Thursday, August 29, 2013

लिव लाइफ किंग साइज




सिगरेट में कभी दिलचस्पी नहीं रही, केवल इतनी कि इसकी बनावट बहुत सुंदर होती है और बचपन में इसका रेपर अच्छा लगता था। उन दिनों फोर स्क्वायर की सिगरेट का एक एड आता था। मैगजीन में अंग्रेजी के विज्ञापन में ऊपर चार शब्द लिखे होते थे लिव लाइफ किंग साइज। इसमें जादू था, उसके हाथों में सिगरेट होती थी, चारों ओर किताबें, टेबल पर एक प्रोजेक्ट, उसके आँखों में बड़े सपने थे। मुझे लगता कि वो शख्स ऐसे ही जिंदगी जीता भी है लिव लाइफ, किंग साइज। इस एड को देखकर मैंने मन में एक बिंब बना लिया था कि मैं सबसे बड़ी प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करूँगा, ऐसे ही एक रूम में, हाँ सिगरेट मेरे हाथों में नहीं होगी।
बाद में यह एड आना बंद हो गया.... एक बार काफ्का की सेल्समैन पर एक कहानी का एक हिस्सा कहीं पढ़ने मिला, उसकी एक लाइन थी, एक सुबह वो सोकर उठा और उसने देखा कि वो अपनी जिंदगी में कीड़े की तरह रेंग रहा है, उसके जीवन का कोई अस्तित्व नहीं, केवल कीड़े की तरह। व्यर्थ।
लिव लाइफ किंग साइज का यह एड उस वक्त फिर याद हो आया....... हम सब की डेस्टिनी किंग की तरह होती है लेकिन हम उसे क्या बना देते हैं काफ्का के उसी सेल्समैन की तरह, क्योंकि जिंदगी के हर जरूरी मौके पर हम अपना साहस कायम नहीं रख पाते, हम छोटी-छोटी छुद्रता के लिए अपनी गरिमा खो देते हैं।
इस एड को सोचते हुए और भी कई बातें दिमाग में आती हैं नशे के बारे में भी, क्या हम गाफिल होकर ही अपने सपनों को पा सकते हैं। क्या किसी नशे के बगैर अथवा वृहत्तर रूप में सोचें तो क्या किसी साथ के बगैर अकेले ही हम अपने महान उद्देश्यों की ओर नहीं बढ़ सकते। यह काफी कठिन है मुझे वो शेर याद आता है।
मैं मैकदे की राह पर आगे निकल गया, वरना सफर हयात का काफी तवील था।

फिर भी मुझे लगता है कि पान-मसाला और गुटखा की तुलना में सिगरेट बड़ी चीज है उसके पीने में थोड़ी ज्यादा गरिमा है। मुँह में रजनीगंधा, कदमों में दुनिया जैसे विज्ञापनों की तुलना में लिव लाइफ, किंग साइज में ज्यादा गहरापन है।
वैसे नशे के इतने सारे तर्कों के बीच और देवानंद को सिगरेट पीते देखकर दिल के बहुत खुश होने के बावजूद भी शाहिद कपूर का मौसम फिल्म में कहा हुआ वो डॉयलॉग मुझे सब पर बहुत भारी लगता है। मैं नशा नहीं करता क्योंकि मुझे लगता है कि जीवन का नशा सबसे बड़ा नशा है।




Wednesday, August 14, 2013

कल मैं दोनों भाषण नहीं सुनुँगा................

 अभी फेसबुक पर नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी के पेज पर गया, नरेंद्र मोदी को लाइक करने वालों की संख्या थी २९ लाख, राहुल गांधी को पसंद करने वाले २ लाख, यानी यहाँ भी .... फेल, .... पास। इनके पेज में अपने फेसबुक दोस्तों को देखा। दो राहुल गांधी को पसंद करने वाले और दस नरेंद्र मोदी को पसंद करने वाले। साफ है हवा मोदी के पक्ष में है।
                                       मेरे अधिकतर दोस्त नरेंद्र मोदी को पसंद करते हैं लेकिन उनके विरोध की आफत को मोल लेते हुए भी मैं अपने अंदर की आवाज लिखना चाहता हूँ जिससे मुझे संतोष होगा।

जो मैं कहना चाहता हूँ वो कुछ यूँ है...........

कल प्रधानमंत्री का भाषण लाल किले से होगा, दशक भर से चल रही परंपरा के अनुकूल यह भाषण हम जैसों को बेहद उबाऊ लगेगा, भाषण के कुछ बिन्दुओं को छोड़कर जिनमें प्रधानमंत्री हर साल की तरह पाकिस्तान को प्रेम भरी नसीहत देंगे और अंत में कह देंगे कि देश इसे सहन नहीं करेगा, अन्य हिस्सों को लिखने में प्रधानमंत्री के भाषण लेखकों को काफी दिक्कत का सामना करना होगा। या वे हर बार कहते जाएंगे, हमारे सामने कठिन चुनौतियाँ है लेकिन हम इसका सामना दृढ़ता से करेंगे। वे इतने भावहीन अंदाज में इतनी बड़ी बातें कह जाएंगे कि साल भर में एक दिन जगने वाला हमारा राष्ट्रप्रेम भी सो जायेगा।


एक भाषण गुजरात से होगा, यह भाषण ओजमयी होगा, वक्ता सीधे प्रधानमंत्री को टारगेट करेंगे, दिल्ली की सरकार को टारगेट करेंगे। मित्रों गुजरात में... जैसे शब्द उनके भाषण में भी आएंगे, पहले के उलट इसकी भाषा इतनी कठोर होगी कि मैं उत्तेजना से नहीं, एक अजीब से विषाद से भर जाउँगा। क्या गांधी के देश में दुश्मन के प्रति भी इतना सख्त लहजा उपयोग में लाया जा सकता है?


दो भाषण होंगे, एक पीएम के और दूसरा पीएम इन वेटिंग के, दोनों ही भाषणों में कुछ चीजें मैं मिस कर जाऊँगा जो मैं हर साल भावपूर्ण होकर वाजपेयी जी के भाषण में सुनता था। उनका भाषण किसी को टारगेट नहीं करता था, किसी को चुनौती नहीं देता था, वो आत्मस्वाभिमान का प्रकटीकरण मात्र होता था। एक ऐसा भाव जो भारत का केंद्रीय भाव है। भारत किसी देश से छोटा या बड़ा नहीं होना चाहता, अन्य देशों की तरह उसका अपना वैशिष्ट्य है। उनका भाषण चुनाव के मकसद से नहीं होता था, वे प्रधानमंत्री के रूप में चीजों को देखते थे, कड़े फैसले लेते थे लेकिन जो सरकारें दामादों की बैसाखियों पर टिकी रहती हैं उनके नेता क्या इतना प्रखर भाषण दे सकते हैं। दो भाषण होंगे, एक भाषण बिल्कुल अर्थहीन और दूसरा भाषण राजनीतिक निहितार्थ लिये, इसके बड़े इम्पैक्ट भारत के भविष्य पर पड़ सकते हैं।

कल मैं दोनों भाषण नहीं सुनुँगा................

Friday, August 2, 2013

रत्नै कल्पित मासनं हिमजलै.......



फाक्स हिस्ट्री ने गंगा पर एक कार्यक्रम बनाया था गंगेज. , इसकी प्रस्तुति विलयम डेलरिंपल ने की। गंगा की यात्रा गोमुख से शुरु होती है। विलियम डेलरिंपल बताते हैं कि गंगोत्री से गोमुख १३ किमी दूर है अधिकांश लोग गंगोत्री से लौट जाते हैं। संभवतः पहले गोमुख यहीं रहा हो। थोड़े यात्री गोमुख तक पहुँच पाने का साहस करते हैं। डाक्यूमेंट्री में जब विलियम को गोमुख की ओर बढ़ते देखा तो अजीब सी सिहरन शरीर में फैल गई। गोमुख के किनारे एक अगरबत्ती जल रही थी। बैकग्राउंड में जिस श्लोक का चयन किया गया वो था शिव मानस स्रोत.............रत्नै कल्पित मासनं हिमजलै.....। शिव और गंगा के इतने सारे श्लोकों के होने के बावजूद डेलरिंपल ने इस श्लोक का चयन क्यों किया होगा? शायद ये उनका आदि शंकराचार्य के प्रति आदर भाव था।
                                                     केरल के कलादि से निकलकर जब आदि शंकराचार्य हिमालय में गंगोत्री पर पहुँचे होंगे तो उनके मन में हर्ष और विस्मय के अजीब से भाव रहे होंगे। वही हिमालय जहाँ केरल के किसी चेर राजा ने विजय चिन्ह अंकित करने का दावा किया था। ऐसे ही विस्मय के बीच आदि शंकराचार्य ने शिव को नमन किया होगा। अजीब बात है कि शंकराचार्य अद्वैत दर्शन में विश्वास रखते थे, वेदांत में भरोसा रखते थे लेकिन उन्होंने रत्नै कल्पित मासनं हिमजलै जैसी महान रचना की। उन्होंने गीता की नव विधा भक्ति की परंपरा के अनुसार शिव जी की पूजा की।
            रत्नै कल्पित मासनं हिमजलै में शंकराचार्य प्रकृति के दिव्य रूप से अभिभूत हैं और शिव को उनके अपने संसार में निहार रहे हैं  इस महान गीत में सारी दिव्य वस्तुएँ शंकराचार्य ने भगवान शिव को भेंट की हैं लेकिन सारी चीजें कल्पना से प्रकट की हुई हैं।
               शंकराचार्य की उतनी ही महान रचना देवी से क्षमा याचना न मंत्रम नो यंत्रम भी है। ईश्वर के दिव्य रूप के समक्ष इतना अभिभूत कवि शंकराचार्य से पहले कोई नहीं दिखता, उसके बाद तुलसी और निराला हुए होंगे। तुलसी की समझ मुझमें नहीं, निराला की कविता में जरूर वो रूप दिखता है। इसकी आखिरी पंक्तियाँ तो एकदम क्लासिकल हैं और साहित्य के इतिहास में इन्हें सबसे ऊँचे दर्जे में रखा जाना चाहिए।

न मोक्षस्या कांक्षा भव विभव वांछा पिचन मे
न विज्ञाना पेक्षा शशि मुखी सुखेक्षा पि न पुनः
अतस्तवाम संयाचे जननी जननं यातु मम वई
मृडाणी रूद्राणी शिव शिव भवानी ती जपतः

मुझे मुक्ति की कोई आकांक्षा नहीं
मुझे धन अथवा ज्ञान की आकांक्षा भी नहीं
माँ मुझे सुखी होने की आकांक्षा भी नहीं
पर मैं तुमसे यही माँगता हूँ
कि जीवन भर मैं तुम्हारे नाम का स्मरण करता रहूँ।


 संस्कृत में लिखी कालिदास की कविताएँ साहित्य की धरोहर हैं लेकिन अपनी आध्यात्मिक ऊँचाई लिये आदि शंकराचार्य की कविता को आलोचकों ने अपनी समीक्षा के योग्य नहीं समझा क्योंकि बहुत पहले से ही धार्मिक साहित्य और लौकिक साहित्य में भेद करने की परंपरा भारत में डाल दी गई, इस मायने में केवल तुलसी भाग्यशाली साहित्यकार रहे और इस शताब्दी में कबीर भी।
                                        शंकराचार्य की इन दो रचनाओं को जब भी पूजा करते हुए मम्मी गुनगुनाती हैं तो मुझे लगता है कि शंकराचार्य का योगदान हिंदू धर्म के लिए वैसा ही है जैसा सेंट पीटर का ईसाईयत के लिए।
                                                   हिंदू धर्म ही क्यों, शंकर का योगदान देश को एक सांस्कृतिक ईकाई के रूप में जोड़ने को लेकर भी है, चारों कोनों पर धार्मिक मठ स्थापित कर शंकर ने इस देश को जोड़ा।
                                                किताबों में पढ़ा था कि शंकर को प्रच्छन्न बौद्ध कहा जाता था, उन्होंने बुद्ध के विचारों की आड़ लेकर बौद्ध धर्म को ही नष्ट कर दिया लेकिन बिना शंकराचार्य पर ज्यादा पढ़े ये दो रचनाएँ ही यह समझ देती हैं कि हिंदू धर्म के उद्धार के पीछे शंकर की गहरी आध्यात्मिकता, उनके भीतर की विशाल करूणा और एक मिशनरी का उनका उत्साह बड़ा कारण रहा है।
                                                     मुझे तो लगता है कि उनकी कविता ने भी यह कमाल किया होगा, शंकराचार्य यह समझते होंगे तभी उन्होंने अपने साहित्यकार रूप को पीछे रखा, संन्यासी के रूप पर इतना बल दिया। अन्यथा उन्हें भी एक साहित्यकार के रूप में बिना अलौकिक शक्ति के एक आदमी के रूप में खारिज कर दिया जाता और उनके जीवन का असल उद्देश्य पूरा नहीं हो पाता।