जिंदगी न मिलेगी दोबारा में एक संवाद है कटरीना से ऋतिक कहता है कि तुमसे मिलने से पहले मैं डिबिया में बंद जीवन जी रहा था। मेरी जिंदगी डिबिया से शुरू होती थी और उसी में खत्म। कटरीना कहती है कि आदमी को डिबिया में तभी बंद होना चाहिए जब वो मर जाए। इस पूरे संवाद को मैंने बार-बार सोचा। सचमुच डिबिया में बंद जिंदगी बहुत विकट है। इस संवाद को सुनकर अपने हिंदू होने पर मुझे खुशी हुई। यह नहीं कि मैं दूसरे धर्मों की आस्था में चोट पहुँचाना चाहता हूँ सच्चा धार्मिक बोध चाहे किसी भी धर्म गुरु, किताब अथवा विचारधारा से आए, उसमें उतनी ही पवित्रता होती है जितनी हिंदू सनातन परंपरा को निभाने में मुझे मिलती है। मुझे खुशी अंतिम संस्कार की हिंदू पद्धति को लेकर है। पवित्र नदियों के किनारे अंतिम संस्कार कर दिया जाता है। हमारी देह हवाओं में घुल जाती है। हमारी अस्थियाँ गंगा में प्रवाहित होती हैं। उस गंगा में जिन्हें हम मानते हैं कि स्वर्ग से उतरी हैं और शिव की जटाओं का इसने संस्पर्श किया है। निर्मल वर्मा ने लिखा है कि कोई हिंदू जब अपने संबंधी की अस्थियाँ गंगा में प्रवाहित करता है तो उसी तरह की आत्मतुष्टि मिलती है जैसे यूनानी लेखकों को कैथार्सिस की संपूर्ति में मिलती होगी। मेरे लिए कफन में बंद हो जाना भयावह अनुभव है। अगर भूत प्रेतों की बात सच हो तो मेरे भूत का तो दम ही घुट जाएगा। मैं हिंदू हूँ और अगर मरने के बाद भूत बन जाता हूँ तो कम से नदी की ठंडी छाँव का आनंद तो ले पाऊँगा। मौत का डर तो हमेशा रहता है हमारे जैसे लोगों को और, क्योंकि हम इससे जुड़ा दर्शन नहीं समझ पाते। संस्कृत में एक सुभाषित श्लोक है दुनिया में दो प्रकार के लोग ही दुख से मुक्त हैं एक तो महामूर्ख, क्योंकि उन्हें समस्या का भान ही नहीं होता। दूसरे वो जो विद्वान हैं और हर समस्या का समाधान खोज निकालते हैं। बीच के लोग हमेशा तकलीफ में रहते हैं। अंतिम संस्कार के तरीके भी बदल रहे हैं कुछ आधुनिक तरीके आ गए हैं जो निराश करने वाले हैं। इनमें से एक है विद्युत शवदाह गृह। पहली बार १९९२ में इस संबंध में एक खबर देखी थी। उस जमाने में दूरदर्शन में ही न्यूज आती थी। मुख्य न्यायाधीश सब्यसाची मुखर्जी की मौत हुई थी, उनका अंतिम संस्कार विद्युत शवदाह गृह में हुआ। उस समय मैं एक बालक ही था लेकिन मौत के ऐसे तरीके को देखकर मुझे काफी निराशा हुई थी, मौत से भी बुरी त्रासदी।
इसका मतलब यह नहीं कि अंतिम संस्कार की हमारी परंपरा में सब कुछ अच्छा है। इससे सबसे ज्यादा क्षति हमारे इतिहास को हुई है। जैसे मध्यएशिया में यह उम्मीद रहती है कि कभी सिकंदर की कब्र मिलेगी और उसके साथ ही मिलेगा इतिहास का समृद्ध खजाना। ऐसा हमारे लिए संभव नहीं है। मिस्त्र का इतिहास अपने कब्रों के लिए ही मशहूर हुआ है। मैसापोटामिया के भव्य अवशेषों में बहुत कुछ उनके कब्रों की भी देन है। भारत में सिंधु घाटी सभ्यता के बाद यह परंपरा स्थगित हो गई। भारत में बुद्ध परंपरा के जो पुरातात्विक सबूत बचे हैं उसमें बहुत कुछ उनके स्तूप निर्माण की प्रणाली के चलते भी हैं जिनमें अवशेषों को सुरक्षित रखने पर इतना ध्यान दिया जाता था। मेरे एक सहयोगी हैं वर्मा जी, वो देह दान करना चाहते हैं मैं इसके लिए साहस नहीं जुटा पाता।
:) जब यह डायलाग मैंने भी सुना था तो सही में एक राहत महसूस की थी की शुक्र है मरने के बाद दम घुटने का एहसास नहीं होगा ...और फिर अपना यह ख्याल सोच कर जोर से हंसी आ गयी थी ....खैर मुझे लगता है यह मरने के बाद देह का क्या होना है उसका एहसास भी शायद जेनेटिक होता होगा ...
ReplyDeleteमरने के बाद .... प्रश्न अनसुलझा ही लगता है
ReplyDeleteगंभीर चिंतन प्रक्रिया से गुजरते हुए लिखी गयी पोस्ट... बहुत कुछ सोचने का मार्ग प्रशस्त कर रही है!
ReplyDeleteI love your blog! We have very similar taste.
ReplyDeleteFrom everything is canvas
एक निबंधात्मक आत्म कथन ....नेहरु ने मृत्योपरांत की अपनी इच्छा में भस्मावशेष को नदियों ,पहाड़ों और निसर्ग पर फैलाने का मर्म यही रहा हो ....
ReplyDeleteगहन मंथन की बात है।
ReplyDeleteFrom: http://dharmendra61.blogspot.com
अब तो पश्चिम में भी दाह संस्कार के प्रति रुझान बढ़ रहा है.
ReplyDeletehttp://mallar.wordpress.com
गंभीर पोस्ट
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