Tuesday, October 26, 2010

कांग्रेस में कब तक सुनाया जायेगा सामंती राग

बिहार चुनावों में प्रचार के दौरान शरद यादव ने राहुल गांधी पर एक व्यक्तिगत टिप्पणी की है जिसमें उन्होंने राहुल को गंगा में फेंक देने की बात कही है। कांग्रेस में वंशवाद पर शरद यादव की यह पहली टिप्पणी नहीं है और न ही ऐसी टिप्पणी करने वालों में शरद यादव अकेले हैं। कांग्रेस विरोधी अनेक दिग्गज नेता समय-समय पर ऐसे कटाक्ष करते रहते हैं। शरद यादव की भाषा भले ही असंयत हो लेकिन उन्होंने कांग्रेस की दोहरी प्रवृति पर प्रहार किया है वह विचारणीय है। दरअसल कांग्रेस यह दावा करती है कि उसने पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र कायम रखा है लेकिन हकीकत यह है कि इस पार्टी में पिछले दो दशकों से शीर्षस्थ पद पर सोनिया ही काबिज रही हैं। राहुल गांधी सीमित सार्वजनिक अनुभव के बाद ही कांग्रेस महासचिव बना दिये गये। जिस पद को प्राप्त करने के लिये दिग्विजय सिंह और आस्कर फर्नांडीज को बरसों खपाने पड़े, वह राहुल गांधी को प्रसाद की थाली की तरह मिल गया। राहुल को इस बात का श्रेय दिया जाता है कि उन्होंने युवक कांग्रेस और एनएसयूआई में चुनावों की परंपरा शुरू कराई लेकिन राहुल यह सामंती राग अलापना भी नहीं भूले कि इन संगठनों में जो भी गड़बड़ी करेगा, उसे बाहर निकालने की जिम्मेदारी मेरी होगी। कांग्रेस में गांधी परिवार का ठप्पा लग जाना ही योग्यता का सबसे प्रमुख आधार माना जाता है। परिवार के चाटुकार नरसिंह राव के दौर में सोनिया को आगे लाने की जुगत में रहे जबकि सोनिया का उन दिनों राजनीतिक अनुभव शून्य था। फिलहाल जब राहुल गांधी ने किसी प्रकार की राजनीतिक जिम्मेदारी नहीं ली है वह कैसे प्रधानमंत्री पद की भूमिका के साथ न्याय कर सकते हैं। अब राहुल के चाटुकार जेपी से उनकी तुलना कर रहे हैं लेकिन क्या यह तुलना प्रासंगिक है? जेपी हमेशा राजनीति में परिवारवाद के विरोधी रहे और इंदिरा गांधी के साथ पारिवारिक संबंध होने के बावजूद इमरजेंसी के खिलाफ आवाज उठाई। राहुल ने अब तक ऐसा क्या किया है?
जब शीर्षस्थ स्तर पर वंश परंपरा फल-फूल रही हो तो निचले स्तरों तक भी इसका प्रभाव पहुंचेगा ही। कैबिनेट में जगह देने के समय जातिगत समीकरण के साथ यह भी देखा जाता है कि सांसद की पारिवारिक पृष्ठभूमि कैसी है? चाहे दिल्ली में शीला दीक्षित हों अथवा महाराष्ट्र में अशोक चव्हाण, दिग्गज नेताओं के उत्तराधिकारी कांग्रेस में शीर्षस्थ पदों पर पहुंच रहे हैं। खुशकिस्मत लोग जो अपने प्रयासों से आगे बढ़ पाये, अपनी वंश परंपरा को आगे बढ़ाने की तैयारी में लग गये हैं।
वंश परंपरा की सबसे बड़ी खामी यह है कि यह मेरिट को अस्वीकार करती है और इससे यह आशंका बनी रहती है कि मुश्किल दौर में सत्ता कहीं नाकाबिल लोगों के हाथ में न पड़ जाये। सौभाग्य से राहुल में निरंकुशता की आशंका नहीं दिखती लेकिन परिवारवाद के पीछे देश की अंधभक्ति इसे कब गलत दिशा में ढकेल देगी, कहा नहीं जा सकता।
अगर कांग्रेस में परिवारवाद पनप रहा है और वंश परंपरा खत्म होती नहीं दिखती तो इसका कुछ श्रेय विपक्षी पार्टियों को भी है। उन्होंने वंश परंपरा का विरोध तो किया लेकिन इसका सार्थक विकल्प देश को नहीं दे पाये। लोहिया-जयप्रकाश के दौर को छोड़ दें तो अटल बिहारी वाजपेयी के अतिरिक्त देश में कोई ऐसा नेता नहीं उभरा जिसकी स्वीकार्यता समाज के सभी तबकों में रही। कभी रघुवीर सहाय ने लोहिया के लिये प्रतिनिधि नामक कविता लिखी थी जिसके पद थे, अर्थ भर जाता है वह हम सबके जीने में। क्या विपक्ष के किसी नेता के पास ऐसी नैतिक शक्ति है जो जनता के मन में वैसा ही उत्साह भर पाये जैसाकि सच्चा जनप्रतिनिधि कर सकता है। जब तक ऐसा प्रतिनिधि नहीं आयेगा, भारत की जनता गांधी-नेहरू परिवार के साये से बाहर नहीं निकलेगी।

1 comment:

  1. राजनीति पर गंभीर वैचारिक और पठनीय लेखन.

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आपने इतने धैर्यपूर्वक इसे पढ़ा, इसके लिए आपका हृदय से आभार। जो कुछ लिखा, उसमें आपका मार्गदर्शन सदैव से अपेक्षित रहेगा और अपने लेखन के प्रति मेरे संशय को कुछ कम कर पाएगा। हृदय से धन्यवाद