संयोग से जिस दिन पहुँचे, उस दिन वहाँ मैनपाट कार्निवल का आयोजन होना था। इसका
प्रमुख आकर्षण था रशियन बैले नाटक। मुझे डाँस की समझ नहीं, नाचना भी नहीं आता, क्योंकि
पप्पू कांट डांस साला... जैसा गीत मुझे बहुत चुभता है और वो बंदा ही क्या है जो नाचे
न गाये जब आता है तो लगता है जैसे मुझ पर कोई नश्तर चला रहा है। फिर भी मैं नृत्य के
प्रति अपनी पुरानी उदासीनता धीरे-धीरे छोड़ने की कोशिश कर रहा हूँ। रशियन बैले डांस
में मैंने देखा कि एक लय थी उसमें, संभवतः जैसे कविता और संगीत की चरम उपलब्धि उसके
लय में होती है संभवतः डांस भी ऐसा ही होता होगा।
ऐसे मामलों
में दूरदर्शन खूब था, क्लासिकल प्रोग्राम आते थे, चूँकि वो बचपन था इसलिए समझ नहीं
थी। भरतनाट्यम और कत्थककली में एक डाक्यूमेंट्री देखी थी उन दिनों, एक तमिल प्रोफेसर
थीं वो बताती थीं कि किस प्रकार एक-एक मुद्रा के कितने अर्थ होते हैं। काश क्लासिकल
डांसर अपने साथ एक इंटरप्रिटर भी रखते जो हम जैसे कम अक्ल लोगों को बता पाते कि वे
जो स्टेप करते हैं वो कितना गहरा अर्थ रखते हैं। अगर मुझे क्लासिकल डांस समझ आए तो
आनंद का एक बड़ा खजाना मेरे सामने खुल जाएगा। काश ऐसा हो।
कार्निवल का आयोजन एक मोटल में किया गया था, चकाचौंध
से भरा माहौल मुझे पसंद नहीं, मैं तो हवा का सुख लेने वहाँ पहुँचा था लेकिन जो साथ
थे उनका सुख तो केवल कार्निवल में था तो बिना प्रोग्राम समाप्त हुए वहाँ से विदा हो
पाना मुश्किल था।
जब निकले तब मैनपाट में रात
सज चुकी थी, इस बार हवा का सुख लेना संभव नहीं था। रास्ते में उतरते समय मित्र ने कार
का ब्रेक तेजी से मारा। एक लकड़बग्घा सामने था। उसने घूरकर देखा, संभवतः पहली बार उसने
रात के वक्त यहाँ आबादी देखी होगी क्योंकि खासतौर पर पर्यटन नक्शे में मैनपाट को लाने
के लिए यह सड़क बनाई गई थी और कुछ दिन पहले ही खुली थी। मुझे आश्चर्य हुआ कि तेज औद्योगिकीकरण
के इस दौर में इस हाइना को इस वीरान जंगल में खाने के लिए जानवर अथवा उनकी लाशें कहाँ
से मिलती होंगी? फिर भी यह दिलचस्प अनुभव रहा। अचानक मुझे तीन बरस पहले हुए एक अनुभव
की स्मृति हो आई।
हम लोग पचमढ़ी में थे और सुबह पाँच बजे धूपगढ़ में सूर्योदय देखने रवाना हुए।
हमारी जिप्सी दूसरे नंबर पर थी। हमने देखा कि ड्राइवर ने अचानक ब्रेक लगाई। सामने गौर
का एक झुंड निकला, इसमें पाँच सदस्य थे और दो छोटे बच्चे।
उस लकड़बग्घे को देखकर दया भी आ रही थी, उसका जंगल, उसका आशियाना अब अधिक दिनों तक साथ देने वाला
नहीं, वहाँ बाल्को के क्रशर पहुँच गए हैं। भारत-पाक सीमा पर तनाव बढ़ गये हैं अब अधिक
युद्धक विमानों की जरूरत पड़ेगी, लगेगा ज्यादा एल्यूमीनियम और वीरान हो जाएंगे, मैनपाट
के जंगल और साथ ही खत्म हो जाएगा हवा का सुख।
फिर
सोचा कि औद्योगिकीकरण भी तो जरूरी है देश की आबादी बढ़ रही है, सबको भोजन चाहिए, कपड़े
चाहिए, घर चाहिए। इसके लिए कहाँ से लाएंगे स्टील, कोयला। जंगलों के बूते ही न। मैनपाट
से उसी रात अंबिकापुर और फिर बलरामपुर लौटना था। बलरामपुर में रूकने के लिए एक ही लॉज
है। वहाँ रुकना हुआ, जहाँ रूम लिया, वहाँ बगल से एक डॉरमेट्री थी जिसमें एक हॉल में
१० लोग रुके थे। हम अक्सर कहते हैं कि देश की आबादी बढ़ रही है लोगों की जरूरतें बढ़
रही हैं लेकिन अधिकतर लोग तो बेहद मामूली संसाधनों में ही पूरा जीवन काट देते हैं।
स्टील और कोयला तो चाहिए, एंटीलिया जैसी इमारतों में फूँकने के लिए।
मैनपाट से उतरते वक्त मैं औद्योगिक समाज की विडंबनाओं को सोच रहा था लेकिन अचानक
दोस्त ने एक गाना चला दिया, तुमसे मिला था प्यार कुछ अच्छे नसीब थे, हम उन दिनों अमीर
थे जब तुम करीब थे, दिल खुश हो गया और मैनपाट की सुंदर स्मृतियाँ इसी के साथ हमेशा
के लिए दिमाग में दर्ज हो गईं।
ह्म्म तो आप कार्निवर्ल देखने गए थे :) और मुझे बताया भी नहीं।
ReplyDeleteमैनपाट में समय देने को बहुत कुछ है.
ReplyDeleteअच्छा लगा आपके अनुभव को जानना ...
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