Saturday, January 26, 2013

मन क्यों नहीं देता मनमोहन को सवालों के कटघरे में खड़े करने की इजाजत





मैं बहुत हिचकते हुए यह बात लिख रहा हूँ कि मैं मनमोहन सिंह से प्रभावित हूँ और उससे भी बढ़कर अजीब बात यह लगेगी कि इधर के दिनों में मनमोहन के प्रति मेरी श्रद्धा और बढ़ी है।
                    पहली बात यह कि उन्होंने जितनी आलोचना झेली, शायद आजाद भारत में किसी प्रधानमंत्री ने नहीं झेली होगी, यह आलोचना भी मीठी नहीं थी जैसा वाजपेयी जी ने झेली कि आदमी तो अच्छे हैं लेकिन गलत पार्टी में हैं। उनके जगह एकेडमिक फील्ड से आया कोई दूसरा शख्स होता तो उसने देश के प्रधानमंत्री की नौकरी छोड़ दी होती लेकिन वे भीष्म की तरह ही गांधी परिवार से वायदा किए हुए थे कि वे मझधार में पार्टी की नैया नहीं छोड़ेंगे।
                           दूसरी बात यह कि वे जानते थे कि उनके पास भरत की तरह खड़ाऊ है, खड़ाऊ होने पर मर्यादा की सीमा में रहना पड़ता है जनादेश जिनके पास है उनके फैसलों का सम्मान करना होता है और पालिटिकल मामलों में यह सम्मान तो बेहद जरूरी है।
                तीसरी बात यह कि वे केवल अर्थशास्त्री नहीं हैं यह बात मुझे अच्छी लगी। मुझे याद है प्रधानमंत्री के रूप में लोकसभा को संबोधित करते हुए उन्होंने जो पहली पंक्ति कही थी वो ये थी कि मुझे इस वक्त नेहरू की बहुत याद आ रही है वे कहते थे कि पॉलिटिक्स में सेन्टीमेंट्स होने तो अच्छे हैं लेकिन सेंटीमेंटल नहीं होना चाहिए लेकिन मैं इस मौके पर सेंटीमेंटल हो रहा हूँ।
                                      उनका मिजाज शायरी से भरा है मेरे कलाम से बेहतर है मेरी खामोशी न जाने कितने सवालों की आबरू रख ली। अफसोस कि उनका अंदाज-ए-बयां बहुत बुरा है जिससे बहुत सार्थक अर्थ रखने वाले शब्द भी अपने मायने खो देते हैं।
                 चौथी बात यह कि मनमोहन कभी राजनीति में भावनात्मकता का प्रवेश नहीं करते, शायद अपने गुरु नेहरू से उन्होंने यह सिखा है जो खुद भी अनेक मौकों पर भावनाओं में बह जाया करते थे। कभी अपने परिवार वालों का जिक्र उन्होंने नहीं किया, कभी आत्मप्रशंसा में नहीं बहे। केवल एक बार राष्ट्र के नाम संबोधन में उन्होंने अपनी तीन बेटियों का जिक्र किया। वो भी तब उन पर जब आरोप लगे कि वे बेटियों की चिंता नहीं करते।
                 हम उनके भाषण में यह सब भूल गए केवल उनके अंतिम शब्द याद रह गए ठीक है। क्या भारत एक ऐसे व्यक्ति को स्पेस देने को तैयार नहीं है जो खामोशी से काम करने में भरोसा रखता है जो डींग नहीं हांकता, चीजों को ठीक करने का प्रयास करता है। वो अर्थशास्त्र तो जानता है लेकिन ब्रांडिंग नहीं जानता इसलिए बाजार के मनोविज्ञान को नहीं समझ पा रहा।
                        नितिन गडकरी के पुत्र की शादी के किस्से हम सबने सुने हैं लेकिन उसी के आसपास प्रधानमंत्री की बेटी की भी शादी हुई थी, खबर में केवल ३० शब्द थे, गिने-चुने मेहमानों के मध्य सादे तरीके से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की बेटी की शादी संपन्न हुई।
                   पाँचवीं और सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि वे एकेडमिक हैं एकेडमिक व्यक्ति सत्ता से दूर रहना चाहता है वो राजनीति को जंजाल समझता है वो किताबों से घिरा रहना चाहता है वो अपनी आत्मसंतोष की छोटी सी परिधि से बाहर नहीं आना चाहता। मनमोहन इस परिधि से बाहर निकले और देश को शेप देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
              यह सही है कि प्रधानमंत्री के रूप में उनका द्वितीय कार्यकाल बेहद असफल रहा है और इसने मनमोहन सिंह की पुरानी उपलब्धियों पर भी पानी फेर दिया है उनका लोकतांत्रिक रवैया और संवेदनशील स्वभाव प्रधानमंत्री के पद को कमजोर कर रहा है उनका अर्थशास्त्र भी विफल हो गया है और वे सबसे ज्यादा घोटाले करने वाली सरकार के मुखिया बन गए हैं फिर भी पता नहीं मन क्यों मनमोहन को सवालों के कटघरे में खड़ा करने की इजाजत नहीं देता?
                     

Tuesday, January 22, 2013

राहुल के भाषण पर जो मैंने फेसबुक से समझा...


  


  jab-2 my congressi hona chata hu tab-2 digvijay singh ny to rajiv shukla ny to susheel shinde ny to manishankar ayyer meri mansikta badal dete hy...unka bahut-2 dhanywaad..

  मेरे एक युवा मित्र की फेसबुक पर यह टिप्पणी उन युवाओं की प्रतिनिधि टिप्पणी है जो अपने दिल और दिमाग के दरवाजे खुले रखते हैं जिनके मन किसी खास राजनीतिक विचारधारा के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रसित नहीं हैं। जब कहीं से उन्हें उम्मीद की किरण दिखती है वे इस ओर मुड़ जाते हैं।
                              युवा वर्ग का यही तेवर देश के भविष्य के प्रति हमें आशान्वित करता है लेकिन वोट बैंक की घटिया राजनीति में डूबे हमारे राजनेता हमेशा युवा भरोसे का गला घोंट देते हैं। राहुल गांधी के भावुक भाषण को अनेक लोगों ने सराहा यद्यपि सभी को मालूम था कि इसमें लफ्फाजी के सिवा कुछ नहीं है क्योंकि राहुल के पास देश के लिए किसी तरह का विजन नहीं है, उन्हें देश के इतिहास की जानकारी भी नहीं, समझ भी नहीं, थोड़ी बहुत जानकारी जो इस युवा को है वो केवल अपने पिता और दादी तक ही सीमित है। उनका शब्दकोष बेहद सीमित हैं विकास, आम आदमी जैसे कुछ शब्द ही उसमें शामिल है लेकिन इनके भी असल अर्थ उन्हें नहीं मालूम। ऐसा लग सकता है कि राहुल गांधी पर टिप्पणी करने में जरूरत से अधिक सख्त हो रहा हूँ लेकिन एक ऐसा लीडर जिसे देश संभालना है अपनी बात को केवल एक रात और एक सुबह की कहानी में समेट दे, यह मुझे पसंद नहीं, मुझे तो तब अच्छा लगता जब वो नेहरू की तरह दो सौ पीढ़ियों से अधिक पुरानी बातें भी याद करते। मैंने दूरदर्शन में अरसे पहले टर्की के प्रेसीडेंट का एक इंटरव्यू देखा था, इसमें वो टैगोर से लेकर राधाकृष्णन तक भारत के सभी इंटलेक्चुअल्स के बारे में धड़ेल्ले से अपनी बात कह रहे थे, राहुल कहीं से जमीन से जुड़े नहीं लगते, दलितों के साथ खाना खाने से कोई लीडर नहीं बनता, उसे उस भाषा में बात करनी होती है जिसे दलित बोलते हैं उसे अपना राजसी लबादा वैसे ही त्यागना पड़ता है जैसे गाँधी जी ने बैरिस्टरी की पढ़ाई करने के बाद भी गरीब की लंगोट ही पहनी।
                              राहुल तब भावुक क्यों नहीं हुए जब देश लोकपाल की आवाज को लेकर संघर्ष कर रहा था, वे तब क्यों नहीं सड़कों पर उतरे जब देश दामिनी के लिए संघर्ष कर रहा था। वे तब क्यों चुप थे जब शिंदे और दिग्विजय भारतीय समाज पर आतंकवाद का घिनौना आरोप लगा रहे थे, उन्होंने तब क्यों कुछ नहीं कहा जब जमात-उद-दावा के नेता हाफिज सईद साहब ने खुलेआम कहा कि अपने हिंदू आतंकवाद पर भारत क्यों सवाल नहीं उठाता।
            जब उनके अपनी पार्टी के नेता देश का सेकुलर फैब्रिक नष्ट करते हैं तब राहुल को क्या हो जाता है? हर बार जब मैं राहुल गांधी के भावुक भाषण पर किसी की सकारात्मक टिप्पणी को सुनता हूँ तो सूरज भाई की टिप्पणी याद आ जाती है और भारतीय राजनीति के प्रति निराशा के बादल पूर्ववत छा जाते हैं।

Sunday, January 20, 2013

टैगोर की धवल दाढ़ी पर हेलेन की ऊंगलियाँ



१३ जनवरी २०१२ की फ्रंटलाइन पर रबीन्द्रनाथ टैगोर पर छपी कवर स्टोरी को पढ़ते हुए एक चित्र पर ठिठक गया। यह १९३० की फोटो है जब रबीन्द्रनाथ न्यूयार्क में थे और हेलेन केलर से मिलने पहुँचे थे। चित्र में हेलेन केलर की ऊंगलियाँ टैगोर की धवल दाढ़ी और होंठों पर हैं। वे गहरी आत्मीयता से इन्हें स्पर्श कर रही हैं उनका पूरा चेहरा टैगोर के प्रति गहरी आत्मीयता से प्रस्फुटित हो रहा है। टैगोर खुली आँखों से हेलेन केलर को देख रहे हैं उनकी आत्मीयता कहीं छिप गई है और जिज्ञासा का पक्ष प्रबल हो गया है।
               इस चित्र को देखकर मुझे महसूस हुआ कि इंद्रियां हमें सुख देती हैं लेकिन इनका होना हमें सुख से भटका भी देता है। दुनिया की दो महान हस्तियाँ जब एक दूसरे से मिलीं तो एक पूरी तरह से भावविभोर हो गई लेकिन टैगोर जिज्ञासा में बह गए। पुरानी कहानी याद आती है द्रोण ने कहा था कि चिड़िया की आँख पर नजर रखना है लेकिन इंद्रियाँ कहीं पर टिकने नहीं देती।
                                  हेलेन केलर पर पढ़े अंग्रेजी के एक पाठ की अंतिम पंक्तियों का हिंदी तर्जुमा कुछ इस प्रकार था, दुनिया की सबसे खूबसूरत चीज को न छूआ जा सकता है न देखा जा सकता है इसे केवल महसूस किया जा सकता है। इन पंक्तियों का पूरा मर्म मैंने इस चित्र को देखकर ही पाया। चित्र देखने के बाद मुलाकात के बारे में जानने की दिलचस्पी हुई, हेलेन केलर पर पेज खंगाले। हेलेन ने इस मुलाकात के बारे में लिखा था कि टैगोर को छूने का एहसास ऐसा था जैसे किसी संत का आशीर्वाद झर रहा हो। मुझे आश्चर्य होता है कि भारत को अब तक आजादी क्यों नहीं मिल पाई। हेलेन ने उन्हें बताया कि उसने गीतांजलि पढ़ी है और टैगोर की एक कविता भी बताई। फिर कहा कि मुझे अच्छा लगता है कि आप पूरी मानवता के बारे में सोचते हैं।
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हेलेन की मुंबई यात्रा का एक दिलचस्प संस्मरण भी पढ़ने मिला। इसे श्रीमती माधवी राजेंद्र व्यास ने हिंदू में लिखा था। जब हेलेन मुंबई आई तो उन्होंने साड़ी पहनने की इच्छा जताई। उस समय महाराष्ट्र सरकार के मंत्री श्री शांतिलाल शाह की बेटी ने हेलेन को साड़ी पहनाई। श्रीमती व्यास को यह किस्सा उनके पति ने बताया जो खुद ही १२ वर्ष के उम्र में दृष्टिबाधिता का शिकार हो चुके थे और उनके एसोसिएशन ने ही हेलेन को मुंबई आमंत्रित किया था।

Saturday, January 19, 2013

हवा का सुख................



संयोग से जिस दिन पहुँचे, उस दिन वहाँ मैनपाट कार्निवल का आयोजन होना था। इसका प्रमुख आकर्षण था रशियन बैले नाटक। मुझे डाँस की समझ नहीं, नाचना भी नहीं आता, क्योंकि पप्पू कांट डांस साला... जैसा गीत मुझे बहुत चुभता है और वो बंदा ही क्या है जो नाचे न गाये जब आता है तो लगता है जैसे मुझ पर कोई नश्तर चला रहा है। फिर भी मैं नृत्य के प्रति अपनी पुरानी उदासीनता धीरे-धीरे छोड़ने की कोशिश कर रहा हूँ। रशियन बैले डांस में मैंने देखा कि एक लय थी उसमें, संभवतः जैसे कविता और संगीत की चरम उपलब्धि उसके लय में होती है संभवतः डांस भी ऐसा ही होता होगा।
                                 ऐसे मामलों में दूरदर्शन खूब था, क्लासिकल प्रोग्राम आते थे, चूँकि वो बचपन था इसलिए समझ नहीं थी। भरतनाट्यम और कत्थककली में एक डाक्यूमेंट्री देखी थी उन दिनों, एक तमिल प्रोफेसर थीं वो बताती थीं कि किस प्रकार एक-एक मुद्रा के कितने अर्थ होते हैं। काश क्लासिकल डांसर अपने साथ एक इंटरप्रिटर भी रखते जो हम जैसे कम अक्ल लोगों को बता पाते कि वे जो स्टेप करते हैं वो कितना गहरा अर्थ रखते हैं। अगर मुझे क्लासिकल डांस समझ आए तो आनंद का एक बड़ा खजाना मेरे सामने खुल जाएगा। काश ऐसा हो।
                                                 कार्निवल का आयोजन एक मोटल में किया गया था, चकाचौंध से भरा माहौल मुझे पसंद नहीं, मैं तो हवा का सुख लेने वहाँ पहुँचा था लेकिन जो साथ थे उनका सुख तो केवल कार्निवल में था तो बिना प्रोग्राम समाप्त हुए वहाँ से विदा हो पाना मुश्किल था।
              जब निकले तब मैनपाट में रात सज चुकी थी, इस बार हवा का सुख लेना संभव नहीं था। रास्ते में उतरते समय मित्र ने कार का ब्रेक तेजी से मारा। एक लकड़बग्घा सामने था। उसने घूरकर देखा, संभवतः पहली बार उसने रात के वक्त यहाँ आबादी देखी होगी क्योंकि खासतौर पर पर्यटन नक्शे में मैनपाट को लाने के लिए यह सड़क बनाई गई थी और कुछ दिन पहले ही खुली थी। मुझे आश्चर्य हुआ कि तेज औद्योगिकीकरण के इस दौर में इस हाइना को इस वीरान जंगल में खाने के लिए जानवर अथवा उनकी लाशें कहाँ से मिलती होंगी? फिर भी यह दिलचस्प अनुभव रहा। अचानक मुझे तीन बरस पहले हुए एक अनुभव की स्मृति हो आई।
                                                 हम लोग पचमढ़ी में थे और सुबह पाँच बजे धूपगढ़ में सूर्योदय देखने रवाना हुए। हमारी जिप्सी दूसरे नंबर पर थी। हमने देखा कि ड्राइवर ने अचानक ब्रेक लगाई। सामने गौर का एक झुंड निकला, इसमें पाँच सदस्य थे और दो छोटे बच्चे।
                             उस लकड़बग्घे को देखकर दया भी आ रही थी, उसका जंगल, उसका आशियाना अब अधिक दिनों तक साथ देने वाला नहीं, वहाँ बाल्को के क्रशर पहुँच गए हैं। भारत-पाक सीमा पर तनाव बढ़ गये हैं अब अधिक युद्धक विमानों की जरूरत पड़ेगी, लगेगा ज्यादा एल्यूमीनियम और वीरान हो जाएंगे, मैनपाट के जंगल और साथ ही खत्म हो जाएगा हवा का सुख।
                                     फिर सोचा कि औद्योगिकीकरण भी तो जरूरी है देश की आबादी बढ़ रही है, सबको भोजन चाहिए, कपड़े चाहिए, घर चाहिए। इसके लिए कहाँ से लाएंगे स्टील, कोयला। जंगलों के बूते ही न। मैनपाट से उसी रात अंबिकापुर और फिर बलरामपुर लौटना था। बलरामपुर में रूकने के लिए एक ही लॉज है। वहाँ रुकना हुआ, जहाँ रूम लिया, वहाँ बगल से एक डॉरमेट्री थी जिसमें एक हॉल में १० लोग रुके थे। हम अक्सर कहते हैं कि देश की आबादी बढ़ रही है लोगों की जरूरतें बढ़ रही हैं लेकिन अधिकतर लोग तो बेहद मामूली संसाधनों में ही पूरा जीवन काट देते हैं। स्टील और कोयला तो चाहिए, एंटीलिया जैसी इमारतों में फूँकने के लिए।
                                                          मैनपाट से उतरते वक्त मैं औद्योगिक समाज की विडंबनाओं को सोच रहा था लेकिन अचानक दोस्त ने एक गाना चला दिया, तुमसे मिला था प्यार कुछ अच्छे नसीब थे, हम उन दिनों अमीर थे जब तुम करीब थे, दिल खुश हो गया और मैनपाट की सुंदर स्मृतियाँ इसी के साथ हमेशा के लिए दिमाग में दर्ज हो गईं।

Friday, January 18, 2013

हवा का सुख (प्रथम भाग)




(ल्हासा का पैलेस, स्वर्ग जो केवल तिब्बतियों के लिए नहीं है)
अब तक मैंने हवा का सुख ट्रेन में ही जाना था, सतपुड़ा की पहाड़ियों से रात को गुजरती हुई ट्रेन, जब चाँदनी रात में सारे तारें बिछ जाते थे और जुगनू इस महफिल को सजाने चारों ओर बिखर जाते थे तब मैं खिड़की के पास झुक कर आसमान ताकने लगता था, शीतल हवाओं के थपेड़े जब गालों पर पड़ते थे तब अजीब अलौकिक अनुभूति होती थी, ऐसे में एक द्वंद्व भी शुरू होता था उस समय को एन्जॉय करने के लिए, एक खूबसूरत गाना गुनगुनाते हुए इस माहौल को एन्जॉय करूँ या अपने प्रियजनों को याद करूँ?
                                                  इस बार मैंने हवा का सुख पहाड़ों में जाना, छत्तीसगढ़ का शिमला कहे जाने वाले मैनपाट में मुझे हवा का सुख मिला। एक ऊँचे पाट पर केवल आप होते हैं और चारों ओर से आने वाली हवाएं, ऐसा लगता है जैसे कह रही हों पधारो म्हारे देश रे............
                                               मैं घंटों इस हवा का सुख लेना चाहता था, हमने कुछ फोटोग्राफ्स खिंचवाए, लेकिन मुझे आश्चर्य होता रहा कि इन फोटोग्राफ्स में सबसे सुंदर और सबसे जबरदस्त कैरेक्टर तो बाहर है यहाँ की हवा। यहाँ आकर लगा कि देखा हुआ भी सच नहीं है लेकिन महसूस किया हुआ ही सच हो सकता है। पाट के बिल्कुल नीचे पतली धारा के साथ नदी बह रही थी, बस्ती का नामोंनिशां नहीं था, कुछ झोपड़ियां बनी थीं जो इस लैंडस्केप का स्वाभाविक हिस्सा जान पड़ रही थीं। पाट के सबसे ऊपर हवाएँ सबसे तेज। वहाँ पर टाइगर प्वाइंट देखा, पहले यहाँ शेर पानी पीने आता था लेकिन अब वो यहाँ नहीं आता।
                                         उसका झरना अब भी वहाँ पर है। मुझे हवा के साथ ही पानी का सुख भी बहुत अच्छा लगता है। मेरी बस जब सरगुजा की पहाड़ियों से गुजर रही थी तो पहाड़ी नालों को देखकर मुझे बार-बार लगा कि मैं रूक जाऊँ, घंटों इस पानी में लेटा रहूँ लेकिन मैं सभ्य संसार के सामने अपने इस पागलपन को प्रगट नहीं करना चाहता था सो मैं निरीह होकर केवल खिड़की से नालों को ताकता रह गया। सेमरसोत अभयारण्य में एक जगह रेत के दरिया में पानी बह रहा था, शुद्ध पारदर्शी पानी, अगर मैं अंबानी होता तो एंटीलिया नहीं बनाता, ऐसे ही किसी जगह अपना आशियाना बना लेता...।
                              मुझे मैनपाट की आध्यात्मिकता ने भी काफी प्रभावित किया, मैं शायद कभी लद्दाख न देख पाऊं, ल्हासा तो संभव ही नहीं तो मेरे लिए मैनपाट ही मेरा लद्दाख और ल्हासा है। यहाँ बुद्ध कई रूपों में दिखते हैं एक तिब्बती बौद्ध भिक्षु ने हमें तिब्बत में प्रचलित बौद्ध संस्कृति की जानकारी दी।
                                                      मुझे पहली बार मैनपाट में एहसास हुआ कि अपनी जड़ों से बिछड़ना कैसा दुखद अनुभव होता है। अपनी धरती छोड़कर एक अनजान दुनिया में आशियाना बनाना इनके लिए कितना मुश्किल रहा होगा, एक साम्राज्यवादी शक्ति के शोषण को झेलने मजबूर लोग? उन्हें देखकर नेहरू के प्रति श्रद्धा के भाव पैदा होते हैं कि उन्होंने एक अहिंसक संस्कृति के प्रति चीन का शत्रुभाव लेकर भी भारत का अतिथि धर्म निभाया, जब मैंने छोटे-छोटे तिब्बती बच्चों को मुस्कुराते हुए तो देखा तो लगा कि बड़ी ट्रैजेडी देने के बावजूद सब कुछ ईश्वर हमसे नहीं छीन लेता, इन बच्चों की मुस्कान के रूप में हमें देता है उम्मीद की किरण, एक नई धरती, एक नई जिंदगी की अंकुर फूटने के लिए।

Sunday, January 6, 2013

पुस्तक नेहरू पर, विचार गाँधी का




जहाँ मुंज घास नहीं उगती और जहाँ चिंकारा नहीं विचरता, उस क्षेत्र में प्रवेश कलियुग में वर्ज्य है। इस मान्यता को तोड़ते हुए जब पहली पीढ़ी विलायत गई होगी तो कैसे अनुभव रहे होंगे? शायद हम कभी न जान पाएं। ब्रिस्टल में राजा राममोहन राय की समाधि को देखते हुए यह प्रश्न मेरे दिमाग में आता था। खुशवंत सिंह की पुस्तक बरियल एट सी को पढ़ते हुए यह प्रश्न ताजा हो गया। यह पुस्तक परोक्ष रूप से नेहरू के जीवन पर आधारित है। नेहरू से मिलते-जुलते केरेक्टर के विलायत में अनुभव कुछ तो नेहरू के और कुछ खुशवंत के तथा बहुत से उन लोगों के होंगे जिन्होंने खुशवंत को अपने किस्से सुनाए होंगे। इन अनुभवों को पढ़ने के दौरान मुझे गाँधी की विदेश यात्रा जेहन में आ गई।
                                    कक्षा आठवीं में एक पूरी किताब हम लोगों के सिलेबस में गाँधी जी पर थी। मुझे यह बहुत दिलचस्प लगी थी। गाँधी जी की विलायत यात्रा का वर्णन इसमें बहुत सुंदर था। एक वाक्य मुझे याद है एक ब्रिटिश हमसफर ने गाँधी से कहा कि बिस्के की खाड़ी तक तो ठीक है लेकिन उससे आगे तुम शराब को हाथ लगाए बगैर नहीं रह पाओगे। फिर एक वर्णन उस किताब में आया। गाँधी जी मांसाहारी रेस्टारेंट के आगे भीगते रहे, अपनी दोस्ती तोड़ दी लेकिन माँ को दिया हुआ वचन नहीं छोड़ा।
                    मुझे आश्चर्य होता है कि गाँधी फिल्म में इन दो दृश्यों को क्यों नहीं दिखाया गया? एक भारतीय के लिए शून्य से नीचे तापमान में इनके बगैर रह पाना कितना कष्टसाध्य रहा होगा, ऐसे व्यक्ति के लिए जो ब्रिटिश कल्चर में रंगना चाहता है उसके लिए डांस सीख रहा है, टाई पहनना सीख रहा है उसके लिए यह सब कितना कष्टसाध्य रहा होगा लेकिन गांधी इसलिए ही गांधी बन पाए।
                                                   सचमुच यह गाँधी की उपलब्धि रही कि नेहरू जैसे केरेक्टर पर आधारित एक पुस्तक पढ़ते हुए भी मैं उनको ही सोच रहा हूँ? इंग्लैंड के मुक्त समाज को देखते हुए और इस पुस्तक को पढ़ने के बाद मुझे यह महसूस हुआ कि इस समाज में विचलन बेहद आसान था और जो चीजें हमको भारत में बेहद परंपरागत लगती थी, विलायत में पहुँचकर ऐसा माहौल होता था कि लगता होगा कि ये सब तो फिजूल है। आप माइकल मधुसूदन दत्त के जीवन में इसे देख सकते हैं।
                             अगर हमने किताबों में नहीं पढ़ा होता तो शायद ही विश्वास कर पाते कि गाँधी ने अपनी युवावस्था विलायत में गुजारी थी। वे विलायत के प्रदूषण से बिल्कुल अछूते रहे, यही वजह है कि बिल्कुल देहात का एक व्यक्ति भी उनसे संवाद कर पाया। मुझे फाक्स हिस्ट्री की गाँधी जी पर बनी एक फिल्म याद आती है। इस डाक्यूमेंट्री में एक ब्रिटिश लड़की कहती है कि मुझे गाँधी जी अच्छे लगते हैं क्योंकि वे सबसे प्यार करते हैं। ठंड से ठिठुरने के इस मौसम में जब मैं यह लिख रहा हूँ तो गाँधी के संयम और प्रतिज्ञापालन के प्रति मेरी कृतज्ञता और बढ़ गई है।

Wednesday, January 2, 2013

हैलो हनी बनी

आपको दो महीने के बच्चे से बात करनी है तो आप कैसे करेंगे, आपको इसका पूर्व अनुभव भी नहीं है? यह सिचुएशन मेरे लिए काफी मुश्किल हो सकती थी लेकिन आइडिया के कॉलर ट्यून हैलो हनी बनी ने मुझे बचा लिया। मैं अपनी दो महीने की बिटिया के साथ बातचीत की शुरुआत इससे ही करता हूँ। हैलो हनी बनी। अभी वो अपनी नानी के घर में है मैं जब उससे मिलने शाम को जाता हूँ तब उसकी मालिश होती रहती है। उसकी मालिश वाली दीदी कहती है देखो हनी बनी के पापा आ गए।
                                                                                              हनी बनी की धुन उमंग से भरी है, ऐसा लगता है कि बच्चों पर भी इसका असर होता होगा। मैंने अपने स्कूल की पुस्तक में होमी जहाँगीर भाभा की एक कहानी पढ़ी थी, होमी बचपन में बहुत रोते थे, तब उनकी मम्मी पियानो की धुन बजाया करती थी और वे शांत हो जाते थे। मैं म्यूजिक का प्रयोग अपनी बिटिया के साथ करता हूँ। पता नहीं उसे फर्क पड़ता है या नहीं लेकिन थोड़ा सा मूड फ्रेश तो होता ही होगा।
                                                        फीलिंग समथिंग समथिंग....। हाऊ मेनी टाइम्स लेडी लव हैव गिवन मी मिस कॉल, वॉट टू टेल यू लेजी लक, नो बैटरी एट आल, इधर उधर हार्ट पहुँचिंग लाइक ए पिंग पांग बॉल बॉल बॉल बॉल। ये रिंग ट्यून हमको कितने उमंग से भर देती है और चूँकि हनी बनी का वायरस तेजी से फैल रहा है तो इस ताजगी का एहसास हर जगह हो रहा है। जब भी यह ट्यून बजती है लोगों का चेहरा खिल जाता है। थोड़ी सी शरारत ने इस रिंग टोन में अजब सा आनंद भर दिया है यह फ्रेशनेस लंबे समय तक टिकी रहेगी, ऐसे लगता है थैंक्स माई हनी बनी.....

              

Tuesday, January 1, 2013

महाराजा का कुआँ






अंग्रेजी दौर के राजाओं के बारे में हमारे मन में एक खास किस्म की छवि बैठी है। ऐशो-आराम में खोये, अंग्रेजों की खुशामद में लगे और रियाया से बेखबर लोग। मेरे मन में यह छवि तब और गहरी हुई जब मैंने फ्रीडम एट मिडनाइट में महाराजाओं के जीवन के वर्णन पढ़े। ऐसे में बीबीसी में एक स्टोरी पढ़ना काफी दिलचस्प अनुभव रहा। यह काशी नरेश के बारे में था। काशी नरेश ने संयुक्त प्रांत के पूर्व ब्रिटिश लेफ्टिनेंट जनरल रीड से दक्षिण इंग्लैंड के एक गाँव स्टोक रो का एक मार्मिक किस्सा सुना। अकाल का वक्त था, एक माँ ने पूरे परिवार के लिए एक दिन का पानी सुरक्षित रखा था, परिवार वालों के बाहर जाने पर एक मासूम बालक उसे अकेले ही पी गया, इस पर माँ ने उसकी खूब पिटाई की।
                                         जनरल रीड से यह कहानी काशी नरेश को पत्र से प्राप्त हुई। काशी नरेश ने तुरंत निर्णय लिया कि इस इलाके की पानी की समस्या दूर करनी चाहिए। उन्होंने कुआँ खुदवाने के लिए जनरल रीड को मदद की और भारत के किसी महाराज का पहला कुआँ इग्लैंड में बन गया। इसके बाद अन्य महाराजाओं ने भी पहल की। महाराज ने समय-समय पर मरम्मत के लिए मदद भी प्रदान की और चेरी का एक बगीचा भी वहाँ लगवाया। पानी की समस्या हल होने से यह इलाका पूरी तरह आबाद हुआ।
                                    कुआँ काफी चर्चित हुआ और इसकी स्थापना के 100 वें वर्ष में ड्यूक आफ एडिनबरा भी यहाँ आए। वैसे हमारे मन में प्रश्न आ सकता है कि बनारस के आसपास जब हजारों लोग प्यासे मर रहे होंगे तो सुदूर इंग्लैंड में महाराज कुआँ क्यों खुदवा रहे हैं। दरअसल रीड जब संयुक्त प्रांत में थे तब उन्होंने काशी नरेश के साथ मिलकर अनेक कुएँ खुदवाए थे।
                                                     दो देश जो साम्राज्यवादी शत्रुता के साँचे में बंधे थे, के बीच ऐसी घटनाएँ सुनना सुखद अनुभव होता है, इतना सुखद की लोग इस पर पुस्तकें भी लिख सकते हैं जैसाकि लॉरीन डिविलियमसन ने लिखी