Thursday, August 25, 2011

मैडम अरुंधति की नीयत गलत, सवाल सहीं



अन्ना हजारे पर दिये गए अरुंधति राय का पूरा बयान पढ़ने के लिए टाइम्स आफ इंडिया की इस संबंध में खबर पर नजर डाली। खबर के साथ दिलचस्प बात यह थी कि पहली बार खबर के भीतर ही खबर पर आई टिप्पणियों की चर्चा भी थी। खबर में लिखा था कि इस बयान पर हमें कई रोचक टिप्पणियाँ प्राप्त हुई हैं। इनमें से एक टिप्पणी का जिक्र भी किया गया था। मैंने उत्सुकतावश टिप्पणियाँ देखी, ३९२ टिप्पणियाँ थीं, इनमें से अधिकाँश पढ़ने के बाद मैंने खुद टिप्पणी करनी चाही लेकिन कमेंट बाक्स ओपन नहीं हुआ, शायद इसके लिए प्रतिक्रिया समय समाप्त हो गया था। सामान्यतः ऐसे बयानों पर मिश्रित प्रतिक्रिया आती है। भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन चल रहा हो तो मामला कुछ ज्यादा संवेदनशील होता है तो अधिकतर बयान भावनाओं से प्रभावित होते हैं। ऐसे में अरुंधति राय ने नकारात्मक टिप्पणी की तो जाहिर है कि लोग अपने कमेंट में इसका विरोध करेंगे लेकिन इस मामले में एक भी व्यक्ति ने अरुंधति राय का साथ नहीं दिया।
  तो हम क्या सोचें। अखबार ने अरुंधति राय के हवाले से हेडिंग लगाई थी अन्ना सेकुलर नहीं हैं। सवाल यह उठता है कि जब अन्ना ने मामला भ्रष्टाचार का उठाया है तो यहाँ धर्मनिरपेक्षतावाद की बात कहाँ से आती है। अगर अरुंधति अण्णा से असहमत हैं तो उनके द्वारा प्रस्तावित लोकपाल बिल पर बात करें। जनता के संबंध में इस किस्म की अच्छी डिबेट होनी चाहिये। सरकार के नुमाइंदों को, सिविल सोसायटी के नुमाइंदे को और दीगर पक्षों को रामलीला मैदान के मंच से इस डिबेट को बढ़ाना चाहिए। जाहिर है जनता के सामने दूध का दूध और पानी का पानी होगा। अरुंधति ने कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न उठाये हैं। मसलन लोकपाल में जो सदस्य होंगे, उनमें से अधिकाँश उसी न्यायपालिका और कार्यपालिका से आयेंगे जिसमें हो रहे भ्रष्टाचार के लिए देश लोकपाल की माँग कर रहा है। सिविल सोसायटी के लोगों को भी शामिल करने की बात की जा रही है। विरोधियों को तर्क है कि इंडिया अंगेस्ट करप्शन के सदस्यों को ही इससे लाभ मिलेगा। अरुंधति ने यह बेहद महत्वपूर्ण प्रश्न उठाया है। अगर लोकपाल के लिए सदस्यों के चुनाव की प्रक्रिया गलत हुई तो देश को भ्रष्टाचार का दोहरा बोझ उठाना पड़ेगा। मौजूदा तंत्र के भ्रष्टाचार का और लोकपाल के भ्रष्टाचार का। 
  साफ है कि बहस हुई तो चीजें ज्यादा स्पष्ट होंगी और इनका समाधान भी सामने आयेगा लेकिन यहाँ बहस की बात नहीं हो रही है। यहाँ आपस में कीचड़ उछालने का दौर चल रहा है। बड़ा सवाल नीयत का भी है। अरुंधति राय की बात भले ही सही हो लेकिन इसके कहने के पीछे उनकी नीयत बिल्कुल ही गलत है। यह बेहद व्यक्तिगत किस्म का हमला अन्ना के चरित्र पर है। बोल कि लब आजाद हैं तेरे वाले इस देश में अरुंधति का अन्ना पर कुछ टिप्पणी करना गलत नहीं है। उन्होंने बिल्कुल सही कहा कि अन्ना को राज ठाकरे को दिये आशीर्वाद और मोदी की थपथपाई पीठ पर भी जनता को अपनी सफाई देनी चाहिये लेकिन अरुंधति यह कैसे भूल गईं कि अन्ना ने इसके ठीक बाद नीतीश कुमार की तारीफ भी की थी लेकिन जब आप व्यक्तिगत आरोप लगा रहे हों तो ऐसी बातों को प्रकट नहीं करते क्योंकि इससे आपके तर्क भोथरे साबित होने लगते हैं। 
  भारत की जनता स्वस्थ बहस का हमेशा स्वागत करती है उदाहरण के लिए अरुणा राय का मामला लें, उन्होंने जनलोकपाल बिल पर अपनी आपत्ति रखी, जनता ने उनके प्रति विरोध प्रकट नहीं किया। इंडिया अगेंस्ट करप्शन के कार्यकर्ता तो चाह रहे हैं कि ऐसी बहस हो लेकिन सरकार इसके लिए तैयार नहीं है। जब सिविल सोसायटी और सरकार के नुमाइंदों के बीच बहस हुई तो भी सिविल सोसायटी ने बहस को जनता के बीच चलाने कहा लेकिन सरकार तैयार नहीं हुई। सरकार कहती है कि उसका बिल मजबूत है। अगर सरकार ने बिल मजबूत बनाया है तो जनता इसे क्यों पसंद नहीं कर रही है। अगर यह संविधान और देश की व्यवस्था को बनाये रखने के लिए लिया गया निर्णय है तो सरकार के नुमाइंदों को खुलकर जनता को इसके प्रावधानों के संबंध में और जनलोकपाल की खामियों के संबंध में जनता को बताना चाहिये। 
  अभी हाल ही में हिंदुस्तान टाइम्स में एक चर्चित कॉलमनिस्ट का लेख पढ़ा, इसमें उन्होंने कहा कि अन्न के आंदोलन का समर्थन मध्यवर्ग कर रहा है जो खाया-अघाया है। अगर मध्यवर्ग खाया-अघाया है तो उसे तफरीह करने मैकडोनल्ड के रेस्तरां में जाना चाहिये, आपने दिल्ली में तफरीह करने के लिए बहुत से शापिंग मॉल बनवाये हैं तो फिर वो रामलीला मैदान में भरी बारिश, कीचड़ और भीड़-भड़क्के के बीच क्या कर रहा है क्या वो महज फोटो खिंचवाने के लिए वहाँ यहाँ गया है अथवा उसे यहाँ मेले-ठेले जैसा आनंद आ रहा है?
  अरुंधति जैसी मार्क्सवादी लेखिका कभी इस बात को समझ नहीं पायेंगी कि मध्यवर्ग के लिए मान-सम्मान भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितनी की गाढ़ी मेहनत की कमाई। जब मध्यवर्गीय व्यक्ति सरकारी दफ्तरों में अपना काम कराने जाता है तो उसे अधिकारी तो दूर क्लर्क के सामने भी लगभग गिड़गिड़ाना पड़ता है, हाथ गर्म करने के बाद भी उसके हिस्से में क्लर्क की मुस्कान नहीं आती, बड़ी दुत्कार के साथ उसका काम किया जाता है जैसे उसके ऊपर बड़ी अनुकंपा की गई हो, रूडयार्ड किपलिंग के शब्दों की तरह, व्हाइट मैन बर्डन। चेहरे बदल गए हैं और मैकाले का ब्राऊन मैन सर्वोच्च सत्ता में पहुँच गया है भ्रष्टाचार और शोषण के उसी तेवर के साथ, जिसकी कल्पना मैकाले ने ब्राऊन मैन के लिए की थी।