Tuesday, October 26, 2010

कांग्रेस में कब तक सुनाया जायेगा सामंती राग

बिहार चुनावों में प्रचार के दौरान शरद यादव ने राहुल गांधी पर एक व्यक्तिगत टिप्पणी की है जिसमें उन्होंने राहुल को गंगा में फेंक देने की बात कही है। कांग्रेस में वंशवाद पर शरद यादव की यह पहली टिप्पणी नहीं है और न ही ऐसी टिप्पणी करने वालों में शरद यादव अकेले हैं। कांग्रेस विरोधी अनेक दिग्गज नेता समय-समय पर ऐसे कटाक्ष करते रहते हैं। शरद यादव की भाषा भले ही असंयत हो लेकिन उन्होंने कांग्रेस की दोहरी प्रवृति पर प्रहार किया है वह विचारणीय है। दरअसल कांग्रेस यह दावा करती है कि उसने पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र कायम रखा है लेकिन हकीकत यह है कि इस पार्टी में पिछले दो दशकों से शीर्षस्थ पद पर सोनिया ही काबिज रही हैं। राहुल गांधी सीमित सार्वजनिक अनुभव के बाद ही कांग्रेस महासचिव बना दिये गये। जिस पद को प्राप्त करने के लिये दिग्विजय सिंह और आस्कर फर्नांडीज को बरसों खपाने पड़े, वह राहुल गांधी को प्रसाद की थाली की तरह मिल गया। राहुल को इस बात का श्रेय दिया जाता है कि उन्होंने युवक कांग्रेस और एनएसयूआई में चुनावों की परंपरा शुरू कराई लेकिन राहुल यह सामंती राग अलापना भी नहीं भूले कि इन संगठनों में जो भी गड़बड़ी करेगा, उसे बाहर निकालने की जिम्मेदारी मेरी होगी। कांग्रेस में गांधी परिवार का ठप्पा लग जाना ही योग्यता का सबसे प्रमुख आधार माना जाता है। परिवार के चाटुकार नरसिंह राव के दौर में सोनिया को आगे लाने की जुगत में रहे जबकि सोनिया का उन दिनों राजनीतिक अनुभव शून्य था। फिलहाल जब राहुल गांधी ने किसी प्रकार की राजनीतिक जिम्मेदारी नहीं ली है वह कैसे प्रधानमंत्री पद की भूमिका के साथ न्याय कर सकते हैं। अब राहुल के चाटुकार जेपी से उनकी तुलना कर रहे हैं लेकिन क्या यह तुलना प्रासंगिक है? जेपी हमेशा राजनीति में परिवारवाद के विरोधी रहे और इंदिरा गांधी के साथ पारिवारिक संबंध होने के बावजूद इमरजेंसी के खिलाफ आवाज उठाई। राहुल ने अब तक ऐसा क्या किया है?
जब शीर्षस्थ स्तर पर वंश परंपरा फल-फूल रही हो तो निचले स्तरों तक भी इसका प्रभाव पहुंचेगा ही। कैबिनेट में जगह देने के समय जातिगत समीकरण के साथ यह भी देखा जाता है कि सांसद की पारिवारिक पृष्ठभूमि कैसी है? चाहे दिल्ली में शीला दीक्षित हों अथवा महाराष्ट्र में अशोक चव्हाण, दिग्गज नेताओं के उत्तराधिकारी कांग्रेस में शीर्षस्थ पदों पर पहुंच रहे हैं। खुशकिस्मत लोग जो अपने प्रयासों से आगे बढ़ पाये, अपनी वंश परंपरा को आगे बढ़ाने की तैयारी में लग गये हैं।
वंश परंपरा की सबसे बड़ी खामी यह है कि यह मेरिट को अस्वीकार करती है और इससे यह आशंका बनी रहती है कि मुश्किल दौर में सत्ता कहीं नाकाबिल लोगों के हाथ में न पड़ जाये। सौभाग्य से राहुल में निरंकुशता की आशंका नहीं दिखती लेकिन परिवारवाद के पीछे देश की अंधभक्ति इसे कब गलत दिशा में ढकेल देगी, कहा नहीं जा सकता।
अगर कांग्रेस में परिवारवाद पनप रहा है और वंश परंपरा खत्म होती नहीं दिखती तो इसका कुछ श्रेय विपक्षी पार्टियों को भी है। उन्होंने वंश परंपरा का विरोध तो किया लेकिन इसका सार्थक विकल्प देश को नहीं दे पाये। लोहिया-जयप्रकाश के दौर को छोड़ दें तो अटल बिहारी वाजपेयी के अतिरिक्त देश में कोई ऐसा नेता नहीं उभरा जिसकी स्वीकार्यता समाज के सभी तबकों में रही। कभी रघुवीर सहाय ने लोहिया के लिये प्रतिनिधि नामक कविता लिखी थी जिसके पद थे, अर्थ भर जाता है वह हम सबके जीने में। क्या विपक्ष के किसी नेता के पास ऐसी नैतिक शक्ति है जो जनता के मन में वैसा ही उत्साह भर पाये जैसाकि सच्चा जनप्रतिनिधि कर सकता है। जब तक ऐसा प्रतिनिधि नहीं आयेगा, भारत की जनता गांधी-नेहरू परिवार के साये से बाहर नहीं निकलेगी।

Wednesday, September 29, 2010

सहिष्णुता की समृद्ध परंपरा रही है भारत में

कल दोपहर साढ़े तीन बजे अयोध्या विवाद का पटाक्षेप हो जायेगा, कम से कोर्ट के स्तर पर तो यह मामला निपट जायेगा। सरकार ने इस मुद्दे पर विभिन्न संगठनों से शांति की अपील की है। भारत की जनता सहिष्णु है और सभी दूसरे मतावलंबियों की धार्मिक आस्था का भी आदर रखती है इसके बावजूद आवेश के क्षणों में गलतियां भी हो सकती हैं। अयोध्या पर चाहे जो फैसला आये, इस पर हमारी प्रतिक्रिया भारत की गौरवशाली सामासिक संस्कृति के दायरे में होनी चाहिये। इस समृद्ध विरासत की झलक स्वामी विवेकानंद ने शिकागो में हुए धर्म सम्मेलन में दिये गये भाषण में कही थी। उन्होंने कहा था कि भारत ने उस समय पारसी और यहूदी धर्म को आश्रय दिया था जब इन्हें अपने मूल देश को छोडऩा पड़ा था। भारत में इन धर्मों ने अपनी पहचान अक्षुण्ण रखी। महमूद गजनवी की विरासत भारत के लिये हमेशा पीड़ादायी रही है और महमूद के बाद उसके बेटे गाजी सालार मसूद ने भी लगातार भारत पर आक्रमण किये। दिलचस्प बात यह है कि एक ऐसे ही आक्रमण में जब बहराइच में गाजी सालार मसूद मारा गया तब यहां उसकी कब्र बना दी गई, समय बीतने पर मुस्लिम धर्मावलंबी यहां दुआएं मांगने लगे, यह बात प्रचलित हो गई कि मसूद के मकबरे में मांगी गई दुवाएं कबूल होती हैं। धीरे-धीरे उनके उस्र में हिंदू भी जाने लगे, यह मेला हर साल लगता है, अब हिंदू कहते हैं कि सालार मसूद सूफी संत हैं और सबकी मन्नतें पूरी करते हैं। अपनी आस्था के दायरे से बाहर के लोगों को भी सम्मान देना अनोखी बात लग सकती है लेकिन भारत में इसके सैकड़ों उदाहरण है जहां हिंदू संतों और मुस्लिम पीरों ने अपनी गहरी अध्यात्मिकता से दूसरे संप्रदाय के लोगों को प्रभावित किया। निजामुद्दीन औलिया के दरगाह में अनेक हिंदू भक्त आते थे और वह भी भारत की यौगिक परंपरा से गहराई से प्रभावित थे। मोहम्मद तुगलक जैसे बादशाहों के दरबार में हिंदू योगी लगातार आते रहते थे। भारत में बाबर की छवि भले ही आक्रांता की रही लेकिन उनके उत्तराधिकारी भारतीय परंपरा में इस तरह रच-बस गये कि ऐसा लगा कि उनकी जड़ें हमेशा से भारतीय संस्कृति में जमी थी। अनुश्रुति है कि बाबर ने अपने अंतिम क्षणों में हुमायूं से भारत में उदारता और धार्मिक सहिष्णुता की नीति पर चलने का आग्रह किया था। अकबर का समय तो धार्मिक सहिष्णुता का स्वर्ण काल था। फारसी में रामायण, महाभारत और भागवत पुराण जैसे ग्रंथों का अनुवाद हुआ। अकबर ने ऐसी फिजा बनाई जहां रूढि़वादिता के लिये कोई जगह नहीं थी। अबुल फजल ने अपनी पुस्तक अकबरनामा में धार्मिक कट्टरता की निंदा करते हुए लिखा है कि जब तकलीद की हवा चलती है तब दानिशमंदी की परत धुंधली पड़ जाता है(जब अंधविश्वास की हवा चलती है तब बुद्धिमानी की आंख पर परदा पडऩे लगता है)। अकबर की परंपरा को जहांगीर ने कायम रखा, उसने वेद और कुरान को एक ही तरह का पवित्र स्रोत बताया। धार्मिक सहिष्णुता के क्षेत्र में दाराशिकोह का नाम सबसे ऊंचा है। उन्होंने काशी के पंडितों की मदद से बावन उपनिषदों का अनुवाद कराया और मज्म उल बहरीन नामक पुस्तक लिखी जिसमें उन्होंने उपनिषदों की तुलना कुरान से की। औरंगजेब का शासनकाल धार्मिक कट्टरता के लिये जाना जाता है लेकिन इस बात के दो प्रमाण मिले हैं जिसमें चित्रकूट और बनारस के मंदिरों को बादशाह द्वारा दान दिये जाने का उल्लेख है। बहादुरशाह जफर के समय में लाल किले के भीतर दुर्गापूजा मनाये जाने का उल्लेख मिलता है। बंगाल में प्रचलित परंपरा के अनुकूल सुल्तान मीर जाफर ने मरने से पहले तुलजा भवानी का जल पीया था। 1857 के ठीक पहले जब अयोध्या विवाद शुरू हुआ तब वाजिद अली शाह को कलकत्ता भेज दिया गया, ऐसी अफवाहें फैली कि उन्हें लंदन भेजा जा रहा है। तब लखनऊ के हिंदुओं ने रघुनाथ मंदिर में जाकर नवाब के विरूद्ध होने वाले षडय़ंत्रों को रोकने की प्रार्थना की। इस देश में असहिष्णुता भी हुई है लेकिन सहिष्णुता की परंपरा इतनी गहरी है कि आसानी से इस देश के सेक्युलर चरित्र को नष्ट नहीं किया जा सकता।

Monday, September 20, 2010

जन्मभूमि विवाद: ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर होगा फैसला

24 सितंबर को रामजन्मभूमि विवाद पर ऐतिहासिक फैसला आयेगा। मामले की पेचीदगी को देखते हुए इस बात की संभावना कम ही है कि न्यायालय का फैसला दोनों पक्षों को मान्य होगा। हाईकोर्ट का फैसला आने के बाद सुप्रीम कोर्ट का रास्ता खुला ही रहेगा लेकिन फिर भी बेंच का फैसला इस दिशा में अहम हो सकता है। कोर्ट का फैसला ऐतिहासिक तथ्यों के आलोक में होगा। इसलिये यह देखना महत्वपूर्ण हो जाता है कि विवादित स्थल के संबंध में ऐतिहासिक तथ्य किस दिशा में इशारा देते हैं। इलाहाबाद हाईकोर्ट के कहने पर इस संबंध में पुरातत्व विभाग ने विवादित क्षेत्र में एक अहम सर्वे किया है। सर्वे में पाया गया है कि अयोध्या में सबसे पुरानी बस्ती दसवीं सदी ईसा पूर्व रही होगी। यहां से एनबीपीडब्ल्यू मृदभांड पाये गये हैं जो स्पष्ट रूप से बुद्ध के समय के हैं। रामायण के अतिरिक्त बुद्धकालीन पाली ग्रंथों में भी अयोध्या की चर्चा है। अयोध्या का संस्कृत में अर्थ होता है जिसे जीता न जा सके। शुंगकाल में अयोध्या में ऐतिहासिक गतिविधि तेजी से बढ़ी। यहां पुष्यमित्र शुंग के अहम अवशेष प्राप्त होते हैं। ग्यारहवी सदी के कोरियन इतिहासकार सामजुक सुंग ने अपने इतिवृत में लिखा है कि 48 ई में एक कोरियन राजकुमारी तीर्थयात्रा के लिये सागर पार कर अयोध्या गई थी। हो सकता है यह अयोध्या थाईलैंड की प्राचीन राजधानी आयूथिया हो लेकिन अयोध्या का नाम वैश्विक लैंडस्कैप पर तब भी लिखा जा चुका था। एएसआई की रिपोर्ट के मुताबिक विवादित स्थल में पहला ढांचा मित्र राजाओं का है। इसके बाद कुषाणों की भी सामग्री यहां मिली है। महत्वपूर्ण यह है कि विदेशी यात्रियों में सबसे ज्यादा प्रखर नजर रखने वाले हुएनसांग ने अयोध्या को मंदिरों की नगरी कहा लेकिन जहां तक रामजन्मभूमि की बात है हुएनसांग इस संबंध में विशेष जानकारी नहीं देता। 1992 में अयोध्या में ढांचा गिराये जाने के बाद इसके नीचे से एक अभिलेख प्राप्त हुआ जिसे विवादित ढांचे के संबंध में काफी अहम माना जा रहा है। अभिलेख गाहड़वाल वंश के सबसे यशस्वी राजा गोविंदचंद्र का है। इसमें कहा गया है कि उत्तर भारत का यह सबसे बड़ा मंदिर विष्णु की पूजा के लिये बनाया गया है। इसके साथ ही वामन अवतार से जुड़ी कुछ मूर्तियां भी निकलीं। तुलसीदास के अनुसार अयोध्या भारत के प्रसिद्ध तीर्थों में से था लेकिन जहां तक विष्णु स्मृति की बात है भारत के महत्वपूर्ण 21 तीर्थस्थलों में यह अयोध्या को नहीं जोड़ता।
बाबर की डायरी बाबरनामा इस संबंध में जानकारी देने के लिये काफी अहम हो सकती थी लेकिन इसके कुछ पन्ने जो उसी वर्ष लिखे गये जिस समय बाबर अवध के प्रसार पर था, गायब हो चूके हैं। बताया जाता है कि बाबर जब कूच पर था तब एक बड़ी आंधी आई जिसने इन महत्वपूर्ण वर्षों के सारे दस्तावेज उड़ा दिये। गौरतलब है कि बाबर ने पूरी दिलचस्पी के साथ भारत के सारे दस्तावेज लिखे हैं और किस प्रकार चंदेरी का हश्र हुआ इस बाबत भी विस्तृत रूप में लिखा है।
हिंदू और मुस्लिम दोनों सामग्रियां अपने धर्म की गवाही कर सकती हैं इसलिये धर्मनिरपेक्ष स्रोतों से भी पड़ताल करना जरूरी है। टीफैन्थेलर ने जिन्होंने भारत में सबसे पहले अशोक के अभिलेख खोजे, बाबरी मस्जिद के बारे में लिखा है कि इसका निर्माण औरंगजेब अथवा बाबर ने किया। उन्होंने लिखा है कि हिंदू इस अहाते के सामने राम का जन्मदिन रामनवमीं हर साल मनाते हैं।
इस संबंध में पहली बार विवाद वाजिदअली शाह के समय हुआ जब निर्वाणी संप्रदाय के हिंदुओं ने पहली बार इस संबंध में आवाज उठाई। फिलहाल मामला कोर्ट के पाले में है बाबरी मस्जिद 1992 तक अस्तित्व में थी और इसके नीचे एक ढांचा भी, जिसे विहिप प्राचीन मंदिर कहते हैं। कोर्ट का जो भी फैसला होगा, इन्हीं तथ्यों के आधार पर होगा।

Friday, September 17, 2010

राहुल में दिख रहा कांग्रेस का परिपक्व चेहरा

पिछले सौ सालों से भारत का भविष्य नेहरू-गांधी परिवार की धूरी पर टिका है और नेहरू के बाद आने वाले हर उत्तराधिकारी पर भारतीय जनता की नजर रहती है। जब इंदिरा ने नेहरू की विरासत को संभाला, तब उन्होंने अपनी सोच को जनता और पार्टी के समक्ष सीधे रखने की बजाय संयम का रास्ता अपनाया। उन्हें गूंगी गुडिय़ा की संज्ञा दी गई लेकिन जब यह गूंगी गुडिय़ा मुखर हुई तो उसने बहुतों की बोलती बंद कर दी। इंदिरा के बाद उनकी विरासत संभालने की जिम्मेदारी संजय गांधी की थी, अक्सर कहा जाता है कि इंदिरा के प्रशासन पर संजय गांधी का अत्याधिक प्रभाव था और इमरजेंसी जैसे सख्त फैसलों में पर्दे के पीछे संजय गांधी कार्य कर रहे थे लेकिन इसे बढ़ाचढ़ाकर नहीं देखना चाहिये क्योंकि चाहे राजाओं की प्रिवीपर्स समाप्ति का मसला हो अथवा बांग्लादेश मुक्ति संग्राम, प्रधानमंत्री के रूप में इंदिरा के पास ही सारे फीडबैक थे और उन्होंने सख्त फैसले किये। अगर संजय का इन निर्णयों में भी प्रभाव मान लिया जाये तो भी आपरेशन ब्लू स्टार की व्याख्या कैसे की जायेगी जो इंदिरा के सबसे सख्त फैसलों में से एक माना जाता है। इंदिरा की मौत के बाद राजीव गांधी आये वह अनिच्छा से राजनीति में आये थे इसलिये उनसे किसी बड़ी राजनीतिक सोच की आशा नहीं की जा सकती थी। जहां तक राहुल गांधी की बात करें तो शुरूआती दौर में उनकी छवि को बेहद कमजोर आंका गया। उनकी मुखर बहन प्रियंका पर राजनीतिक विश्लेषकों ने दांव लगाने शुरू कर दिये थे। अगर राहुल की सक्रियता पर नजर डालें तो उन्होंने महात्मा गांधी का तरीका अपनाया। कांग्रेस में प्रवेश करने से साल भर पहले गांधी देश भर में घूमे थे, कांग्रेसी नेताओं से मिले थे और कांग्रेस की विचारधारा और इसके संगठन को करीब से समझा था। राहुल ने भी शुरूआती सालों में यही अध्ययन किये। इसके बाद वह दलितों के घरों में गये। कांग्रेस का हाथ गरीबों के साथ, को अगर सही मायने में व्यक्त करना था तो समाज के सबसे शोषित वर्ग से मिलना जरूरी थी। राहुल ने जब सार्वजनिक मंचों से अपने भाषण देने शुरू किये तो वहां से उनका एजेंडा और उनका व्यक्तित्व अधिक स्पष्टता से झलका। वह विरोध की राजनीति में भरोसा नहीं करते, विकास की बात करते हैं। जब वह भाषण देते हैं तो उनके भीतर से ऐसा युवा झलकता है जो बेहद उत्साहित है और चीजों को बदलने का यकीन रखता है भले ही जटिल मुद्दों का वह सीधा समाधान प्रस्तुत करते हैं और परिपक्व राजनेता की दृष्टि उनके भाषणों से छनकर नहीं आती। इसके बावजूद देश उनके भीतर एक ऐसे युवा नेता को देख रहा है जिसमें राजनीति के छल-छिद्र नजर नहीं आते। इसके बावजूद सार्वजनिक सभाओं में जो चेहरा दिखता है वह अधिकतर प्रायोजित होता है। आपके भाषण दूसरों द्वारा लिखे जाते हैं। स्थानीय नेता लोकल मुद्दों के आधार पर भाषण में जोड़तोड़ कर देते हैं। लेकिन जब सामना प्रेस का करना हो तो आपका असली चेहरा दिख ही जाता है। कोलकाता में हुए प्रेस कांफ्रेंस के दौरान राहुल ने पत्रकारों के सवालों का जिस तरह से जवाब दिया, उससे लगता है कि अब वह परिपक्व राजनीति की ओर बढ़ रहे हैं। उन्हें युवराज कहा जा रहा है लेकिन वह इसके अहम का प्रदर्शन नहीं करते। उन्हें ममता बेनर्जी ने प्रवासी पक्षी कहा लेकिन उन्होंने हँसते हुए इश आरोप को टाल दिया। सबसे दिलचस्प बात जो उन्होंने कही वो यह थी कि हम हाथ मिला रहे हैं सिर नहीं झुका रहे। सत्तर के दशक में कांग्रेस की बंगाल में अंतिम बार सरकार बनी थी, सिद्धार्थ शंकर रे तब बंगाल के मुख्यमंत्री बने थे। इसके बाद बंगाल में कांग्रेस जैसे गायब हो गई। राहुल अपनी इसी जमीन की तलाश में बंगाल लौटे। उत्तरप्रदेश में अपनी राजनीतिक विरासत को संभाले बगैर राहुल देश की राजनीति को स्थिरता से नहीं संभाल सकते। राहुल ने इसके लिये रणनीति बनाई है और वह इसमें सफल होते दिख रहे हैं। उनके पिता एक्सीडेंटली राजनीति में आये थे, वह सोची समझी रणनीति से राजनीति कर रहे हैं राहुल जिस तरह से सार्वजनिक जीवन में अपनी सक्रियता बढ़ा रहे हैं यह बात और अच्छी तरह से जनमानस को स्पष्ट होती जा रही है।

Wednesday, September 8, 2010

गडकरी ने छोड़े रणनीति के अहम सुराग

राजधानी की अपनी पहली यात्रा में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी ने मिशन 2014 के संबंध में अपनी रणनीति के अहम सुराग छोड़े हैं। प्रेस वार्ता के दौरान उन्होंने अपनी पूरी बात महंगाई के इर्द-गिर्द रखी। उन्होंने पत्रकारों से आग्रह भी किया कि अगर महंगाई से संबंधी प्रश्न पूछे जायें तो उन्हें ज्यादा खुशी होगी। प्रेस नोट में लिखी गई सारी बात भी महंगाई के आसपास केंद्रित थी। जाहिर है जनअसंतोष का एक बड़ा मुद्दा गडकरी के पास है और वह इसे हर स्तर पर भुनाना चाहेंगे। गडकरी ने अपने प्रेस नोट में जो बातें कहीं, वह सारे मुद्दे और इससे संबंधित सभी तथ्य प्रदेश भाजपा प्रभारी जगत प्रकाश नड्डा ने अपनी प्रेसवार्ता में कही थी। स्पष्ट रूप से भाजपा अपने हमले के केंद्र में महंगाई को रख रही है। पिछले कुछ समय से गडकरी अपने विवादास्पद बयानों के लिये मीडिया के सुर्खियों में रहे थे जिसमें प्रधानमंत्री की कार्यप्रणाली पर उठाई गई एक गंभीर टिप्पणी भी चर्चा में रही थी। आहत प्रधानमंत्री ने लाल किले की प्राचीर से राजनीति में व्यक्तिगत टिप्पणी की बढ़ती प्रवृति पर चिंता जताई थी। गडकरी अपनी पूरी यात्रा में विनम्र नजर आये। उन्होंने पूरी प्रेसवार्ता के दौरान और कार्यकर्ता सम्मेलन में भी गांधी परिवार पर व्यक्तिगत टिप्पणियां नहीं की। गडकरी शायद इस बात को और भी शिद्दत से महसूस कर रहे हैं कि लोकसभा चुनाव 2009 में किये गये व्यक्तिगत हमलों से पार्टी को नुकसान ही हुआ और अंतत: पार्टी सही मुद्दे नहीं उठा पाई। मिशन 2014 की तैयारी के लिये गडकरी जिस मुद्दे पर सबसे ज्यादा ध्यान दे रहे हैं वह है भाजपा शासित प्रदेशों में सुशासन। वह भाजपा शासित प्रदेशों को एक तरह से देश के लिये विकास के मॉडल के रूप में दिखाना चाहते हैं ताकि मिशन 2014 के लिये देश के समक्ष आदर्श रख सकें। इसके लिये वह नीतिगत स्तर पर इन राज्यों को करीब लाना चाहते हैं। यही वजह है कि उन्होंने मंत्रिपरिषद के साथ हुई बैठक में मोदी मॉडल के विभिन्न पहलुओं को छत्तीसगढ़ में शामिल करने की पहल की। गौरतलब है कि उन्होंने छत्तीसगढ़ की सस्ती चावल योजना को भाजपा शासित अन्य राज्यों में कार्यान्वित करने की सिफारिश भी की थी।
पिछले चुनावों में पार्टी हाईकमान के संघ के शीर्षस्थ अधिकारियों के साथ कुछ मतभेद हुए थे जिनसे संबंधों में खटास आई थी और पार्टी संघ की नजदीकियों का पूरा लाभ नहीं उठा पाई थी। गडकरी पार्टी में विचारधारा की पुन: वापसी चाहते हैं इसलिये वह बार-बार दीनदयाल उपाध्याय और श्यामाप्रसाद मुखर्जी की बात कर रहे हैं। कार्यकर्ता सम्मेलन के दौरान भी उन्होंने अंत्योदय की बात कही। दरअसल कांग्रेस पार्टी लगातार अपना हाथ गरीबों के साथ बताती है ऐसे में कांग्रेसी प्रचार की तोड़ के लिये गडकरी भी जड़ों की ओर जा रहे हैं।
गडकरी भाजपा शासित राज्यों की पीठ तो थपथपा रहे हैं लेकिन उन्हें मालूम है कि जब पार्टी सत्ता में होती है तो जनता की अपेक्षाएं भी ज्यादा होती हैं और कई बार अपेक्षाओं का बोझ पार्टी नहीं उठा पाती और एंटीइनकम्बेंसी का भूत पार्टी के पीछे पड़ जाता है। यही वजह है कि वह अपने विधायकों को काम करने की नसीहत दे रहे हैं।
इसके बावजूद भी छत्तीसगढ़ में बहुत से ऐसे मुद्दे हैं जो गडकरी की फीडबैक में नहीं थे लेकिन जिनके संबंध में स्पष्ट नीति बनाये बगैर अगले चुनावों में जनादेश प्राप्त करना आसान नहीं होगा। इसमें से एक मुद्दा तेजी से औद्योगीकृत होते राज्य में पैदा होने वाले भूमि के संकट का है। गडकरी की यात्रा के दौरान औद्योगिक प्रदूषण से तबाह हो गये एक किसान ने गडकरी की सभा में आत्मदाह करने की धमकी दी थी। राज्य में नये एमओयू हो रहे हैं जनसुनवाई हो रही है और जनाक्रोश सामने आ रहा है। आदिवासी शिकायत कर रहे हैं कि उनकी भूमि मल्टीनेशनल कंपनियों के पास बेची जा रही हैं वह अपने संसाधनों का लाभ नहीं उठा पा रहे। 31 प्रतिशत आदिवासी आबादी वाले राज्य में जनजातियों की ज्वलंत समस्याओं पर चर्चा किये बिना जनादेश 2014 की ओर किस प्रकार बढ़ा जा सकेगा।

Friday, August 27, 2010

दिल्ली के सिपाही की सक्रियता राज्य भाजपा के लिये खतरे का सबब

मैं दिल्ली में आपका सिपाही हूं। कालाहांडी की सभा में कांग्रेस के युवराज ने जब आदिवासी जनता से यह आश्वस्त करने वाला वाक्य कहा तो इसके गहरे मायने थे। गहरे मायने न केवल उड़ीसा की आदिवासी जनता के लिये थे अपितु परोक्ष रूप से उन्होंने आदिवासी वोट बैंक का आह्वान किया। दरअसल राहुल गांधी मिशन 2014 की तैयारी कर रहे हैं और इसके लिये वह कांग्रेस के सबसे परंपरागत वोटबैंक को खुश करने में जुटे हैं। वेदांता की नियामगिरी खदान में पर्यावरण मंत्रालय द्वारा लाल निशान दिखाये जाने के बाद राहुल आदिवासी समुदाय से मिले और साबित किया की जंगल और जमीन की सुरक्षा करना सरकार की जिम्मेदारी है। दरअसल राहुल यह जानते हैं कि आदिवासी क्षेत्रों में बढ़त बनाये बिना 2014 में जनादेश प्राप्त करना आसान नहीं होगा। तेजी से बढ़ते जा रहे औद्योगीकरण के चलते आदिवासी क्षेत्रों में जंगल और जमीन को बड़ा खतरा उपस्थित हुआ है और इसके चलते स्थानीय नागरिक जिनमें बहुसंख्यक आदिवासी हैं सरकारी नीतियों के खिलाफ आ गये हैं। ऐसे में राहुल गांधी आदिवासी जनता को आश्वस्त करना चाहते हैं कि उनकी जमीन सुरक्षित रहेगी। जिस प्रकार प्रियंका, स्वयं को अपनी दादी इंदिरा गांधी जैसा दिखाना पसंद करती हैं उसी तर्ज पर राहुल भी अपने पिता की राह पर बढ़ते हुए दिख रहे हैं। राजीव ने आदिवासी क्षेत्रों में गहरी दिलचस्पी ली थी, उनका परंपरागत रूप से माडिय़ा आदिवासियों की वेषभूषा में सजा चेहरा अब भी बस्तर के लोगों के जेहन में है। राजीव के जाने के बाद कांग्रेस का यह परंपरागत वोट बैंक बरकरार नहीं रह पाया और इस बार के चुनावों में भी आदिवासी क्षेत्रों में कांग्रेस को परंपरागत सफलता नहीं मिली। राहुल के लिये इस बार यह वोटबैंक अहम है क्योंकि शहरी मध्यवर्ग में महंगाई डायन का आतंक इतना अधिक है कि कब वोट फिसल कर भाजपा की ओर चलें जायें, कहां नहीं जा सकता। मिशन 2014 राहुल के लिये अहम है वह इसके लिये पूरी तैयारी से अपने पत्ते चल रहे हैं। वह मनमोहन सिंह के लाख आग्रह करने के बाद भी कैबिनेट में जाने को तैयार नहीं हुए। उन्हें इस बात का अंदेशा था कि मनमोहन सिंह अथवा कैबिनेट की सामूहिक त्रुटि के लिये उन्हें भी इसके अंग के रूप में जिम्मेदार ठहराया जायेगा। जब 2014 में राहुल गांधी जनता के बीच जायेंगे तो उनकी छवि ऐसे नेता की होगी जो प्रधानमंत्री के रूप में उनके सपने पूरा करने का हौसला रखता है। छत्तीसगढ़ में पिछली लोकसभा चुनावों में भी राहुल गांधी ने प्रचार किया था इसके बावजूद सभी आरक्षित जनजातीय सीटों पर कांग्रेस हार गई। यहां गौरतलब है कि पिछले चुनाव में राहुल ने वोट मनमोहन सिंह और कांग्रेस पार्टी के लिये मांगे थे। इस बार राहुल अपने लिये वोट मांगेंगे। प्रधानमंत्री पद के लिये दावा करेंगे। इससे स्थिति कांग्रेस के पक्ष में बदल सकती है और आदिवासी क्षेत्रों में कांग्रेस उम्मीदवार भाजपा को कड़ी चुनौती दे सकते हैं। छत्तीसगढ़ के सभी आदिवासी इलाके घने जंगलों में आते हैं और इनके खनिज संसाधन और जमीन पर उद्योगपतियों की नजर हैं। जहां संयंत्र लगे हैं वहां सही तरीके से विस्थापन नहीं हो रहा। प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर उद्योगपति तो करोड़ों कमा रहे हैं लेकिन स्थानीय लोगों की स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं हो रहा। यह स्थिति विस्फोटक है और ऐसे में जो भी नेता इस मामले में जनता के साथ खड़ा होगा, जनता की सहानुभूति उसे मिलेगी ही। इस स्थिति को भाजपा नेता भी महसूस कर पा रहे हैं और उन्होंने अपना स्टैंड बनाना शुरू कर दिया है। सांसद दिलीप सिंह जूदेव ने साफ कह दिया कि उनके क्षेत्र में किसी भी कोल ब्लाक के लिये जंगल काटने नहीं दिये जायेंगे। फिलहाल जनजातीय क्षेत्रों में दो बार से भाजपा सांसद चुने जा रहे हैं। अगर राहुल की सक्रियता उड़ीसा से आगे बढ़ते हुए छत्तीसगढ़ के संकटग्रस्त इलाकों में पहुंच गई तो वह निवर्तमान भाजपा सासंदों के लिये गंभीर खतरा उपस्थित कर सकते हैं।

Monday, August 16, 2010

छत्तीसगढ़ और जगन्नाथ जी की रथ यात्रा

हर साल जगन्नाथ जी बीमार पड़ते हैं और अपनी मौसी के घर गुंडीचा मंदिर जाते हैं पुरी में यह भव्य समारोह होता है। रायपुर में भले ही हमें भव्य रथ यात्रा देखने को नहीं मिले लेकिन यात्रा को लेकर भक्तों के मन में उतना ही उत्साह होता है जितना पुरी के राजमार्ग में देखने को मिलता है। प्रभु जगन्नाथ के साथ छत्तीसगढ़ के निवासियों का वैसा ही जुड़ाव है जैसे उड़ीसा और बंगाल के एक विशाल वर्ग का। हमारे मंदिरों की पूजा प्रणाली भी बिल्कुल इसी प्रकार हैं। राजिम में राजीव लोचन मंदिर के प्रांगण में जायें। यहां राजीव लोचन वैसे ही नटखट हैं जैसा कि जगन्नाथ जी हैं। उनके अपने नियम हैं गर्मियों में अलग समय में भक्तजनों को दर्शन देते हैं सर्दियों में उनके पट अलग समय में खुलते हैं। सुबह वह बालक के रूप में, दोपहर को किशोर और शाम को युवा के रूप में नजर आते हैं। सबसे रोचक उनका प्रसाद है। सुबह से ही भोग भात उन्हें लगता है अगर आप सुबह राजीव लोचन मंदिर पहुंच जायें तो आपको इस भोग को ग्रहण करने का अवसर मिलेगा। यह बिल्कुल ऐसा ही है जैसे आप पुरी के महान मंदिर प्रांगण में भोग भात ग्रहण कर रहे हों। यही वजह है कि राजीव लोचन मंदिर के बिल्कुल बगल से ही जगन्नाथ जी का मंदिर भी है। बात अगर रायपुर की करें तो छोटे-छोटे रथों में जगन्नाथ जी निकलते हैं। उनके भक्त पूरी श्रद्धा से उन्हें नगर के मुख्य मार्गों से गुजारते हैं। पूरा शहर इनका आशीर्वाद लेने और प्रसाद लेने उमड़ पड़ता है। पिछले साल रथयात्रा के दौरान मुझे कुछ विलक्षण अनुभव हुए। मैंने रथयात्रा को नगर के प्रमुख मार्गों से होकर गुजरते देखा। हर जगह श्रद्धालु भक्तों ने जगन्नाथ जी को घेरा लेकिन जहां भक्त सबसे ज्यादा भाव-विभोर हुए, वह शहर की एक सबसे गंदी बस्ती थी। मुझे लगा कि इन लोगों को हमेशा से जगन्नाथ जी से दूर रखा गया है और बरसों तक यह बरस में केवल एक बार जगन्नाथ जी के दर्शन ही कर पाये। अब छूआछूत खत्म हुआ है और देवता से संपर्क बढ़ा है अब यह लोग ईश्वर के बहुत करीब आए हैं। इनमें से बहुतों को मैंने आंखें मूंदे हुए प्रार्थना करते देखा। 
  जहां तक छत्तीसगढ़ में जगन्नाथ जी की पूजा की परंपरा है। श्रद्धालु भक्त लंबे अरसे से यहां की तीर्थ यात्रा करते रहे हैं। छत्तीसगढ़ में इसके प्रतीक चिह्न अब भी हैं। बताया जाता है कि बुढ़ेश्वर मंदिर से पुरी की तीर्थ यात्रा शुरू होती थी। रायपुर में इसके लिये खास तरह के पंडे होते थे जिनका निवास तेलीबांधा तालाब के पास था। यह भक्तों को पुरी ले जाते थे, वहां इनके परिजन पहले ही मौजूद होते थे जहां भक्त इनकी धर्मशालाओं में ठहरते थे। अब जब पैदल तीर्थ यात्राओं का चलन समाप्त हो गया तब इन्होंने भी अपने को समय के अनुसार बदला है। अब यह बस से पुरी की यात्रा कराते हैं।
  पुराने दौर के लोगों के पुरी तीर्थ यात्रा के किस्से दिलचस्प होते थे। गांव से तीर्थ यात्रियों के दल बैलगाड़ियों में निकलते थे। पुरी पहुंचते तक महीने भर से अधिक का समय लगता था। फिर पुरी में एक सप्ताह से भी अधिक समय तक रूकना होता था और वापसी। इन यात्राओं में जोखिम भी बहुत होता था। एक बार ऐसी ही यात्रा में एक बड़ा हादसा हुआ था जो पुराने लोगों की जेहन में अब भी ताजा है। बताया जाता है कि अंगुल के पास एक प्रसिद्ध संत आये थे जिनके संबंध में यह प्रसिद्ध हो गया था कि वह अच्छी भविष्यवाणी करते थे। उनके आश्रम में महामारी फैली और सैकड़ों लोग इसका शिकार हुए। मरने वालों में बहुत से छत्तीसगढ़ के भक्त भी थे। पुरी की कथाएं अब भी पुराने लोगों को मालूम है और जगन्नाथ जी जितने उड़ीसा के हैं उतने ही छत्तीसगढ़ के भी।

Saturday, June 12, 2010

छत्तीसगढ़ में साहित्य और पठन-पाठन की परंपरा


 

मेरा जन्म छत्तीसगढ़ में हुआ, मैं यहां पला-बढ़ा भी। इसके बावजूद मुझे लगते रहा है कि मैं अपनी मिट्टी से बहुत कुछ अपरिचित हूं। मुझे लगता है कि मेरा संबंध भारतीय परिवेश से अधिक रहा है, छत्तीसगढ़ से कम। फिर भी उम्र के साथ एहसास किया कि जिस मिट्टी से जुड़ा हूं उसके कितने रंग है और अब यह एहसास बढ़ता ही जाता है कि छत्तीसगढ़ बेहद अनछुआ है उनके लिये भी जो इसके बाशिंदे है। हम अपनी ही धरती के बारे में काफी कम जानते हैं विशेषकर हम शहरी लोग।

                                                 पंडवानी पहले भी सुनी थी, सातवीं-आठवीं कक्षा में लेकिन इसके ओज को उस समय समझ नहीं पाया था। फिर एक इंटरव्यू देखा तीजनबाई का। उनसे प्रश्न किया गया कि इतनी प्रसिद्धी कैसे हासिल की। उन्होंने कहा कि कला साधना की वस्तु है उसे जीना पड़ता है तब वह आपके भीतर उतरती है यह तो बिल्कुल सरस्वती के प्रगट होने जैसा है। फिर मैने निश्चय किया कि उनकी पंडवानी जरूर सुनुंगा। फिर मुझे उनकी पंडवानी सुनने का मौका मिला। प्रसंग था दुःशासन वध का और भीम की चित्कार, फिर कोरस की आवाज। ऐसा लगा कि व्यास की महाभारत अपने छत्तीसगढ़ी संस्करण में मंच पर पूरी तौर पर साकार हो गई है। तीजन की पंडवानी सुनकर ऐसा लगा कि छत्तीसगढ़ में पठन-पाठन  की परंपरा रही है भले ही यह श्रुति के रूप में क्यों न हो। यही वजह है कि तीजन बाई जैसे लोक कलाकार इतनी सुंदरता के साथ इसका प्रदर्शन कर पाये।

                                        पठन-पाठन की जो परंपरा लोक-संस्कृति में दिखती है वह पुराने खंडहरों-महलों में भी दिखती है। महानदी के किनारे छत्तीसगढ़ के पहले वृहत राजवंश की स्थापना हुई। सिरपुर का लक्ष्मण मंदिर राजा महाशिवगुप्त बालार्जुन की मां वासटा ने अपने मृत पति की स्मृति में बनाया था, इस अभिलेख में लिखा है कि यहां पूजा के लिये नियुक्त पंडित ऋग्वेद के विशेष रूप से ज्ञाता होंगे। फिर हुएनसांग ने भी तो लिखा है कि सिरपुर के महाविहार में पढ़ने के लिये बड़ी संख्या में विभिन्न राज्यों से छात्र आते थे।

                                    इससे पता चलता है कि संस्कृत की महान महान परंपरा को इस राज्य ने किस प्रकार सहेज कर रखा। सिरपुर से उत्तर की ओर चलें तो रामगढ़ की पहाड़ियों में प्राचीन नाट्यशाला दिखती है। अनुश्रुति है कि कालिदास को मेघदूत लिखने की प्रेरणा इन्हीं पहाड़ियों में मिली थी। नाटक कला के बारे में भरत मुनि ने कहा है कि यह ऐसी कला है जिससे आम जनता जुड़ती है। क्या तीजन बाई की पंडवानी और रामगढ़ की नाट्यशाला में एक अजीब संयोग नहीं दिखता?

                                                                बस्तर जिसे गुप्त काल में महाकांतार कहा जाता था और जहां के राजा व्याघ्रराज की जानकारी समुद्रगुप्त के अभिलेख में मिलती है। नाग वंश के समय अपने वैभव के शीर्ष पर पहुंच गया। बारसूर का प्राचीन नाम भोगावतीपुरी था, जो पुराणों में नाग जाति की राजधानी कही गई है। बस्तर की आदिम जनजातियों में भी विलक्षण कवित्व पाया जाता है जो उनके मृत्युगीतों में दिखाई देता है। एक प्राचीन हल्बी कविता है जिसका हिंदी अनुवाद कुछ यों है।

             बहुत समय पहले धरती और आकाश एक दूसरे से बहुत करीबी रूप से जुड़े हुए थे। इस समय बस्तर में एक बूढ़ी महिला रहा करती थी। हर दिन जब वह अनाज कूटने ओखली में बाँस डालती, तब आकाश की टकराहट से उसकी गति कमजोर हो जाती थी। एक दिन वह बहुत झल्लाई और गुस्से से आकाश पर प्रहार किया। तब से आकाश धरती से जुदा है और हमेशा के लिए अलग हो गया है। गोड़ आदिवासी उसी बूढ़ी महिला की संतति हैं।

यह कविता रूपक में चलती है, पहला तो सृष्टि की उत्पत्ति से जुड़े हुए प्रश्नो पर इतनी सुंदर कल्पना( यहाँ पर छायावादी कवि याद आते हैं ऐसी ही एक कविता पंत ने लिखी थी, शायद इस प्रकार है। टूटी चूड़ी सा चाँद न जाने किसकी मृदुल कलाई से फिसल कर गिर पड़ा।) दूसरा कविता से सबक, झल्लाहट बुरी बात है इसके इतने दूरगामी परिणाम हो सकते हैं। शायद गोड़ इस लोकगीत से लगातार सबक लेते रहे तभी तो इतने सहज और शाँत रह पाये।

                      कलचुरी काल में कल्याण साय का उदाहरण मिलता है जो अकबर के दरबार में रहे और अपने राजस्व संबंधी ज्ञान के लिये मशहूर थे। फिर रतनपुर दरबार में एक के बाद एक यशस्वी कवि। इसके बाद मराठा आये। सरोवरों के किनारे के मंदिर जिनमें कमल के सुंदर फूल हमेशा खिले रहते हैं बताते हैं कि इस जगह पर कभी मराठों ने भी राज किया होगा। उनका राज खत्म हो गया लेकिन उनका असर जिंदा रहा। जो माधवराव सप्रे जैसे विद्वानों में प्रकट हुआ। आजादी के पहले जो तात्यापारा में विद्वानों का जमघट बना रहा, उससे मराठा प्रभाव की जानकारी होती है।