Sunday, December 30, 2012

इंग्लिश विंग्लिश

पूजा ने कल चिपलूण से शाम ८ बजे फोन किया,कहा भैया इंग्लिश विंग्लिश आ रही है जरूर देखिये। इससे पहले उसने कभी फोन कर पिक्चर देखने की सिफारिश नहीं की थी। मैं यह फिल्म देखने ग्लिट्ज सिनेमा गया था लेकिन दुर्भाग्य से टिकट नहीं मिल पाई थी। इसके बाद अगली फिल्म लाइफ आफ पाई देखी। यह फिल्म देखते हुए सोचने लगा था कि कितने महान विषय पर बनी फिल्म देखने आया हूँ और कहाँ पिछली बार एक सामान्य गृहिणी पर बनीं फिल्म देखने जा रहा था। मेरे मन में इस फिल्म के प्रति तुच्छता के भाव आ गए, इन घर-गृहस्थी के विषयों पर तो कितनी ही फिल्म बनाई जा सकती है लेकिन पाई के साहसिक जीवन पर बनी फिल्म महान ही होगी।
                                            इंग्लिश-विंग्लिश के पहले १० मिनटों में ही जान लिया कि मैं कितना गलत था। एक अधेड़ महिला की पीड़ा को पहली बार रूपहले सिनेमा में जगह दी गई, जिसने घर के लिए अपना पूरा जीवन बिता दिया लेकिन वहाँ ही उसे सम्मान के दो शब्द नहीं मिले। क्लास टीचर के साथ हिंदी में बोलने पर अपनी बिटिया की ओर से अपमान सहना पड़ा। मुझे अपना बचपन याद आता है कि कई बार माँ को बेवजह परेशान किया, सबके सामने बेवजह गुस्सा दिखा उनका अपमान किया। फिल्म में एक छोटी सी लव स्टोरी है विदेशी युवक और फिल्म की नायिका शशि(श्रीदेवी) के बीच। सभी ओर से तिरस्कार झेल रही इस महिला की सुंदरता का भान इस विदेशी युवक को होता है। अंत में वो इजहार-ए-मोहब्बत भी करता है। शशि कहती है कि इस उम्र में मुझे प्यार की नहीं, इज्जत की जरूरत है। लगता है कि पूरी फिल्म की स्टोरी इसी एक डॉयलाग के आसपास केंद्रित हो गई है।
                                            फिल्म के अंत में शशि इंग्लिश में अपनी भांजी को विवाह की शुभकामना सार्वजनिक रूप से विवाह स्थल पर देती है। मुझे डायलाग याद नहीं है लेकिन वो कहती है कि किसी भी रिलेशनशिप में बराबरी बहुत जरूरी है। घर ही ऐसी जगह है जहाँ सारी कमजोरी दब जाती है। घर के सारे सदस्य बराबर होते हैं। घर का कमजोर सदस्य भी यह महसूस करता है कि कम से कम यह तो वो जगह है कि उसकी तुलना नहीं की जा रही। सचमुच घर ऐसा ही होता है।
                                                                                            घर लौटने पर मैं भी अक्सर ऐसा ही महसूस करता हूँ। घर के बाहर मैं अपने एपीयरेंस के प्रति चिंतित रहता हूँ। अक्सर मुझे तुलना के तराजु में तोला जाता है। मैं खासा असुरक्षित महसूस करता हूँ क्योंकि लाख चाहने के बाद भी मेरे व्यक्तित्व की बुराइयाँ बाहर झाँकने लगती हैं। घर आते ही मैं सुरक्षित हो जाता हूँ। मैं बुरा हूँ, मेरा एपीयरेंस अच्छा नहीं है। साहस का भी मुझमे अभाव है। शाहरूख या सलमान जैसा आकर्षण नहीं, फिर भी मेरी पत्नी मेरा वैसा ही सम्मान करती है वो मुझे तराजु में नहीं तौलती जो मुझे अच्छा लगता है। मुझमें किसी तरह की कशिश नहीं फिर भी माँ मेरी तारीफ में ढोल बजाए फिरती है। पिता कहते हैं कि कुछ और हेल्दी होता तो हीरो की तरह लगता। सचमुच घर ऐसा ही होता है।
                            जैसे तारे जमीं पर ने हमें यह सिखाया कि कैसे अपने बच्चों के प्रति व्यवहार रखें, वहीं इंग्लिश विंग्लिश हमें सिखाती है कि कैसे उस माँ का सम्मान करें जिसके आगे-पीछे घर की धुरी घूमती है।

Friday, December 28, 2012

फेरी वाले



काबुली वाला फिल्म का गाना ऐ मेरे प्यारे वतन जब भी सुनता हूँ तो फेरी वाले आँखों के सामने घूमने लगते हैं। रिक्शे में साड़ियाँ भरें, ऊन का गोला लिए न जाने वो कहाँ से आते थे। हम सर्दी की धूप तापते बैठे रहते और हमारी माताओं के हाथों में स्वेटर होते। उनकी आवाज सुनकर पड़ोस की सारी महिलाएँ समवेत रूप से इकट्ठी हो जातीं। वो बताते कि उनके पास असमिया सिल्क है जो और कहीं न मिलेगा। हम भांप जाते कि ये फेरीवाला चालाकी कर रहा है लेकिन हमारी माताएँ उनकी साड़ियों के मोहजाल में खींची चली जाती।
                                                                                                                                           उनकी साड़ी बेचने की स्टाईल हमारे एमबीए स्टूडेंट्स को सिखानी चाहिए। वे ऐसे चिरौरी करते जैसे घर के बच्चे हों, माँ यह ले लो, आप इसमें खूब सुंदर दिखेंगी। जब बारगेनिंग की प्रक्रिया चलती और माताएँ खरीदी से पीछे हटती दिखतीं तो हम बच्चों का मुँह छोटा हो जाता था। एक तो खरीद लो, हम मन में सोचते, बिचारा न जाने कहाँ से कितनी साड़ियाँ लादे चला आया है। उसे रिक्शा वाले को भी पैसे देने होंगे। जब खरीदी तय हो जाती तो थोड़ा संतोष मिलता।
                           पता नहीं वो इमोशनल ड्रामा करते थे या यूँ ही उन्हें ईश्वर ने एक सुनहरा दिल दिया होगा, वे बहुत दुवाएँ देते थे। एक फेरी वाला मुझे याद है। उसने मेरी मम्मी से कहा, तुम्हारा बेटा बहुत सुंदर है इसकी बहू के लिए यह असमी सिल्क रख लो, माँ तुम याद करोगी, मैं भी तुम्हारा बच्चा हूँ। माँ को वो सिल्क साड़ी पसंद आई, शायद ऐसा उन्होंने दिखावा किया। उन्हें फेरीवाले की बात पसंद आ गई क्योंकि उन्होंने इस साड़ी को दिखाते हुए कई परिचितों से इस घटना का जिक्र किया।
                                                                                          अच्छी साड़ी खरीद लेना भी महिलाओं के लिए जंग जीतने जैसा होता है जब माँ ने यह साड़ी खरीद ली तो पड़ोस की कई महिलाओं को इसे दिखाया जो उनके पतियों के सौभाग्य अथवा उनके स्वयं के दुर्भाग्य से वहाँ मौजूद नहीं थी। उन्होंने अफसोस जताया कि वे होती तो इसे खरीद लेतीं।
                               जो रिक्शा भी हायर नहीं कर पाते थे वे पैदल ही अपना काम चलातें। उनमें गजब का टैलेंट होता। वे चिंकारा बेचते, दोस्ती के सुंदर गाने चलाते। बच्चों की तरफ ललचाई निगाह से देखते लेकिन बच्चों की माताओं को यह बेकार का खर्च लगता, उसके बदले बच्चे बाम्बे मिठाई जैसी चीज खा लें तो यह उन्हें ज्यादा पसंद था। मैं चिंकारा एक बार नहीं खरीद पाया, मैं यह कहने के लिए साहस भी नहीं जुटा पाया कि मुझे चिंकारा खऱीदना है क्योंकि मुझे संगीत की समझ तो थी नहीं तो व्यंग्य का शिकार होता कि खरीद लिया है और पड़ा है।
                        कुछ युवा किताबें बेचते हैं महंगी एनसाइक्लोपीडिया। पता नहीं ये किताबें बिकती हैं या नहीं, ये बड़ी इज्जत और अदब से सबसे पेश आते हैं। नहीं भी खरीदो तो भी यह कहना नहीं भूलते कि थैंक्स सर आपने हमें धैर्य से सुना। हम इन्हें दुत्कारते हैं हमने कभी यह नहीं सोचा कि इनकी आत्मा पर इसका कितना कष्ट पहुँचता होगा। मुझे याद है एक बार ऐसा ही एक सेल्समैन आया, वो किताबों के बारे में बोलते हुए बुरी तरह हकला रहा था। उसकी हकलाहट जन्म की नहीं थी, मुझे समझ में आ गया कि हमारे व्यवहार ने ही उसे इस तरह तोड़ दिया है कि अपमान की आहटों की लडखड़ाहट उसकी जबान में नजर आने लगी है। मैं उसके साहस की प्रशंसा करना चाहूँगा, इतना अपमान सहकर भी वो अपनी रोजी-रोटी की जंग में लगा हुआ है वो हारा नहीं है, वह सचमुच का विजेता है। उसे फोर्ब्स जैसी पत्रिका बिजनेसमैन आफ ईयर जैसी किसी उपाधि से नवाजा जाना चाहिए।
                इन साहस से भरे चेहरों की जिंदगी में झाँक कर देखें तो कितना अंधेरा दिखता है। एक बार ऐसे ही सामान बेचने आए एक सेल्समैन से मैंने पूछा, तुमको कितनी सैलरी मिलती है। उसने कहा कि उसे सैलरी नहीं मिलती, खाना मिलता है और रहने को एक कमरा मिला है। सैलरी की जगह प्वाइंट मिलते हैं एक निश्चित संख्या में प्वाइंट इकट्ठा होने पर ही सैलरी मिलती है।

Wednesday, December 26, 2012

मेरे नाना का घर

जब राजिम जैसे शैक्षणिक केंद्र कमजोर हुए तो मालगुजारों की बस्ती रायपुर शिफ्ट हो चली, ब्राह्मणपारा आबाद हुआ, मालगुजारों ने बाड़े तैयार किए, इनमें कुछ भव्य बाड़े अब भी बचे हुए हैं जो बाड़े नहीं तैयार कर सकते थे, उन्होंने घर बनाए, पटाव वाले घर, जब हम गर्मियों में अपने नाना-दादा के घर आते तो इन पटाव वाले घरों के शांत कमरों में सुकून से दिन गुजारते, कभी तीरी-पासा खेलते तो कभी ताश की महफिलें जमतीं, उन दिनों घरों में टाइल्स नहीं होते थे, स्लेट के पत्थर लगे होते थे, हर पत्थर में एक खास आकृति उभरती जो शायद केवल बच्चों को ही दिखती थी। हम संयुक्त परिवार के स्वर्ग में रहा करते थे तो मामा-मौसी के बच्चे भी छुट्टियों में इस स्वर्ग में पहुँच जाते। उन दिनों सबसे बड़े बच्चे और छोटे बच्चे की एज में काफी फर्क रहता था। मेरे छोटे मामा उन दिनों कालेज में थे और शायद रेखा उनकी प्रिय अभिनेत्री थीं, उसकी फोटो पटाव वाले घर में खूब लगी होती थी।
                                          इस घर को मेरे नाना जी ने २४००० रुपए में खरीदा था, ये घर एक बड़े अधिकारी का था जिनका नाम मैं नहीं लेना चाहूँगा, वे रजिस्ट्री में आनाकानी कर रहे थे, मुझे याद है कि उस समय मैं क्लास ३ में था, मेरी मौसी सारे अधिकारियों के सामने रोकने के बावजूद उस जगह पहुँच गई जहाँ वे वरिष्ठ अधिकारियों की मीटिंग ले रहे थे। उनसे कुछ कहते नहीं बना और उन्होंने रजिस्ट्री के पेपर में साइन कर दिया। घर के स्टोर रूम से भी छोटे कोने में मेरे मामा ने पढ़ाई की।
                                                                                                     दो दिनों पहले जब इस घर को टूटते हुए देखा तो बड़ा अजीब लगा। लगा कि इस घर के साथ कितनी स्मृतियाँ भी बिखर गईं, वो कमरा जहाँ नाना पूजा करते-करते भावुक हो जाते, उस जगह अब केवल मलबा दिखता है। कुँआ तो पहले ही पाट दिया गया। इस कुँए में मेरी मम्मी गिर गई थीं और बहुत मुश्किल से उनकी जान बची थीं। हो सकता है कि मैं विषयान्तर कर रहा हूँ लेकिन ब्राह्मणपारा की चर्चा एक बड़े परिवार की चर्चा है इसलिए अगर मैं अपने परिवार को इसमें शामिल करता हूँ तो कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
                                                                                २५ पैसे की कुल्फी, ५० पैसे की कुल्फी और १ रुपए की कुल्फी तीन श्रेणियाँ होती थीं और अगर नाना मेहरबान हुए तो १ रुपए की कुल्फी मिल जाती थी। यह जन्नत के जैसे सुकून देती थीं। उन दिनों देश में पेप्सी के आने की चर्चा थी। मैं अखबार नियमित रूप से पढ़ा करता था। मैंने जो पेप्सी देखी थी, वो ब्राह्मणपारा के खोमचे में देखी थी, मुझे आश्चर्य होता था कि इस पेप्सी का इतना बड़ा मार्केट कैसे है? इधर की जनरेशन को आश्चर्य होगा कि नारियल के पीस भी बिकते हैं शीतला मंदिर के सामने एक नारियल वाला बैठता था, २५ पैसे में छोटी फांक और ५० पैसे में बड़ी फाँक।  पांडे होटल तक पहुँचने में सड़क की बाधा थी। सड़क कैसे पार करें, मुझे समझाया गया था कि दौड़ के सड़क मत पार करो? मुझे समझ नहीं आता था, ऐसा क्यों? मुझे यह समझ नहीं थी कि यह वार्निंग तो उन बच्चों के लिए होनी चाहिए थी जो रिस्क लेते हैं और तेज गति वाहनों का शिकार हो जाते हैं। मैं तो ऐसा जोखिम लेता ही नहीं क्योंकि मैं हमेशा से बहुत डरपोक था। फिर मुझे ऐसी सलाह देने वालों का आईक्यू आप समझ सकते हैं।
                                                                             इसी आपाधापी में पहली बार संघ को भी जाना, एक शाम भाई ने कहा कि आज शाखा जाएंगे, वहाँ एक घंटा खेल खेले, यह प्रश्न मन में नहीं आया कि इन खेल खिलाने वालों को हममें क्या रुचि हो सकती है?  मेरे मौसी के लड़के पास ही आमापारा में रहते थे, उनके पास पुस्तकों का एक उपयोगी संकलन था, इसी संकलन में एक पुस्तक विक्टोरिया कालीन थी। इस पुस्तक में विक्टोरिया के समय के किस्से थे, एक किस्सा बड़ा मार्मिक था कि कैसे एक बच्चा नंगे पांवों अपनी तकलीफ बताने कई किमी की यात्रा कर बर्मिंघम पैलेस पहुँच गया। इस घटना के बाद मेरे मन में अंग्रेजों के प्रति नफरत कम हो गई।
          कभी आश्रम भी जाना होता, हम सात बच्चे थे, नाना जी दो प्लेट चाट लेते और हर बच्चे को बारी-बारी से एक-एक चम्मच चाट खिलाते। एक दिन उन्होंने कहा कि कालीबाड़ी की दुर्गा देखोगे अथवा रामकुंड का दशहरा। हमने रावण मारना तय किया, पहली बार रामकुंड के तालाब से गुजरे, मैंने देखा कि रायपुर केवल ब्राह्मणपारा नहीं है। पहली बार इंडिया टूडे भी यहीं पर देखा, यह मैग्जीन बहुत अच्छी लगी, पापा द्वारा लाई जाने वाली दिनमान, माया की तुलना में यह काफी अद्यतन लगी।
                                                                                                   मामा उन दिनों बेरोजगार थे, उनके पास जीके बुक्स खूब होती थीं। एक बुक मैंने पढ़ी थीं, उसमें एक छोटी सी क्रोनोलाजी थी बिस्मार्क जर्मनी का चांसलर बना। इस छोटी सी पंक्ति ने मेरे मन में इतिहास को जानने की प्रबल इच्छा पैदा की। बड़े होकर जो सपने देखे, उनके सबसे प्रारंभिक अंश इसी घर में देखे। ब्राह्मणपारा का शौर्य वाला चरित्र मैंने नहीं देखा, हो सकता है इसलिए यह वर्णन उतना दिलचस्प नहीं लगे लेकिन जब ब्राह्मणपारा की बात करें तो हमें अतिथियों के वर्णनों को भी तो जगह देनी ही होगी न....

Sunday, December 23, 2012

यू-ट्यूब की टिप्पणियाँ



यू-ट्‌यूब ने संगीत के शौकीनों के लिए जैसे जन्नत का दरवाजा खोल दिया है। क्लासिकल के मुरीदों के लिए अब पुराने कलेक्शन के शौकीन लोगों की तलाश नहीं करनी पड़ती। क्लासिकल का सारा कलेक्शन यहाँ है। अगर किसी ने कुमारगंधर्व की खनकती आवाज न सुनी हो, तो कबीर के एक से बढ़कर एक कलेक्शन यू-ट्‌यूब में मौजूद हैं। कबीर का विलक्षण संदेश चाहे वह आबिदा परवीन की आवाज में हो अथवा सबरी बंधुओं के, यू-ट्‌यूब में सब मौजूद हैं। क्लासिकल के धुरंधरों और हिंदी  सिनेमा के दिग्गज गीतकारों-संगीतकारों की प्रशंसा में लिखी गई टिप्पणियाँ भी काफी रोचक हैं और वे भी किसी कलाकृति से कमतर नहीं लगती।
 चुनिंदा उदाहरण इस महासागर से मैंने उठाये हैं। मसलन कुमारगंधर्व पर टिप्पणी करते हुए उनके एक प्रशंसक ने लिखा है कि जब कुमारगंधर्व गाते हैं तो उनके गले से भगवान बोलता है। आबिदा परवीन पर लिखते हुए उनके एक प्रशंसक ने लिखा है कि पाकिस्तान की सबसे बड़ी उपलब्धि न्यूक्लियर बम नहीं अपितु आबिदा परवीन है। इन रोचक टिप्पणियों से कई बार प्रशंसक कलाकार के हालात से भी रू-ब-रू होते हैं। मसलन आबिदा परवीन को माइनर हार्ट अटैक आने की सूचना एक प्रशंसक ने दी, उसके बाद बहुत से प्रशंसकों ने उनके शीघ्र स्वास्थ्य लाभ की कामना की। 
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यू-ट्‌यूब में आई टिप्पणियों में से विदेशों में बसे भारतीयों की भी दिलचस्प प्रतिक्रिया सामने आई है। १९६१ में बनी फिल्म काबुलीवाला में गुलजार द्वारा लिखे गीत ऐ मेरे प्यारे वतन पर पर अमेरिका के एमएमएल शर्मा ने अपनी पुरानी स्मृति बताई है।  उनके अनुसार बात १९६९ की है उस वक्त अमेरिका की प्रिंसटन यूनिवर्सिटी में भारत के गणतंत्र दिवस समारोह के आयोजन में बहुत से भारतीय और अमेरिकी शामिल थे। इस कार्यक्रम में किसी ने ऐ मेरे प्यारे वतन गीत गाया। कार्यक्रम में कोई भी भारतीय ऐसा नहीं था जिसकी आँखें नम न हुई हों। अमेरिकी इस दृश्य को देखकर आश्चर्यचकित थे, उन्होंने इस गीत का अंग्रेजी में अनुवाद करने कहा। दिल ढूँढता है फिर वही फुरसत के रात दिन, यह लंदन में बसे एक भारतीय ने यू-ट्‌यूब में लोड किया। उसने अपनी तीन पीढ़ियों का प्रदर्शन इस गीत के माध्यम से किया। पाँच मिनट के गीत के बीच के दृश्यों में तीन पीढ़ी सिमट आई। ये पीढ़ियाँ एक दूसरे से बिल्कुल अलहदा जान पड़ती है। शायद ही इस देश में इससे पहले की पीढ़ियों में तीन पीढ़ियों में इतना बदलाव देखा गया हो। इस गीत पर टिप्पणी करते हुए यूके में ही बसे एक भारतीय ने लिखा कि फुरसत के वो रात-दिन इतने कीमती थे कि उसके मुकाबले यहाँ की भौतिक सुविधाएँ काफी तुच्छ लगती हैं। मासूम के गाने तुझसे नाराज नहीं जिंदगी पर आने वाली टिप्पणियाँ भी काफी दिलचस्प हैं। लंदन में बसे एक भारतीय ने इस पर टिप्पणी की, मेरा बेटा अठारह साल का था, वह हमें छोड़कर इस दुनिया से चला गया। वह इतना ही मासूम और प्यारा बच्चा था जितना मासूम का जुगल हंसराज। मैं हर दिन इस गाने को सुनता हूँ और इसे सुनते हुए अपने बेटे को याद करता हूँ। इस टिप्पणी के अरसे बाद एक युवा लड़के ने टिप्पणी की। मैंने अपने पिता को पाँच साल की उम्र में खो दिया था, उनकी तलाश में मैं बार-बार इस गाने तक पहुँचता हूँ। आप मुझे अपने बेटे जैसा माने तो मुझे बेहद खुशी होगी। मासूम में काम करने वाले दो बच्चों जुगल हंसराज और ऊर्मिला मांतोडकर का क्या हुआ, यह सबको मालूम है लेकिन तीसरी बच्ची आराधना जिसने अपनी तोतली जबान से दर्शकों पर अलग प्रभाव छोड़ा था, कहाँ चली गई, कम ही लोगों को मालूम होगा। यू-ट्‌यूब में जब किसी ने इस संबंध में दिलचस्पी दिखाई तो उनकी जिज्ञासा तुरंत ही किसी ने पूरी कर दी। उसने बताया कि आराधना अब एक स्कूल टीचर है और उनकी दो बेटियाँ है।  केवल भारतीय ही नहीं, भारतीय गानों पर यूरोपियन लोगों ने भी टिप्पणी की है। मसलन रोमानिया के एक नागरिक ने तीसरी कसम के गाने लाली लाली डोरियाँ में लाली रे दुल्हनियाँ पर टिप्पणी लिखी।  उसने लिखा कि इस धुन ने उसे बहुत आकर्षित किया और प्रयत्न कर इसका अर्थ जानने की कोशिश की। उसने बताया कि यह कहानी एक वेश्या और एक गाड़ीवान पर आधारित है। वेश्या गाड़ीवान से प्यार करने लगती है और घर बसाने का सपना देखने लगती है। बच्चे उसे दुल्हन समझ लेते हैं और नई दुल्हन का स्वागत करने यह गीत गाते हैं। इसके बाद किसी भारतीय ने टिप्पणी की, दरअसल वो वेश्या नहीं थी, एक नाचने वाली थी। वो जो नाटक मंडलियों में नाचकर लोगों का मनोरंजन करती है। ऐसा ही एक गीत १९५३ में आई फिल्म सुजाता का जलते हैं जिसके लिए, शिरीष मेहता ने टिप्पणी की है मैं उस दिन को कभी नहीं भूल सकता, जब मैं मुंबई के एक रेस्टारेंट में था जो युवाओं से भरा हुआ था। जब किसी ने रिकार्ड में ये गीत चलाया तो पूरी महफिल में पिन ड्राप साइलेंस हो गया। हर गाना अपने साथ कई किस्से समेटे रहता है और कुछ गाने ऐसे होते हैं जिन्हें हम सुनकर एक खास समय में पहुँच जाते हैं। घरौंदा फिल्म के गाने दो दीवाने शहर में पर किसी ने टिप्पणी की है कि यह गाना मुझे उन दिनों की याद कराता है जब मैं और मेरा भाई मुंबई की गलियों में छत की तलाश में भटका करते थे और यह गाना गुनगुनाया करते थे।
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 ज्योति कलश छलके पर टिप्पणी करते हुए किसी ने लिखा है कि अगर किसी को पूरी भारतीय संस्कृति किसी एक गीत में सुननी और समझनी हो तो वे इसे सुने और देखे। प्रेमी अपने सबसे मधुर पलों को याद करते हैं मसलन फिल्म जीवा के गाने रोज-रोज आँखों तले पर किसी ने टिप्पणी की है। मुझे यह गीत अपने बड़ौदा के दिनों की याद दिलाता है जब मैं अपने प्रेमिका के साथ शाम को घंटों बतियाता था। इन टिप्पणियों को सराहे जाने अथवा नापसंद किये जाने की भी पूरी गुंजाइश यूट्‌यूब में है। अधिकतर तीखी टिप्पणियाँ उन लोगों पर की जाती है जो गाने को नापसंद करते हैं। मसलन क्लासिक दौर के एक प्रशंसक ने बड़े अच्छे लगते हैं गीत को नापसंद किए जाने वालों को शीला और मुन्नी के बच्चे कहा है। नये गानों पर टिप्पणी भी कम दिलचस्प नहीं है। मसलन शीला की जवानी से प्रभावित एक श्रोता ने टिप्पणी की। अगर शीला पहले जवान हो गई होती तो मुन्नी उतनी बदनाम नहीं होती।

Saturday, December 22, 2012

भगवान तुमने देर क्यों कर दी?..........




क्रिकेट के भगवान ने खेल को अलविदा कर दिया। सोचा था कि जब भगवान विदा होंगे तो वो घड़ी विलक्षण होगी। लोगों के लिए उनकी तारीफ में पुल बाँधने के लिए शब्द कम होंगे लेकिन अफसोस भगवान ने बहुत देर कर दी।
                                           जैसे परिवार में होता है एक उम्र आती है जब परिवार के सदस्य सबसे उम्रदराज सदस्य की मौत की प्रतीक्षा करने लगते हैं वो मर क्यों नहीं जाता। उसे शर्म क्यों नहीं आती, आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण हुए बगैर भी वो जिये क्यों जा रहा है। भगवान के बल्ले से जब तक रन निकलते रहे, आलोचक चुप रहे।
        जब बल्ला बंद हो गया तो मुँह खुल गए। दुख इस बात का नहीं कि उन्हें संन्यास के लिए कहा गया। दुख इस बात का रहा कि आलोचकों ने अपशब्दों का प्रयोग किया। कीर्ति आजाद ने कहा कि सचिन ने देश पर उपकार किया।
                                                 फिर भी मैं कीर्ति को दोष नहीं दूँगा, दोष तो सचिन का है। वे रनों के पहाड़ पर खड़े थे लेकिन उन्हें यह भी कम लग रहा था। वे कीर्तिमानों का शतक लगा चुके थे लेकिन फिर भी उन्हें प्रसिद्धी की भूख बच गई थी। वे ऐसे समय में भी क्रिकेट खेलना चाहते थे जब उनकी तकनीक चूक गई थी।
     उन्होंने थोड़ी उपलब्धियाँ प्राप्त करने के लिए जीवन भर की उपलब्धियों पर पानी फेर दिया। शायद वे हमेशा की तरह इस इंतजार में रहे कि एक बार फिर बल्ले का जादू उनके विरोधियों को चुप कर दे लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ।
                                                     मुझे सार्वजनिक जीवन में सचिन का कोई योगदान नजर नहीं आता। भगवान का सरोकार केवल क्रिकेट में नहीं दिखता, वो हर जगह दिखता है। जब देश लोकपाल की आग में जल रहा था, सचिन ने अपनी राय नहीं रखी। सचिन अंबानी की तरह अट्टालिका बनवाते रहे। उन्होंने करोड़ों रुपए कमाए लेकिन शायद ही फूटी कौड़ी देश के लिए लगाई।
                                                   फिर भी तुममें लाख बुराइयाँ सहीं, लाख लालच ही सही, जब तुम बल्ला पकड़ते हो तो तुममे भगवान दिखने लगता है और आखिर भगवान को भी तो अपना भेष छोड़ना पड़ता है तो हम कह सकते हैं कि क्रिकेट के भगवान ने विदा लेने के लिए एक लीला रची और लोग समझते रहे कि सचिन का बल्ला अब चूक गया है।                                                   

Friday, December 21, 2012

उर्दू और हिंदी की राहें जुदा क्यों हुईं?

कल शाम मेरे शहर में मजाज (नुक्ते के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ) की शायरी में इंकलाबी रंग पर एक व्याख्यान आकाशवाणी द्वारा आयोजित किया गया। मजाज के बारे में थोड़ा सा परिचय इस्मत चुगताई को पढ़कर हुआ था। उनके बारे में ज्यादा जानने की दिलचस्पी थी, यूँ भी उर्दू बहुत भाती है क्योंकि थोड़ी सी दूरी न जाने क्यों हिंदीभाषियों की उर्दू साहित्य से हो गई है।
                                                                मुझे आश्चर्य होता है कि हमने स्कूल में गालिब को नहीं पढ़ा, मीर को तो उन दिनों हम जानते भी नहीं थे। हमारे स्कूली दिनों में दूरदर्शन में एक प्रोग्राम आता था उसमें दो ग्रुप बने होते थे, एक ओर मीर वाले, दूसरी ओर गालिब वाले। मेरी कमजोर बुद्धि में तो मुझे यही लगता था कि कहाँ गालिब वालों से टक्कर मीर वाले ले पाएंगे। रेख्ते के तुम ही उस्ताद नहीं हो गालिब, कहते हैं अगले जमाने में कोई मीर भी था। बहुत बाद में जब गालिब का यह शेर सुना तब लगा कि मीर सचमुच महान हस्ती रहे होंगे।
                                                                            उर्दू के नाम पर नजीर अकबराबादी को ही पढ़ा था, उनकी कविता रोटी मुझे ही नहीं, उन छात्रों को भी पसंद थी जो हिंदी की पढ़ाई में रुचि नहीं लेते थे। लंच में हम गाया करते, जब आदमी के पेट में जाती हैं रोटियाँ बदन में फूली नहीं समाती हैं रोटियाँ। सचमुच नजीर ऐसे शायर थे जिन्होंने बिना किसी प्रगतिशील आंदोलन से प्रभावित हुए आम जनता के हालात पर नज्म लिखी और इतने लोकप्रिय हुए।
                         व्याख्यान जैसे-जैसे आगे बढ़ा, मुझे दुख हुआ कि क्यों हिंदी साहित्य और उर्दू साहित्य की राहें जुदा हो गईं। वे बताते रहे कि फैज बड़े तरक्की पसंद थे, उनसे कोई विवाद नहीं जुड़ा। जैसे हिंदी में निराला के किस्से भाते हैं वैसे ही उर्दू के दिलचस्प किस्से हैं लेकिन हमें नहीं मालूम। हम फैज को जानना चाहते हैं फिराक को पढ़ना चाहते हैं लेकिन लगता है कि बहुत देर हो चुकी है। जैसे हिंदी में कठिन शब्दों के प्रयोग को इतना हतोत्साहित किया गया कि अब तत्सम हिंदी साहित्य में दुर्लभ है वैसे ही उर्दू के बहुत से कशिश से भरे शब्द अब सुनाई नहीं देते। जैसे प्रसाद हमें समझ नहीं आएंगे, वैसे ही फैज भी नहीं।
                                                                                                                    
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मजाज से जुड़े दो दिलचस्प वाकये
पहला वाकया जांनिसार अख्तर से जुड़ा है। उनकी पत्नी सफिया मजाज की बहन थी। मजाज बहुत ज्यादा शराब पीते थे लेकिन सफिया की बड़ी इज्जत करते थे और उसके सामने कभी शराब नहीं पी की। एक दिन जब मजाज ग्वालियर आए और जांनिसार के पास रूके और खूब शराब पी। पीकर भावुक हुए और जांनिसार को कहा कि सफिया को बुलाओ। सफिया ने कहा कि जब वो होश में आएगा तो उसे दुख होगा कि वो मेरे साथ ऐसी हालत में पेश आया। जांनिसार ने जाकर मजाज को बताया। मजाज खूब रोने लगे, सफिया भी अंदर खूब रोईं।
दूसरा वाकया जावेद अख्तर ने एक बार एक प्रोग्राम में  सुनाया था। साहिर और मजाज एक बार मुंबई पहुँचे फिल्मों में गीत लिखने के वास्ते एक प्रोड्यूसर से मिले। प्रोड्यूसर ने एक थीम बताई। इन्होंने रात भर जागकर गीत तैयार किया। सुबह प्रोड्यूसर को दिखाया। प्रोड्यूसर के चेहरे पर खास खुशी नहीं दिखाई दी। मजाज बड़े दुखी हुए। उन्होंने साहिर से कहा कि मेरे पास एक चीज कलम ही तो है और उस पर ही संदेह हो जाए तो मेरे पास क्या बचेगा? उन्होंने मुंबई को विदा कहा। साहिर की मजबूरी थी, आर्थिक तंगी की वजह से उन्हें अपनी पहचान बनाने तक प्रोड्यूसर्स के नखरे सहने ही थे। जब साहिर मजाज को छोड़ने स्टेशन तक आए तो उन्होंने कहा कि मजाज भाई जब अगली बार आप आएंगे तो अपनी मोटर से आपको पिकअप करूँगा। साहिल का यह सपना पूरा नहीं हुआ, उनकी मोटर तो जल्दी आ गई लेकिन मजाज दुनिया में नहीं रहे।

Monday, December 17, 2012

मोदी और ओबामा

बराक ओबामा अभी हाल ही में प्रेसीडेंट चुने गए हैं और मोदी भारत के प्रधानमंत्री बनने की राह पर हैं। गुजरात में मिलने वाली बड़ी जीत उनकी ताजपोशी का रास्ता प्रशस्त करेगी।
                                                                                                          दुनिया के दो महान लोकतंत्रों में हर मायने में तुलना दिलचस्प है और लीडरशिप की तुलना भी होनी चाहिए। हमारे अखबार मोदी के नेतृत्व के कशीदे गढ़ रहे हैं। अमेरिकी अखबार भी उनके नेतृत्व के कायल हैं इस बार वे जरूर चाहेंगे कि लीडरशिप अंडरएचीवर नहीं हो। ओबामा भले ही कठिन समय में अमेरिका का नेतृत्व दोबारा प्राप्त करने में सफल हो गए हों लेकिन अर्थव्यवस्था और विदेश नीति के फ्रंट पर उन्हें बड़ी सफलताएं नहीं मिलीं। मोदी ने जिस तरह गुजरात को दिशा दी है उससे लगता है कि अर्थव्यवस्था के रिवाइवल में वे सफल होंगे।
                                                                                                                                  फिर भी बड़ा सवाल यह उठता है कि क्या विकास की दो अंकीय दर मात्र  से हमारा जीवन खुशहाल हो जाएगा। क्या मात्र कठोर लीडरशिप से हमारी सारी समस्याएं छूमंतर हो जाएंगी।
                                                                                        जिस दिन अखबार मोदी के कशीदे गढ़ने वाले लेख लिख रहे थे, एक छोटा समाचार भी साथ ही दिख रहा था। अमेरिका के राष्ट्रपति ने कनेक्टिकट स्कूल के बच्चों के परिवारजनों एवं राष्ट को एक भावुक संबोधन दिया। उन्होंने कहा कि जो बच्चे इस दुखद घटना का शिकार हो गए, उन्हें अभी पूरी दुनिया देखनी थी, जन्मदिन मनाना था, ग्रेज्युएशन करनी थी, शादी करनी थी और उनके अपने बच्चे भी इस सुंदर धरती को देखते।
                                                                            ओबामा की भावुकता घड़ियाली नहीं थी, ये लीडरशिप होती है अपने लोगों के साथ जुड़ने का भाव। इसके ठीक बाद मैंने गुजरात दंगों के बाद अटल जी की प्रसिद्ध राजधर्म वाली प्रेस कांफ्रेंस देखी। कांफ्रेंस में मोदी भी बैठे थे। गुजरात दंगों का सच जानने के लिए किसी आयोग के गठन की जरूरत नहीं। उस दिन मोदी के चेहरे पर गुजरात दंगों का सच नजर आ रहा था।
                                                                                                                                      प्रगति का एक रास्ता भावशून्यता का रास्ता भी होता है जिसे कभी हिटलर और माओ ने अपनाया और सफल भी हुए। अगर भारत को इसी तरह की तरक्की चाहिए तो उसे आँखें बंद कर सीधे गुजरात का रास्ता पकड़ना होगा, नहीं तो उसे इंतजार करना होगा कि एक ओबामा आए.......... एक दशक पहले अटल जी ने यह भूमिका निभाई थी,  देश के करोड़ों नागरिकों को अब फिर ऐसे नायक का इंतजार है जो कह सके कि राजा को राजधर्म का पालन करना चाहिए जो ओबामा की तरह कह सके कि मैं एक प्रेसिडेंट की हैसियत से नहीं, यह बात एक पालक के नजरिये से कह रहा हूँ।

Saturday, December 15, 2012

साहिर के दो गीत....

साहिर के लिखे हुए दो गीत इन दिनों मैं यूट्यूब पर सुनता हूँ।   पहला गाना फिल्म दीदी का है इसे मुकेश और सुधा मल्होत्रा ने गाया है। तुम मुझे भूल भी जाओ तो ये हक है तुमको, मेरी बात और है मैंने तो मोहब्बत की है...... इससे मिलता-जुलता दूसरा गाना तुम मुझे चाहो, न चाहो तो कोई बात नहीं, तुम किसी गैर को चाहोगी तो मुश्किल होगी है। इसे भी मुकेश ने गाया है।
                                                                          तुम मुझे भूल भी जाओ, क्यों अच्छा लगता है? यह गाना हमें ६० के दशक में ले जाता है इसे हिंदी सिनेमा में क्लासिकल प्रेम का दौर कहा जाता है। प्रेमिका की मासूम सोच उसकी जज्बातों में व्यक्त हुई है। ऐसे समय में जब राजनीतिक विचारधाराओं ने प्रेम जैसी नाजुक अभिव्यक्ति को किनारे कर दिया था, एक लड़की जो दुनिया से अपरिचित अपनी छोटी सी दुनिया में खोई है उसके जज्बात को व्यक्त करती हैं। प्रेमी के जज्बात हैं लेकिन वो ये भी देखता है कि उसके चारों और जब गर्दिश छाई हों, लाखों लोग जब दुख भोग रहे हों, वो केवल अपनी मुक्ति कैसे चाह सकता है?



तुम मुझे भूल भी जाओ तो ये हक़ है तुमको ,
मेरी बात और है मैंने तो मोहब्बत की है,

मेरे दिल की मेरे जज़बात की क़ीमत क्या है
उलझे-उलझे से ख़्यालात की क़ीमत क्या है
मैंने क्यूं प्यार किया तुमने न क्यूं प्यार किया
इन परेशान सवालात की क़ीमत क्या है
तुम जो ये भी न बताओ तो ये हक़ है तुमको
मेरी बात और है मैंने तो मुहब्बत की है

ज़िन्दगी सिर्फ़ मुहब्बत नहीं कुछ और भी है
ज़ुल्फ़-ओ-रुख़सार की जन्नत नहीं कुछ और भी है
भूख और प्यास की मारी हुई इस दुनिया में
इश्क़ ही एक हक़ीकत नहीं कुछ और भी है
तुम अगर आँख चुराओ तो ये हक़ है तुमको
मैंने तुमसे ही नहीं सबसे मुहब्बत की है

तुमको दुनिया के ग़म-ओ-दर्द से फ़ुरसत ना सही
सबसे उलफ़त सही मुझसे ही मुहब्बत ना सही
मैं तुम्हारी हूँ यही मेरे लिये क्या कम है
तुम मेरे होके रहो ये मेरी क़िस्मत ना सही
और भी दिल को जलाओ तो ये हक़ है तुमको
मेरी बात और है मैंने तो मुहब्बत की है।

       दूसरे गाने में प्रेमी को यह शिकायत नहीं कि प्रेमिका उससे इजहार नहीं कर रही। उसे शिकायत तब होगी, जब वो गैर को चाहेगी, यहाँ गैर शब्द और दुश्मन शब्द काबिल-ए-गौर है। जब प्रेमिका इस बुरी कदर दिल तोड़े कि गैर की बाँहों में नजर आए तो पीड़ा तो होगी
                                                                         इस गाने में एक अंतरा गौरतलब है। फूल की तरह हंसों, सबकी निगाहों में रहो, अपनी मासूम जवानी की पनाहों में रहो। फूल की खुशबू किसी खास के लिए नहीं होती, खुशबू सब ओर बिखरी रहती है लेकिन जब फूल किसी खास व्यक्ति के कोट में चढ़ जाता है तो उसकी खुशबू खत्म हो जाती है वो आम हो जाता है।  इस गाने में जान डाली है जमीला बानो ने अर्थात नूतन ने, वो इतनी टेलेंटेड अभिनेत्री थी कि उन्हें अपनी बात कहने के लिए जबान की जरूरत नहीं थी, वो आँखों में बोलती थीं। नायिका भेद के अध्येताओं को वो सारे लक्षण केवल इसी अभिनेत्री में मिल जाएंगे। सबसे खास बात है उनमें दुनिया के प्रति उत्सुक दृष्टि। सब मिलकर इस गाने के आसपास मायाजाल सा निर्मित कर देते हैं।
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कहते हैं कि साहिर, लता एवं एसडी बर्मन से एक रूपए अधिक मेहनताना लेते थे, साहिर को यह भान था कि वे जो काम कर रहे हैं वो साहिर के मान के लिए नहीं है वो गीतकार के मान के लिए है , धुन बनाना एवं उसे गाना बेहद महत्वपूर्ण है लेकिन जब तक गहरे भाव नहीं होंगे, उनमें जान नहीं आएगी। धुन एवं गायन मूर्ति की तरह हैं लेकिन उसकी प्राणप्रतिष्ठा तभी होती है  जब गीतकार उसमें अपने भाव डाल देता है। साहिर ने दीदी का गाना सुधा मल्होत्रा से गवाया।  यह गाना किसी भी दृष्टि से किसी महान गायिका  से कम नहीं है।



                     

Wednesday, December 12, 2012

कोई अच्छा सा नाम....

इन दिनों मैं पितृत्व सुख का शिद्दत से आनंद ले रहा हूँ लेकिन इस सुख के साथ कई दायित्व भी मुझ पर आ गए हैं। लोग मुझे अभी से बिटिया की शादी को लेकर चिंतित कर रहे हैं लेकिन मुझे मालूम है कि इसमें तो अभी कई साल लगेंगे। तात्कालिक समस्या तो नाम को लेकर है। बिटिया का क्या नाम रखूँ?  नामकरण की समस्या इतिहास की बड़ी समस्याओं में से रही है। शेक्सपीयर ने अपनी एक कहानी का नाम रख दिया था जो तुम चाहो। अब मैं अभिषेक बच्चन की तरह भाग्यशाली तो नहीं हूँ कि मुझे नामों के ढेरों प्रस्ताव मिल जाएँ और मैं इनमें से एक आराध्या रख दूँ?
बेटा हुआ तो अचिंत्य
 मुझे आंधी फिल्म का एक दृश्य बहुत पसंद हैं। संजीव कुमार और सुचित्रा सेन बातें कर रहे हैं। संजीव कुमार कह रहे हैं कि एक बेटा हो जाने दो फिर देखता हूँ तुम्हें। फिर उनमें बच्चे के नामकरण को लेकर दिलचस्प बातें होती हैं और अंततः वे नाम तय करते हैं मनो। चूँकि यह मेरी मम्मी का नाम भी है इसलिए हो सकता है यह दृश्य मुझे अधिक प्रिय हो। हम लोगों ने भी बिटिया के जन्म के पूर्व इस तरह की सुखद बातें की थीं। मैंने सोचा था कि बेटा होगा तो उसका नाम रखूँगा अचिंत्य, क्योंकि वो शिव जी की आशीर्वाद से होगा, बिटिया होगी तो चित्राक्षी, जो मैना की तरह सुंदर आंखों वाली होगी और अपनी प्रिय बातों से हमें आनंदित करेगी। निधि ने जो नाम सोचे थे वो लड़का होने पर अमय और लड़की होने पर समिधा, अनुष्का।
सुंदर आँखों वाली चित्राक्षी
१७ अक्टूबर को जब छोटी गुड़िया हमारे जीवन में आ गई तब मैंने अनुभव को बताया कि मैं इसका नाम चित्राक्षी रख सकता हूँ तो वो काफी खुश हुआ क्योंकि उसे चिड़ियों से बहुत प्रेम है। फिर मैंने जब यह नाम सार्वजनिक किया तो लोगों का काफी विरोध हुआ। सबने कहा कि ये नाम बहुत कठिन है बच्ची इसे ले भी नहीं पाएगी।
मेघावती सुकर्णोपुत्री
मुझे एक स्पेशल सा अद्वितीय सा नाम चाहिए था। मैंने अपने उन दोस्तों से पूछा जिन्होंने हाल ही में संतान रत्न प्राप्त किया था। इनमें से एक नीटु ने अपने पुत्र का नाम लक्ष्य रखा। मैंने उसे कहा कि यह थोड़ा सा कॉमन नहीं लगा। उसने रोचक जवाब दिया कि भैया भारत की आबादी एक अरब हो चुकी है अब स्पेशल नाम कहाँ से मिलेगा। मुझे वैसा ही नाम चाहिए था जैसा मेघावती सुकर्णोपुत्री। सुकर्णो जब भारत आए थे तो उन्हें पुत्री रत्न प्राप्त होने की सूचना मिली, वे नामकरण की समस्या में फंसे, नेहरू ने कहा कि ये आषाढ़ के दिन आई है जब मेघ घिरे हैं तो इसका नाम मेघावती होना चाहिए।
श्रुतकीर्ति का विकल्प भी
मैंने दीपक से राय ली, दीपक ने एक नया नाम सुझाया, निसर्ग। मैं अक्सर लोगों से कहता हूँ कि मैं इसकी नोटशीट बनाकर निधि के पास प्रस्तुत करूँगा। मेरे दिमाग में दो नाम और हैं स्वस्ति और श्रुतकीर्ति। स्वस्ति का अर्थ होता है मंगलमय(जैसा मैंने पढ़ा है) और श्रुतकीर्ति शत्रुघ्न की पत्नी। आगे जो भी विचार आएगा, वो रख दिया जाएगा लेकिन विडंबना यह है कि जिसका नाम रखा जाना है उसे ही इस प्रक्रिया से दूर रखा जाता है।

Tuesday, December 11, 2012

खुशवंत को लिखते देखना अच्छा लगता है

सोचिए कि अगर आपका प्रिय लेखक लिखना बंद कर दे तो आपके लिए यह किस तरह का अनुभव होगा। पिछले एक महीने से खुशवंत सिंह के कॉलम न देखकर मेरे मन में उनकी तबियत के प्रति अज्ञात आशंकाएं होने लगी थीं लेकिन खुशवंत सचिन की तरह ही हैं जब भी आलोचक प्रश्न खड़े करते हैं वो अपनी उपस्थिति दिखा देते हैं। आज खुशवंत सिंह के तीन कॉलम हिंदुस्तान टाइम्स में पढ़े।
                                                                                                                 मैं ईश्वर से दुआ करूँगा कि खुशवंत हमेशा स्वस्थ रहें, उन्हें मौत भी नींद के झोंके में आए और अंत तक वे जोक के मूड में रहें। उनकी एक महिला प्रशंसक ने एक सूफी संत का धागा उन्हें दिया भी है जो उन्हें हमेशा स्वस्थ रखेगा।  वैसे उनका लेखन इतना व्यापक है कि वे हर दिन हमें याद आते रहेंगे।  परसों यहाँ की एक बुकशॉप में जाना हुआ था वहाँ मुझे यह सुखद आश्चर्य हुआ कि खुशवंत की अनेक पुस्तकों का हिंदी अनुवाद मौजूद हैं। खुशवंत के अलावा कोई भी ऐसा अंग्रेजी लेखक नहीं था जिसकी पुस्तकों का अनुवाद उनके यहाँ हो।
                                                                                                               खुशवंत का लेखन भारत के अभिजात्य तबके के बुद्धिजीवियों का इतिहास है। औपनिवेशिक दौर के अप्रवासियों से लेकर एनआरआई भारतीयों के अनुभव से उनके लेखन का गुलदस्ता सजा है। उनकी शाम की पार्टियाँ बेहद आकर्षक रहती होंगी, अपनी वाइन को लेकर नहीं, उस बौद्धिकता को लेकर जो इन महफिलों में अपने शबाब पर होती है। 
                                                                                                                                                   कोई मुझसे पूछे कि कामयाबी क्या है तो मैं ये कहूँगा कि किसी ने आपसे मीटिंग तय की है किसी डील के लिए नहीं, किसी सिफारिश के लिए नहीं, सौजन्य के लिए नहीं अपितु आपके सानिध्य का आनंद लेने के लिए। खुशवंत ऐसे ही हैं ऐसे बुजुर्ग जिनके साथ के लिए यौवन के पहली पायदान चढ़ने वाले युवा भी तरसते हैं।
                                                                                                                                                 मैं खुशवंत की तरह नहीं हूँ मैं स्ट्रेट फारवर्ड नहीं हूँ। लोगों से जल्दी घुलता-मिलता नहीं फिर भी वो मेरे प्रिय पत्रकार हैं। मुझे उनकी आध्यात्मिक रुचि बहुत पसंद है। वे धर्म की व्याख्या कठिन शब्दों में नहीं करते बल्कि सूफी रूहानियत में करते हैं।
                                    नेताओं को बिंदास गाली और व्यंग्य भी खुशवंत की खास विशेषता है जो उन्हें सबसे खास बनाती है। उनकी पत्रकारिता का जलवा इसी बात से पता चलता है कि जब उन्होंने मदनलाल खुराना पर अपने कालम में लिखा तो खुराना गदगद हो गए और पूरी मीडिया के सामने इसे भावुक स्वर में बताया।
                                                                                                                                            खुशवंत लिख रहे हैं ये हमारी खुशफहमी है भगवान करे, वे शतायु हों, वाहेगुरु उनके स्वास्थ्य की रक्षा करें।
        

Monday, December 10, 2012

स्कूल में पढ़ी हुई कहानियाँ

स्कूल में भेजने की क्या उम्र होनी चाहिए, मैं इस मामले में कुछ कहना नहीं चाहता लेकिन यह जरूर जानता हूँ कि कुछ विलक्षण बच्चों को छोड़कर अधिकांश बच्चों के दिमाग में शुरुआती सालों में कुछ भी नहीं घुसता। फिर भी जो चीज दिमाग में नहीं जाती, दिल में नहीं जाती वो भी गुत्थी की तरह स्मृति में जमा हो जाती है। मसलन क्लास १ में पढ़ी हुई प्यासा कौआ की कहानी, मेरी मम्मी बार-बार प्यासे कौवे की सूझबूझ का दृष्टांत देती लेकिन मुझे समझ में नहीं आता, बस इतना ही समझ में आता कि उसने पानी पीने में सफलता हासिल कर ली। जबकि मैं तो भावुक हो जाता था कि प्यासा कौआ किस प्रकार पानी प्राप्त करेगा। शिकारी के जाल में फंसे शेर को चूहे द्वारा निकाला जाना भी मुझे खास नहीं भाया, मन में ऐसा लगा कि हो सकता है यह इत्तफाक हो। फिर भी इन कहानियों में एक विलक्षण सी चीज होती थी इनके चित्र। मसलन प्यासा कौआ वाली कहानी का चित्र मुझे आज तक याद है शेर वाला भी
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अरसे बाद जब हड़प्पा सभ्यता में लोथल से मिली पुरातात्विक सामग्रियों के बारे में पढ़ा तो एक ऐसे बर्तन के बारे में पढ़ा जिसमें यह कथा अंकित थीं। यह चकित करने वाला अनुभव था, हर बार पीढ़ी-दर-पीढ़ी माताएँ अपने बच्चों तक इस कथा का श्रवण करती गईं। पंचतंत्र के संग्रहक ने ऐसी बहुत सी कहानियाँ सुनी होंगी और स्टोरी टेलिंग के अपने खास अंदाज में इन्हें परोसते चले गए होंगे।
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बचपन में सबसे खास कहानी जो पढ़ी थी वो थी हरपाल सिंह नामक एक युवक की कहानी जिसे एक बूढ़े ने पाँच सलाह दी थी। मुझे दो सलाह अब तक याद है पहली जहाँ कहीं भी ज्ञान की बात सुनने मिलें, वहाँ रुक जाओ तथा कभी ऐसी बात न कहो जिससे किसी का दिल दुखे। दूसरी सलाह बडे़ काम की थी, हरपाल सिंह को राजा के काफिले में शामिल कर लिया गया था, चारों ओर रेगिस्तान था, अंततः एक बावली आई। इस बावली में एक युवती थी जो अपने पति की हड्डी बन चुकी लाश को लिए हुए खड़ी थी। जो भी पानी लेने आता उसे पूछती कि यह दिखने में कैसा है लोग हँस देते और वो उन्हें पानी पीने से रोक देती। राजा के कारिंदे पानी लाने में विफल हो गए। अंततः हरपाल सिंह पहुँचा, उसने कहा कि ये तो बहुत सुंदर है। युवती खुश हो गई और उसने हरपाल सिंह को पानी ले जाने की इजाजत दे दी
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यह कहानियाँ उस समय समझ नहीं आई थीं लेकिन ये जेहन में कैद हो गई थी। मैंने कभी बावड़ी नहीं देखी थी। उस चित्र में बावड़ी को देखना अच्छा लगा। अरसे बाद एक भक्त के प्रश्न के उत्तर में रविशंकर महाराज से कहते हुए सुना कि जब हम बच्चे को बताते हैं कि भगवान ऊपर रहता है तो वो न तो इंकार करता है और न ही स्वीकार करता है वो अपने मन में रख लेता है। इन कहानियों को भी हम लोगों ने अपने मन में बसा लिया।
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हरपाल सिंह की कहानी का मेरे जीवन में विशेष महत्व है। मेरे एक दोस्त को मैंने यह पुरानी कहानी सुनाई, उसे भी याद थी और उससे वादा लिया कि हमेशा बूढ़े की पाँच बातें अपने जीवन में अमल करेगा। अब तक वो हरपाल सिंह की राह पर चल रहा है भगवान करें आगे भी वो इसी राह पर चलता रहे।

Sunday, December 9, 2012

चील की तरह व्याकुल हूँ फलदार पेड़ सा स्थिर होना चाहता हूँ

स्पार्टा में जब बच्चे करियर के चयन की दिशा में आगे बढ़ते हैं तो उनकी रुचि जानने के लिए एक परीक्षा ली जाती है। परीक्षा के नतीजों के आधार पर तय किया जाता है कि उसे किस दिशा में जाना है। कुछ सालों पहले इंडिया टूडे ने अपने पाठकों के लिए भी ऐसी ही परीक्षा ली थी, यह मुझे बड़ी रुचिकर लगी थी। इसमें अनेक प्रश्न थे लेकिन एक प्रश्न मुझे बड़ा रोचक लगा।
                                                                   इसमें दो विकल्प दिए गए थे आप किसे चुनेंगे। पहला एक पहाड़ी इलाके में चील के रूप में या दूसरा एक बगीचे में फलदार पेड़ की तरह। शायद इससे तय होता कि आप जीवन में एडवेंचरस कार्य करना चाहते हैं या लोकोपकारी कार्य। आपको गतिशीलता चाहिए या स्थिरता। मुझे चील की गतिशीलता तो पसंद थी लेकिन उसकी गतिशीलता किसी के लिए उपयोगी नहीं थी। मैं तो फलदार पेड़ होना चाहता था। अफसोस ऐसा हो न सका..... और अब दिल में एक बेचैनी रहती है।
                                                                                                                               मैं आजकल ज्योतिष में रुचि ले रहा हूँ। कल मेष राशि के जातकों का स्वभाव पढ़ते समय अचानक एक जगह ठिठक गया। इन जातकों में एक अजीब बेचैनी होती है उनमें संयम का अभाव है। मानों कुछ कर गुजरने के सिवा कोई चारा न हो। चूँकि मैं भी इस जातक का हूँ अतएव यह बेचैनी मुझमें भी है। फलदार पेड़ न हो पाने की बेचैनी।
                                                                                                                                                     एकबारगी ऐसा लगता है कि चील का काम बड़ा कठिन है सबसे जुदा होकर मीलों आकाश में विचरना लेकिन सार्वजनिक जीवन में फलदार पेड़ की नियति भी सब को मालूम है। सबके हाथों में पत्थर होते हैं और आप निहत्थे। इसके लिए बड़े करेज की जरूरत है यह मुझमें नहीं।
                                                                                                मैं लोगों के लिए अच्छा करना चाहता हूँ अपने जीवन की सार्थकता चाहता हूँ लेकिन अफसोस ईश्वर ने मुझे एक अजीब बेचैनी दी है। मैं चील की तरह व्याकुल हूँ लेकिन फिर भी पेड़ की तरह स्थिरता चाहता हूँ।  अब मुझे लगता है कि स्पार्टा वालों को तीसरा विकल्प भी देना चाहिए था कि अगर आपमें चील की तरह बेचैनी और पेड़ की तरह लोकोपकार की आकांक्षा है तो आप क्या करें? शायद इससे मेरे दिल को कुछ करार मिल पाता..............  





Saturday, December 8, 2012

अमर चित्र कथा

आपके बचपन को कितनी सारी चीजें नया शेप देती हैं आप उस समय जान भी नहीं पाते। मेरे बचपन की खास बात महाभारत में मेरी रुचि रही है। जब मैं क्लास २ में था तो पापा ने मेरे लिए अमृतलाल नागर की लिखी हुई महाभारत की एक पुस्तक दी थी। इस पुस्तक को पढ़ने के बाद मैं महाभारत युग से अपना जुड़ाव महसूस करता था। मुझे कुछ चीजें खली भी, मसलन कृष्ण की अचानक एन्ट्री। इस बात से सहज होने में काफी टाइम लगा कि कृष्ण की एन्ट्री महाभारत में जानबूझकर नहीं की गई थी।
                                                                                                         मैं चकित था, फिर भी चाहता था कि कुछ ऐतिहासिक तथ्य मिलें जिससे यह जस्टिफाई हो सके कि महाभारत की लड़ाई हुई थी। उस समय सबसे पापुलर पेपर नवभारत था और हम धमतरी में रहते थे। अचानक फ्रंट पेज में छह कालम में एक खबर छपी, कृष्ण की द्वारिका पुरातात्विक खोज में समुद्र के भीतर मिली।
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महाभारत मुझे हमेशा यह एहसास दिलाता रहा कि केवल वर्तमान ही सच नहीं है और हम अपने भीतर अतीत को भी लिए चल रहे हैं। यह नशा था। मैंने एक रात सपने में कर्ण को देखा। कवच कुण्डल लिए हुए। मैंने जब सपना घर वालों को बताया तो वे पहले हंसे। फिर वे कुछ गर्व से और कुछ हंसी से, हर परिचित को यह घटना बताते रहते।
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इसी बीच पापा के एक मित्र लाखे अंकल के घऱ से मैंने महाभारत की एक पुस्तक लाई। वो सचित्र थी, उसे सचित्र पढ़ना ऐसा अनुभव था जैसे महाभारत का प्रसारण संजय की तरह लाइव देख रहे हों। यह अमर चित्र कथा थी लेकिन मुझे इस बारे में बाद में पता चला।
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फिर यह पत्रिका भी आनी बंद हो गई, इसका नाम भी विस्मृत हो गया, फिर कहीं पता चला कि अमर चित्र कथा अब फिर आने लगी है। उस दिन रायपुर की एक बड़ी किताब दुकान में इसका बड़ा कलेक्शन दिखा। वहाँ एक सेल्स गर्ल थी, उसे मालूम था कि मैं यूँ ही समय व्यतीत करने के लिए इसे देख रहा हूँ। फिर भी उसने बड़े प्रेम से मुझे अन्य पुस्तकों के बारे में बताया जो अच्छी थीं। मुझे अच्छा लगा कि उस लड़की को भले ही साहित्य की सुंदरता की जानकारी भले न हो लेकिन उसे अच्छा लगता है लोगों की मदद करना और उन चीजों को उपलब्ध कराना जिससे संभवतः वे खुश हो सकते हों।
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मुझे लगता है कि हमारी नई पीढ़ी का जीवन रौशन करने के लिए उन्हें छोटा भीम और डोरीमॉन जैसे केरेक्टरों के अलावा हमें पौराणिक नायकों की गाथाओं का अध्ययन कराना चाहिए और ऐसा साहित्य उपलब्ध कराना चाहिए। अगली बार जब हम किसी बच्चे के बर्थडे में जाएं तो कैडबरी देकर उसके दाँत और आदत खराब करने के बजाय उसे अमर चित्र कथा का सेट दें, यह बच्चे के लिए उपयोगी होगा।  फिलहाल मैं ऐतिहासिक नायक समुद्रगुप्त के बारे में इसी कामिक्स से पढ़ रहा हूँ। इसे पढ़ना काफी दिलचस्प है और हमें समुद्रगुप्त के जीवन के अनेक अनछुए पक्षों के बारे में भी बताता है।

Sunday, December 2, 2012

जो कभी साथ थे......

पुराने दोस्त अक्सर ख्यालों के पन्नों में गुम हो जाते हैं हम पिछले पन्ने पलटते हैं और सुखद यादों में खो जाते हैं। नये जमाने में दोस्तों से कान्टैक्ट काफी आसान हो गया है। आप फेसबुक गए, सर्च किया और आपका दोस्त हाजिर। फिर भी मैं दोस्तों से मिलने के लिए फेसबुक की कृपा से बचना चाहता हूँ। यह नहीं कि उनसे मिलना अच्छा नहीं लगता लेकिन यह कि मैं पिछली स्मृतियों को पवित्र रखना चाहता हूँ। उन्हें अक्षत रखना चाहता हूं ताकि उनका डिवाइन रूप किसी भी तरह से आर्डनरी में न बदल जाए।        

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मैं भाग्यशाली रहा हूँ कि दस बाद भी जब दोस्त मुझसे मिलते हैं तब वो मुझसे ज्यादा खुश होते हैं। हम समय के उस पल में पहुँच जाते हैं हालांकि स्मृतियों में भी काफी कुछ बिखर जाता है। मुझे अखबारों में जब एलुमनी मीटिंग के संबंध में न्यूज मिलती है तो उन्हें मैं जरूर पढ़ता हूँ। दो साल पहले हमारे कालेज में भी ऐसी ही मीटिंग हुई थी, मैंने पार्टिसिपेट नहीं किया था, इसकी बड़ी वजह यही थी कि वो अब बदल गए होंगे क्योंकि स्कूल के ऐसी ही एलुमिनी मीटिंग में मैंने महंगी सिगरेट पीते हुए कुछ दोस्तों को देखा, मुझे बड़ा बुरा लगा क्योंकि जिन्हें स्कूल के बच्चों के रूप में देखा है उन्हें इतनी अभिजात्य और बुरी आदतों के साथ देखना काफी बुरा लगा। वो एलुमिनी मीटिंग मेरे लिए काफी बुरी थी। मैंने स्कूल की एलुमिनी मीटिंग के लिए इस घटना के बाद भविष्य में तौबा कर लिया।
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यूपीएससी की कोचिंग में हमने कुछ वक्त रायपुर में गुजारा था, काफी संघर्ष के दिन थे। फोन पर भी बात होती थी। फिर भी वक्त को हमारा सलेक्शन मंजूर नहीं था। हम सभी दोस्त अलग हो गए। १० साल बाद एक बार एक अच्छे  दोस्त से दुबारा भेंट हुई। मैं पहचान ही नहीं पाया। उसने मुझे पहचान लिया लेकिन खुशी उस तरह से जाहिर नहीं हुई। मुझे आशापूर्णा देवी की पढ़ी हुई एक कहानी याद आई। भाई आक्सफोर्ड चला जाता है। जाने से पहले बहन से खूब प्यार रहता है। बहन के डायरी लिखने के शौक को प्रमोट करता है। आक्सफोर्ड से लौटने पर पाता है कि बहन की तो दुनिया पूरी तौर पर बदल गई है। लौटकर बहन की डायरी के पुराने पन्ने पढ़ता है। इसमें भैया को शादी के पूर्व एक अंतिम संदेश लिखा रहता है। भैया पता नहीं मैं शादी के बाद भी ऐसी रह पाऊँ या नहीं, क्योंकि समय कितना कुछ बदल जाता है हम कह नहीं पाते। ऐसा ही शायद इस रिश्ते में भी हुआ। समय ने इस रिश्ते को लील लिया। कई दोस्तों से हमारी मुलाकात अंतिम मुलाकात हो जाती है इस मामले में भी शायद यह अंतिम ही हो क्योंकि हमने एक दूसरे का मोबाइल नंबर लेने की जहमत भी नहीं उठाई। एक समय का गहरा रिश्ता, किसी दूसरे समय में कितना नाजुक और खोखला बन जाता है, कितना अजीब है सब कुछ।




Saturday, December 1, 2012

रेडियो सीलोन, युआन और यूट्यूब

मुझे लगता है कि मेरी दुनिया जो इतनी बेहतर हुई है वो यूट्यूब की वजह से हो पाई है। बचपन में कहानी-किस्सों में एक ऐसा मटका आकर्षित करता था जिसमें जो भी चाहों खाने की चीज आपको मिल जाएगी। यूट्यूब ऐसा ही है जो भी सुनना चाहो,  सुन लो और इससे भी अच्छा यह है कि सुंदर संगीत के प्रति लोगों के गहरे आदर भाव वाले कमेंट भी हैं।    
                                                       मेरी हॉबी में से एक यह भी है कि यूट्यूब के कमेंट पढ़ुँ। मैं इन्हें नियमित रूप से पढ़ता हूँ। इनमें इतनी सारी विविधता है कि इसके लिए एक पोस्ट की दरकार है लेकिन यहाँ बात रेडियो सीलोन की हो रही है। रेडियो सीलोन ने एक समय बालीवुड के सबसे सुंदर गानों की झड़ी लगाकर श्रोताओं को तृप्त कर दिया था। जब मैं छोटा था तब मैं सीलोन और श्रीलंका को अलग-अलग बॉडी समझता था। उस समय रेडियो का पर्याय रेडियो सीलोन और विविध भारती हुआ करते थे। हाल ही में आउटलुक में पढ़ा कि भारतीय जनता के भारी दबाव के चलते फिर से रेडियो सीलोन शुरू कर दिया गया।
                                                                                                                बात यहाँ युआन की हो रही है युआन एक श्रीलंकाई नागरिक हैं लेकिन उन्होंने यूट्यूब के श्रोताओं को सैंकड़ों सुंदर पुराने गाने उपलब्ध कराए हैं। वे खूबसूरत कमेंट के साथ स्वयं मौजूद होते हैं। एक विदेशी संस्कृति के संगीत के लिए इतना प्यार होना बताता है कि आपका दिल कितना विशाल है कि आप अपने मोह के दायरे से निकल कर वैश्विक नागरिक बन जाते हैं।
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नन्ही कली सोने चलती गाना सुनते हुए मैंने युआन को एक कमेंट लिखा
dear yuanyuanyuanyin, it is strange for my wife that a shrilankan person contribute most of lovable old gems of bollywood gems for us, thanks for such a great work
My dear friends Mr and Mrs. Sharma,
Thank you very much for your kind words.
Most of my Indian/Pakistani friends used to ask me the same.
Most of these songs [and thousands more] have been "remade" in to our local languages at the time since they are beauties AND we know the "value" of those excellent melodies though we do not know Hindi/Urdu languages.
In my opinion, as I used to say, HINDUSTANI MUSIC IS THE BEST MUSIC IN THE WORLD and we all KNOW it.
Thanks again and may God bless you both.