मेरा जन्म छत्तीसगढ़ में हुआ, मैं यहां पला-बढ़ा भी। इसके बावजूद मुझे लगते रहा है कि मैं अपनी मिट्टी से बहुत कुछ अपरिचित हूं। मुझे लगता है कि मेरा संबंध भारतीय परिवेश से अधिक रहा है, छत्तीसगढ़ से कम। फिर भी उम्र के साथ एहसास किया कि जिस मिट्टी से जुड़ा हूं उसके कितने रंग है और अब यह एहसास बढ़ता ही जाता है कि छत्तीसगढ़ बेहद अनछुआ है उनके लिये भी जो इसके बाशिंदे है। हम अपनी ही धरती के बारे में काफी कम जानते हैं विशेषकर हम शहरी लोग।
पंडवानी पहले भी सुनी थी, सातवीं-आठवीं कक्षा में लेकिन इसके ओज को उस समय समझ नहीं पाया था। फिर एक इंटरव्यू देखा तीजनबाई का। उनसे प्रश्न किया गया कि इतनी प्रसिद्धी कैसे हासिल की। उन्होंने कहा कि कला साधना की वस्तु है उसे जीना पड़ता है तब वह आपके भीतर उतरती है यह तो बिल्कुल सरस्वती के प्रगट होने जैसा है। फिर मैने निश्चय किया कि उनकी पंडवानी जरूर सुनुंगा। फिर मुझे उनकी पंडवानी सुनने का मौका मिला। प्रसंग था दुःशासन वध का और भीम की चित्कार, फिर कोरस की आवाज। ऐसा लगा कि व्यास की महाभारत अपने छत्तीसगढ़ी संस्करण में मंच पर पूरी तौर पर साकार हो गई है। तीजन की पंडवानी सुनकर ऐसा लगा कि छत्तीसगढ़ में पठन-पाठन की परंपरा रही है भले ही यह श्रुति के रूप में क्यों न हो। यही वजह है कि तीजन बाई जैसे लोक कलाकार इतनी सुंदरता के साथ इसका प्रदर्शन कर पाये।
पठन-पाठन की जो परंपरा लोक-संस्कृति में दिखती है वह पुराने खंडहरों-महलों में भी दिखती है। महानदी के किनारे छत्तीसगढ़ के पहले वृहत राजवंश की स्थापना हुई। सिरपुर का लक्ष्मण मंदिर राजा महाशिवगुप्त बालार्जुन की मां वासटा ने अपने मृत पति की स्मृति में बनाया था, इस अभिलेख में लिखा है कि यहां पूजा के लिये नियुक्त पंडित ऋग्वेद के विशेष रूप से ज्ञाता होंगे। फिर हुएनसांग ने भी तो लिखा है कि सिरपुर के महाविहार में पढ़ने के लिये बड़ी संख्या में विभिन्न राज्यों से छात्र आते थे।
इससे पता चलता है कि संस्कृत की महान महान परंपरा को इस राज्य ने किस प्रकार सहेज कर रखा। सिरपुर से उत्तर की ओर चलें तो रामगढ़ की पहाड़ियों में प्राचीन नाट्यशाला दिखती है। अनुश्रुति है कि कालिदास को मेघदूत लिखने की प्रेरणा इन्हीं पहाड़ियों में मिली थी। नाटक कला के बारे में भरत मुनि ने कहा है कि यह ऐसी कला है जिससे आम जनता जुड़ती है। क्या तीजन बाई की पंडवानी और रामगढ़ की नाट्यशाला में एक अजीब संयोग नहीं दिखता?
बस्तर जिसे गुप्त काल में महाकांतार कहा जाता था और जहां के राजा व्याघ्रराज की जानकारी समुद्रगुप्त के अभिलेख में मिलती है। नाग वंश के समय अपने वैभव के शीर्ष पर पहुंच गया। बारसूर का प्राचीन नाम भोगावतीपुरी था, जो पुराणों में नाग जाति की राजधानी कही गई है। बस्तर की आदिम जनजातियों में भी विलक्षण कवित्व पाया जाता है जो उनके मृत्युगीतों में दिखाई देता है। एक प्राचीन हल्बी कविता है जिसका हिंदी अनुवाद कुछ यों है।
बहुत समय पहले धरती और आकाश एक दूसरे से बहुत करीबी रूप से जुड़े हुए थे। इस समय बस्तर में एक बूढ़ी महिला रहा करती थी। हर दिन जब वह अनाज कूटने ओखली में बाँस डालती, तब आकाश की टकराहट से उसकी गति कमजोर हो जाती थी। एक दिन वह बहुत झल्लाई और गुस्से से आकाश पर प्रहार किया। तब से आकाश धरती से जुदा है और हमेशा के लिए अलग हो गया है। गोड़ आदिवासी उसी बूढ़ी महिला की संतति हैं।
यह कविता रूपक में चलती है, पहला तो सृष्टि की उत्पत्ति से जुड़े हुए प्रश्नो पर इतनी सुंदर कल्पना( यहाँ पर छायावादी कवि याद आते हैं ऐसी ही एक कविता पंत ने लिखी थी, शायद इस प्रकार है। टूटी चूड़ी सा चाँद न जाने किसकी मृदुल कलाई से फिसल कर गिर पड़ा।) दूसरा कविता से सबक, झल्लाहट बुरी बात है इसके इतने दूरगामी परिणाम हो सकते हैं। शायद गोड़ इस लोकगीत से लगातार सबक लेते रहे तभी तो इतने सहज और शाँत रह पाये।
कलचुरी काल में कल्याण साय का उदाहरण मिलता है जो अकबर के दरबार में रहे और अपने राजस्व संबंधी ज्ञान के लिये मशहूर थे। फिर रतनपुर दरबार में एक के बाद एक यशस्वी कवि। इसके बाद मराठा आये। सरोवरों के किनारे के मंदिर जिनमें कमल के सुंदर फूल हमेशा खिले रहते हैं बताते हैं कि इस जगह पर कभी मराठों ने भी राज किया होगा। उनका राज खत्म हो गया लेकिन उनका असर जिंदा रहा। जो माधवराव सप्रे जैसे विद्वानों में प्रकट हुआ। आजादी के पहले जो तात्यापारा में विद्वानों का जमघट बना रहा, उससे मराठा प्रभाव की जानकारी होती है।
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ReplyDeleteओखली कूटने वाली कहानी दुनिया के बहुत सारे हिस्सों में प्रचलित है और इसे अंधेरा घिर आने और दिन उगने के साथ आकाश के बदलते आभास से जोड़ कर देखा जाता है. यदि मुझे ठीक याद है तो इसका उल्लेख वेरियर एल्विन और मैक्स मूलर दोनों ने किया है.
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