Monday, June 27, 2011

क्या २५ प्रतिशत आरक्षण व्यवस्था सफल हो पाएगी?


शिक्षा के अधिकार के अंतर्गत सरकार ने निजी स्कूलों में कमजोर आर्थिक परिस्थिति वाले बच्चों के लिए २५ फीसदी आरक्षण रखा है। इसके क्रियान्वयन के लिए नोडल अधिकारी नियुक्त किए हैं। अधिकारी किस सीमा तक बच्चों को निजी स्कूलों में एडमिशन दिलाने में सफल होते हैं यह तो वक्त ही बताएगा। अगर वे सफल भी हुए तो भी कई ऐसे ज्वलंत सवाल हैं जिनका उत्तर दे पाना तंत्र के लिए कठिन होगा। पहली बात तो यह कि अधिकतर निजी स्कूल अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा देते हैं। अगर एडमिशन होना है तो केवल प्राथमिक स्तर पर ही संभव है। इसका मतलब यह कि बच्चे का एडमिशन केवल क्लास वन में संभव है। अगर यह मान भी लें कि हिंदी माध्यम के बच्चों को अंग्रेजी माध्यम में स्विच करने की सुविधा दी जाती है तो भी इतने वर्षों तक अंग्रेजी के ए बी सी डी.. से अपरिचित बच्चे नये माध्यम में कैसे अपने को अभ्यस्त कर पाएँगे।
दरअसल दोष हमारी शिक्षा पद्धति में है, इसे एकरूपता नहीं दी गई है। मातृभाषा में शिक्षा देने वाले स्कूलों में केवल हिंदी चलती है जबकि अंग्रेजी माध्यम के स्कूल अंग्रेजी में ही पूरी शिक्षा देने पर जोर देते हैं। आमतौर पर अंग्रेजी का आतंक हर जगह है लेकिन निजी स्कूलों में तो इस पर कुछ ज्यादा ही जोर दिया जाता है। महँगी फीस वसूलने वाले स्कूलों में तो बच्चों के लिए कक्षा में अंग्रेजी में बात करना अनिवार्य कर दिया जाता है। वहीं मामूली फीस वसूलने वाले स्कूल भी हिंग्लिश पर जोर देते हैं मतलब भले ही बच्चे इंग्लिश न बोल सकें लेकिन उनकी भाषा में अंग्रेजी के शब्द प्रवेश कर जाएँ। कमजोर परिस्थिति से आने वाले बच्चे को कितनी दिक्कत होगी, इसका आसानी से अनुमान लगाया जा सकता है। इस बात की भी आशंका है कि सुनियोजित तरीके से इन बच्चों को निकालने के लिए प्रबंधन षड़यंत्र बुनना शुरू कर दें, बच्चों को इतना परेशान किया जाए कि उनके अभिभावक खुद ही उन्हें स्कूल से बाहर निकाल लें।
  हाल ही में एक खबर आई है कि केरल के किसी जिले के कलेक्टर ने अपनी बिटिया का एडमिशन सरकारी स्कूल में कराया। इस खबर में दिलचस्प यह भी है कि कलेक्टर ने प्रबंधन को खासतौर पर हिदायत दी कि उनकी बिटिया के साथ दूसरे बच्चों की तरह ही व्यवहार किया जाए। उन्हें इस बात की पूरी आशंका थी कि उनकी बिटिया के साथ वीआईपी ट्रीटमेंट किया जा सकता है। जब हम स्कूल में पढ़ते थे तब भी तो बताया जाता था कि फलाना सहपाठी थानेदार का लड़का है और फलाना सहपाठी के पिता पालिटिक्स में हैं। जाहिर है जब सत्तातंत्र के इतने करीबी लोगों के बच्चे आपके स्कूल में पढ़ाई करेंगे, तो वजन पाने के लिए शिक्षक भी इनके प्रति एक उदार नजरिया रखेंगे।
खैर, अब यह तकलीफ दूर हो गई क्योंकि बड़े अधिकारियों और साधन संपन्न लोगों के बच्चे सरकारी स्कूल में पढ़ते ही नहीं। यह समस्या अब दूसरे रूप में सामने आ सकती है जब कमजोर परिस्थिति के बच्चे इन महंगे स्कूलों में प्रवेश करेंगे। इन स्कूलों से पढ़कर निकलने वाले बच्चे अपनी जड़ों से कभी नहीं जुड़ पाएँगे। वे हमेशा हीनता का भाव अपने भीतर लेकर जीएँगे। संभवतः उन्हें अपने परिवार से ही वितृष्णा हो जाए। यह त्रिशंकु जैसी स्थिति होगी जिसे स्वर्ग से तो निकाल दिया गया लेकिन धरती में भी जगह नहीं दी गई।