धमतरी की कुछ स्मृतियाँ मेरे दिमाग में रह गई हैं उसमें सबसे खास है बया का घोसला। मेरे घर के सामने एक कॉलेज था और उसमें बया ने तीन घोसले बनाए थे। पीले रंग की चिड़िया जब इसमें आती थी तो मुझे लगता था कि झांक की देखूँ, बया की फैमिली कैसी है। घर के पीछे भी कुछ खास था एक आम का पेड़, वो बुजुर्ग आम का पेड़ हर दिन सुबह कुछ छोटे आम गिरा देता था और हम उन्हें चटनी बनवाने के लिए घर ले आया करते थे।
वो घर इसलिए भी खास था कि मेरे युवा चाचा वहाँ रहते थे, वैसे वो युवा थे भी और नहीं भी, इसका कारण यह है कि मुझे सुराग मिलते रहे कि उनकी स्कूली शिक्षा की डगर फिसलन भरी रही। बुजुर्ग दादा जी भी इसी घर में रहते थे लेकिन अधिकतर बिस्तर में रहते थे और अक्सर मैं सुनता था कि वो कहते हैं कि मैं अस्पताल नहीं जाउँगा। मुझे तब नहीं मालूम था कि अस्पताल इतनी बुरी जगह होती होगी और मरने जाने के लिए सचमुच बहुत बुरी। उनकी केवल एक स्मृति है एक दिन हम कहीं जा रहे थे, पापा ने उन्हें बताया कि इन्हें लेकर घूमने जा रहा हूँ और तब पापा और दादा दोनों ने मुझे आशीर्वाद दिया था। उस छोटे से घर की कई यादें आती हैं इनमें से एक हैं नारायण लाल परमार जी। हमने दूसरी कक्षा में उनकी कविता पढ़ी थी और हमें बताया गया कि था कि यह कवि हमारे बगल में रहते हैं। मुझे बड़ा आश्चर्य होता था कि पाठ्यक्रम के कवि क्या सचमुच किसी के पड़ोसी हो सकते हैं। मैंने उन्हें कभी नहीं देखा, या देखा होगा तो अब उन्हें देखने की स्मृति नहीं।
एक बार पड़ोस के सभी बच्चों ने तय किया कि आज पुलाव बनेगा, किसी के घर से चावल लिया गया, कहीं से सब्जी। सब बच्चों ने निकष भैया के घर भोजन किया। दीदी को फिर कभी नहीं देख पाया।
फिर हम लोगों ने धमतरी छोड़ दिया और कई बरस बाद निकष भैया से सामना हुआ।
देशबंधु पर टेबल पर बैठे अच्छे दिनों का इंतजार करते हुए किसी ने प्रतिक्रिया की, लिखो तो निकष परमार जैसा लिखो, नहीं तो उसी सैलरी पर घिसटते रहो। यह वाक्य मुझे बड़ा शुभ लगा क्योंकि इससे यह भी संभावना बनती थी कि अच्छा लिख पाने पर कुछ उम्मीद यहाँ भी बनती है और दूसरा निकष भैया यहीं पत्रकारिता में हैं।
एक बार अपने प्रिय लेखक निर्मल वर्मा पर डॉ. राजेंद्र मिश्र या किसी और की संकलित एक किताब देखी, उस पर एक चैप्टर निकष भैया ने लिखा था। उसकी एक लाइन हमेशा दिमाग में अंकित रहती है पहली बार निर्मल को पढ़कर जाना कि शराब पीने वाले लोग भी अच्छे हो सकते हैं।
अब जब हाथ में एक पूरा कविता संग्रह लग गया है तो यह जैकपॉट हाथ आने जैसा है।
.........................................
उनके कविता संग्रह का नाम है पृथ्वी पर जन्म लेने के बाद, इसकी पहली कविता इसी नाम से है।
दुनिया में हैं और भी लड़कियाँ
पर मैं तुम जैसी किसी लड़की को नहीं जानता
आकाशगंगा में हैं और भी नक्षत्र
मगर उनमें से
हम नहीं चुनते अपना सूर्य
और ग्रहों पर भी होगा जीवन
उसे कौन ढूढ़ता है
पृथ्वी पर जन्म लेने के बाद।
उनकी कविता अवकाश की कविता है। जैसे समंदर की रेत में एक शाम गुजार रहें हों और कविता बन रही हो। जैसे घर के सामने घोसला बना रही बया और एक कविता बन रही हो। जैसे सर्दियों में देर तक लिहाफ में दुबके हों और बन रही है कविता। उनकी कविता आदमी को मशीन बनाने के विरुद्ध है और शहर को कांक्रीट का जंगल बनाने के विरुद्ध भी, इसलिए ही उनकी दृष्टि सड़क बनाने पर कट गए उस पेड़ की ओर भी जाती है जिसका कुसूर यह था कि इस शहर में जिंदा रहने के लिए एक पेड़ का पेड़ होना काफी नहीं था।
उनकी कविता सर्दियाँ मुझे बहुत खास लगी जो छोटी-छोटी उम्मीदों और सपनों को लेकर आती है। उसके कुछ अंश
सर्दियों का मतलब है
नींद खुलने पर अंधेरा देखना
और यह सोचकर खुश होना
कि हम कितनी जल्दी उठ गए।
सर्दियों का मतलब है
तेंदू के पत्ते जलाकर तापी गई आग
और देर तक उसके आसपास बैठे रहने का सुख
सर्दियों का मतलब है बगीचे में जाना
कसरत करना
और ब्रूस ली बनने के सपने देखना
सर्दियों का मतलब है
सुबह दौड़ने के लिए बलदेव का आना
और छोटे भाई के साथ सारे घर को जगा जाना
सर्दियाँ
अब पहले जैसी नहीं रहीं
छोटा भाई काम से देर रात लौटता है
और सुबह जल्दी नहीं उठा पाता
बलदेव ट्रक चलाता है
और अक्सर शहर से बाहर रहता है।
जैसे मुक्तिबोध एक ही तरह की कविता हर बार लिखते रहे, अलग-अलग बिंबों से, वैसे ही निकष भैया की कविता भी अलग-अलग बिंबों में एक ही ओर जाती है। उनका वक्त और अवकाश जो खो गया शहर में।
दोस्तों के पते कविता से भी इसका आभास मिलता है।
जिंदा रहने की लड़ाई ने
जिंदा रहने की वजह के बारे में
सोचने का समय नहीं दिया
भीड़ के साथ दौड़ते-दौड़ते
मैं घर से बहुत दूर चला आया।
कुछ बरस पुरखों का पुण्य बेचकर पेट भरता रहा
फिर रोजी-रोटी के लिए मुझे गिरवी रखना पड़ा अपना वक्त
जिसे फिर छुड़ा नहीं सका।
घर वालों को जब जब जरूरत पड़ी
मेरे पास उनके लिए कुछ भी नहीं था
सिवा बहानों के
धीरे-धीरे बहाने खत्म हो गए
खत्म हो गए घर वालों के सवाल
दोस्तों की चिट्ठियों में लिखने लायक बातें खत्म हो गईं
और एक-एक कर उनके पते खो गए।
जब निकष भैया ब्रूस ली को कविता में ले आए हैं तो मैं भी नमक हराम फिल्म को उनकी कविता समीक्षा के दौरान ले आने की छूट ले सकता हूँ और दिये जलते हैं फूल खिलते हैं गाने के बीच अंतरे के दौरान राजेश खन्ना के लिए कहे गए अमिताभ बच्चन के शब्द मेरे लिए तो बड़े गुलाम अली, छोटे गुलाम अली तुम्ही हो को कुछ परिवर्तित कर यूँ कह सकता हूँ कि मेरे लिए तो विनोद कुमार शुक्ल और अशोक वाजपेयी निकष भैया ही हैं।
वो घर इसलिए भी खास था कि मेरे युवा चाचा वहाँ रहते थे, वैसे वो युवा थे भी और नहीं भी, इसका कारण यह है कि मुझे सुराग मिलते रहे कि उनकी स्कूली शिक्षा की डगर फिसलन भरी रही। बुजुर्ग दादा जी भी इसी घर में रहते थे लेकिन अधिकतर बिस्तर में रहते थे और अक्सर मैं सुनता था कि वो कहते हैं कि मैं अस्पताल नहीं जाउँगा। मुझे तब नहीं मालूम था कि अस्पताल इतनी बुरी जगह होती होगी और मरने जाने के लिए सचमुच बहुत बुरी। उनकी केवल एक स्मृति है एक दिन हम कहीं जा रहे थे, पापा ने उन्हें बताया कि इन्हें लेकर घूमने जा रहा हूँ और तब पापा और दादा दोनों ने मुझे आशीर्वाद दिया था। उस छोटे से घर की कई यादें आती हैं इनमें से एक हैं नारायण लाल परमार जी। हमने दूसरी कक्षा में उनकी कविता पढ़ी थी और हमें बताया गया कि था कि यह कवि हमारे बगल में रहते हैं। मुझे बड़ा आश्चर्य होता था कि पाठ्यक्रम के कवि क्या सचमुच किसी के पड़ोसी हो सकते हैं। मैंने उन्हें कभी नहीं देखा, या देखा होगा तो अब उन्हें देखने की स्मृति नहीं।
एक बार पड़ोस के सभी बच्चों ने तय किया कि आज पुलाव बनेगा, किसी के घर से चावल लिया गया, कहीं से सब्जी। सब बच्चों ने निकष भैया के घर भोजन किया। दीदी को फिर कभी नहीं देख पाया।
फिर हम लोगों ने धमतरी छोड़ दिया और कई बरस बाद निकष भैया से सामना हुआ।
देशबंधु पर टेबल पर बैठे अच्छे दिनों का इंतजार करते हुए किसी ने प्रतिक्रिया की, लिखो तो निकष परमार जैसा लिखो, नहीं तो उसी सैलरी पर घिसटते रहो। यह वाक्य मुझे बड़ा शुभ लगा क्योंकि इससे यह भी संभावना बनती थी कि अच्छा लिख पाने पर कुछ उम्मीद यहाँ भी बनती है और दूसरा निकष भैया यहीं पत्रकारिता में हैं।
एक बार अपने प्रिय लेखक निर्मल वर्मा पर डॉ. राजेंद्र मिश्र या किसी और की संकलित एक किताब देखी, उस पर एक चैप्टर निकष भैया ने लिखा था। उसकी एक लाइन हमेशा दिमाग में अंकित रहती है पहली बार निर्मल को पढ़कर जाना कि शराब पीने वाले लोग भी अच्छे हो सकते हैं।
अब जब हाथ में एक पूरा कविता संग्रह लग गया है तो यह जैकपॉट हाथ आने जैसा है।
.........................................
उनके कविता संग्रह का नाम है पृथ्वी पर जन्म लेने के बाद, इसकी पहली कविता इसी नाम से है।
दुनिया में हैं और भी लड़कियाँ
पर मैं तुम जैसी किसी लड़की को नहीं जानता
आकाशगंगा में हैं और भी नक्षत्र
मगर उनमें से
हम नहीं चुनते अपना सूर्य
और ग्रहों पर भी होगा जीवन
उसे कौन ढूढ़ता है
पृथ्वी पर जन्म लेने के बाद।
उनकी कविता अवकाश की कविता है। जैसे समंदर की रेत में एक शाम गुजार रहें हों और कविता बन रही हो। जैसे घर के सामने घोसला बना रही बया और एक कविता बन रही हो। जैसे सर्दियों में देर तक लिहाफ में दुबके हों और बन रही है कविता। उनकी कविता आदमी को मशीन बनाने के विरुद्ध है और शहर को कांक्रीट का जंगल बनाने के विरुद्ध भी, इसलिए ही उनकी दृष्टि सड़क बनाने पर कट गए उस पेड़ की ओर भी जाती है जिसका कुसूर यह था कि इस शहर में जिंदा रहने के लिए एक पेड़ का पेड़ होना काफी नहीं था।
उनकी कविता सर्दियाँ मुझे बहुत खास लगी जो छोटी-छोटी उम्मीदों और सपनों को लेकर आती है। उसके कुछ अंश
सर्दियों का मतलब है
नींद खुलने पर अंधेरा देखना
और यह सोचकर खुश होना
कि हम कितनी जल्दी उठ गए।
सर्दियों का मतलब है
तेंदू के पत्ते जलाकर तापी गई आग
और देर तक उसके आसपास बैठे रहने का सुख
सर्दियों का मतलब है बगीचे में जाना
कसरत करना
और ब्रूस ली बनने के सपने देखना
सर्दियों का मतलब है
सुबह दौड़ने के लिए बलदेव का आना
और छोटे भाई के साथ सारे घर को जगा जाना
सर्दियाँ
अब पहले जैसी नहीं रहीं
छोटा भाई काम से देर रात लौटता है
और सुबह जल्दी नहीं उठा पाता
बलदेव ट्रक चलाता है
और अक्सर शहर से बाहर रहता है।
जैसे मुक्तिबोध एक ही तरह की कविता हर बार लिखते रहे, अलग-अलग बिंबों से, वैसे ही निकष भैया की कविता भी अलग-अलग बिंबों में एक ही ओर जाती है। उनका वक्त और अवकाश जो खो गया शहर में।
दोस्तों के पते कविता से भी इसका आभास मिलता है।
जिंदा रहने की लड़ाई ने
जिंदा रहने की वजह के बारे में
सोचने का समय नहीं दिया
भीड़ के साथ दौड़ते-दौड़ते
मैं घर से बहुत दूर चला आया।
कुछ बरस पुरखों का पुण्य बेचकर पेट भरता रहा
फिर रोजी-रोटी के लिए मुझे गिरवी रखना पड़ा अपना वक्त
जिसे फिर छुड़ा नहीं सका।
घर वालों को जब जब जरूरत पड़ी
मेरे पास उनके लिए कुछ भी नहीं था
सिवा बहानों के
धीरे-धीरे बहाने खत्म हो गए
खत्म हो गए घर वालों के सवाल
दोस्तों की चिट्ठियों में लिखने लायक बातें खत्म हो गईं
और एक-एक कर उनके पते खो गए।
जब निकष भैया ब्रूस ली को कविता में ले आए हैं तो मैं भी नमक हराम फिल्म को उनकी कविता समीक्षा के दौरान ले आने की छूट ले सकता हूँ और दिये जलते हैं फूल खिलते हैं गाने के बीच अंतरे के दौरान राजेश खन्ना के लिए कहे गए अमिताभ बच्चन के शब्द मेरे लिए तो बड़े गुलाम अली, छोटे गुलाम अली तुम्ही हो को कुछ परिवर्तित कर यूँ कह सकता हूँ कि मेरे लिए तो विनोद कुमार शुक्ल और अशोक वाजपेयी निकष भैया ही हैं।
पाठ्यक्रम के कवि क्या सचमुच किसी के पड़ोसी हो सकते हैं? :)
ReplyDeleteबहुत सुंदर कविता। निकष परमार जी की जानकारी के लिए धन्यवाद। पीछे प्रयाग शुक्ल जी के बारे में पढ़ा तो ध्यान आया कि अलग-अलग लोगों की दुनिया कितनी अलग होती है। मैं हिन्दी के किसी ख्यातिनाम को नहीं जानता, कितनों के नाम भी इस ब्लॉग में ही पहली बार जाने। और आप? आपके बारे में भी कितनी कम जानकारी है। सिर्फ इतनी कि एक सुलझा हुआ ईमानदार व्यक्ति जो अपाए को सहजता से अभिव्यक्त कर पाता है।
sir, aapka padhna mere likhne ko sarthak kar jata hai.
Deleteआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 27 जून 2020 को लिंक की जाएगी ....
ReplyDeletehttp://halchalwith5links.blogspot.com पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!