अबूझमाड़...यहाँ से शुरू होता है। यह ओरछा है नारायणपुर जिले
का विकासखंड और अबूझमाड़ का प्रवेश द्वार, सभ्य कहे जाने वाले संसार की सड़क यहीं
तक पहुँचती है इसके आगे किसी ने नहीं देखा, बरसों से नहीं देखा। इस अंतिम कोने में
एक बगीचा है सुंदर फूल है, ओरछा में इस जगह को संभवतः लंका कहते हैं इसलिए संभवतः
सरकार ने अशोकवाटिका बनाने के लिए इसे बना दिया होगा।
ओरछा यहाँ साप्ताहिक
बाजार भरता है और लोग मीलों का सफर तय कर पहुँचते हैं यहाँ सामान जुटाने,
श्रवणकुमार की तरह कंधे के दोनों ओर बोझ लादे मीलों का सफर तय करते हैं। साप्ताहिक
बाजार की पहली शाम नाइट लाइफ की तरह होती है, दीपों से पूरा ओरछा रौशन रहता है।
रात भर सल्फी का दौर चलता है। पुरुष-स्त्री दोनों ही इस महफिल में शामिल होते हैं।
ऐसा लगता है कि स्त्रियाँ साहब बीबी गुलाम की मीना कुमारी की तरह हों जो अपने पति
को अकेले नशे में नहीं छोड़ना चाहती, एक पिकनिक स्पॉट की तरह बाजार के आसपास का
वातावरण होता है जहाँ सल्फी के इकोफ्रेंडली दोनें चारों ओर प्लास्टिक गिलासों की
जगह बिखर जाते हैं। मासूमियत का सौंदर्य माड़िया स्त्रियों में फैला रहता है। कम उम्र
की महिलाएँ अधिक सकुचाती हैं। अधिक उम्र की महिलाओं में सबसे संवाद करने का साहस
होता है। महफिल सजी है और हम गाड़ी लेकर घुस गए। किसी के भी यह शान के खिलाफ होगा
लेकिन उन्होंने चुपचाप जगह छोड़ दी, एक बुजुर्ग महिला अपने पोते को लिए हुई थी,
उसने गाड़ी की खिड़की के पास आकर कहा कि हमेशा गाड़ी दिखाने की हठ करता है।
मेरे साथी कहते हैं कि उन्हें लग रहा है यहीं बस जाएं, हम एक सरकारी शिविर
में आए हैं, शिविर समाप्त होने पर खाना खाने आश्रम जाते हैं। इतना स्वादिष्ट खाना
मैंने कई दिनों से नहीं खाया था, साथी भी बहुत सारे थे पिकनिक जैसा आनंद आया। हाथ
धोने के लिए आश्रम के पीछे आया, एक बड़ा सा पहाड़ था, पेड़ बिल्कुल करीब से नजर आ
रहे थे। अद्भुत सौंदर्य चारों ओर बिखरा था।
इतनी
अपरिचित सी जगह और इतनी मुश्किल यात्रा, क्या यहाँ कोई सरकारी कारिंदा रहता होगा,
हम सोच रहे थे, पता चला कि वहाँ के ब्लाक मेडिकल आफिसर १८ सालों से वहीं हैं। वे
ग्वालियर के हैं लेकिन राज्य बनने के बाद भी वापस नहीं गये। उन्हें संगीत का गहरा
शौक है, गाते भी हैं बजाते हैं। शायद अबूझमाड़ का गहरा एकांत उनकी एकांत साधना को
और अधिक निखारता होगा।
नारायणपुर से ओरछा तक की यात्रा बेहद दिलचस्प रही। रास्ते में झारा घाटी और
आमादेई घाटी में बलखाती माड़िन नदी के किनारे-किनारे गुजरना बेहद दिलचस्प अनुभव
रहा। रास्ते भर अनेकों तितलियाँ मिलीं। इतनी तितलियाँ एक साथ मैंने कभी नहीं देखी
थी। ओरछा से लौटने पर मैंने अपने एक साथी से कहा कि भगवान को जन्नत नहीं बनानी
चाहिए क्योंकि जन्नत को जल्दी ही किसी की नजर लग जाती है और पैराडाइज लास्ट हो
जाता है।
कुछ दिनों पूर्व
मंत्री महोदय के पीए ने यूँ ही बातों-बातों में कह दिया था कि क्या आपने प्योर
माड़िया देखे हैं, इसके लिए आपको ओरछा के उस पार जाना होगा, राजकमल साहब जब एसडीएम
थे तब गए थे मोटरसाइकिल से। मैं भी प्योर माड़िया देखना चाहता था लेकिन उस इच्छा
के प्रति दुखी भी था जिससे कोई चीज आपके लिए नुमाइश बन कर रह जाए।
विकास की सड़कें न जाने कौन कौन से रास्ते तय करती हैं.
ReplyDeleteआपकी यह पोस्ट ओरछा-यात्रा करने को उकसाती है। वर्णन ऐसा सजीव मानो आपके साथ ही चल रहा होऊँ। साप्ताहिक हाट का दिन और ब्लॉक मेडिकल ऑफिसर का नाम भी बता देते तो बेहतर होता।
ReplyDeleteएक निवेदन। मैं आपके ब्लॉग को नियमित रूप से पढना चाहूँगा। किन्तु ब्लॉग का तकनीकी ज्ञान शून्यवत है। आप यदि आपके ब्लॉग को ई-मेल से प्राप्त करने की सुविधा उपलब्ध करा दें तो मेरी मनोकामना पूरी हो सकेगी।
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ReplyDeleteआपकी यह पोस्ट माड़ियी लोगों के सम्मान को बरकरार रखती है. अच्छा लगा. ओरछा का क्षेत्र मैंने देखा है.
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