हत्या को कमोडिटी बनाकर पेश करने वाले हमारे समाचार चैनलों को अरसे से देखते
हुए मेरी संवेदनशीलता भोथरा गई है इसका मुझे गहरा दुख होता है लेकिन खोई
संवेदनशीलता को वापस लाने का कोई उपाय मेरे पास नहीं।
फिर भी कभी ऐसी भी घटना होती है जो
उद्वेलित करती है। आज सुबह कुंडा के एसओ जिया-उल-हक की हत्या ने ऐसा ही दुखी किया।
उनके दोनों पैर में गोली मारी गई, जाहिर है मारने से पहले उन्हें खूब प्रताड़ित भी
किया गया होगा। उनकी बेवा चीख-चीख के कह रही है कि जब तक अखिलेश खुद नहीं आएंगे
तब-तक अपने पति को सुपूर्द-ए-खाक नहीं करने देगी।
घटना के बाद बाहुबली विधायक और मंत्री पर मुझे अधिक गुस्सा नहीं आया। मुझे
गुस्सा तो उस जनता से है जो इस विधायक को २० साल से चुन रही है। इसके बारे में
बहुत सी बातें सुनी हैं पता नहीं कितना सच है लेकिन बड़ी भयावह है जैसे इसके महल
के पीछे एक तालाब है जहाँ मगरमच्छ रहते हैं और खिलाफत में आवाज उठाने वाले
विरोधियों की लाश इस तालाब में पनाह पाने फेंक दिए जाते हैं। यूपी में बाहुबलियों
के कई ऐसे ही किस्से प्रचलित हैं। दिल्ली में मेरे मित्र बन गए एक आला पुलिस
अधिकारी के बेटे ने मुझे बताया था कि अंसारी ने जेल के भीतर एक ऐसी पार्टी की थी
जिसमें शराब की नदियाँ बहाई गई थी और फाइव स्टार होटल से डिनर के इंतजामात किए गए
थे। उसने बताया कि उसे खास तौर पर इनवाइट किया गया था लेकिन पिता पर कोई ऊँगली न
उठा दे, इस वजह से वो लुत्फ नहीं ले पाया। इसके ही कजिन ब्रदर ने मुझे आश्वासन
दिया था कि पीसीएस में इंटरव्यू तक पहुँच जाने पर एक पोस्ट की व्यवस्था करेगा। उसे
मेरे बारे में बहुत दुख होता था, वो कहता था कि प्रशासन में दबंगई बहुत जरूरी है।
सलेक्ट होने के बाद भी लाइफ का एन्जॉय नहीं कर पाओगे।
अगर हम
कहें कि यह समस्या केवल यूपी की है तो यह गंभीरता से किया गया आकलन नहीं होगा।
छत्तीसगढ़ में भी एक ऐसा राजपरिवार है जहाँ पहली पोस्टिंग पर कलेक्टर को अपना ऑफिस
संभालने से पहले दरबार में हाजिरी लगानी होती है। संयोग की बात यह है कि यह परंपरा
राजा ने शुरू नहीं कि अपितु उनके चमचों ने ही यह नियम बना दिया। आंध्रप्रदेश में
वायएसआर के बेटे के पीछे आम जनता की दीवानगी भी इसका उदाहरण है। छापे में करोड़ों
बरामद होने के बाद भी जनता इस युवा और अनुभवहीन नेता के साथ है। तमिलनाडू में
कमोबेश जयललिता और करुणानिधि के जाहिर से भ्रष्टाचार के बाद भी जनता लैंडस्लाइट
विक्ट्री से उन्हें नवाजती है।
इसका कारण साफ है कि बाहुबलियों का संरक्षण हमें भी भाता है। हम चटखारे
लेकर उनके द्वारा दिए गए आश्वासनों को पब्लिकली बयां करते रहते हैं और वे
फलते-फूलते हैं। हम कभी यह समझ नहीं पाते कि उनसे मुक्ति होने में हमारी मुक्ति
है। सबसे खोखली बात यह है कि वे ऐसी राजनीतिक विचारधाराओं के तले पनपते हैं जो
समाजवादी होने का दावा करती है और इस व्यवस्था में सारे ठेके खास ठेकेदारों को
मिलते हैं। कार्टेल के इस दौर में कभी आम आदमी के लिए बेहतरी की आशा नहीं की जा
सकती, यह तब और भी मुश्किल है जब आम आदमी खुद ही अपने दामन को इन बाहुबलियों के
हाथों से नहीं छुड़ाना चाहता।
सिर उठाकर चलो कहा उसने
ReplyDeleteमेरी किस्मत भला कहाँ माने
रेंगना आज की हक़ीक़त है
रीढ़धारी* भला कहाँ जाने ...
सुंदर रचना sahi kaha hum jimmedar khud hai
ReplyDeleteआपका आक्रोश इस पोस्ट में नज़र आता है ... ये समस्या हमारी खुद की ही पैदा की हुई है ... किसी एक भगवान (जिसपर अपनी नाकामियों का ठीकरा फोड सकें)के बिना हमारा गुज़ारा नहीं होता ... बचपन से ही भीरु बनने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है हमारी ...
ReplyDeleteविचारणीय आलेख. सब नेता नेता चिल्लाते हैं...जन हम दफ्तरों में घूस देते हैं तो कभी खुद को तमाचा मार पाते हैं? सबसे पहले हमे खुद को ठीक करने की ज़रुरत है.
ReplyDeleteबिहार राज्य भी इनमें से ही है .....
ReplyDeleteलेख सच्चा है पर दिल दुखता है ???
सच्चाई कड़वी होती है न ??
शुभकामनाये हम सब को |
एक समय था जब नेता पहले बनते थे लोग, फिर बाहुबली, अब बाहुबली ही नेता बन सकते हैं।
ReplyDeleteसच का आईना है आपका यह आलेख, जिसमें समाज का विभत्स चेहरा नज़र आ रहा है। लेकिन कितने हैं जो इसे बदलना चाहते हैं ?
अधिकतर तो पहली फुर्सत में ही, इसका हिस्सा बन जाते हैं और जो नहीं बन पाते, वो नहीं बन पाने का सोग मनाते हैं।
अच्छा लगा आपको पढना ..