Thursday, June 21, 2012

एक टाइगर से मुलाकात....



अभिज्ञान शाकुन्तलम के अंतिम प्रसंग में राजा दुष्यंत एक अत्यंत साहसपूर्ण बालक को शेर से खेलता हुआ देखते हैं, उन्हें रोमांच हो जाता है। शाकुंतलम की यह कथा हर घर में बच्चों को दादी-नानी सुनाते हैं। मिथकीय कथा से उभरकर अगर ऐसा कोई प्रसंग वास्तविक जीवन में मिले तो मन जरूर रोमांच से भर जाएगा। शेर से खेलने वाले टाइगर बॉय चेंदरू के संबंध में ऐसी जिज्ञासा थी। इस जिज्ञासा को लिए मैं बढ़ गया उसके गाँव गढ़बेंगाल।
            मेरे लिए इस मुलाकात का खास महत्व था लेकिन तब मेरे रोंगटे खड़े हो गये जब मैंने पाया कि चेंदरू घर में नहीं है। वो उसी नदी में मछली पकड़ने गया है जहाँ बरसों पहले एक स्वीडिश महिला ने उसे चपलता से मछली पकड़ते हुए देखा था। वहाँ उसकी बहू मिली, पोता भी था जिसके लिए कपड़े को बाँधकर सुंदर झोला बनाया गया था। बहू ने शर्माते हुए हमें बिठाया। हम काफी कुछ पूछना चाहते थे, वो सकुचा रही थी। अंत में उसे समाधान मिल गया। उसने चेंदरू पर स्वीडिश भाषा में लिखी एक पुस्तक हमें थमा दी। पुस्तक के चित्र वैसे ही थे एक साहसी बालक, भरत जैसा, जिसे शेर के दाँत गिनते दुष्यंत ने देखा था। मुझे लगता है कि सबसे विलक्षण चीजें कभी नष्ट नहीं होतीं, समय के साथ चेंदरू के सारे स्वीडिश तोहफे भले ही नष्ट हो गये हों लेकिन इस टाइगर बॉय पर लिखी यह पुस्तक सही-सलामत है। इसके चित्र अजंता के चित्रों की तरह बेमिसाल दिख रहे थे। बारी अब बहू की थी, उसने कहा कि उसके ससुर ने इज्जत तो बहुत कमाई लेकिन पैसे नहीं कमाये, ऐसा कहते हुए उसकी आवाज में लालच नहीं था, एक निष्छलता थी। उसके लिए यह एक दार्शनिक प्रश्न की तरह था लेकिन उसे यह नहीं मालूम था कि इसे दार्शनिक प्रश्न कहते हैं। अब कैसा है चेंदरू, यह पूछने पर उसने कहा कि अब पहले से अच्छा है लेकिन खाना नहीं खाता। उसके बेटे की संविदा नियुक्ति लग गई है डोंगर में, हफ्ते में एक बार आता है। चेंदरू दुखी है।
                                                  थोड़ी देर में मैंने लकड़ी के सहारे नदी की ओर से आते एक बुजुर्ग को देखा। फिल्मों में जैसा होता है, किताब की तस्वीर पूरी तौर पर बदल गई। चेंदरू बुजुर्ग हो चुका था। वो मिला पूरी आत्मीयता से। इतनी शोहरत कमाने के बाद भी उसमें किसी तरह का अहंकार नहीं था। अहंकार उसे कतई हो भी नहीं सकता था क्योंकि वह था सच्चा साहसी। हमेशा जिंदगी में रहा हीरो की तरह लेकिन उसने कभी शाकुन्तलम के लेखक कालिदास की तरह उज्जायनी के लिए अपना कनखल नहीं छोड़ा। उससे तकलीफें पूछीं, बताया कि बेटा साथ नहीं है बताया कि घर में खाना नहीं है। यह सब पूछने पर बताया। फिर मैंने पूछा कि वो स्वीडिश मैडम दोबारा आई या नहीं। उसने कहा नहीं। स्वभाव के अनुकूल मैंने मन में विदेशियों को गाली दी लेकिन फिर पुस्तक में अचानक उनका युवा चेहरा दिखा, वो एक शेर के साथ बैठी बड़ी खूबसूरत लग रही थीं। जाहिर है अब वो इस दुनिया में नहीं होंगी। उन पर मैंने कितना बड़ा अन्याय किया। चेंदरू से मैंने सिनेमा के दिलचस्प जीवन और स्वीडन यात्रा के बारे में पूछा। उसने एक-एक डिटेल दिए। फ्लाइट का समय भी उसे याद था। फिर पूछा, स्वीडन घूमने का दोबारा मौका मिलेगा तो जाओगे, उसने कहा हाँ। इस पकी उम्र में उसका जज्बा वैसा ही है। जब मैंने उसके मित्र शेरों के बारे में पूछा तो उसकी आँखों में चमक आ गई। उसने कहा कि वे दो थे। एक छोटा था जो बड़ा शरारती था, खेलने के लिए पंजे मारता, जब मैं छड़ी दिखाता तो दुबक जाता। बस्तर में शेर के कुछ किस्से भी उसने सुनाये। अपनी भाभी के साथ जुड़ा एक दिलचस्प वाकया भी बताया। उसके बेटे के दोस्त शोभा ने मुझे बताया कि उसे विदेश में रहने के प्रस्ताव मिले थे लेकिन उसने दृढ़ता से इंकार कर दिया। कुछ समय तक तो ऐसा रहा कि वो विदेशियों से मिलने से भी कतराता रहा, कहीं फिर उस रूपहली दुनिया में न ले जाएं, अबूझमाड़ के जंगलों से दूर। चेंदरू की कहानी गैरीबाल्डी की तरह लगती है। इटली के सम्राट विक्टर इमैन्युअल को एकीकरण का तोहफा देने के बाद उसने कोई पद स्वीकार नहीं किया, गेंहू के बीज लिए चला गया अपने द्वीप, जिसे उसने खेती करने खरीदा था। चेंदरू से मिलकर यह लगा कि वो वाकई विलक्षण है, उससे जुड़ी घटनाएँ संयोग नहीं है अपितु एक साहसी मनुष्य को कुदरत द्वारा दिया गया उपहार है। उससे काफी बातें करनी थीं, करनी हैं लेकिन हो नहीं पाई। इस दिलचस्प व्यक्ति से मिलने का कोई भी मौका मैं छोड़ना नहीं चाहूँगा।

Monday, June 11, 2012

दिल ए नादां तुझे हुआ क्या है..


दिल ए नादां तुझे हुआ क्या है गालिब का यह जुमला तीर की तरह आत्मा में बिंध गया है। हर पल एक बेचैनी रहती है करार नहीं मिलता, वही बुनियादी प्रश्न मैं यहाँ क्यों हूँ, क्या कर रहा हूँ, हर पल यही बिंधता रहता है कि मैं क्या कर रहा हूँ। इतने बरसों जीने के बाद भी जीवन का कोई व्यवस्थित मुहावरा अथवा सिद्धांत नहीं खोज पाया। अपने आत्म तक नहीं पहुँच पाया। उम्र की मैल मेरी काया में जमती चली जा रही है। मैं परिवार से दूर हूँ। उस सुख की छाया से दूर जिसमें कई बार बुनियादी प्रश्न स्थगित हो जाते हैं। सोचा था कि जब इनसे अलग होऊँगा तो जीवन को कोई आकार दूँगा, एक महत्वाकांक्षा थी कि एक ऐसा आकार दूँगा कि लोग कहेंगे कि उसमें देखो, उसने जीवन का कुछ दर्शन पाया है लेकिन मैं खोखला ही रहा। मानसून के बादल पहुँच गए हैं और इसने मेरी व्यथा को बढ़ा दिया है। शायद इसलिए ही कालिदास ने आषाढ़ के पहले दिन अपने महान ग्रंथ मेघदूतम की रचना की।
                                      शायद एक दिन ऐसा भी आए जब अपने ही मोह और सीमाओं के दायरे से बाहर आऊँ, फिलहाल तो आसमान में बादलों के थान के थान उतर गए हैं। वो आसमान की व्यथा हैं या मेरी अंतर की अभिव्यक्ति, कह नहीं सकता।

Thursday, June 7, 2012

बिना बोरियत अबूझमाड़ का एक क्षण

यहाँ कीचड़ से सनी गलियाँ नहीं, खंडहर होती झोपड़ियाँ नहीं, सुंदर साफ-सुथरी झोपड़ियाँ, विशाल पेड़ों से घिरा गाँव, खेतों में मेड़ नहीं, चहारदीवारी से घिरे खेत, अबूझमाड़ के गाँवों में जाना मेरे लिए अद्भुत अनुभव था। यहाँ की सबसे अद्भुत विशेषता है स्पेस, घर बड़े, आंगन बड़े और साफ सुथरे। लोग भी ऐसे ही, केवल चुपचाप किसी जगह बैठकर भी पूरा दिन इत्मीनान से बिना एक क्षण बोर हुए भी काट सकते हैं इसका अनुभव मुझे इसी जगह हुआ, एक शहरी आदमी के लिए यह अनुभव बेहद अद्भुत हो सकता है जिंदगी को जानने के लिए अबूझमाड़ भी आइए।