Thursday, January 23, 2014

द वर्ल्ड इज फ्लैट



थॉमस फ्रीडमैन की पुस्तक द वर्ल्ड इज फ्लैट के पहले संस्करण में एक चित्र छपा है। समुद्र का एक कगार है जहाँ जहाज गिर रहे हैं। यह चित्र बहुत आकर्षित करता है। पहले के मछुआरे समुद्र में बहुत दूर की यात्रा में जाने से बचते थे, उन्हें लगता था कि समुद्र फ्लैट है और एक सीमा पार करने के बाद वे अंतरिक्ष में गिर जाएंगे, फिर कोलंबस ने अमेरिका को खोजा और बताया कि ये तो गोल है। फ्रीडमैन ने दुनिया को यह बताया कि कोलंबस का कहा इक्कीसवीं सदी में फिर से असत्य हो गया, दुनिया तो फ्लैट है।
लंबे अरसे बाद मैंने किसी पुस्तक में जादू का अनुभव किया, लालच की तरह इस पुस्तक ने मुझे घेर लिया। पुस्तक की शुरूआत कोलंबस के एक पत्र से होती है जो उसने स्पेन के राजा को लिखी थी। फिर फ्रीडमैन की भारत यात्रा से पुस्तक की शुरूआत हुई, कोलंबस ने भारत की खोज के लिए यह यात्रा की थी और फ्रीडमैन ने ग्लोबलाइजेशन की खोज में। मुझे लगा कि पुस्तक वहीं तक रोचक होगी जहाँ फ्रीडमैन ने भारत में साफ्टवेयर क्रांति पर लिखा है लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि मुझे पुस्तक में सबसे अच्छे पन्ने चीन पर लगे।
चीन में एक नई तरह की क्रांति हो रही है जैसे पुराने भारत में होता था कि फिरोजाबाद चूड़ियों के लिए और अलीगढ़ तालों के लिए, वैसे ही चीन का हर शहर नई दुनिया के लिए एक प्रोडक्ट बनाता है और आश्चर्य की बात है कि वो प्रोडक्ट्स हमारे घरों में भी हैं। चीन में एक काम्प्लेक्स भी है जो बार-बार फ्रीडमैन की लेखनी से दिखता है। यह काम्प्लेक्स है इंग्लिश का, चाइनीज बार-बार कहते हैं कि हमारी इंग्लिश अच्छी नहीं है लेकिन हम लगातार इस बात की कोशिश कर रहे हैं कि हम इसे ब्रेक करें।
मुझे सुखद आश्चर्य हुआ जब फ्रीडमैन ने भारत से अपनी पुस्तक की शुरूआत की। ऐसा लगता है कि इसके दो कारण है पहला यह कि दुनिया को फ्लैट बनाने में सूचना प्रौद्योगिकी का हाथ बहुत है और भारत ने इसमें उल्लेखनीय प्रगति की है पर बड़ा कारण यह है कि चीन के राजनीतिक मॉडल के स्थायित्व में फ्रीडमैन को शक है। यह शक स्वाभाविक है पुस्तक में एक जगह इस बात का जिक्र है कि जापान के नीतिनिर्धारकों ने अपने पूंजीपतियों को आगाह किया है कि चीन में निवेश उतना ही करें जितने से वहाँ राजनीतिक व्यवस्था बिगड़ने पर आर्थिक संतुलन पर न्यूनतम असर पड़े।
चीन में फ्रीडमैन की मुलाकात वहाँ की शिक्षा मंत्री से हुई, उनसे जो बात हुई उसे भारत को भी सबक लेना चाहिए। वो कह रहे हैं कि एजुकेशन सिस्टम में साइंस और इंजीनियरिंग के साथ आर्ट्स की पढ़ाई भी कराएंगे ताकि मौलिक सोच और अभिव्यक्ति से तकनीक में और निखार आये। भारत में जिस तरह से इंजीनियरिंग की पढ़ाई कराई जा रही है और फ्री थिंकिंग को प्रेरित करने वाले आर्ट्स के विषयों को सिलेबस से हटा दिया गया है वैसी स्थिति में भारत में मौलिक प्रतिभा उत्पन्न हो सकेगी, इस बारे में मुझे गंभीर शंका है।
पुस्तक पढ़ने के बाद यह लगा कि भविष्य में दुनिया की शक्ति उसी के पास होगी जिस देश के पास ज्ञान होगा। अमेरिका और जापान जैसे देश इस बात को समझ चुके हैं। पहले वो दूसरों की शक्तियों को कुचलने के लिए बम गिराते थे, अब आउटसोर्सिंग करते हैं। आउटसोर्सिंग में अमेरिकी बिना दिमाग वाला काम भारत वालों से करा रहे हैं जापानी मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में निम्न कोटि का काम चीनियों से करा रहे हैं। इन सबका उद्देश्य यह है कि मेधा शक्ति का इस्तेमाल उनके अपने लोग ही कर पाएं और भारत के मेधावी वैसा ही पिछड़ापन अनुभव करें जैसा रामानुजन ने अनुभव किया था, जब गणित के उनके खोजे गए सिद्धांत पहले ही ब्रिटेन में खोजे जा चुके थे।
फिर भी एशियाई मेधा को इस तरह ठगा जाना आसान नहीं है। अमेरिकी इस बात को समझ चुके हैं। फ्रीडमैन की पुस्तक के पन्ने इस बात की गवाही देते हैं।