Tuesday, October 26, 2010
कांग्रेस में कब तक सुनाया जायेगा सामंती राग
जब शीर्षस्थ स्तर पर वंश परंपरा फल-फूल रही हो तो निचले स्तरों तक भी इसका प्रभाव पहुंचेगा ही। कैबिनेट में जगह देने के समय जातिगत समीकरण के साथ यह भी देखा जाता है कि सांसद की पारिवारिक पृष्ठभूमि कैसी है? चाहे दिल्ली में शीला दीक्षित हों अथवा महाराष्ट्र में अशोक चव्हाण, दिग्गज नेताओं के उत्तराधिकारी कांग्रेस में शीर्षस्थ पदों पर पहुंच रहे हैं। खुशकिस्मत लोग जो अपने प्रयासों से आगे बढ़ पाये, अपनी वंश परंपरा को आगे बढ़ाने की तैयारी में लग गये हैं।
वंश परंपरा की सबसे बड़ी खामी यह है कि यह मेरिट को अस्वीकार करती है और इससे यह आशंका बनी रहती है कि मुश्किल दौर में सत्ता कहीं नाकाबिल लोगों के हाथ में न पड़ जाये। सौभाग्य से राहुल में निरंकुशता की आशंका नहीं दिखती लेकिन परिवारवाद के पीछे देश की अंधभक्ति इसे कब गलत दिशा में ढकेल देगी, कहा नहीं जा सकता।
अगर कांग्रेस में परिवारवाद पनप रहा है और वंश परंपरा खत्म होती नहीं दिखती तो इसका कुछ श्रेय विपक्षी पार्टियों को भी है। उन्होंने वंश परंपरा का विरोध तो किया लेकिन इसका सार्थक विकल्प देश को नहीं दे पाये। लोहिया-जयप्रकाश के दौर को छोड़ दें तो अटल बिहारी वाजपेयी के अतिरिक्त देश में कोई ऐसा नेता नहीं उभरा जिसकी स्वीकार्यता समाज के सभी तबकों में रही। कभी रघुवीर सहाय ने लोहिया के लिये प्रतिनिधि नामक कविता लिखी थी जिसके पद थे, अर्थ भर जाता है वह हम सबके जीने में। क्या विपक्ष के किसी नेता के पास ऐसी नैतिक शक्ति है जो जनता के मन में वैसा ही उत्साह भर पाये जैसाकि सच्चा जनप्रतिनिधि कर सकता है। जब तक ऐसा प्रतिनिधि नहीं आयेगा, भारत की जनता गांधी-नेहरू परिवार के साये से बाहर नहीं निकलेगी।
Wednesday, September 29, 2010
सहिष्णुता की समृद्ध परंपरा रही है भारत में
Monday, September 20, 2010
जन्मभूमि विवाद: ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर होगा फैसला
बाबर की डायरी बाबरनामा इस संबंध में जानकारी देने के लिये काफी अहम हो सकती थी लेकिन इसके कुछ पन्ने जो उसी वर्ष लिखे गये जिस समय बाबर अवध के प्रसार पर था, गायब हो चूके हैं। बताया जाता है कि बाबर जब कूच पर था तब एक बड़ी आंधी आई जिसने इन महत्वपूर्ण वर्षों के सारे दस्तावेज उड़ा दिये। गौरतलब है कि बाबर ने पूरी दिलचस्पी के साथ भारत के सारे दस्तावेज लिखे हैं और किस प्रकार चंदेरी का हश्र हुआ इस बाबत भी विस्तृत रूप में लिखा है।
हिंदू और मुस्लिम दोनों सामग्रियां अपने धर्म की गवाही कर सकती हैं इसलिये धर्मनिरपेक्ष स्रोतों से भी पड़ताल करना जरूरी है। टीफैन्थेलर ने जिन्होंने भारत में सबसे पहले अशोक के अभिलेख खोजे, बाबरी मस्जिद के बारे में लिखा है कि इसका निर्माण औरंगजेब अथवा बाबर ने किया। उन्होंने लिखा है कि हिंदू इस अहाते के सामने राम का जन्मदिन रामनवमीं हर साल मनाते हैं।
इस संबंध में पहली बार विवाद वाजिदअली शाह के समय हुआ जब निर्वाणी संप्रदाय के हिंदुओं ने पहली बार इस संबंध में आवाज उठाई। फिलहाल मामला कोर्ट के पाले में है बाबरी मस्जिद 1992 तक अस्तित्व में थी और इसके नीचे एक ढांचा भी, जिसे विहिप प्राचीन मंदिर कहते हैं। कोर्ट का जो भी फैसला होगा, इन्हीं तथ्यों के आधार पर होगा।
Friday, September 17, 2010
राहुल में दिख रहा कांग्रेस का परिपक्व चेहरा
Wednesday, September 8, 2010
गडकरी ने छोड़े रणनीति के अहम सुराग
पिछले चुनावों में पार्टी हाईकमान के संघ के शीर्षस्थ अधिकारियों के साथ कुछ मतभेद हुए थे जिनसे संबंधों में खटास आई थी और पार्टी संघ की नजदीकियों का पूरा लाभ नहीं उठा पाई थी। गडकरी पार्टी में विचारधारा की पुन: वापसी चाहते हैं इसलिये वह बार-बार दीनदयाल उपाध्याय और श्यामाप्रसाद मुखर्जी की बात कर रहे हैं। कार्यकर्ता सम्मेलन के दौरान भी उन्होंने अंत्योदय की बात कही। दरअसल कांग्रेस पार्टी लगातार अपना हाथ गरीबों के साथ बताती है ऐसे में कांग्रेसी प्रचार की तोड़ के लिये गडकरी भी जड़ों की ओर जा रहे हैं।
गडकरी भाजपा शासित राज्यों की पीठ तो थपथपा रहे हैं लेकिन उन्हें मालूम है कि जब पार्टी सत्ता में होती है तो जनता की अपेक्षाएं भी ज्यादा होती हैं और कई बार अपेक्षाओं का बोझ पार्टी नहीं उठा पाती और एंटीइनकम्बेंसी का भूत पार्टी के पीछे पड़ जाता है। यही वजह है कि वह अपने विधायकों को काम करने की नसीहत दे रहे हैं।
इसके बावजूद भी छत्तीसगढ़ में बहुत से ऐसे मुद्दे हैं जो गडकरी की फीडबैक में नहीं थे लेकिन जिनके संबंध में स्पष्ट नीति बनाये बगैर अगले चुनावों में जनादेश प्राप्त करना आसान नहीं होगा। इसमें से एक मुद्दा तेजी से औद्योगीकृत होते राज्य में पैदा होने वाले भूमि के संकट का है। गडकरी की यात्रा के दौरान औद्योगिक प्रदूषण से तबाह हो गये एक किसान ने गडकरी की सभा में आत्मदाह करने की धमकी दी थी। राज्य में नये एमओयू हो रहे हैं जनसुनवाई हो रही है और जनाक्रोश सामने आ रहा है। आदिवासी शिकायत कर रहे हैं कि उनकी भूमि मल्टीनेशनल कंपनियों के पास बेची जा रही हैं वह अपने संसाधनों का लाभ नहीं उठा पा रहे। 31 प्रतिशत आदिवासी आबादी वाले राज्य में जनजातियों की ज्वलंत समस्याओं पर चर्चा किये बिना जनादेश 2014 की ओर किस प्रकार बढ़ा जा सकेगा।
Friday, August 27, 2010
दिल्ली के सिपाही की सक्रियता राज्य भाजपा के लिये खतरे का सबब
Monday, August 16, 2010
छत्तीसगढ़ और जगन्नाथ जी की रथ यात्रा
जहां तक छत्तीसगढ़ में जगन्नाथ जी की पूजा की परंपरा है। श्रद्धालु भक्त लंबे अरसे से यहां की तीर्थ यात्रा करते रहे हैं। छत्तीसगढ़ में इसके प्रतीक चिह्न अब भी हैं। बताया जाता है कि बुढ़ेश्वर मंदिर से पुरी की तीर्थ यात्रा शुरू होती थी। रायपुर में इसके लिये खास तरह के पंडे होते थे जिनका निवास तेलीबांधा तालाब के पास था। यह भक्तों को पुरी ले जाते थे, वहां इनके परिजन पहले ही मौजूद होते थे जहां भक्त इनकी धर्मशालाओं में ठहरते थे। अब जब पैदल तीर्थ यात्राओं का चलन समाप्त हो गया तब इन्होंने भी अपने को समय के अनुसार बदला है। अब यह बस से पुरी की यात्रा कराते हैं।
पुराने दौर के लोगों के पुरी तीर्थ यात्रा के किस्से दिलचस्प होते थे। गांव से तीर्थ यात्रियों के दल बैलगाड़ियों में निकलते थे। पुरी पहुंचते तक महीने भर से अधिक का समय लगता था। फिर पुरी में एक सप्ताह से भी अधिक समय तक रूकना होता था और वापसी। इन यात्राओं में जोखिम भी बहुत होता था। एक बार ऐसी ही यात्रा में एक बड़ा हादसा हुआ था जो पुराने लोगों की जेहन में अब भी ताजा है। बताया जाता है कि अंगुल के पास एक प्रसिद्ध संत आये थे जिनके संबंध में यह प्रसिद्ध हो गया था कि वह अच्छी भविष्यवाणी करते थे। उनके आश्रम में महामारी फैली और सैकड़ों लोग इसका शिकार हुए। मरने वालों में बहुत से छत्तीसगढ़ के भक्त भी थे। पुरी की कथाएं अब भी पुराने लोगों को मालूम है और जगन्नाथ जी जितने उड़ीसा के हैं उतने ही छत्तीसगढ़ के भी।
Saturday, June 12, 2010
छत्तीसगढ़ में साहित्य और पठन-पाठन की परंपरा
मेरा जन्म छत्तीसगढ़ में हुआ, मैं यहां पला-बढ़ा भी। इसके बावजूद मुझे लगते रहा है कि मैं अपनी मिट्टी से बहुत कुछ अपरिचित हूं। मुझे लगता है कि मेरा संबंध भारतीय परिवेश से अधिक रहा है, छत्तीसगढ़ से कम। फिर भी उम्र के साथ एहसास किया कि जिस मिट्टी से जुड़ा हूं उसके कितने रंग है और अब यह एहसास बढ़ता ही जाता है कि छत्तीसगढ़ बेहद अनछुआ है उनके लिये भी जो इसके बाशिंदे है। हम अपनी ही धरती के बारे में काफी कम जानते हैं विशेषकर हम शहरी लोग।
पंडवानी पहले भी सुनी थी, सातवीं-आठवीं कक्षा में लेकिन इसके ओज को उस समय समझ नहीं पाया था। फिर एक इंटरव्यू देखा तीजनबाई का। उनसे प्रश्न किया गया कि इतनी प्रसिद्धी कैसे हासिल की। उन्होंने कहा कि कला साधना की वस्तु है उसे जीना पड़ता है तब वह आपके भीतर उतरती है यह तो बिल्कुल सरस्वती के प्रगट होने जैसा है। फिर मैने निश्चय किया कि उनकी पंडवानी जरूर सुनुंगा। फिर मुझे उनकी पंडवानी सुनने का मौका मिला। प्रसंग था दुःशासन वध का और भीम की चित्कार, फिर कोरस की आवाज। ऐसा लगा कि व्यास की महाभारत अपने छत्तीसगढ़ी संस्करण में मंच पर पूरी तौर पर साकार हो गई है। तीजन की पंडवानी सुनकर ऐसा लगा कि छत्तीसगढ़ में पठन-पाठन की परंपरा रही है भले ही यह श्रुति के रूप में क्यों न हो। यही वजह है कि तीजन बाई जैसे लोक कलाकार इतनी सुंदरता के साथ इसका प्रदर्शन कर पाये।
पठन-पाठन की जो परंपरा लोक-संस्कृति में दिखती है वह पुराने खंडहरों-महलों में भी दिखती है। महानदी के किनारे छत्तीसगढ़ के पहले वृहत राजवंश की स्थापना हुई। सिरपुर का लक्ष्मण मंदिर राजा महाशिवगुप्त बालार्जुन की मां वासटा ने अपने मृत पति की स्मृति में बनाया था, इस अभिलेख में लिखा है कि यहां पूजा के लिये नियुक्त पंडित ऋग्वेद के विशेष रूप से ज्ञाता होंगे। फिर हुएनसांग ने भी तो लिखा है कि सिरपुर के महाविहार में पढ़ने के लिये बड़ी संख्या में विभिन्न राज्यों से छात्र आते थे।
इससे पता चलता है कि संस्कृत की महान महान परंपरा को इस राज्य ने किस प्रकार सहेज कर रखा। सिरपुर से उत्तर की ओर चलें तो रामगढ़ की पहाड़ियों में प्राचीन नाट्यशाला दिखती है। अनुश्रुति है कि कालिदास को मेघदूत लिखने की प्रेरणा इन्हीं पहाड़ियों में मिली थी। नाटक कला के बारे में भरत मुनि ने कहा है कि यह ऐसी कला है जिससे आम जनता जुड़ती है। क्या तीजन बाई की पंडवानी और रामगढ़ की नाट्यशाला में एक अजीब संयोग नहीं दिखता?
बस्तर जिसे गुप्त काल में महाकांतार कहा जाता था और जहां के राजा व्याघ्रराज की जानकारी समुद्रगुप्त के अभिलेख में मिलती है। नाग वंश के समय अपने वैभव के शीर्ष पर पहुंच गया। बारसूर का प्राचीन नाम भोगावतीपुरी था, जो पुराणों में नाग जाति की राजधानी कही गई है। बस्तर की आदिम जनजातियों में भी विलक्षण कवित्व पाया जाता है जो उनके मृत्युगीतों में दिखाई देता है। एक प्राचीन हल्बी कविता है जिसका हिंदी अनुवाद कुछ यों है।
बहुत समय पहले धरती और आकाश एक दूसरे से बहुत करीबी रूप से जुड़े हुए थे। इस समय बस्तर में एक बूढ़ी महिला रहा करती थी। हर दिन जब वह अनाज कूटने ओखली में बाँस डालती, तब आकाश की टकराहट से उसकी गति कमजोर हो जाती थी। एक दिन वह बहुत झल्लाई और गुस्से से आकाश पर प्रहार किया। तब से आकाश धरती से जुदा है और हमेशा के लिए अलग हो गया है। गोड़ आदिवासी उसी बूढ़ी महिला की संतति हैं।
यह कविता रूपक में चलती है, पहला तो सृष्टि की उत्पत्ति से जुड़े हुए प्रश्नो पर इतनी सुंदर कल्पना( यहाँ पर छायावादी कवि याद आते हैं ऐसी ही एक कविता पंत ने लिखी थी, शायद इस प्रकार है। टूटी चूड़ी सा चाँद न जाने किसकी मृदुल कलाई से फिसल कर गिर पड़ा।) दूसरा कविता से सबक, झल्लाहट बुरी बात है इसके इतने दूरगामी परिणाम हो सकते हैं। शायद गोड़ इस लोकगीत से लगातार सबक लेते रहे तभी तो इतने सहज और शाँत रह पाये।
कलचुरी काल में कल्याण साय का उदाहरण मिलता है जो अकबर के दरबार में रहे और अपने राजस्व संबंधी ज्ञान के लिये मशहूर थे। फिर रतनपुर दरबार में एक के बाद एक यशस्वी कवि। इसके बाद मराठा आये। सरोवरों के किनारे के मंदिर जिनमें कमल के सुंदर फूल हमेशा खिले रहते हैं बताते हैं कि इस जगह पर कभी मराठों ने भी राज किया होगा। उनका राज खत्म हो गया लेकिन उनका असर जिंदा रहा। जो माधवराव सप्रे जैसे विद्वानों में प्रकट हुआ। आजादी के पहले जो तात्यापारा में विद्वानों का जमघट बना रहा, उससे मराठा प्रभाव की जानकारी होती है।