सुबह की गुनगुनी धूप में जब मैं स्कूल
जाता था पीछे बस्ता लटकाये तब न जाने कितनी बातें सोचता रहता था। मैं सड़क के दोनों
किनारे सर्पिल गति से चलता था जो अक्सर साइकिल सवारों के लिए परेशानी का सबब हो जाया
करता था। उस दौर में भी मेरे जेहन में था कि जो मैं यह सब देखता हूँ वो हमेशा रहने
वाला नहीं। वो पूरी तरह साड़ियों का दौर था, सलवार में शायद ही किसी महिला को हम देखते
थे लेकिन उस समय भी लगता था कि मेरे साथ की जो लड़कियाँ हैं जो अभी फ्राक पहनती हैं
क्या बड़ी होकर साड़ी पहनेंगी, यह बहुत अजीब लगता और मुझे लगता कि तब तक समय बदल जाएगा
और साड़ी परिदृश्य से गायब हो जाएगी।
एक दस साल के लड़के के लिए यह सोचना सचमुच में अजीब होगा कि उसके साथ की लड़कियाँ
वैसे ही परिधान पहनेंगी जैसा उसकी माँ और अन्य रिश्तेदार महिलाएँ अथवा पड़ोस की महिलाएँ
पहनती हैं। इतना लंबा अंतराल गुजरने के बाद अब भी साड़ी में महिलाएँ दिखती हैं इससे
मुझे गहरा सुकून मिलता है। मुझे लगता है कि मेरा बचपन अभी खत्म नहीं हुआ है, जब साड़ी
पहनने वाली महिलाएँ पूरी तौर पर दिखनी बंद हो जाएंगी तब मुझसे जुड़ा मेरे बचपन का समय
भी पूरी तौर पर खत्म हो जाएगा। ऐसा मुझे लगता है।
अजीब बात यह है कि जो पुरुषों को सुकून पहुँचाता है वो स्त्रियों के लिए कई
बार विरोधी होता है। मैंने अपनी बुआ को एवं कई अन्य महिलाओं को कहते हुए सुना कि साड़ी
की तुलना में सलवार बहुत बेटर ड्रेस है और इसके पीछे के उनके तर्क बड़े अजीब हैं जो
सामंती लगते हैं और जिन्हें कहना मुझे अच्छा नहीं लगता।
मुझे सेरेमनियल रूप से
साड़ी पहनने की प्रथा भी बड़ी अजीब लगती है. त्योहार के दिनों में अथवा मंदिरों में
महिलाएँ अक्सर साड़ी ही पहनती हैं। सीरियल्स में भी इन बदलावों को खास तौर पर रेखांकित
किया जाता है। ये रिश्ता क्या कहलाता है में अक्षरा का कैरेक्टर देखिये, जब महिला वर्किंग
वूमेन हुई तो उसने सलवार पहनना शुरू कर दिया। ऐसा संक्रमण क्यों?
साड़ी पर इतना
स्ट्रेस क्यों? यह प्रश्न ड्रेस कोड से जुड़ा अथवा रुचि से जुड़ा नहीं है। असल में
ये २००० साल की परंपरा है हमारी संस्कृति और इतिहास इससे जुड़ा है और हमारी पहचान भी।
जापान ने मेइजी रेस्टोरेशन के बाद वेस्टर्न ड्रेसकोड अपना लिया, जापानी पहचान समाप्त
हो गई। हमारी भी पहचान समाप्त हो जाएगी, यदि भारत की महिलाएँ साड़ी की जगह दूसरे परिधानों
को अपनाने लगें। भारतीय महिलाएं सलवार भी पहनें, जींस भी पहनें और दूसरे वेस्टर्न परिधानों
का प्रयोग भी करें लेकिन साड़ी न छोड़े। सेरेमनियल रूप से ही सहीं, उसे पहनें जरूर।
दिल्ली और मुंबई देश के दो महानगर
हैं मुझे मुंबई में बड़ा सुकून मिला, वहाँ दादर में एक मॉल में मुझे अत्याधुनिक वस्त्रों
से सजी महिलाएँ भी मिलीं और कांजीवरम की साड़ी पहने सीढ़ी पर चढ़ने में हिचकती
महिलाएँ भी मिलीं। इसके विपरीत दिल्ली में एक तरह की ही महिलाएँ, वहाँ भारत का रंग
नहीं है केवल रेशमी राजधानी ही दिखती है।
मेरी मम्मी अभी पंजाब गई थीं
कुछ दिनों पहले, उन्होंने बताया अमृतसर की लड़कियाँ चोटी लगाती हैं और खूबसूरत साड़ियाँ
पहनती हैं उन्होंने वहाँ की लड़कियों की काफी तारीफ की।
जिंदगी की खूबसूरती जींस में
भी खिलती है सलवार में भी लेकिन साड़ी में परंपरा की भी खूबसूरती खिलती है। इतिहास
की किताबों में पढ़ी हुई वत्सभट्टि द्वारा मंदसौर शिलालेख में लिखी पंक्ति याद आती
है।
तारुण्य कान्त्युपचितौअपि सुवर्ण हार,
तांबुल पुष्प विधिनां समंगलकृतौअपि
नीराजनः प्रियैमुपैति न तावद प्रियो
यावन्न पट्टमयवस्त्र युगानि धत्ते।
स्पर्श-न्तार-विभाग-चित्रेण-नेभ शुभगेन।
यसैस कलामिदं क्षितितलमलकृतं पट्ट वस्त्रेण।
अर्थात किसी तरूण स्त्री ने
भले ही सोने का हार पहन लिया हो, फूलों से सजी हो और ओठों को पान से सुशोभित किया हो,
सभी तरह के मंगल लक्षणों से युक्त हो लेकिन जब तक वो रेशमी साड़ी का धारण नहीं करेगी
तब तक उसका प्रेमी उसे पसंद नहीं करेगा। साड़ी का पहला विज्ञापन, बिना रैंप में किसी
महिला को चलाए एक कवि ने सूर्य मंदिर में रेशम बुनकरों के लिए लिखा। उनकी कामना जब
तक सूरज का प्रकाश हम पर रहे तब तक फलीभूत होती रहे, यही कामना है।
पुरुषों की धोती और स्त्रियों की साड़ी. फैशन आता-जाता है फिर-फिर.
ReplyDeleteइतनी भागदौड़ भरी लाइफ है .. साडी में हम असहज हो जाते है
ReplyDeleteसमय के साथ पहनावा बदल जाता है।
ReplyDeleteसमय के साथ - साथ सब बदलता है ....लेकिन एक तरीके से यह संस्कृति के समाप्त होने के चिन्ह भी है ...!
ReplyDeleteसमय के साथ पहनावा बदल जाता है।भावपूर्ण प्रस्तुति.
ReplyDeleteIS VISHAY ME BAHUT BAHAS HUI THEE YAHAAN
ReplyDeletehttp://bharatbhartivaibhavam.blogspot.in/2012/06/blog-post.html
bahut achchhi sarthak bahas wanha hui hai
DeleteAUR YAHAN BHI EK ZAMAANE MEIN KUCH BAATEIN HUIN THI...:)
ReplyDeletehttp://swapnamanjusha.blogspot.ca/2010/01/blog-post_07.html
ACCHA LAGA PADH KAR,
DHANYWAAD !
bahut achchi bahas, mujhe bahut khush hui aap sabhi ka view jankar
Deleteसाड़ी पहनना कम भले हो जाये पर बंद कभी हो ही नहीं सकता..रोचक पोस्ट..
ReplyDeleteयकीनन साड़ी में महिला की खूबसूरती की किसी अन्य परिधान से तुलना नहीं की जा सकती...भारतीय व्यक्ति कितना ही क्युं न पाश्चात्य विचारों का हो जाए वो भी महिला को साड़ी में ही देखना चाहेगा।
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