तब
पापा की कलाइयाँ पकड़े
जाता था स्कूल
मम्मी
पैक कर देती थीं
कभी
पोहा, कभी पराठा, कभी उपमा
फरमाइशी आइटमों से लैस टिफिन
चाव
से वे मेरे हाथों में पकड़ा देतीं
और
वो पोहा, पराठा, उपमा यूँ ही आ जाते वापस
भरे
टिफिन में वैसे ही...
एक
वाटर बॉटल भी दे देतीं वे
जो
मुझे हथकड़ी की तरह लगता
पापा ऐसे लगते जैसे पुलिस वाला
दुखी
मन ले जाता कैदी को ।
कहता
पापा से- कैदी की आखरी इच्छा तो पूछोगे
वो
हामी भरते
तो
कहता, मुझे पहाड़ी का मंदिर दिखा दो
सप्तगिरी गार्डन घूमा दो।
तफरीह
में ऐसा ही निकला वक्त
एक
दिन देखा प्रेयर में खड़े-खड़े
बहन
चुनी गईं पुरस्कार के लिए
घर
आकर माँ से पूछा, मुझे क्यों नहीं मिला ये
जवाब
में दिखाई माँ ने खाली कापियाँ....
फिर
कभी पेड़ों के नीचे बैठकर, कभी चीटिंयों को दाना देकर
आखिर
काट ही ली बारह साल की स्कूली सजा
सजा
बामशक्कत मिली थीं, मशक्कत नहीं हुई।
सारी
कॉपियाँ रह गईं अधूरीं, बदले में बढ़ी सजा
की अवधि
घंटी
बजने के बाद भी देर तक दूसरे कैदियों के साथ गणित बनाने की सजा
अब
मेरी बेटी जा रही स्कूल......
बताती
पापा वो गोलू-मोलू लड़का मिला था न
बहुत
बदमाश है....
वो
फरमाइश करती अप्पे का
बॉटल
से ही पीती पानी
प्रफुल्लित
प्रसन्न मन स्कूल जाने तैयार, जो था मेरा कारावास
उसकी
ऊंगलियाँ मेरी कलाइयों से फिसल रही है
उसने
तय किया है पिंजरे की मैना नहीं बनेगी
किसी
पेड़ के नीचे नहीं बैठेगी, वो ढूँढ़ेगी अपना आकाश