हरिद्वार की एक पुरानी
स्मृति हमेशा याद आती है। देर शाम जब हम लोग परिवार सहित इस शहर में पहुँचे तो थोड़ा
विश्राम कर हर की पौड़ी चले आए। यहाँ मैंने और मेरी बहन ने फूल के दो दोनें खरीदे।
इनमें एक-एक दिया जल रहा था। हमने इसे गंगा जी में बहा दिया। दोना लहरों से संघर्ष
करता हुआ कुछ आगे बढ़ा और गंगा जी में विलीन हो गया। पंखुड़िया गंगा में बहती दिखीं।
अरसे तक जब भी मन में कोई द्वेष घिरता था, मैं इस बिंब को याद करता। सोचता कि मैंने
जैसे फूल गंगा जी में बहा दिया, वैसे ही अपना अहंकार भी, अपनी चिंताएं भी बहा रहा हूँ।
यहाँ स्नान
कर मिली पवित्रता से पता चला कि आखिर भागीरथ को गंगा को धरती पर लाने की जरूरत क्यों
पड़ी? इस घटना के एक दशक बाद मेरी मम्मी हरिद्वार गई। उन्होंने बताया कि गंगा में अब
वैसा प्रवाह, वैसी कलकल ध्वनि नहीं रही जो दशक भर पहले थी। उन्होंने कहा कि मुझे वैसा
आत्मिक संतोष महसूस नहीं हुआ। माँ ने इसका कारण भी बताया, उन्होंने बताया कि एक बाँध
बना है ऊपर गंगा में, जिसकी वजह से यह प्रवाह बाधित हो गया। उनका इशारा टिहरी बांध
की ओर था।
उत्तराखंड आगे बढ़ रहा था और किसी
को ध्यान नहीं था कि आपदा इंतजार कर रही है। पिछले साल जब बाबा रामदेव दिल्ली के जंतर-मंतर
में अनशन कर रहे थे, उसी समय एक अनाम से कोई संन्यासी गंगा में अवैध खनन कर रहे माफिया
के खिलाफ संघर्ष में बैठे थे, अंततः उन्होंने जान दे दी लेकिन किसी ने प्रतिक्रिया
नहीं दी। आज जब गंगा ने अपनी सीमाएँ लाँघ दी, तब पहाड़ों पर हो रही छेड़छाड़ सबको दिख
रही है।
हममें से अधिकांश घटना की भयावहता के लिए सरकार
को जिम्मेवार ठहरा रहे हैं लेकिन सच तो यह भी है कि विकास हमें भी चाहिए और हम विकास
के साइड इफेक्ट्स झेलने के लिए भी तैयार नहीं। हमें घरों में अबाधित बिजली चाहिए, नई
गाड़ियाँ चाहिए, सारी सुख-सुविधाएँ चाहिए। मेरे एक बहुत अजीज रिश्तेदार हैं वे कहते
हैं कि एसी के बगैर उन्हें नींद ही नहीं आती। एक करीबी मित्र के घर मैं जाता हूँ उनके
यहाँ खाना हीटर से बनता है और वे अपना घरेलू सिलेंडर बेच देते हैं। उनके यहाँ सारे
कमरों में पंखे-बिजली चौबीस घंटे चलते हैं। मैं खुद भी लाइट और पंखे चलाकर भूल जाता
हूँ और दूसरे कमरे में चला जाता हूँ।
पहले थोड़ी परवाह होती थी क्योंकि
मीडिया उद्देश्यपरक था। एक एड आता था दूरदर्शन के दिनों में, एक आदमी ब्रश करते हुए
वाश बेसिन का नल चला देता है और ब्रश करने के दौरान पानी बहते रहता है। आखिर में टैग
लाइन होती, जो पानी साल भर में बर्बाद हुआ, उससे गेंहूँ के एक खेत की सिंचाई हो सकती
थी।
उत्तराखंड में
जिन लोगों की जिंदगियाँ गईं, उसके पीछे दोषी हम भी हैं, विकास के नाम पर जो प्रकृति
को नष्ट किया गया, उसका सुख तो हमने उठाया लेकिन उसकी कीमत केवल उन्होंने चुकाई जो
दुर्भाग्य से उस दिन उत्तराखंड में मौजूद थे।
विकास और विनाश का अंतर जब तक नहीं समझेगा इंसान ये तो होते ही रहेगा...बढ़िया विश्लेषण।।।
ReplyDeleteसच है आपका कहना पर विकास भी तो चाहिए ... फिर चाहे स्थानीय लोगों के लिए या पर्यटकों के लिए ... असल बात तो ये है की विकास किस तरह से हो ... क्या प्राकृति के पूरक विकास नहीं हो सकता ...? क्या सभी चीजें साथ नहीं हो सकती ...? हो सकती हैं बशर्ते संवेदनशील हों हम ... देश, सरकार और लोग जागरूक हों ....
ReplyDeleteप्रकृति के साथ की गयी छेड़छाड़ भी हमने ही की तो खामियाजा भी हमे ही भुगतना पड़ेगा.
ReplyDeleteजागरूक करता विचारणीय आलेख.
ispasht aur satik-***
ReplyDeleteकिसको मालूम था,उस रात उफनती, वह
ReplyDeleteनदीं, देखते देखते ऊपर से, गुज़र जायेगी !
कैसे मिल पाएंगे ?जो लोग,खो गए घर से,
मां को,समझाने में ही,उम्र गुज़र जायेंगी !
सचमुच सतीश जी, यह त्रासदी भूलाए नहीं भूलती।
Deleteबहुत सुंदर और विचारणीय लेख हमेशा की तरह ...देर से आने का कारण है......
ReplyDeleteअपने देश की तरक्की से हमें ख़ुशी है ....पर ग़मों के जनाज़े पर नही ....खुशियों
के कन्धों पर होनी चाहिए .......इस त्रासदी पर इंसानियत शर्मिंदा है !
खुश रहें
इस चर्चा पर मन अवसाद में डूबने लगता है
ReplyDelete