Monday, June 17, 2013

समय यात्रा के हमारे जोखिम


हमारा बचपन शीतयुद्ध के साये में बीता। शीतयुद्ध के दौर में सबसे बड़ा खतरा तीसरे विश्वयुद्ध का था और हम बार-बार सुनते थे कि तीसरे विश्वयुद्ध में परमाणु बम का प्रयोग होगा जिससे समूची दुनिया नष्ट हो जायेगी। इसका बड़ा असर मेरे अवचेतन मन में हुआ और मैं यह समझने लगा कि कभी भी दुनिया नष्ट हो सकती है। सोवियत संघ के बिखरने के बाद तीसरे विश्वयुद्ध का खतरा अब नहीं रहा लेकिन मन में बैठी हुई बात अक्सर नहीं निकलती। अगले तीस या चालीस साल बाद या अगले सौ साल के बाद दुनिया कायम रहेगी, इस पर मुझे संशय होता है। यह प्रश्न मेरे मन की भीतरी तहों में था लेकिन इसे प्रत्यक्ष रूप तब मिला जब स्टीफन हॉकिंग का एक कोटेशन पढ़ा। उनका कहना था कि अगले कुछ वर्षों में दुनिया नष्ट हो जाएगी क्योंकि मनुष्य सारे संसाधनों का प्रयोग कर चुका होगा और मनुष्य जाति को अगर जिंदा रहना है तो उसे एलियंस की तरह ही स्पेस के ठिकानों पर कब्जा करना होगा जहाँ वो पृथ्वी की तरह ही नये सिरे से संसाधनों का प्रयोग कर सके।
                                                        मैं इस तरह से नहीं सोच सकता क्योंकि मुझे नहीं मालूम धरती में कितने संसाधन है लेकिन मुझे जो चीज चकित करती है वो है मेरे समय की गति। जैसे हमे स्पेसशिप में बिठा दिया गया हो और हम युगों के समय को क्षणों में पार कर रहे हों। इतनी तेज गति से बढ़ती दुनिया को पहली बार हमारी पीढ़ी ने ही देखा, जब पहली बार कैल्कुलेटर देखा तो लगा कि एक अद्भुत आविष्कार मेरे हाथ लग गया है अब जो सुनता हूँ तो हैरानी होती है। ऐसे मोबाइल फोन आ गए हैं जिनकी स्क्रीन आँखों के मूवमेंट से सरकती है। यह साइंस का अद्भुत आविष्कार है इसमें दिमाग का बड़ा प्रयोग किया गया है लेकिन मुझे नहीं लगता कि इसकी कोई जरूरत भी है। एक किस्सा याद आता है कि एक आदमी ने चौदह बरस तक हठयोग कर पानी में चलने की विद्या प्राप्त कर ली, जब उसने अपनी विद्या को दयानंद सरस्वती के सामने प्रदर्शित करना चाहा तो स्वामी जी ने कहा कि यह काम तो तुम नाव से भी कर सकते थे, इतना समय क्यों बर्बाद किया। प्रश्न यही सामने आता है कि हम इतनी तेज गति से प्रगति कर रहे हैं लेकिन कितनी यह प्रगति कितनी बेतरतीब है। जैसे तेज चाल जब जरूरत से ज्यादा तेज हो जाती है तो जोखिम में बदल जाती है मुझे लगता है कि वैसा ही इस समय के साथ भी है। ऐसे ही हम इस समय यात्रा में हम हवाई झूले के रूप में एक ऐसे स्पेसशिप में बैठ गये हैं जिसकी गति बेहिसाब रूप से बढ़ रही है जो समय हमें अभी रोमांच प्रदान कर रहा है वो कब गहरी उत्तेजना में और कब एक चीख में बदल जाए, हम नहीं कह सकते।
                                                               इस बात का संतोष पुराने समय में जरूर था। उनके लिए उनकी पीढ़ी का समय अल्प विराम जैसा रहा होगा। इसके पहले भी कथा चल रही था, उनके आगे भी कथा चलती रहेगी क्योंकि समय उनकी पीढ़ी के लिए थम सा गया था। जहाँ तक मुझे याद आता है इसे पहली बार कार्ल मार्क्स ने लक्षित किया। उन्होंने कहा कि एशियाई समाज एक ठहरा हुआ समाज है यहाँ समय जैसे ठहर सा गया है। भगवदगीता इसी शाश्वत समय की कहानी कहती है। आत्मा केवल कपड़े बदलती है। पुराने लोग नये कलेवर में दुबारा आ जाते हैं अपने कर्मों के अनुसार। सब कुछ वैसा ही, सब कुछ वहीं.................
            

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आपने इतने धैर्यपूर्वक इसे पढ़ा, इसके लिए आपका हृदय से आभार। जो कुछ लिखा, उसमें आपका मार्गदर्शन सदैव से अपेक्षित रहेगा और अपने लेखन के प्रति मेरे संशय को कुछ कम कर पाएगा। हृदय से धन्यवाद