मा केवल कपड़े बदलती है। पुराने लोग नये कलेवर में दुबारा आ जाते हैं अपने कर्मों के अनुसार। सब कुछ वैसा ही, सब कुछ वहीं.................
            

Tuesday, June 4, 2013

सत्यनारायण व्रत कथा





मुझे देवी पर आस्था है लेकिन मैं अष्टमी में उनके देर तक चलने वाले हवन में बैठने के सुख का अनुभव नहीं कर पाता। जब हवन चलता रहता है तब मेरा पूरा ध्यान स्वाहा शब्द पर होता है किस देवता को यज्ञ सामग्री अर्पित की जा रही है इस बात पर ध्यान नहीं जाता। कई बार असावधानीवश स्वाहा कहे जाने से पहले ही यज्ञ सामग्री डाल देता हूँ और कई बार स्वाहा कहे जाने के बाद भी चूक जाता हूं। जिन देवताओं को यज्ञ सामग्री नहीं मिल पाती होगी, वे जरूर मुझसे नाराज होंगे।
                                                इस मामले में व्रत कथा सुनने में मैं अधिक आनंद का अनुभव करता हूँ। पुराणों में उल्लेखित राष्ट्रीय स्तर की कहानियों की तुलना में मुझे छत्तीसगढ़ में व्रत के अवसर पर कही जाने वाली कथाएँ अधिक अच्छी लगती हैं। कमरछठ कथा की एक कहानी सुनी थीं जिसमें अपने संतान को प्राप्त करने के लिए एक महिला को छह टास्क दिए गए थे और सबके सब बेहद कठिन।
                                           लेकिन सत्यनारायण व्रत कथा सबसे स्पेशल है। इति स्कंद पुराणे, रेवा खंडे, जम्बु द्वीपे शब्द का जब इस व्रत कथा में उद्घोष होता है तो लगता है कि जैसे यह कथा परोक्ष में भारत भूमि का आख्यान कर रही है।
   पंचतंत्र की तरह ही एक कथा में कई कथाएं गुंथी हुई होती हैं। नैमिषारण्य में घने जंगलों के बीच सौनकादि ऋषि इस कथा का आरंभ करते हैं। कथा की महिमा यहीं से शुरू होती है। नारद भगवान सत्यनारायण को संदेश देते हैं कि मृत्युलोक में लोग बड़े दुखी है उन्हें आर्थिक कष्ट है, संतान नहीं है इसका उपाय किया जाना चाहिए, तब श्री भगवान उन्हें सत्यनारायण व्रत कथा की सलाह देते हैं।
                                              यह बिंदु मुझे बहुत खास लगता है। यहाँ भगवान मृत्यु लोक के कष्टों को दूर करने की बात करते हैं। आम आदमी को मोक्ष नहीं चाहिए, उसे दो वक्त की रोटी चाहिए, अपना अस्तित्व इस दुनिया में बनाये रखने संतति चाहिए। पूरी कहानी भौतिक कष्टों पर केंद्रित रहती है और उनसे मुक्त करती है।
   यह कहानी बहुत प्रोग्रेसिव है। जब लीलावती संतान की कामना से भगवान सत्यनारायण का व्रत रखती है तो उसे एक अति सुंदर कन्या की प्राप्ति होती है। इस घटना का बहुत सुंदर वृतांत है। कन्या के आने से घर में खुशियों का पारावार नहीं रहा। यह भगवान सत्यनारायण का इस दंपति को उपहार था। अगर हमारे भगवान इस दंपति को पुत्री की जगह पुत्र जानबूझकर देते तो हमें लग सकता था कि हमारे ईश्वर भी लड़कियों के प्रति भेदभाव रखते हैं लेकिन कितनी अद्भुत और अच्छी बात है कि छठवीं शताब्दी का समय है और लड़की के आने का स्वागत किया जा रहा है।
                              कलावती के पिता साधु बनिया भद्रशीला नदी के किनारे निवास करते थे। भद्रशीला सोन नदी को कहा जाता था, जरूर पटना के आसपास यह दंपति निवास करता होगा। स्कंद पुराण के इस सुंदर हिस्से में नदियों के कितने प्यारे नाम सुनने मिलते हैं रेवा, भद्रशीला। जब आर्य इस पुण्यभूमि में आए होंगे तो उन्होंने इन नदियों का नामकरण किया होगा और कुछ नदियों का तो मूल नाम ही गायब हो गया। मसलन क्षिप्रा को स्थानीय भाषा में क्या कहते हैं मुझे नहीं मालूम। भारत की सबसे बड़ी नदी ब्रह्मपुत्र का नामकरण आर्यों का उपहार है। शायद इसे स्थानीय भाषा में लोहित भी कहते हैं लेकिन यह भी संस्कृत शब्द लौहित्य का अपभ्रंश है।
                                   जब कलावती का ब्याह होता है तब उसके पिता समुद्रपार व्यापार करते हैं। वे रत्नपुर नगर जाते हैं जहाँ चंद्रकेतु नामक राजा राज्य करता था। रत्नपुर नगर मेरे लिए मिथकीय ही रह जाता लेकिन मुझे तब सुखद आश्चर्य हुआ जब मैंने डिस्कवरी के लोनली प्लैनेट में श्रीलंका में स्थित इस नगर को देखा, यहाँ आज भी परंपरागत तरीके से कीमती रत्न निकाले जाते हैं जो संभवतः आज भी साधु बनिया की आने वाली पीढ़ी के एक्सपोर्टर बन चुके बच्चे यहाँ ले आते होंगे।
                                                                                                                           कथा में पूँजीवाद पर व्यंग्य भी है। जब साधु वैश्य और उनके दामाद खूब धन-धान्य प्राप्त कर व्यापार के लिए बंदरगाह में लौटने के लिए कूच करने की तैयारी करते हैं तब सुबह-सुबह दंडिन स्वामिन आते हैं और पूछते हैं कि बता तेरे पास क्या है? साधु वैश्य कहता है कि इसमें फल-पत्तियों के सिवा कुछ भी नहीं है। दंडिन स्वामी कहते हैं तथास्तु और सारे रत्न सचमुच फल-पत्तियों में बदल जाते हैं। यह कहानी सांसारिक दारिद्रय और यह दारिद्रय दूर होने पर मनुष्य के अंदर अहंकार के रूप में चरित्रगत दारिद्रय पैदा हो जाने की कहानी है। हर सुखी परिवारों में यह कहानी जब सत्यनारायण व्रत कथा के रूप में सुनाई जाती है तो कहीं न कहीं साधु बनिया और उसकी स्त्री यह सुनती हैं और अपने आचरण के प्रति सावधान होती है।