Friday, December 21, 2012

उर्दू और हिंदी की राहें जुदा क्यों हुईं?

कल शाम मेरे शहर में मजाज (नुक्ते के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ) की शायरी में इंकलाबी रंग पर एक व्याख्यान आकाशवाणी द्वारा आयोजित किया गया। मजाज के बारे में थोड़ा सा परिचय इस्मत चुगताई को पढ़कर हुआ था। उनके बारे में ज्यादा जानने की दिलचस्पी थी, यूँ भी उर्दू बहुत भाती है क्योंकि थोड़ी सी दूरी न जाने क्यों हिंदीभाषियों की उर्दू साहित्य से हो गई है।
                                                                मुझे आश्चर्य होता है कि हमने स्कूल में गालिब को नहीं पढ़ा, मीर को तो उन दिनों हम जानते भी नहीं थे। हमारे स्कूली दिनों में दूरदर्शन में एक प्रोग्राम आता था उसमें दो ग्रुप बने होते थे, एक ओर मीर वाले, दूसरी ओर गालिब वाले। मेरी कमजोर बुद्धि में तो मुझे यही लगता था कि कहाँ गालिब वालों से टक्कर मीर वाले ले पाएंगे। रेख्ते के तुम ही उस्ताद नहीं हो गालिब, कहते हैं अगले जमाने में कोई मीर भी था। बहुत बाद में जब गालिब का यह शेर सुना तब लगा कि मीर सचमुच महान हस्ती रहे होंगे।
                                                                            उर्दू के नाम पर नजीर अकबराबादी को ही पढ़ा था, उनकी कविता रोटी मुझे ही नहीं, उन छात्रों को भी पसंद थी जो हिंदी की पढ़ाई में रुचि नहीं लेते थे। लंच में हम गाया करते, जब आदमी के पेट में जाती हैं रोटियाँ बदन में फूली नहीं समाती हैं रोटियाँ। सचमुच नजीर ऐसे शायर थे जिन्होंने बिना किसी प्रगतिशील आंदोलन से प्रभावित हुए आम जनता के हालात पर नज्म लिखी और इतने लोकप्रिय हुए।
                         व्याख्यान जैसे-जैसे आगे बढ़ा, मुझे दुख हुआ कि क्यों हिंदी साहित्य और उर्दू साहित्य की राहें जुदा हो गईं। वे बताते रहे कि फैज बड़े तरक्की पसंद थे, उनसे कोई विवाद नहीं जुड़ा। जैसे हिंदी में निराला के किस्से भाते हैं वैसे ही उर्दू के दिलचस्प किस्से हैं लेकिन हमें नहीं मालूम। हम फैज को जानना चाहते हैं फिराक को पढ़ना चाहते हैं लेकिन लगता है कि बहुत देर हो चुकी है। जैसे हिंदी में कठिन शब्दों के प्रयोग को इतना हतोत्साहित किया गया कि अब तत्सम हिंदी साहित्य में दुर्लभ है वैसे ही उर्दू के बहुत से कशिश से भरे शब्द अब सुनाई नहीं देते। जैसे प्रसाद हमें समझ नहीं आएंगे, वैसे ही फैज भी नहीं।
                                                                                                                    
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मजाज से जुड़े दो दिलचस्प वाकये
पहला वाकया जांनिसार अख्तर से जुड़ा है। उनकी पत्नी सफिया मजाज की बहन थी। मजाज बहुत ज्यादा शराब पीते थे लेकिन सफिया की बड़ी इज्जत करते थे और उसके सामने कभी शराब नहीं पी की। एक दिन जब मजाज ग्वालियर आए और जांनिसार के पास रूके और खूब शराब पी। पीकर भावुक हुए और जांनिसार को कहा कि सफिया को बुलाओ। सफिया ने कहा कि जब वो होश में आएगा तो उसे दुख होगा कि वो मेरे साथ ऐसी हालत में पेश आया। जांनिसार ने जाकर मजाज को बताया। मजाज खूब रोने लगे, सफिया भी अंदर खूब रोईं।
दूसरा वाकया जावेद अख्तर ने एक बार एक प्रोग्राम में  सुनाया था। साहिर और मजाज एक बार मुंबई पहुँचे फिल्मों में गीत लिखने के वास्ते एक प्रोड्यूसर से मिले। प्रोड्यूसर ने एक थीम बताई। इन्होंने रात भर जागकर गीत तैयार किया। सुबह प्रोड्यूसर को दिखाया। प्रोड्यूसर के चेहरे पर खास खुशी नहीं दिखाई दी। मजाज बड़े दुखी हुए। उन्होंने साहिर से कहा कि मेरे पास एक चीज कलम ही तो है और उस पर ही संदेह हो जाए तो मेरे पास क्या बचेगा? उन्होंने मुंबई को विदा कहा। साहिर की मजबूरी थी, आर्थिक तंगी की वजह से उन्हें अपनी पहचान बनाने तक प्रोड्यूसर्स के नखरे सहने ही थे। जब साहिर मजाज को छोड़ने स्टेशन तक आए तो उन्होंने कहा कि मजाज भाई जब अगली बार आप आएंगे तो अपनी मोटर से आपको पिकअप करूँगा। साहिल का यह सपना पूरा नहीं हुआ, उनकी मोटर तो जल्दी आ गई लेकिन मजाज दुनिया में नहीं रहे।

1 comment:

  1. मजाज़ साहब के बारें में पढ़ कर अच्छा लगा ....शायर दिल बड़ा नाज़ुक होता है ....
    शुकिया!

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आपने इतने धैर्यपूर्वक इसे पढ़ा, इसके लिए आपका हृदय से आभार। जो कुछ लिखा, उसमें आपका मार्गदर्शन सदैव से अपेक्षित रहेगा और अपने लेखन के प्रति मेरे संशय को कुछ कम कर पाएगा। हृदय से धन्यवाद