दिल ए नादां तुझे हुआ क्या है गालिब का यह जुमला तीर की तरह आत्मा
में बिंध गया है। हर पल एक बेचैनी रहती है करार नहीं मिलता, वही बुनियादी प्रश्न मैं
यहाँ क्यों हूँ, क्या कर रहा हूँ, हर पल यही बिंधता रहता है कि मैं क्या कर रहा हूँ।
इतने बरसों जीने के बाद भी जीवन का कोई व्यवस्थित मुहावरा अथवा सिद्धांत नहीं खोज पाया।
अपने आत्म तक नहीं पहुँच पाया। उम्र की मैल मेरी काया में जमती चली जा रही है। मैं
परिवार से दूर हूँ। उस सुख की छाया से दूर जिसमें कई बार बुनियादी प्रश्न स्थगित हो
जाते हैं। सोचा था कि जब इनसे अलग होऊँगा तो जीवन को कोई आकार दूँगा, एक महत्वाकांक्षा
थी कि एक ऐसा आकार दूँगा कि लोग कहेंगे कि उसमें देखो, उसने जीवन का कुछ दर्शन पाया
है लेकिन मैं खोखला ही रहा। मानसून के बादल पहुँच गए हैं और इसने मेरी व्यथा को बढ़ा
दिया है। शायद इसलिए ही कालिदास ने आषाढ़ के पहले दिन अपने महान ग्रंथ मेघदूतम की रचना
की।
शायद एक दिन
ऐसा भी आए जब अपने ही मोह और सीमाओं के दायरे से बाहर आऊँ, फिलहाल तो आसमान में बादलों
के थान के थान उतर गए हैं। वो आसमान की व्यथा हैं या मेरी अंतर की अभिव्यक्ति, कह नहीं
सकता।
कभी कभी प्रकृति हमारी ही व्यथा को प्रतिविम्बित करती सी लगती है... मानों दोनों एकाकार हो गए हों!
ReplyDeleteजीवन है, तो संभावनाएं हैं; अवश्य मिलेगी राह!
ग़ालिब का एक शेर शायद यहाँ मौजूं हो
ReplyDeleteहुआ जब गम से यूं बेहिस तो गम क्या सर के कटने का
ना होता गर जुदा तन से तो जानू पर धरा होता
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