तब जमीन में पंगत लगाई जाती थी और कढ़ी तथा पूड़ी का आकर्षण होता था। जो पंगत
में बैठते थे, उनकी विशेष खातिरदारी होती थी। अब तो शादियों में मेजबान से पहली और
आखरी बार सामना प्रवेश द्वार पर ही होता है। शादियों में खाना रस्मी अधिक लगता है
उसमें वैसा स्वाद नहीं होता। बिठाकर खिलाने में भी अतिविशिष्ट व्यवस्था पनवार की
होती थी, लड़के के पक्ष के चुनिंदा वरिष्ठजनों को बिठाकर विशेष भोजन कराया जाता
था। अंतिम बार मैंने पनवार का आयोजन अपनी बहन की शादी में २००१ में देखा था। मेरे
लिए गौरव की बात थी कि मुझे इसमें परोसने का मौका मिला जो एक दुर्लभ सम्मान होता
है। इसके लिए आपको धोती पहननी होती है और आचरण में विशेष संयम का ध्यान रखना होता
है। बताते हैं कि पहले पनवार के दौरान निभाई जाने वाली और भी रस्में होती थीं
लेकिन धीरे-धीरे ये समाप्तप्राय हो गईं।
जब हम छोटे थे तब पनवार के ढेरों किस्से सुनने मिलते थे। यह हमारा बचपन का
सपना था कि हम भी बड़े हों और हमें भी इस अतिविशिष्ट व्यवस्था का लाभ मिले। मेरे
चाचा कहते थे कि इसके लिए तुम्हें लंबा इंतजार करना पड़ेगा। बिट्टू की शादी के
पहले यह संभव नहीं। मुझे लगता कि काफी लंबा समय मुझे पनवार के लिए इंतजार करना
होगा। बिट्टू मुझसे दस साल छोटा है और अब तक अविवाहित है लेकिन इधर के कुछ वर्षों
में मैंने कहीं पनवार का आयोजन नहीं देखा। बचपन का स्वप्न अब शायद ही पूरा हो।
सफल
पनवार का आयोजन वधू पक्ष के लिए बड़ी चुनौती होती थी? बाराती पक्ष में हमेशा
समधीजनों में एक न एक विध्नसंतोषी होते थे, उन्हें संतुष्ट करने के लिए हर प्रकार
के व्यंजन उपलब्ध करा पाना और परोसने की त्वरित व्यवस्था सुनिश्चित कराना बड़ी
चुनौती होती थी। गांधी की तरह ही वे नमक के लिए बखेड़ा न कर दे, इसके लिए थाली में
अलग से थोड़ा स्पेस नमक के लिए होता था, यह व्यवस्था छोटे रेस्टॉरेंटों में अभी तक
चल भी रही है।
पनवार की स्पेशल डिश में जिमीकंद की खास जगह होती थी। मेरी मम्मी ने बहन की
शादी के पूर्व एक बड़े जिमीकंद को विशेष तौर पर पसंद किया था, वो जिमीकंद किचन में
महीने भर तक रखा रहा और अंत में पनवार के दिन उसकी शहीदी दी गई। हाल ही में
विधानसभा में लंच ब्रेक के दौरान खाने में जिमीकंद की सब्जी भी मिली लेकिन कढ़ी और
बड़ा के बिना जिमीकंद का आनंद बेमानी सा लगा।
पनवार का विशेष आकर्षण
खाने के रसिकों के वीरोचित किस्सों को लेकर था। जब छत्तीस से अधिक व्यंजन थाली में
हो तो सबको खत्म करना विशेष चुनौती होता था। इसमें वे सफल माने जाते थे जो सभी
व्यंजनों को खत्म कर थाली उलट देते थे। अतिविशिष्ट जनों में से केवल एक या दो ही
ऐसा कारनामा कर पाने में सफल होते थे। मेरे एक स्वर्गीय बड़े पिता जी ने ऐसा
कारनामा हर पनवार में किया था और अब भी जब उनका जिक्र आता है तो दो ही बातों को
लेकर, एक तो तब जब वे भारत-चीन युद्ध के दौरान चकमा देकर वारफ्रंट से लौट आए थे और
दूसरा पनवार को लेकर।
आश्चर्य की बात है कि मुस्लिमों में भी दस्तरख्वान की परंपरा तेजी से खत्म हो
रही है। एक मुस्लिम शादी में हाल ही में जाना हुआ। वहाँ कुछ टेबल लगाए गए थे
स्पेशल खाना सर्व करने के लिए लेकिन जमीन में बैठकर दस्तरख्वान जैसी बात उसमें
नहीं थी। मैंने यह दृश्य द ग्रेट मराठा सीरियल में देखा था। पानीपत लड़ाई में विजय
के बाद अब्दाली की महफिल ऐसी ही दस्तरख्वान से सजी थी। इसका आनंद ही अलग होता
होगा। मुझे लगता है कि चाहे हिंदू हो या मुसलमान, इनकी जड़े तो कबायली ही हैं और
कबायली संस्कृतियों में सामूहिक भोज एक तरह से उत्सव की तरह ही होता होगा, जहाँ
लूट के माल का बंटवारा होता होगा तथा साथ ही सामूहिक खान-पान भी होता होगा। वो
श्लोक याद आता है देवाभागं यथापूर्वे संजानना उपासते।
.......................................
पनवार की मौत एक तरह से छत्तीसगढ़ी खाने की भी मौत है। उसके मेन्यू का
निर्धारण विशेष रूप से होता था। कई विशेष प्रकार की सब्जियाँ और व्यंजन खासतौर पर
पनवार के लिए बनाए जाते थे। अंतिम रूप से जिस पनवार को मैंने देखा था, उसमें
अधिकांश मटेरियल बाहर सजी खाने की मेजों से लाकर थालियों में सजा दिया गया था और
रसिकों की चाह पर जिमीकंद की सब्जी लगा दी गई थी। उस दिन नहीं मालूम था कि मैं
अंतिम बार पनवार का आयोजन देख रहा हूँ।
पंगत का खाना अपने आप में ही खाने का सुख देता है----अब तो ये अतीत की बातें हो गयी हैं
ReplyDeleteसार्थक लिखा
पँवार के बारे मे पहली बार जाना, शायद ग्रामीण अंचल मे यह परंपरा अभी भी जीवित हो, ज़रूरत है उसकी पूर्ण समाप्ति से पहले उसे रिकॉर्ड करने की।
ReplyDeleteबढ़िया जानकारी. हमारे इलाके में भी कुछ ऐसा ही है. हमलोग उसे थारी-पीरही कहते हैं.
ReplyDeleteआजकल तो गिद्ध भोज का प्रचलन है ..ऐसे में कहाँ यह सुख मिलेगा ..पर हाँ अपनी बेटी की शादी में अगले दिन सुबह विदाई का भोजन जब हमने बारातियों को पंगत में बैठाकर पत्तलों, मिटटी के सकोरों में कराया ...(कुर्सियों पर बैठाया) तो ज़्यादातर NRIs जो बाराती थे इतने खुश हुए इस प्रथा पर ...की आज ८ साल बाद भी याद करते हैं...सुन्दर लेख ...:)
ReplyDeleteएक रस्म की अच्छी जानकारी ...यहाँ.. अपने सिख भाई ऐसे ही बिठा कर गुरु का प्रसाद खिलाते है ...जिसे गुरु का लंगर कहते है !
ReplyDeleteखुश रहें!
बहुत खूब सार्धक
ReplyDeleteमहाशिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएँ ! सादर
आज की मेरी नई रचना आपके विचारो के इंतजार में
अर्ज सुनिये
कृपया मेरे ब्लॉग का भी अनुसरण करे
पहली बार जा इस परंपरा के बारे में ओर दुःख हुवा जान के की या भी हर परंपरा की तरह आखरी साँसें गिन रही है ...
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