Sunday, September 22, 2013

लंच बाक्स


फिल्म कितनी ही खूबसूरत क्यों हो, ध्यान घड़ी पर चला जाता है कि अब कितना समय बाकी है। कुछ फिल्मों में यह इंतजार बड़ा नागवार गुजरता है। विवाह फिल्म तो ऐतिहासिक रही, मैं टॉकीज से इंटर में ही बाहर गया था, पार्किंग कर्मचारी ने पूछा था कि क्या आपकी शादी हो गई है, मैंने कहा नहीं, उसने कहा आप अजीब आदमी हैं कुँआरे तो दो-दो बार देख रहे हैं इसे। एक ऐसी ही नाग-नागिन वाली फिल्म देखने चला गया था, फिल्म के पूरी होते ही मुझे बुखार चढ़ गया और साँप सपने में आने लगे।

तब से मैंने फार्मूला बनाया है कि जिस फिल्म में मैं घड़ी पर नजर डालूँ वो सचमुच अच्छी है। शुद्ध देसी रोमांस इतनी बुरी लगी कि लगा कि बीच में ही चला जाऊँ लेकिन मल्टीप्लेक्स वालों से डर लगता है वो टॉकीज वालों की तरह शालीन नहीं होते, उनके यहाँ पर चिल्ला नहीं सकते, जोर-जोर से हँस नहीं सकते।

वैसे अच्छी फिल्मों के मामले में इंडियन टेस्ट कई मायनों में समानता रखता है अच्छे संवाद और दृश्यों में लोग दाद देते हैं। शुद्ध देसी रोमांस सबके लिए प्रताड़ना की तरह थी, यहीं पर कलाकार की मैच्योरिटी पता चलती है। सुशांत की दोनों फिल्में मैंने देखी है और दोनों ही एवरेज हैं। उनका दोष नहीं वे नये एक्टर हैं जो काम मिलता है करते हैं। आमिर खान ने भी शुरूआती दौर में मन जैसी खराब फिल्में की थीं।

लेकिन जब हम लंच बाक्स देखते हैं तो इसके जादू में खो जाते हैं। ऐसा लगता है कि हमारा मिडिल क्लास सिनेमा हमें वापस मिल गया, इसका हीरो महंगी कारों में नहीं घूमता, वो एलसीडी स्क्रीन पर फिल्में नहीं देखता,  अद्भुत बात यह है कि वो हीरो भी नहीं है वो 60 साल का आदमी है जो रिटायरमेंट की कगार पर खड़ा है।

फिर कुछ ऐसा होता है कि उसकी जिंदगी बदल जाती है। एक दिन खाने का डिब्बा बदल जाता है और सिलसिला शुरू होता है इला से बातचीत का। बातचीत भी क्या, एक छोटे से संवाद से शुरू होती है और उसका रिप्लाई आता है संक्षिप्त सा, डियर इला, साल्ट इज इन हायर साइड, ऐसा ही कुछ।

संवादों का सिलसिला शुरू होता है और आश्चर्य यह होता है कि हीरो की उम्र घटने लगती है उसके अंदर एक युवा का जन्म होने लगता है।

फिल्म का प्रोमो मैंने यूट्यूब पर देखा था, कुछ कमेंट थे कि ऐसी फिल्में एक्सट्रा मैरिटल अफेयर को बढ़ावा देंगी लेकिन फिल्म देखे बगैर ऐसे जजमेंट देना कितना बुरा हो सकता है यह भी मैंने जाना।

आखिर में वो मिलना तय करते हैं और इसके बाद आता है फिल्म में अजीब सा ट्विस्ट जो बिल्कुल भारतीय है।

इस फिल्म का सुख भारतीय घरों के सुख में है। परिवार के सुख में है जब परिवार का सुख दरक जाता है तो जिंदगी भी बिखर जाती है। शायद इसीलिए फिल्म में भूटान का जिक्र है जहाँ जीडीपी नहीं ग्रास हैप्पीनेस इंडेक्स है।

अस्सी तक हमारे मनोरंजन माध्यमों की बनावट ऐसी थी और खुशहाल परिवार उसके केंद्र में थे तब ये जो है जिंदगी जैसे सीरियल और गोलमाल जैसी फिल्में लोकप्रिय हुए।
फिल्म की खूबसूरती इस बात में है कि इसमें दुख है लेकिन निगेटिविटी नहीं, दुख भी कोई हार्ड कोर दुख नहीं।

लंचबाक्स देखते वक्त दर्शक खूबसूरत कमेंट कर रहे थे, एक सुंदर पटकथा पर उतनी ही सुंदर फिल्म चल रही थी। मैं अगर समीक्षक होता तो इसे पाँच में पाँच देता।

Tuesday, September 17, 2013

बेशर्म और खुदगर्ज सियासत



सियासत को देखने का मेरा अनुभव तीन दशक का है लेकिन इसका इतना बेशरम और खुदगर्ज रूप मैंने कभी नहीं देखा जो इन दिनों भारत के उत्तरी सूबे में नजर आ रहा है। इस सूबे की सरकार ने लोकतंत्र की परिभाषा ही बदल कर रख दी है गुंडों की, गुंडों द्वारा चलाई गई और गुंडों के लिए चलाई जा रही सरकार। अगर आपको ऐतराज हो तो गुंडों को बख्श सकते हैं और इसकी जगह ज्यादा इज्जतदार शब्द माफिया को जगह दे सकते हैं जो रेत से लेकर रेल के ठेकों तक हर मौजूद है।
 उन्होंने अपना जमीर खो दिया है लेकिन इज्जत खूब कमा ली है क्योंकि वहाँ इज्जत अब जमीर में नहीं रही, वो रूतबे में पलती है। जब मैडम गद्दी में थी तब मैडम के चप्पल उठाया करते थे, अब कुँअर साहब गद्दी में है तो उनके जूते साफ करते हैं। इस उत्तरी सूबे में केवल चेहरे बदल जाते हैं चरित्र नहीं बदलते। जब स्टिंग आपरेशन होते हैं तो सब हमाम में नंगे हो जाते हैं और नंगों की इतनी फौज खड़ी हो जाती है कि यकीन कर पाना मुश्किल होता है कि सियासत ने सभ्यता की राह में दो-चार कदम बढ़ाए भी या नहीं।
लूटी-पिटी और दागदार हो चुकी सियासत को बचाने वे न्यूज चैनलों में अपने नुमायंदे भेजते हैं फेस सेविंग की इस कोशिश में उनके दाग और फैल जाते हैं। स्टिंग आपरेशन में दिखाए तथ्यों से इंसानियत भले ही तार-तार हो जाए, मेहमानों की चुहल देखते ही बनती है आखिर लाइट मूड में ही तो बेहतर संवाद हो पाता है।