Sunday, September 16, 2012

बरफी

बरफी के साथ दार्जिलिंग का सफर बेहद दिलचस्प रहा। दार्जिलिंग रेल यहाँ की जान है। ट्रेन की छाया घरों से निकलते हुए दिखाना दार्जिलिंग की रूह के साथ जस्टिफाई करता है। बरफी की विशेषता है कि इसमें दुख ही विलेन है। कोई विलेन नहीं, बहुत गहरी भावनाएँ कई जगहों पर दिखाई गई हैं। आखरी पंच लाइन बहुत अच्छी है। बरफी ने चुनकर प्यार नहीं किया।
                                                             बांग्ला कल्चर अब तक उपन्यासों में ही अधिक दिखता था लेकिन सुख की बात है कि हिंदी फिल्मों में अब इसके अधिक प्रयोग होने लगे हैं। बांग्ला प्रेम बड़ा रूहानी प्रेम है इसलिए जब भी ये सिल्वरस्क्रीन में आता है तब सिल्वरस्क्रीन की रौनक और बढ़ जाती है। ओ हेनरी की कहानी पर आधारित फिल्म रेनकोट के कुछ दृश्य मैंने देखे थे, बांग्ला में ये कहानी और भी अद्भुत हो जाती है।

                                                               रणबीर की फिल्म रॉकस्टार मैंने देखी थी, उसमें मृत्यु के दृश्य दिखाये थे, बरफी में भी इसकी नकल की गई है। मृत्यु शाश्वत है लेकिन सिनेमा हम जीवन के सौंदर्य को देखने जाते हैं उसे ढलते हुए नहीं, उस वक्त नहीं जब हम अपने सारे लगावों को छोड़कर जा रहे हों। बरफी अच्छी है लेकिन सिनेमा के मृत्युबोध को परिवर्तित करने की जरूरत है जब तक वो ऋषि दा की आनंद की तरह गौरवमयी न हो।