Monday, July 30, 2012

जब विवेकानंद मैक्समूलर से मिले...



आप भारत कब आ रहे हैं? वहाँ का हर नागरिक उस व्यक्ति की अगवानी करना चाहता है जिसने उसके पुरखों के विचारों को सही रौशनी में रखने के लिए कितना कुछ किया। अमेरिका से इंग्लैंड लौटने पर जब स्वामी विवेकानंद मैक्समूलर से मिले तो पश्चिम के इस संत का चेहरा दमकने लगा, उनकी आँखें भरभरा गईं, उन्होंने धीमे से कहा तब मैं वहाँ से लौटुंगा नहीं, तुम्हें मेरा अंतिम संस्कार वहीं करना होगा।
                               स्वामी जी ने मैक्समूलर से मुलाकात के कुछ दिनों बाद मद्रास से प्रकाशित ब्रह्मवादिन में मैक्समूलर से मुलाकात का वर्णन लिखा है। मुलाकात के बारे में लेख में अंतिम रूप से लिखा गया है।
तत्चेतसा स्मरति नूनमबोधपूर्वं ।
भावस्थिराणि जननान्तरसौहृदानि।।
उसे अपने पूर्वजन्म की मित्रताओं की स्मृति याद है जो उसके हृदय में जड़ों की तरह भलीभांति जमी हैं।
                        विवेकानंद से मिलने के पूर्व ही मैक्समूलर रामकृष्ण पर एक लेख लिख चुके थे, इसे गौरवपूर्ण ढंग से स्वामी जी ने पत्र में वर्णित किया है। बातचीत में स्वामी जी ने कहा कि रामकृष्ण आज हजारों द्वारा पूजे जाते हैं। मैक्समूलर ने उत्तर दिया अगर उन्हें नहीं पूजा जाएगा तो किसे पूजा जाएगा। फिर मैक्समूलर ने उन्हें लंच करने कहा। फिर आक्सफोर्ड के कई कॉलेजों की सैर कराई और इतना समय क्यों खर्च किया? मैक्समूलर ने कहा कि हर दिन ऐसा नहीं होता कि कोई रामकृष्ण परमहंस के शिष्य से मिले।
       मुलाकात पर स्वामी जी ने लिखा। प्रोफेसर मैक्समूलर कितने अद्भुत व्यक्ति हैं। मेरे लिए उनके घर जाना तीर्थयात्रा जैसा अनुभव था।
उनका भारत के प्रति प्यार कितना हैं मैं चाहता हूँ कि कम से कम मेरे मन में भी यह स्नेह कम से कम उनके प्रेम का शतांश तो हो ही। मैंने एक ऐसी आत्मा को देखा जो हर दिन ब्रह्म से एकाकार हो रही, एक ऐसा हृदय जो हर क्षण ब्रह्माँड से एकाकार होने के लिए स्वयं को विस्तारित कर रहा है। 

Monday, July 23, 2012

शिवानी बहन का आभार...



ब्रह्मकुमारी संस्था से मेरा परिचय तब हुआ जब मैं ११ साल का था, एक प्रदर्शनी लगी थी उनकी, मुझे पसंद नहीं आये थे, उनके चित्र। फिर एक बार दोस्तों के साथ जाना हुआ मोतीबाग में प्रदर्शनी लगी थी, तब भी बड़ा अजीब सा लगा। फिर एक दिन शिवानी बहन रायपुर आई, उन्होंने पत्रकारों को आमंत्रित किया। उन्होंने सभी प्रश्नों के जवाब बेहद सुलझे ढंग से दिये। लोगों ने बताया कि वे इंजीनियर हैं शादीशुदा हैं। उनका शाम को प्रोग्राम था। हमने उन्हें बताया कि इस पेशे में बेहद तनाव है हम कैसे करें? उन्होंने शाम को प्रोग्राम से पूर्व मिलने बुलाया। हम दो दोस्त उनसे मिलने पहुँचे। उनके आश्रम के लोगों ने हमें बताया कि शिवानी बहन की तबियत खऱाब है फिर भी वे आप लोगों से मिलेंगी। उनके चेहरे पर लंबी यात्रा की थकान दिख रही थी, फिर भी उन्होंने हमें महसूस नहीं होने दिया कि यहाँ बैठना उनके लिए बेहद कष्टदायक है। उन्होंने हमें मेडिटेशन की सलाह दी। उन्हें देखकर लगा कि सच्चे लोग, सच्चे योगी तथा सच्चे आध्यात्मिक भाव वाले अब भी चुनिंदा लोग धरती में मौजूद हैं। जाते वक्त उन्होंने अपना मेल एकाउंट भी दिया। फिर हमने सोचा कि मेडिटेशन जरूर करेंगे, ब्रह्मकुमारी संस्था में एक दिन गए भी लेकिन उनका प्रेजेंटेशन हमें अच्छा नहीं लगा।
 मैं मेडिटेशन की शक्ति के बारे में जानने को बेकरार था, मैं यह भी जानना चाहता था कि क्या यह वैज्ञानिक है। फिर नासिक यात्रा की, वहाँ जीजाजी ने आर्ट आफ लिविंग के बारे में बताया, मेडिटेशन के बारे में मैंने गंभीरतापूर्वक सोचना शुरू किया। फिर यूट्यूब में मेडिटेशन की एक सुंदर साइट देखी। अंततः टाइम मैग्जीन में मेडिटेशन पर एक कवर स्टोरी पढ़ी, इसने मेरी जिंदगी बदल दी है। मैं अब भी जल्दी तनाव में आ जाता हूँ लेकिन फिर भी मुझे पता है कि अब मैं मेडिटेशन कर रहा हूँ और चीजें जल्द ही मेरे हक में होंगी। मेरे इस नये अनुभव के लिए शिवानी बहन को मैं तहेदिल से धन्यवाद देना चाहूँगा। कल संस्कार में उनका एक इंटरव्यू देखा, इंटरव्यू सुरेश ओबराय ले रहे थे, इंटरव्यू इतना अच्छा था कि आध्यात्मिकता से कोसो दूर मेरे एक भाई को भी यह पसंद आया। आज रात मुझे एक स्वप्न आया, स्वप्न में घूम-घूम कर यही बातें आ रही थीं। अंतिम लाइन जो मुझे याद हैं वो शायद टूटी-फूटी इंग्लिश में कुछ इस प्रकार थीं। दलाई लामा बिलान्ग्स टू द कैटगरी व्हिज फील हाईयेस्ट स्पिरिच्वल एक्जपीरिएंसेज

Sunday, July 15, 2012

वो भी तो माँ है...



बचपन में मैं दो लोगों से डरता था एक दादा जी के जमाने के पीपल पेड़ में जमें भूतों से और दूसरा शामा से, उसका नाम शायद श्यामा रहा होगा, राजिम में उसे लोग शामा बही कहते थे बही मतलब पागल। वो खपरैल लिए लोगों को डराती थी, अब वो वहाँ नहीं रहती, मैंने उसके बारे में इधर के कई बरसों से नहीं पूछा। मैं बड़ा हो गया हूँ विवाहित हूँ लेकिन शामा का डर शायद अब भी गया नहीं है। रास्ते में झाड़ू लिए हुए गंदी सी साड़ी पहने महिलाओं से डर लगता है अब भी। फिर अचानक सोचता हूँ कि ये भी किसी की माता होंगी, किसी की मासूम बच्ची होंगी जो अब बड़ी हो गई हैं और अब भटकने को अभिशप्त हैं।
                                                       दो और घटनाएँ याद आती हैं। हमारा प्रेस शहर से दूर इंडस्ट्रियल एरिया में था, रात के ग्यारह बजे का समय था। एक शादीशुदा महिला आई, उसके पैरों में बेड़ियाँ जकड़ी हुई थीं, उसकी आँखों में आँसू थे, उसने फरियाद की, एक रात के लिए यहाँ पनाह दे दो, अजीब सी करूणा उसकी आँखों में छलक रही थी लेकिन एक स्त्री को रात में पनाह देना कई प्रश्नों को जन्म दे देता। हमारे चौकीदार ने मन को कड़ा किया और ताला लगा दिया। उस महिला का क्या हुआ कोई नहीं जानता।
                     दूसरी घटना भी कुछ समय बाद ही घटी, उस दिन मेरा वीकली ऑफ था। मैं और मेरा दोस्त शाम की तफरीह के लिए अनुपम गार्डन के पास दिनशॉ में बैठे थे। एक बहुत सुंदर युवा लड़की रिक्शे से उतरी, उसने चप्पल भी नहीं पहने थे। बड़ी मासूमियत से किसी से भी एक सज्जन का पता पूछती थी। अंत में उसे एक दुर्जन मिल गया, उसने कहा कि वो जानता है उसका पता। वो उसके साथ चली गई। हम अनिर्णय की स्थिति में बने रहे, हम ऊपर से बहाना करते रहे कि हम नहीं जानते कुछ भी, लेकिन हम जानते थे कि इसकी मानसिक स्थिति ठीक नहीं है और इसका फायदा वो उठा सकता है। फिर भी हमने कुछ नहीं किया। इसका पश्चाताप होता है लेकिन दोष हमारा भी उतना नहीं था। घटनाएँ इतनी तेजी से घटी कि कुछ कर पाना मुश्किल था इसलिए भी कि यह मामला एक लड़की का था जिसके बारे में हम कुछ भी नहीं जानते थे।
                                                                इसके बाद शहर में कुछ अफवाह सुनने को मिली, एक बहुत अमीर सेठ की लड़की मानसिक अस्थिरता के चलते घर से बाहर निकल गई। उसका क्या हुआ, हम नहीं जानते।
                                                                  यह एक ऐसी दशा होती है कि हम ज्यादा कुछ नहीं कर सकते लेकिन हमारे सामने ही कई माँएँ भीख माँगती हैं वे किस दशा से गुजरती हैं हम इनका अनुभव कर सकते हैं पैसे देने पर इनकी आँखों में वैसा ही आशीष होता है जैसा माँ बेटे के सद्गुणों पर खुश होती है। इनकी आँखों की करूणा और वत्सलता से प्रेमचंद की बूढ़ी काकी कहानी का आखरी हिस्सा याद आ जाता है बूढ़ी काकी की थाली में पकवान सजे थे वो बड़ी तृप्ति से इसे खा रही थीं, स्वर्ग के देवता भी इस अद्भुत दृश्य को उत्सुक भाव से देख रहे थे।

Friday, July 13, 2012

यहाँ से कोई सड़क नहीं जाती.....



अबूझमाड़...यहाँ से शुरू होता है। यह ओरछा है नारायणपुर जिले का विकासखंड और अबूझमाड़ का प्रवेश द्वार, सभ्य कहे जाने वाले संसार की सड़क यहीं तक पहुँचती है इसके आगे किसी ने नहीं देखा, बरसों से नहीं देखा। इस अंतिम कोने में एक बगीचा है सुंदर फूल है, ओरछा में इस जगह को संभवतः लंका कहते हैं इसलिए संभवतः सरकार ने अशोकवाटिका बनाने के लिए इसे बना दिया होगा।

 ओरछा यहाँ साप्ताहिक बाजार भरता है और लोग मीलों का सफर तय कर पहुँचते हैं यहाँ सामान जुटाने, श्रवणकुमार की तरह कंधे के दोनों ओर बोझ लादे मीलों का सफर तय करते हैं। साप्ताहिक बाजार की पहली शाम नाइट लाइफ की तरह होती है, दीपों से पूरा ओरछा रौशन रहता है। रात भर सल्फी का दौर चलता है। पुरुष-स्त्री दोनों ही इस महफिल में शामिल होते हैं। ऐसा लगता है कि स्त्रियाँ साहब बीबी गुलाम की मीना कुमारी की तरह हों जो अपने पति को अकेले नशे में नहीं छोड़ना चाहती, एक पिकनिक स्पॉट की तरह बाजार के आसपास का वातावरण होता है जहाँ सल्फी के इकोफ्रेंडली दोनें चारों ओर प्लास्टिक गिलासों की जगह बिखर जाते हैं। मासूमियत का सौंदर्य माड़िया स्त्रियों में फैला रहता है। कम उम्र की महिलाएँ अधिक सकुचाती हैं। अधिक उम्र की महिलाओं में सबसे संवाद करने का साहस होता है। महफिल सजी है और हम गाड़ी लेकर घुस गए। किसी के भी यह शान के खिलाफ होगा लेकिन उन्होंने चुपचाप जगह छोड़ दी, एक बुजुर्ग महिला अपने पोते को लिए हुई थी, उसने गाड़ी की खिड़की के पास आकर कहा कि हमेशा गाड़ी दिखाने की हठ करता है।

                                                     मेरे साथी कहते हैं कि उन्हें लग रहा है यहीं बस जाएं, हम एक सरकारी शिविर में आए हैं, शिविर समाप्त होने पर खाना खाने आश्रम जाते हैं। इतना स्वादिष्ट खाना मैंने कई दिनों से नहीं खाया था, साथी भी बहुत सारे थे पिकनिक जैसा आनंद आया। हाथ धोने के लिए आश्रम के पीछे आया, एक बड़ा सा पहाड़ था, पेड़ बिल्कुल करीब से नजर आ रहे थे। अद्भुत सौंदर्य चारों ओर बिखरा था।
               इतनी अपरिचित सी जगह और इतनी मुश्किल यात्रा, क्या यहाँ कोई सरकारी कारिंदा रहता होगा, हम सोच रहे थे, पता चला कि वहाँ के ब्लाक मेडिकल आफिसर १८ सालों से वहीं हैं। वे ग्वालियर के हैं लेकिन राज्य बनने के बाद भी वापस नहीं गये। उन्हें संगीत का गहरा शौक है, गाते भी हैं बजाते हैं। शायद अबूझमाड़ का गहरा एकांत उनकी एकांत साधना को और अधिक निखारता होगा।
                                                         नारायणपुर से ओरछा तक की यात्रा बेहद दिलचस्प रही। रास्ते में झारा घाटी और आमादेई घाटी में बलखाती माड़िन नदी के किनारे-किनारे गुजरना बेहद दिलचस्प अनुभव रहा। रास्ते भर अनेकों तितलियाँ मिलीं। इतनी तितलियाँ एक साथ मैंने कभी नहीं देखी थी। ओरछा से लौटने पर मैंने अपने एक साथी से कहा कि भगवान को जन्नत नहीं बनानी चाहिए क्योंकि जन्नत को जल्दी ही किसी की नजर लग जाती है और पैराडाइज लास्ट हो जाता है।
      कुछ दिनों पूर्व मंत्री महोदय के पीए ने यूँ ही बातों-बातों में कह दिया था कि क्या आपने प्योर माड़िया देखे हैं, इसके लिए आपको ओरछा के उस पार जाना होगा, राजकमल साहब जब एसडीएम थे तब गए थे मोटरसाइकिल से। मैं भी प्योर माड़िया देखना चाहता था लेकिन उस इच्छा के प्रति दुखी भी था जिससे कोई चीज आपके लिए नुमाइश बन कर रह जाए।