मैं बहुत हिचकते हुए यह बात लिख रहा हूँ कि मैं मनमोहन सिंह से प्रभावित हूँ और
उससे भी बढ़कर अजीब बात यह लगेगी कि इधर के दिनों में मनमोहन के प्रति मेरी श्रद्धा
और बढ़ी है।
पहली बात यह कि उन्होंने
जितनी आलोचना झेली, शायद आजाद भारत में किसी प्रधानमंत्री ने नहीं झेली होगी, यह आलोचना
भी मीठी नहीं थी जैसा वाजपेयी जी ने झेली कि आदमी तो अच्छे हैं लेकिन गलत पार्टी में
हैं। उनके जगह एकेडमिक फील्ड से आया कोई दूसरा शख्स होता तो उसने देश के प्रधानमंत्री
की नौकरी छोड़ दी होती लेकिन वे भीष्म की तरह ही गांधी परिवार से वायदा किए हुए थे
कि वे मझधार में पार्टी की नैया नहीं छोड़ेंगे।
दूसरी बात यह
कि वे जानते थे कि उनके पास भरत की तरह खड़ाऊ है, खड़ाऊ होने पर मर्यादा की सीमा में
रहना पड़ता है जनादेश जिनके पास है उनके फैसलों का सम्मान करना होता है और पालिटिकल
मामलों में यह सम्मान तो बेहद जरूरी है।
तीसरी बात यह कि वे केवल
अर्थशास्त्री नहीं हैं यह बात मुझे अच्छी लगी। मुझे याद है प्रधानमंत्री के रूप में
लोकसभा को संबोधित करते हुए उन्होंने जो पहली पंक्ति कही थी वो ये थी कि मुझे इस वक्त
नेहरू की बहुत याद आ रही है वे कहते थे कि पॉलिटिक्स में सेन्टीमेंट्स होने तो अच्छे
हैं लेकिन सेंटीमेंटल नहीं होना चाहिए लेकिन मैं इस मौके पर सेंटीमेंटल हो रहा हूँ।
उनका मिजाज शायरी
से भरा है मेरे कलाम से बेहतर है मेरी खामोशी न जाने कितने सवालों की आबरू रख ली। अफसोस
कि उनका अंदाज-ए-बयां बहुत बुरा है जिससे बहुत सार्थक अर्थ रखने वाले शब्द भी अपने
मायने खो देते हैं।
चौथी बात यह कि मनमोहन
कभी राजनीति में भावनात्मकता का प्रवेश नहीं करते, शायद अपने गुरु नेहरू से उन्होंने
यह सिखा है जो खुद भी अनेक मौकों पर भावनाओं में बह जाया करते थे। कभी अपने परिवार
वालों का जिक्र उन्होंने नहीं किया, कभी आत्मप्रशंसा में नहीं बहे। केवल एक बार राष्ट्र
के नाम संबोधन में उन्होंने अपनी तीन बेटियों का जिक्र किया। वो भी तब उन पर जब आरोप
लगे कि वे बेटियों की चिंता नहीं करते।
हम उनके भाषण में यह सब
भूल गए केवल उनके अंतिम शब्द याद रह गए ठीक है। क्या भारत एक ऐसे व्यक्ति को स्पेस
देने को तैयार नहीं है जो खामोशी से काम करने में भरोसा रखता है जो डींग नहीं हांकता,
चीजों को ठीक करने का प्रयास करता है। वो अर्थशास्त्र तो जानता है लेकिन ब्रांडिंग
नहीं जानता इसलिए बाजार के मनोविज्ञान को नहीं समझ पा रहा।
नितिन गडकरी के
पुत्र की शादी के किस्से हम सबने सुने हैं लेकिन उसी के आसपास प्रधानमंत्री की बेटी
की भी शादी हुई थी, खबर में केवल ३० शब्द थे, गिने-चुने मेहमानों के मध्य सादे तरीके
से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की बेटी की शादी संपन्न हुई।
पाँचवीं और सबसे महत्वपूर्ण
बात यह कि वे एकेडमिक हैं एकेडमिक व्यक्ति सत्ता से दूर रहना चाहता है वो राजनीति को
जंजाल समझता है वो किताबों से घिरा रहना चाहता है वो अपनी आत्मसंतोष की छोटी सी परिधि
से बाहर नहीं आना चाहता। मनमोहन इस परिधि से बाहर निकले और देश को शेप देने में महत्वपूर्ण
भूमिका निभाई।
यह सही है कि प्रधानमंत्री
के रूप में उनका द्वितीय कार्यकाल बेहद असफल रहा है और इसने मनमोहन सिंह की पुरानी
उपलब्धियों पर भी पानी फेर दिया है उनका लोकतांत्रिक रवैया और संवेदनशील स्वभाव प्रधानमंत्री
के पद को कमजोर कर रहा है उनका अर्थशास्त्र भी विफल हो गया है और वे सबसे ज्यादा घोटाले
करने वाली सरकार के मुखिया बन गए हैं फिर भी पता नहीं मन क्यों मनमोहन को सवालों के
कटघरे में खड़ा करने की इजाजत नहीं देता?