साहिर के लिखे हुए दो गीत इन दिनों मैं यूट्यूब पर सुनता हूँ। पहला गाना फिल्म दीदी का है इसे मुकेश और सुधा मल्होत्रा ने गाया है। तुम मुझे भूल भी जाओ तो ये हक है तुमको, मेरी बात और है मैंने तो मोहब्बत की है...... इससे मिलता-जुलता दूसरा गाना तुम मुझे चाहो, न चाहो तो कोई बात नहीं, तुम किसी गैर को चाहोगी तो मुश्किल होगी है। इसे भी मुकेश ने गाया है।
तुम मुझे भूल भी जाओ, क्यों अच्छा लगता है? यह गाना हमें ६० के दशक में ले जाता है इसे हिंदी सिनेमा में क्लासिकल प्रेम का दौर कहा जाता है। प्रेमिका की मासूम सोच उसकी जज्बातों में व्यक्त हुई है। ऐसे समय में जब राजनीतिक विचारधाराओं ने प्रेम जैसी नाजुक अभिव्यक्ति को किनारे कर दिया था, एक लड़की जो दुनिया से अपरिचित अपनी छोटी सी दुनिया में खोई है उसके जज्बात को व्यक्त करती हैं। प्रेमी के जज्बात हैं लेकिन वो ये भी देखता है कि उसके चारों और जब गर्दिश छाई हों, लाखों लोग जब दुख भोग रहे हों, वो केवल अपनी मुक्ति कैसे चाह सकता है?
तुम मुझे भूल भी जाओ तो ये हक़ है तुमको ,
मेरी बात और है मैंने तो मोहब्बत की है,
मेरे दिल की मेरे जज़बात की क़ीमत क्या है
उलझे-उलझे से ख़्यालात की क़ीमत क्या है
मैंने क्यूं प्यार किया तुमने न क्यूं प्यार किया
इन परेशान सवालात की क़ीमत क्या है
तुम जो ये भी न बताओ तो ये हक़ है तुमको
मेरी बात और है मैंने तो मुहब्बत की है
ज़िन्दगी सिर्फ़ मुहब्बत नहीं कुछ और भी है
ज़ुल्फ़-ओ-रुख़सार की जन्नत नहीं कुछ और भी है
भूख और प्यास की मारी हुई इस दुनिया में
इश्क़ ही एक हक़ीकत नहीं कुछ और भी है
तुम अगर आँख चुराओ तो ये हक़ है तुमको
मैंने तुमसे ही नहीं सबसे मुहब्बत की है
तुमको दुनिया के ग़म-ओ-दर्द से फ़ुरसत ना सही
सबसे उलफ़त सही मुझसे ही मुहब्बत ना सही
मैं तुम्हारी हूँ यही मेरे लिये क्या कम है
तुम मेरे होके रहो ये मेरी क़िस्मत ना सही
और भी दिल को जलाओ तो ये हक़ है तुमको
मेरी बात और है मैंने तो मुहब्बत की है।
दूसरे गाने में प्रेमी को यह शिकायत नहीं कि प्रेमिका उससे इजहार नहीं कर रही। उसे शिकायत तब होगी, जब वो गैर को चाहेगी, यहाँ गैर शब्द और दुश्मन शब्द काबिल-ए-गौर है। जब प्रेमिका इस बुरी कदर दिल तोड़े कि गैर की बाँहों में नजर आए तो पीड़ा तो होगी
इस गाने में एक अंतरा गौरतलब है। फूल की तरह हंसों, सबकी निगाहों में रहो, अपनी मासूम जवानी की पनाहों में रहो। फूल की खुशबू किसी खास के लिए नहीं होती, खुशबू सब ओर बिखरी रहती है लेकिन जब फूल किसी खास व्यक्ति के कोट में चढ़ जाता है तो उसकी खुशबू खत्म हो जाती है वो आम हो जाता है। इस गाने में जान डाली है जमीला बानो ने अर्थात नूतन ने, वो इतनी टेलेंटेड अभिनेत्री थी कि उन्हें अपनी बात कहने के लिए जबान की जरूरत नहीं थी, वो आँखों में बोलती थीं। नायिका भेद के अध्येताओं को वो सारे लक्षण केवल इसी अभिनेत्री में मिल जाएंगे। सबसे खास बात है उनमें दुनिया के प्रति उत्सुक दृष्टि। सब मिलकर इस गाने के आसपास मायाजाल सा निर्मित कर देते हैं।
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कहते हैं कि साहिर, लता एवं एसडी बर्मन से एक रूपए अधिक मेहनताना लेते थे, साहिर को यह भान था कि वे जो काम कर रहे हैं वो साहिर के मान के लिए नहीं है वो गीतकार के मान के लिए है , धुन बनाना एवं उसे गाना बेहद महत्वपूर्ण है लेकिन जब तक गहरे भाव नहीं होंगे, उनमें जान नहीं आएगी। धुन एवं गायन मूर्ति की तरह हैं लेकिन उसकी प्राणप्रतिष्ठा तभी होती है जब गीतकार उसमें अपने भाव डाल देता है। साहिर ने दीदी का गाना सुधा मल्होत्रा से गवाया। यह गाना किसी भी दृष्टि से किसी महान गायिका से कम नहीं है।
तुम मुझे भूल भी जाओ, क्यों अच्छा लगता है? यह गाना हमें ६० के दशक में ले जाता है इसे हिंदी सिनेमा में क्लासिकल प्रेम का दौर कहा जाता है। प्रेमिका की मासूम सोच उसकी जज्बातों में व्यक्त हुई है। ऐसे समय में जब राजनीतिक विचारधाराओं ने प्रेम जैसी नाजुक अभिव्यक्ति को किनारे कर दिया था, एक लड़की जो दुनिया से अपरिचित अपनी छोटी सी दुनिया में खोई है उसके जज्बात को व्यक्त करती हैं। प्रेमी के जज्बात हैं लेकिन वो ये भी देखता है कि उसके चारों और जब गर्दिश छाई हों, लाखों लोग जब दुख भोग रहे हों, वो केवल अपनी मुक्ति कैसे चाह सकता है?
मेरी बात और है मैंने तो मोहब्बत की है,
मेरे दिल की मेरे जज़बात की क़ीमत क्या है
उलझे-उलझे से ख़्यालात की क़ीमत क्या है
मैंने क्यूं प्यार किया तुमने न क्यूं प्यार किया
इन परेशान सवालात की क़ीमत क्या है
तुम जो ये भी न बताओ तो ये हक़ है तुमको
मेरी बात और है मैंने तो मुहब्बत की है
ज़िन्दगी सिर्फ़ मुहब्बत नहीं कुछ और भी है
ज़ुल्फ़-ओ-रुख़सार की जन्नत नहीं कुछ और भी है
भूख और प्यास की मारी हुई इस दुनिया में
इश्क़ ही एक हक़ीकत नहीं कुछ और भी है
तुम अगर आँख चुराओ तो ये हक़ है तुमको
मैंने तुमसे ही नहीं सबसे मुहब्बत की है
तुमको दुनिया के ग़म-ओ-दर्द से फ़ुरसत ना सही
सबसे उलफ़त सही मुझसे ही मुहब्बत ना सही
मैं तुम्हारी हूँ यही मेरे लिये क्या कम है
तुम मेरे होके रहो ये मेरी क़िस्मत ना सही
और भी दिल को जलाओ तो ये हक़ है तुमको
मेरी बात और है मैंने तो मुहब्बत की है।
दूसरे गाने में प्रेमी को यह शिकायत नहीं कि प्रेमिका उससे इजहार नहीं कर रही। उसे शिकायत तब होगी, जब वो गैर को चाहेगी, यहाँ गैर शब्द और दुश्मन शब्द काबिल-ए-गौर है। जब प्रेमिका इस बुरी कदर दिल तोड़े कि गैर की बाँहों में नजर आए तो पीड़ा तो होगी
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कहते हैं कि साहिर, लता एवं एसडी बर्मन से एक रूपए अधिक मेहनताना लेते थे, साहिर को यह भान था कि वे जो काम कर रहे हैं वो साहिर के मान के लिए नहीं है वो गीतकार के मान के लिए है , धुन बनाना एवं उसे गाना बेहद महत्वपूर्ण है लेकिन जब तक गहरे भाव नहीं होंगे, उनमें जान नहीं आएगी। धुन एवं गायन मूर्ति की तरह हैं लेकिन उसकी प्राणप्रतिष्ठा तभी होती है जब गीतकार उसमें अपने भाव डाल देता है। साहिर ने दीदी का गाना सुधा मल्होत्रा से गवाया। यह गाना किसी भी दृष्टि से किसी महान गायिका से कम नहीं है।
दोनों गीत मेरे पसंदीदा हैं और अब तक अनगिनत बार सुने हैं - हाँ देखने का मौका आज आपकी इस पोस्ट से मिल गया
ReplyDeleteTum agar bhool bhee jao...ye geet to waqayi behad sundar hai...
ReplyDeleteमुबारक हो ! अच्छी और गहरी पकड़ है आपकी जज़्बातों पर ...
ReplyDeleteशुभकामनायें!
ab aaj ke gano me ye jazbaat kanha.....
ReplyDeleteaapkee pasand kabile tareef hai...