Monday, March 25, 2013

डोरेमोन १



बचपन में पढ़ी हुई एक कॉमिक्स का एक चित्र अब भी याद आता है। एक साधु ने एक युवक के साहस से प्रसन्न होकर उसे उड़ने वाली कालीन दी थी। उसे एक टास्क भी दिया था कि इससे राजकुमारी को मुक्त कराओ। वो कालीन को लेकर उड़ गया अपने एक मित्र के साथ, वे सागरों पर उड़े, घने जंगलों के ऊपर से उड़े। सारसों की शुभ्र पंक्ति के साथ उड़े। मुझे यह बहुत एडवेंचरस लगा। एक ऐसा ही चमत्कार मुझे बहुत आकर्षित करता था। जादूगर के पास एक ग्लोब होती थी, वो चाहे जिसे देखना चाहता, उनकी एक्टिविटी देख सकता था। मेरे मन में इस ग्लोब को प्राप्त करने की विशेष इच्छा जागी थी। जादूगर इसका प्रयोग अपने दुश्मनों की एक्टिविटी जानने के लिए करता था। मैं सोचता था कि अगर यह ग्लोब मुझे मिले तो मैं इसमें कुछ और चमत्कार जोड़ना चाहूँगा। जैसे अपने दोस्तों की रूटीन एक्टिविटी जानकर मैं क्या करूँगा। मैं वो चीजें जानना चाहता था जो वे मेरे पीठ पीछे कहते हैं मसलन मेरी तारीफ या मेरी आलोचना। मुझे बचपन से ही नास्तिक पसंद नहीं हैं और कोई भी चमत्कार होता है तो मुझे खुशी होती है क्योंकि लोग कहते हैं कि ईश्वर ने ऐसा किया। मैं एक ऐसा चमत्कार भी चाहता था जो ईश्वर की उपस्थिति इस धरती पर पुष्ट कर दे और बिल्कुल सालिड ढंग से जिसे वैज्ञानिक भी झुठला नहीं सकें। मसलन आकाशवाणी जैसी कोई चीज?
                                              बचपन में कहीं से एक तिनका भी मनोरंजन का मिल जाता है तो उसे हम पकड़ लेते हैं विशेषकर तब जब आप नई जगह में होते हैं। राजिम में दादा जी के गुजर जाने के बाद उनके पुण्यस्मरण में भागवत कथा का आयोजन किया गया। तब मैं दूसरी जमात में था, इस कहानी में कई किस्से सुनने को मिले और बार-बार आकाशवाणी का जिक्र होता। मुझे लगता कि ये बड़ा अच्छा सिस्टम है लेकिन कलियुग में ऐसा क्यों नहीं होता?
                                          वो दुनिया चमत्कारों से भरी थी जिसमें सारे चमत्कार किस्सा-कहानियों में ही मिलते थे। अब सारे चमत्कार हम आँखों के सामने देखते हैं  लेकिन इनसे सुख नहीं मिलता। चाचा चौधरी का कैरेक्टर पहला ऐसा कैरेक्टर था जो चमत्कारों से परे हटकर कंप्यूटर की तरह काम करता था। चमत्कार की जगह कंप्यूटर ने ले ली थी, साबू ज्यूपिटर से आया था। और राका की सीरिज तो अल्टीमेट थी। मुझे लगता है कि आर्मागेडन जैसी फिल्मों की कल्पना राका के फाइनल साल्यूशंस से ली गई होगी। मुझे चाचा चौधरी का वो शहर बहुत अच्छा लगता था जहाँ फ्लैट नहीं होते थे, घरों में चहारदीवारी होती थी।
                                        ऐसे में मिकी डोनाल्ड भी खूब लगते थे, चिल्ड्रन नालेज बैंक में पढ़े हुए कुछ जगहों के किस्से यहाँ सुंदर तरीके से फिल्माए जाते थे। मेरे लिए सबसे रोमांचक एपिसोड वो था जब मिकी डोनाल्ड लैमिंग के पीछे जाते हैं जो समूह में एक साथ हजारों की संख्या में निकलते हैं और समंदर में अपनी जान दे देते हैं।
             बरसों बाद डोरेमोन ने मुझे वैसे ही सुख का अनुभव कराया जैसा कभी चाचा चौधरी को पढ़कर मिलता था। डोरेमोन की दुनिया विलक्षण दुनिया है, वह मुझे गीता के स्थितप्रज्ञ योगी की तरह लगता है, उसके गैजेट्स से मैं अभिभूत हूँ। जैसा दूसरे बच्चों के मन में प्रश्न होता है वैसे ही मेरे मन में भी कि अब डोरेमोन किस गैजेट का इस्तेमाल करेगा। डोरेमोन के पास जो सबसे अद्भुत चीज है वो है टाइम मशीन।

Sunday, March 17, 2013

नरेंद्र मोदी




मुझे अमेरिकी संसदीय प्रणाली में प्रेसिडेंशियल डिबेट्स बहुत अच्छी लगती है। भारत में प्रधानमंत्री पद के एकाधिक दावेदारों के चलते ऐसा दृश्य देख पाना संभव नहीं लेकिन प्रेस का सामना कर सकने वाले हिम्मत वाले पालिटिशियन ऐसा संभव कर सकते हैं। कल नरेंद्र मोदी ने इंडिया टूडे कान्क्लेव में हिस्सा लेकर साहस का परिचय दिया, ऐसा मेरा मानना है। साहस इसलिए कहना चाहूँगा कि मोदीत्व की जो ब्रांड छवि मीडिया ने तैयार की है उसके बारे में आम जनता को ज्यादा जानकारी नहीं है इसके नाम पर बस इतना ही कि उन्होंने गुजरात को विकास की नई दिशा प्रदान की, इसके अलावा ज्यादा कुछ नहीं। ऐसे में जब मीडिया आपको भावी प्रधानमंत्री के रूप में देख रहा है तो आपको देश के संबंध में अपने विजन को खुलकर रखना होता है, इस प्रक्रिया में स्वाभाविक है कि कुछ ऐसी बातें भी खुल जाए, जिनसे एक खास वर्ग नाराज हो जाए अथवा आपको अपनी ही पार्टी में अथवा संगठन में वैचारिक मतभेद का सामना कर पाएं और सत्ता हाथ में आने से पहले ही विवादों में घिरकर आपको मिलने वाली नई नौकरी की संभावनाएँ ही खत्म हो जाएं।
              मोदी मीडिया में सीधे आने का साहस कर सके हैं जो राहुल गांधी अब तक नहीं कर पाए हैं। अगर आज वे कान्क्लेव में आएं तो मुझे बहुत खुशी होगी और हम सबको मोदी वर्सेज राहुल की तुलना कर पाने का सुंदर मौका मिल पाएगा। मोदी व्हार्टन में नहीं बोल पाए, मुझे यकीन नहीं था कि वे इंडिया टूडे कान्क्लेव में कुछ सार्थक बातें कर पाएंगे लेकिन उम्मीद के विपरीत वे बहुत अच्छा बोले। मोदी के भाषण में जो सबसे अच्छी चीज लगी, वो उनका आउट आफ बाक्स साल्यूशन थी। जो भी आइडिया उनके पास आए, उन्होंने इन्हें डंप नहीं किया, उसका इस्तेमाल किया। जो बात बुरी लगी वो ये कि वे बार-बार मनमोहन सिंह को नीचा दिखाने की कोशिश कर रहे थे। उन्होंने एक बात कही कि प्रधानमंत्री ने जब मुझे चाय पिलाने बुलाया तो मैंने भी एक आइडिया बताकर एहसान चुकता कर दिया। क्या मेजबान और मेहमान का रिश्ता केवल लेने-देने से ही संबंधित होता है? खैर यह उनके लिए जरूरी भी हो सकता है क्योंकि मनमोहन की नौकरी छुड़वाए बगैर उन्हें यह नौकरी तो मिलने वाली नहीं, फिर भी शायद सारे आउट आफ बाक्स साल्यूशन प्रयोग करने के बाद भी मोदी बुजुर्गों के अनुभव से कुछ सीखना नहीं चाहते, पिछली बार आडवाणी ने मनमोहन पर व्यक्तिगत हमले किए थे और इतिहास सबको मालूम है। पहला सत्र बहुत अच्छा रहा और मोदी ने बता दिया कि उन्हें कमीज की आस्तीन खींचने के अलावा भी बहुत कुछ आता है। राहुल के पास यह सुंदर मौका था, दस साल उनकी सरकार थी, वे इसका प्रयोग कर सकते थे लेकिन उन्होंने नहीं किया, उनके पास कहने के लिए आउट आफ बाक्स कुछ भी नहीं है।
                               दूसरा सत्र बहुत चुनौतीपूर्ण था जिसमें मोदी को सवालों के जवाब देने थे, शुरूआती सवाल सरल थे और मोदी बच गए। एक सवाल सचमुच कठिन आया, यह एफडीआई पर था। मोदी को इसका उत्तर देने में खासी हिचक हुई क्योंकि इस पर पार्टी का मत केंद्र सरकार का विरोधी था, पहले तो उन्होंने संघवाद की दुहाई दी और फिर उत्तर दिया कि इससे छोटे-छोटे उत्पादक तबाह हो जाएंगे। मुझे लगता है कि यह सबसे महत्वपूर्ण प्रश्नों में से एक था। मोदी को प्रमोट करने के पीछे कॉर्पोरेट तबका बहुत सक्रिय है। अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने में वे मोदी का अच्छा इस्तेमाल कर सकते हैं। मोदी उन्हें नाराज नहीं कर सकते थे इसलिए बहुत चतुराई से भरा उत्तर उन्होंने दिया।
                     अगर किसी सज्जन ने अंतिम प्रश्न नहीं पूछा होता तो शायद ये पूरी महफिल प्रायोजित लगती। उन्होंने बहुत दृढ़ता से गुजरात दंगों के बारे में प्रश्न पूछा और कहा कि आप क्या इसके लिए खेद प्रगट करना चाहेंगे। मोदी ने इस प्रश्न का जवाब नहीं दिया। ऐसी महफिल में जो मोदी प्रशंसकों से भरी हुई है यह प्रश्न पूछ लेना बड़ी हिम्मत की चीज है और मैं उन शख्स को सलाम करता हूँ। उनकी आवाज में गजब की दृढ़ता और संवेदनशीलता दिखी। जब हम जलियांवाला बाग में हुए नरसंहार के लिए ब्रिटिश प्रधानमंत्री से यह माँग कर सकते हैं तो मोदी से क्यों नहीं, गुजरात दंगों के समय वो मुख्यमंत्री थे और इस नाते कानून व्यवस्था की पूरी जिम्मेदारी उन पर थी। अगर ये व्यवस्था बिगड़ी और लोगों को जान-माल का नुकसान उठाना पड़ा तो इस पर मुख्यमंत्री अगर खेद जताए तो वो छोटा नहीं हो जाएगा लेकिन मोदी ने यह अवसर एक बार फिर से खो दिया।
                                              

Tuesday, March 12, 2013

यात्रा और जीवन का फलसफा




 मैंने तीन कहानियाँ ऐसी सुनी हैं जिन्होंने मेरा यात्राओं के प्रति नजरिया बदला है। सबसे पहले बीगल नामक जहाज में निकले डार्विन की यात्रा। जब वे दक्षिण अमेरिका में टीरा के घने जंगलों से गुजर रहे थे तो उन्होंने एक मादा गोरिल्ला को स्वयं बर्फ झेलते हुए अपने बच्चे की रक्षा करते हुए दूध पिलाते देखा। डार्विन ने इसी क्षण समझ लिया कि मनुष्य के सबसे निकट के पूर्वज यही हैं। दूसरा विवेकानंद की रायपुर यात्रा है। इस यात्रा के दौरान उन्होंने प्रकृति को निकट से देखा और प्रथम आध्यात्मिक अनुभूति उनकी यहीं हुई। तीसरी यात्रा भारतेन्दु की पुरी यात्रा है। इस यात्रा ने उन्हें इस तरह आंदोलित किया कि सहस्त्राब्दि भर की काव्य यात्रा को स्थगित कर उन्होंने गद्य में हाथ आजमाने का निर्णय लिया।
                 मेरी वृत्ति यायावर की नहीं है। वो नये-नये स्थल चुनता है। मैं बार-बार उन्हीं जगहों में लौटना पसंद करता हूँ इसलिए नई जगह देख नहीं पाता, इसलिए मेरा अनुभव-जगत भी सीमित ही रह जाता है। फिर भी क्षणिक यात्राओं में ही सही, कई बार जीवन जीने के फलसफे मिलते हैं, इस बार शिर्डी-नासिक यात्रा से वापस लौटने के दौरान ऐसा ही हुआ। मैं खिड़की के किनारे बैठा था, शाम का सूरज ढल रहा था। ट्रेन की स्पीड काफी तेज थी। महाराष्ट्र के ग्रामीण परिवेश का खूबसूरत लैंडस्कैप आँखों के सामने से तेजी से गुजर रहा था। मुझे अचानक डिस्कवरी चैनल में देखा हुआ स्टीफन हॉकिंग का एक प्रोग्राम याद आ गया। उसकी विषयवस्तु कुछ यूँ थी, पूरे विश्व में एक ऐसी ट्रैक बनाई जाए जिसमें चलने वाली ट्रेन की स्पीड बढ़ाने के पूरे वैज्ञानिक इंतजामात किए जाए, प्रकाश के वेग के करीब पहुँचने पर इस बात की पूरी संभावना बनेगी कि इस ट्रेन के टूरिस्ट इस आकाशगंगा का थोड़ा सा हिस्सा घूम आएँ। यह सोचना काफी दिलचस्प है भविष्य में हो भी सकता है कि ऐसी ट्रेन बनें लेकिन निश्चित ही हम उसके यात्री नहीं हो पाएंगे। यह ख्याल आते ही मुझे यह महसूस हुआ कि आकाशगंगा न सही, इस यात्रा के बहाने ही हम ऐसी ट्रेन में सवार हैं जो इस सुंदर पृथ्वी के बहुत छोटे से हिस्से की सैर हमें करा रही है। अगर पुनर्जन्म न होता हो तो हमारे पास यह अंतिम मौका है इस सुंदर धरती को घूमने के लिए। हम अपने विषादों और चिंताओं में अपना जीवन नष्ट न करें, इस सुंदर मौके का इस्तेमाल करें।
                             ट्रेन जब सेवागांव से गुजरी तो गांधी जी की भी एक स्मृति उभर आई। गांधी फिल्म का दृश्य है। वे खंभात की खाड़ी में खड़े समुद्र की लहरों को देख रहे हैं और कस्तूरबा से कह रहे हैं कि सोचता हूँ कितनी दूर चला आया हूँ और अभी कितनी नई मंजिलें तय करनी है। मेरे हिस्से में अब तक थोड़ी ही यात्राएँ आई हैं और अपनी किस्मत को कोसते हुए मुझे कतील शिफाई की नज्म याद आ रही है।
छोटे बच्चों ने छू भी लिया चांद को, बड़े-बूढ़े कहानियां सुनाते रह गए..........
                            
                                                           

Sunday, March 10, 2013

काइ पो चे और चेतन भगत......




काइ पो चे देखने से एक दिन पूर्व मैं यहाँ पुराने बस स्टैंड स्थित पारख बुक डिपो में किताबें देखने गया था। वहाँ से मैंने अज्ञेय की एक पुस्तक ली, अरे यायावर रहेगा याद। किताब की पेमेंट करते हुए मैंने देखा कि एक महाविद्यालयीन छात्रा जो अपने पिता के साथ आई थी, ने चेतन भगत की एक पुस्तक ली।
                                            मैंने सोचा कि पीढ़ी के एक दशक के अंतर ने कितना कुछ बदल दिया है। हमारे समय में सलमान रूश्दी, विक्रम सेठ और झुम्पा लाहिड़ी युवा वर्ग की रुचि के केंद्र में नहीं थे। गुनाहों का देवता जैसे उपन्यास लिखने वाले धर्मवीर भारती जैसे लेखकों को वे पढ़ना पसंद करते थे। क्लासिकी के परे नॉवेल्स की अलग दुनिया थी जिसमें गुलशन नंदा जैसे लेखकों का राज चलता था।
                                             कभी-कभी मैं सोचता हूँ कि चेतन भगत नहीं होते तो क्या नई पीढ़ी किताबों की दुकानों में आती ही नहीं?  चेतन की उपलब्धि है कि उन्होंने सोशल मीडिया से जुड़ी पीढ़ी को किताबों की लत लगा दी है। अब जब वे चेतन को पढ़ चुके हैं तो विक्रम सेठ को भी पढ़ेंगे और नायपाल जैसे महान लेखकों तक उनकी पहुँच आसान हो पाएगी।
                                     फिर भी किसी एक लेखक की दीवानगी के नकारात्मक असर भी हो सकते हैं। इसका उदाहरण मैंने चेतन भगत के एक प्रशंसक से ही जाना। हुआ यूँ कि अनुभव ने मुझे जयपुर लिटररी फेस्टिवल में हुए एक किस्से की जानकारी दी। फेस्टिवल के दौरान एक मौका ऐसा आया जब चेतन भगत और गुलजार एवं अन्य लेखक प्रेस से मुखातिब हुए। मोर्चा चेतन भगत ने संभाला, उन्होंने कहा कि गुलजार अच्छा लिखते हैं मैंने उन्हें पढ़ा है। चेतन को लगा कि उनके द्वारा दिया गया प्रतिभा का सर्टिफिकेट गुलजार को खुश करेगा, आखिर उन्होंने इतनी जल्दी अपनी फैन फॉलोविंग तैयार की है जो किसी भी पुरानी पीढ़ी के लेखक के लिए ईर्ष्या का विषय हो सकती है? चेतन की टिप्पणी ने गुलजार ही नहीं, लिटरेरी फेस्टिवल में आए तमाम लेखकों के लिए झटके का कार्य किया? गुलजार ने केवल इतना कहा कि चेतन मेरा मूल्यांकन कर सकते हैं बशर्ते कजरारे गीत के बोल तेरी बातों में किमाम की खुशबू है तेरा आना भी गर्मियों की लू है का अर्थ बता दें। गुलजार ने अपनी एक ही टिप्पणी से चेतन को ध्वस्त कर दिया था। किसी लेखक की लोकप्रियता का पैमाना उसके पाठकों की संख्या नहीं होती, उसके लिखे की गहराई से ही उसका आकलन किया जा सकता है। चेतन भगत और गुलजार में अगर तुलना करता हूँ तो छत्तीसगढ़ी की एक कहावत याद आती है लोड़हा कहाय, मैं महादेव के भाई।
                                      यह किस्सा मुझे बहुत भाया और मैंने नेट में इसकी सर्च की। दो परिणाम निकले, एक में न्यूज पर कमेंट की व्यवस्था भी थी। न्यूज से व्यथित होकर चेतन के एक प्रशंसक ने लिखा कि चेतन कभी आलोचनाओं की परवाह मत करो, पुरानी पीढ़ी के थके हुए लोग तुम्हारी प्रतिभा से ईर्ष्या करेंगे, उन्हें जलने दो, तुम बढ़ते जाओ। इस कमेंट पर मुझे बहुत आश्चर्य हुआ, शायद इस युवक ने कभी गुलजार की नज्म नहीं सुनी होगी अथवा गुलजार की कवित्व की गहराई की थाह नाप पाने की समझ उसके भीतर नहीं होगी।
                                   व्यक्तिगत रूप से मुझे चेतन से कोई नाराजगी नहीं, हो सकता है कि वे उस समय भाषा का प्रयोग करने में सजग न रहे हों, उन्होंने युवा वर्ग को अपनी आवाज दी है, उनकी भाषा में कैंपस की खुशबू है उनके पात्र मस्ती की पाठशाला से आते हैं। कुछ कर गुजरने का जज्बा उनके भीतर होता है। काइ पो चे उनकी पुस्तक थ्री मिस्टेक्स ऑफ माइ लाइफ पर आधारित है।
                                                   निर्देशक के ऊपर किसी फिल्म का कितना दारोमदार होता है यह पता चलता है काइ पो चे और थ्री इडियट को देखकर। दोनों ही युवाओं की कहानी लेकिन एक ऐसी कहानी जिसमें मनोरंजन और मेसेज कहीं भी अलग-अलग नहीं दिखते, जो कला राजू हीरानी में है वो अभिषेक कपूर में नहीं। काइ पो चे का पहला हिस्सा मरा-मरा सा लगता है। जो रुचिकर है वो दीव के कुछ दृश्य जो दोस्त छुट्टी में बिताते हैं।
                                 फिल्म की असल उपलब्धि दूसरे भाग में है। दंगों के असल दर्द को न तो अखबारों की सुर्खियों में महसूस किया जा सकता है न किसी कट्टरपंथी नेता के भड़काऊ भाषण में। इस पीड़ा को कला के सजीव माध्यम में महसूस किया जा सकता है, सिनेमा के पर्दे में इसे जिया जा सकता है। काइ पो चे यह संदेश देने में सफल हुई है। पहले गोधरा और फिर हुए गुजरात दंगे। दंगों में उभर आने वाले इंसानी वहशियत को उभारने में फिल्म पूरी तरह सफल रही है।
                                                          इस फिल्म ने बॉलीवुड को एक नया हीरो भी दिया है सुशांत राजपूत, इस युवा में बहुत जोश है और एक्टिंग में जान लाने के लिए जरूरी इमोशन भी। इसका अंदाज भी बनावटी नहीं, एक आम युवा की सहजता इसके भीतर है। अब जब चेतन भगत के सारे उपन्यासों पर बॉलीवुड फिल्म बना चुका है आशा की जानी चाहिए कि वो विक्रम सेठ, अमिताभ घोष और अरविंद अडिगा पर भी दृष्टि डालेगा और इसी बहाने किताबों की दुकानें भी गुलजार हो जाया करेंगी।

Thursday, March 7, 2013

पनवारः एक बचपन का स्वप्न






तब जमीन में पंगत लगाई जाती थी और कढ़ी तथा पूड़ी का आकर्षण होता था। जो पंगत में बैठते थे, उनकी विशेष खातिरदारी होती थी। अब तो शादियों में मेजबान से पहली और आखरी बार सामना प्रवेश द्वार पर ही होता है। शादियों में खाना रस्मी अधिक लगता है उसमें वैसा स्वाद नहीं होता। बिठाकर खिलाने में भी अतिविशिष्ट व्यवस्था पनवार की होती थी, लड़के के पक्ष के चुनिंदा वरिष्ठजनों को बिठाकर विशेष भोजन कराया जाता था। अंतिम बार मैंने पनवार का आयोजन अपनी बहन की शादी में २००१ में देखा था। मेरे लिए गौरव की बात थी कि मुझे इसमें परोसने का मौका मिला जो एक दुर्लभ सम्मान होता है। इसके लिए आपको धोती पहननी होती है और आचरण में विशेष संयम का ध्यान रखना होता है। बताते हैं कि पहले पनवार के दौरान निभाई जाने वाली और भी रस्में होती थीं लेकिन धीरे-धीरे ये समाप्तप्राय हो गईं।
                                                 जब हम छोटे थे तब पनवार के ढेरों किस्से सुनने मिलते थे। यह हमारा बचपन का सपना था कि हम भी बड़े हों और हमें भी इस अतिविशिष्ट व्यवस्था का लाभ मिले। मेरे चाचा कहते थे कि इसके लिए तुम्हें लंबा इंतजार करना पड़ेगा। बिट्टू की शादी के पहले यह संभव नहीं। मुझे लगता कि काफी लंबा समय मुझे पनवार के लिए इंतजार करना होगा। बिट्टू मुझसे दस साल छोटा है और अब तक अविवाहित है लेकिन इधर के कुछ वर्षों में मैंने कहीं पनवार का आयोजन नहीं देखा। बचपन का स्वप्न अब शायद ही पूरा हो।
                                                  सफल पनवार का आयोजन वधू पक्ष के लिए बड़ी चुनौती होती थी? बाराती पक्ष में हमेशा समधीजनों में एक न एक विध्नसंतोषी होते थे, उन्हें संतुष्ट करने के लिए हर प्रकार के व्यंजन उपलब्ध करा पाना और परोसने की त्वरित व्यवस्था सुनिश्चित कराना बड़ी चुनौती होती थी। गांधी की तरह ही वे नमक के लिए बखेड़ा न कर दे, इसके लिए थाली में अलग से थोड़ा स्पेस नमक के लिए होता था, यह व्यवस्था छोटे रेस्टॉरेंटों में अभी तक चल भी रही है।
                                                         पनवार की स्पेशल डिश में जिमीकंद की खास जगह होती थी। मेरी मम्मी ने बहन की शादी के पूर्व एक बड़े जिमीकंद को विशेष तौर पर पसंद किया था, वो जिमीकंद किचन में महीने भर तक रखा रहा और अंत में पनवार के दिन उसकी शहीदी दी गई। हाल ही में विधानसभा में लंच ब्रेक के दौरान खाने में जिमीकंद की सब्जी भी मिली लेकिन कढ़ी और बड़ा के बिना जिमीकंद का आनंद बेमानी सा लगा।
                        पनवार का विशेष आकर्षण खाने के रसिकों के वीरोचित किस्सों को लेकर था। जब छत्तीस से अधिक व्यंजन थाली में हो तो सबको खत्म करना विशेष चुनौती होता था। इसमें वे सफल माने जाते थे जो सभी व्यंजनों को खत्म कर थाली उलट देते थे। अतिविशिष्ट जनों में से केवल एक या दो ही ऐसा कारनामा कर पाने में सफल होते थे। मेरे एक स्वर्गीय बड़े पिता जी ने ऐसा कारनामा हर पनवार में किया था और अब भी जब उनका जिक्र आता है तो दो ही बातों को लेकर, एक तो तब जब वे भारत-चीन युद्ध के दौरान चकमा देकर वारफ्रंट से लौट आए थे और दूसरा पनवार को लेकर।
आश्चर्य की बात है कि मुस्लिमों में भी दस्तरख्वान की परंपरा तेजी से खत्म हो रही है। एक मुस्लिम शादी में हाल ही में जाना हुआ। वहाँ कुछ टेबल लगाए गए थे स्पेशल खाना सर्व करने के लिए लेकिन जमीन में बैठकर दस्तरख्वान जैसी बात उसमें नहीं थी। मैंने यह दृश्य द ग्रेट मराठा सीरियल में देखा था। पानीपत लड़ाई में विजय के बाद अब्दाली की महफिल ऐसी ही दस्तरख्वान से सजी थी। इसका आनंद ही अलग होता होगा। मुझे लगता है कि चाहे हिंदू हो या मुसलमान, इनकी जड़े तो कबायली ही हैं और कबायली संस्कृतियों में सामूहिक भोज एक तरह से उत्सव की तरह ही होता होगा, जहाँ लूट के माल का बंटवारा होता होगा तथा साथ ही सामूहिक खान-पान भी होता होगा। वो श्लोक याद आता है देवाभागं यथापूर्वे संजानना उपासते।
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पनवार की मौत एक तरह से छत्तीसगढ़ी खाने की भी मौत है। उसके मेन्यू का निर्धारण विशेष रूप से होता था। कई विशेष प्रकार की सब्जियाँ और व्यंजन खासतौर पर पनवार के लिए बनाए जाते थे। अंतिम रूप से जिस पनवार को मैंने देखा था, उसमें अधिकांश मटेरियल बाहर सजी खाने की मेजों से लाकर थालियों में सजा दिया गया था और रसिकों की चाह पर जिमीकंद की सब्जी लगा दी गई थी। उस दिन नहीं मालूम था कि मैं अंतिम बार पनवार का आयोजन देख रहा हूँ।

Monday, March 4, 2013

हमारी सामंती मानसिकता





हत्या को कमोडिटी बनाकर पेश करने वाले हमारे समाचार चैनलों को अरसे से देखते हुए मेरी संवेदनशीलता भोथरा गई है इसका मुझे गहरा दुख होता है लेकिन खोई संवेदनशीलता को वापस लाने का कोई उपाय मेरे पास नहीं।
                                                 फिर भी कभी ऐसी भी घटना होती है जो उद्वेलित करती है। आज सुबह कुंडा के एसओ जिया-उल-हक की हत्या ने ऐसा ही दुखी किया। उनके दोनों पैर में गोली मारी गई, जाहिर है मारने से पहले उन्हें खूब प्रताड़ित भी किया गया होगा। उनकी बेवा चीख-चीख के कह रही है कि जब तक अखिलेश खुद नहीं आएंगे तब-तक अपने पति को सुपूर्द-ए-खाक नहीं करने देगी।
                                                            घटना के बाद बाहुबली विधायक और मंत्री पर मुझे अधिक गुस्सा नहीं आया। मुझे गुस्सा तो उस जनता से है जो इस विधायक को २० साल से चुन रही है। इसके बारे में बहुत सी बातें सुनी हैं पता नहीं कितना सच है लेकिन बड़ी भयावह है जैसे इसके महल के पीछे एक तालाब है जहाँ मगरमच्छ रहते हैं और खिलाफत में आवाज उठाने वाले विरोधियों की लाश इस तालाब में पनाह पाने फेंक दिए जाते हैं। यूपी में बाहुबलियों के कई ऐसे ही किस्से प्रचलित हैं। दिल्ली में मेरे मित्र बन गए एक आला पुलिस अधिकारी के बेटे ने मुझे बताया था कि अंसारी ने जेल के भीतर एक ऐसी पार्टी की थी जिसमें शराब की नदियाँ बहाई गई थी और फाइव स्टार होटल से डिनर के इंतजामात किए गए थे। उसने बताया कि उसे खास तौर पर इनवाइट किया गया था लेकिन पिता पर कोई ऊँगली न उठा दे, इस वजह से वो लुत्फ नहीं ले पाया। इसके ही कजिन ब्रदर ने मुझे आश्वासन दिया था कि पीसीएस में इंटरव्यू तक पहुँच जाने पर एक पोस्ट की व्यवस्था करेगा। उसे मेरे बारे में बहुत दुख होता था, वो कहता था कि प्रशासन में दबंगई बहुत जरूरी है। सलेक्ट होने के बाद भी लाइफ का एन्जॉय नहीं कर पाओगे।
                                                  अगर हम कहें कि यह समस्या केवल यूपी की है तो यह गंभीरता से किया गया आकलन नहीं होगा। छत्तीसगढ़ में भी एक ऐसा राजपरिवार है जहाँ पहली पोस्टिंग पर कलेक्टर को अपना ऑफिस संभालने से पहले दरबार में हाजिरी लगानी होती है। संयोग की बात यह है कि यह परंपरा राजा ने शुरू नहीं कि अपितु उनके चमचों ने ही यह नियम बना दिया। आंध्रप्रदेश में वायएसआर के बेटे के पीछे आम जनता की दीवानगी भी इसका उदाहरण है। छापे में करोड़ों बरामद होने के बाद भी जनता इस युवा और अनुभवहीन नेता के साथ है। तमिलनाडू में कमोबेश जयललिता और करुणानिधि के जाहिर से भ्रष्टाचार के बाद भी जनता लैंडस्लाइट विक्ट्री से उन्हें नवाजती है।
                                      इसका कारण साफ है कि बाहुबलियों का संरक्षण हमें भी भाता है। हम चटखारे लेकर उनके द्वारा दिए गए आश्वासनों को पब्लिकली बयां करते रहते हैं और वे फलते-फूलते हैं। हम कभी यह समझ नहीं पाते कि उनसे मुक्ति होने में हमारी मुक्ति है। सबसे खोखली बात यह है कि वे ऐसी राजनीतिक विचारधाराओं के तले पनपते हैं जो समाजवादी होने का दावा करती है और इस व्यवस्था में सारे ठेके खास ठेकेदारों को मिलते हैं। कार्टेल के इस दौर में कभी आम आदमी के लिए बेहतरी की आशा नहीं की जा सकती, यह तब और भी मुश्किल है जब आम आदमी खुद ही अपने दामन को इन बाहुबलियों के हाथों से नहीं छुड़ाना चाहता।