Tuesday, September 6, 2011

राहुल गाँधी कितने गाँधी!




कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी अपने पूर्वजों की तरह खद्दर पहनना पसंद करते हैं। उनके सहयोगी मंत्री कपिल सिब्बल, पी चिदंबरम आदि को भी इसी वेशभूषा में देखा जा सकता है। अग्निवेश जैसे इनके सहयोगी भी एक खास किस्म का चोला धारण किये रहते हैं। हालांकि यह भी इतना ही सच है कि इनकी आत्मा कहीं से भी खद्दर नहीं है। 
  दरअसल खादी केवल एक वेशभूषा नहीं अथवा वो केवल कांग्रेस की पहचान नहीं। खादी आत्मनिर्भरता का प्रतीक है। खादी स्वदेशी का प्रतीक है। आक्सफोर्ड और हावर्ड से शिक्षित यूपीए सरकार के कर्ताधर्ता यह नेता क्या सही मायने में खादी को धारण करने लायक हैं। कैंब्रिज में शिक्षा गांधी ने भी ली, वे उस जमाने में बैरिस्टर बने थे जब गिने-चुने लोग ही अपने बच्चों को विदेशों में भेज पाने की हिम्मत करते थे। गांधी ने अपनी आत्मकथा में अपने को सामान्य दर्जे का विद्यार्थी कहा था लेकिन क्या सचमुच ऐसा था, अगर ऐसा होता तो इतना आर्थिक बोझ सहकर उनका परिवार उन्हें कभी भी विदेश नहीं भेजता। गांधी विदेश तो गये लेकिन अंदर से स्वदेशी रहे। उनके सबसे करीबी सहयोगी नेहरू जीवन भर भारतीयता और अंग्रेजियत के द्वंद्व में फंसे रहे, भारतीय उनके बहुत करीब नहीं जा पाए लेकिन वे उनसे उतने दूर भी नहीं थे क्योंकि नेहरू बहुत गहरे से भारतीय समाज में उतरे थे। गांधी पूरी तरह से भारतीय हो गए, उनकी धोती, उनकी सादगी, उनकी गहरी आध्यात्मिकता सबमें असल भारतीय चरित्र देखने को मिलता था। शायद गांधी ऐसी शख्सियत रहे होंगे जिनके इतने बड़े नेता होने के बावजूद बेहिचक कोई बच्चा भी उनसे बिना डरे और बिल्कुल आत्मीयता के भाव से मिल सकता था। बच्चों के साथ मुस्कुराते हुए उनके चेहरे वाली तस्वीरें दिखाती हैं कि इस महापुरुष में बिल्कुल बच्चों वाला दिल धड़कता था। उनके उत्तराधिकारी नेहरू में भी ये गुण था, बच्चों के उनके प्रेम से ही उनका जन्मदिवस बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है। इंदिरा के लिए लिखा नेहरू का साहित्य उनके बच्चों के प्रेम का जीवंत उदाहरण है। 
  आप यह प्रश्न पूछ सकते हैं कि जब हम अपनी बात राहुल गांधी से शुरू कर रहे हैं तो फिर महात्मा गांधी और जवाहरलाल के संदर्भ बार-बार क्यों दे रहे हैं। दरअसल राहुल गांधी अपने को इस महान परंपरा से संबद्ध करते हैं। अगर वो न भी करें तो जनता राहुल को उनका अक्स समझती है। सार्वजनिक जीवन में आपको हर पल जनता के लिए जिम्मेदार होना पड़ता है। आपको अपना पक्ष हर मुद्दे पर जनता के सामने रखना ही होता है लेकिन भ्रष्टाचार के मुद्दे पर लगातार बोलने वाले राहुल अपनी सरकार के भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सफाई देने आगे क्यों नहीं आते? क्यों उन्होंने अन्ना हजारे के लिए वैसी अतिशय उदारता दिखाई जितनी प्रच्चनमंत्री मनमोहन सिंह ने दिखाई जब उन्होंने कहा कि आई रेस्पेक्ट अन्ना, आई सेल्यूट अन्ना । शून्य काल में पूरे भाषण के दौरान राहुल दृढ़ दिखे लेकिन उनकी दृढ़ता में एक तरह का एरोगेंस झलका। जनता ने देखा कि राहुल केवल एक पक्षीय लग रहे थे, वे सत्ता पक्ष से हैं और उन्हें लंबे समय तक सत्ता का सुख भोगना है तो जनलोकपाल बिल पारित होने के अधिकारहीन सत्ता का क्या वैसा उपभोग वो कर पाएंगे। युवराज को इस बात की गहरी नाराजगी थी। वे यह तर्क रखने लगे कि संवैच्चनिक संस्था बनाना अधिक प्रभावी रहेगा। जब राहुल को यह उचित लग रहा था तो उन्होंने यह सलाह पहले ही सरकार को क्यों नहीं दी। 
  पूरे मामले में सबसे बुरा पक्ष यह रहा कि कांग्रेस का बुजुर्ग और अनुभवी चेहरा पूरी तरह से हाशिये पर दिखा। मनमोहन द्वारा जनलोकपाल बिल पर आश्वासन देने के बाद अगले दिन राहुल का बयान निराश करने वाला था। उन्होंने भ्रष्टाचार से लड़ने पर तो बल दिया लेकिन उसके बेहतर तरीकों से सहमत नहीं दिखे। उनके पास अपना कोई मॉडल भी नहीं था, वे केवल एक आशंका लेकर आये थे कि इससे संसदीय प्रजातंत्र और इसकी निर्णयन प्रक्रिया कमजोर होगी। आप जनलोकपाल से असहमत हो सकते हैं लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ी जा रही बड़ी लड़ाई से भावनात्मक रूप से अभिभूत तो दिख ही सकते हैं। यही निराशा का बिन्दु है, सत्ता तंत्र का संचालन इन्हीं हाथों से होना है और अन्ना के आंदोलन को संभालने के तरीकों में दिखी नाकामी और गंभीर गलतियाँ इस सत्ता तंत्र के थिंक टैंक के खोखलेपन को दर्शाती हैं। एक सामान्य आदमी भी यह समझ सकता था कि ऐसे भावनात्मक आंदोलनों को सख्ती से दबाया नहीं जा सकता, इसके लिए डिप्लोमैटिक तरीके अख्तियार करने होते हैं। आपको लचीला रूख रखना होता है और आपको ऐसे प्रवक्ता रखने चाहिए जो सरकार का पक्ष जनता तक सही ढंग से रख सकें। कपिल सिब्बल बड़े वकील हैं लेकिन वे मीडिया में ऐसे नजर आये जैसे अन्ना हजारे एक क्रिमिनल हों और सरकारी अभियोजक के रूप में वे उन पर बड़ा मुकदमा दर्ज कराना चाह रहे हों। दिग्विजय सिंह के लगातार बयानों से हुई फजीहत से भी सरकार ने सबक नहीं लिया और उनसे भी खुला मुँह रखने वाले मनीष तिवारी को अन्ना पर हमले के लिए आगे कर दिया। 
  अंततः जब संकेत मिलने लगे थे कि सरकार सरेंडर के मूड में है उस समय भी राहुल गांधी संसद में संजीदगी से जनलोकपाल से सैद्धांतिक सहमति जताते हुए भ्रष्टाचार से लड़ने के अपने तरीकों को रख सकते थे लेकिन राहुल वहां भी भटक गए। राहुल का एकमात्र सही फैसला संदीप दीक्षित को आगे करने का रहा। संदीप अपनी बातें संसद में प्रभावी ढंग से नहीं रख पाये लेकिन उनकी बातों में एक सचाई नजर आई और उन्होंने पार्टी पर लगी कालिख को कम करने में अपना सहयोग जरूर दिया। एक बात और रामबहादुर राय ने इस संबंध में एक अच्छा लेख लिखा, उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री के मंत्रिमंडल के सहयोगियों ने उन्हें जनउफान के संबंध में वस्तुस्थिति से अंधेरे में रखा लेकिन नौकरशाहों ने उन्हें अच्छा फीडबैक दिया। जब प्रधानमंत्री को भी वस्तुस्थिति की जानकारी न हो पाये तो ये दुख होता है कि सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर बैठे हुए लोग जनता के दुखों से कितने अनभिज्ञ हैं। वे २० साल बाद देश को महाशक्ति बनाना चाहते हैं लेकिन डबल डिजिट ग्रोथ पाने के लिए आज जो पीढ़ी पीस रही है उसके दुखों का हाल क्या इस सरकार को है? अब वक्त आ गया है कि शरद यादव और लालू यादव जैसे विदूषकों से हमें मुक्ति मिले, मनीष तिवारी जैसे अहंकारी लोग जो सफेद खद्दर पहनते हैं लेकिन गांधी की विनम्रता उन्हें छू भी नहीं गई हैं गांधीगिरी का सहारा लें और ऐसे लोगों को सत्ता से पदच्युत करें।

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आपने इतने धैर्यपूर्वक इसे पढ़ा, इसके लिए आपका हृदय से आभार। जो कुछ लिखा, उसमें आपका मार्गदर्शन सदैव से अपेक्षित रहेगा और अपने लेखन के प्रति मेरे संशय को कुछ कम कर पाएगा। हृदय से धन्यवाद