Saturday, January 26, 2013

मन क्यों नहीं देता मनमोहन को सवालों के कटघरे में खड़े करने की इजाजत





मैं बहुत हिचकते हुए यह बात लिख रहा हूँ कि मैं मनमोहन सिंह से प्रभावित हूँ और उससे भी बढ़कर अजीब बात यह लगेगी कि इधर के दिनों में मनमोहन के प्रति मेरी श्रद्धा और बढ़ी है।
                    पहली बात यह कि उन्होंने जितनी आलोचना झेली, शायद आजाद भारत में किसी प्रधानमंत्री ने नहीं झेली होगी, यह आलोचना भी मीठी नहीं थी जैसा वाजपेयी जी ने झेली कि आदमी तो अच्छे हैं लेकिन गलत पार्टी में हैं। उनके जगह एकेडमिक फील्ड से आया कोई दूसरा शख्स होता तो उसने देश के प्रधानमंत्री की नौकरी छोड़ दी होती लेकिन वे भीष्म की तरह ही गांधी परिवार से वायदा किए हुए थे कि वे मझधार में पार्टी की नैया नहीं छोड़ेंगे।
                           दूसरी बात यह कि वे जानते थे कि उनके पास भरत की तरह खड़ाऊ है, खड़ाऊ होने पर मर्यादा की सीमा में रहना पड़ता है जनादेश जिनके पास है उनके फैसलों का सम्मान करना होता है और पालिटिकल मामलों में यह सम्मान तो बेहद जरूरी है।
                तीसरी बात यह कि वे केवल अर्थशास्त्री नहीं हैं यह बात मुझे अच्छी लगी। मुझे याद है प्रधानमंत्री के रूप में लोकसभा को संबोधित करते हुए उन्होंने जो पहली पंक्ति कही थी वो ये थी कि मुझे इस वक्त नेहरू की बहुत याद आ रही है वे कहते थे कि पॉलिटिक्स में सेन्टीमेंट्स होने तो अच्छे हैं लेकिन सेंटीमेंटल नहीं होना चाहिए लेकिन मैं इस मौके पर सेंटीमेंटल हो रहा हूँ।
                                      उनका मिजाज शायरी से भरा है मेरे कलाम से बेहतर है मेरी खामोशी न जाने कितने सवालों की आबरू रख ली। अफसोस कि उनका अंदाज-ए-बयां बहुत बुरा है जिससे बहुत सार्थक अर्थ रखने वाले शब्द भी अपने मायने खो देते हैं।
                 चौथी बात यह कि मनमोहन कभी राजनीति में भावनात्मकता का प्रवेश नहीं करते, शायद अपने गुरु नेहरू से उन्होंने यह सिखा है जो खुद भी अनेक मौकों पर भावनाओं में बह जाया करते थे। कभी अपने परिवार वालों का जिक्र उन्होंने नहीं किया, कभी आत्मप्रशंसा में नहीं बहे। केवल एक बार राष्ट्र के नाम संबोधन में उन्होंने अपनी तीन बेटियों का जिक्र किया। वो भी तब उन पर जब आरोप लगे कि वे बेटियों की चिंता नहीं करते।
                 हम उनके भाषण में यह सब भूल गए केवल उनके अंतिम शब्द याद रह गए ठीक है। क्या भारत एक ऐसे व्यक्ति को स्पेस देने को तैयार नहीं है जो खामोशी से काम करने में भरोसा रखता है जो डींग नहीं हांकता, चीजों को ठीक करने का प्रयास करता है। वो अर्थशास्त्र तो जानता है लेकिन ब्रांडिंग नहीं जानता इसलिए बाजार के मनोविज्ञान को नहीं समझ पा रहा।
                        नितिन गडकरी के पुत्र की शादी के किस्से हम सबने सुने हैं लेकिन उसी के आसपास प्रधानमंत्री की बेटी की भी शादी हुई थी, खबर में केवल ३० शब्द थे, गिने-चुने मेहमानों के मध्य सादे तरीके से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की बेटी की शादी संपन्न हुई।
                   पाँचवीं और सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि वे एकेडमिक हैं एकेडमिक व्यक्ति सत्ता से दूर रहना चाहता है वो राजनीति को जंजाल समझता है वो किताबों से घिरा रहना चाहता है वो अपनी आत्मसंतोष की छोटी सी परिधि से बाहर नहीं आना चाहता। मनमोहन इस परिधि से बाहर निकले और देश को शेप देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
              यह सही है कि प्रधानमंत्री के रूप में उनका द्वितीय कार्यकाल बेहद असफल रहा है और इसने मनमोहन सिंह की पुरानी उपलब्धियों पर भी पानी फेर दिया है उनका लोकतांत्रिक रवैया और संवेदनशील स्वभाव प्रधानमंत्री के पद को कमजोर कर रहा है उनका अर्थशास्त्र भी विफल हो गया है और वे सबसे ज्यादा घोटाले करने वाली सरकार के मुखिया बन गए हैं फिर भी पता नहीं मन क्यों मनमोहन को सवालों के कटघरे में खड़ा करने की इजाजत नहीं देता?
                     

6 comments:

  1. मेरा तो सिर्फ इतना कहना है कि.....
    अगर किसी की प्रशंसा नही कर सकते
    तो निंदा से तो बचा जा सकता है ||

    ReplyDelete
  2. निजी तौर पर व्यक्ति को पसंद करना, और उसे कटघरे से बाहर निकालने की बात कहना , दो अलग बातें होती हैं ।

    जब कोई व्यक्ति प्रधान मंत्री जैसा पद स्वीकार करता है, तब उसका निजी चरित्र कैसा है उससे बढ़कर महत्वपूर्ण यह हो जाता है कि "देश" का कितना हित या अहित हो रहा है उसके कार्यों से । वे सादगी पसंद हैं / नहीं हैं / डींगे हांके बिना काम करते हैं / नहीं करते हैं,..... आदि आदि प्रश्न हैं ही नहीं, हो ही नहीं सकते । प्रश्न यह है कि क्या उस पद से जुडी जिम्मेदारियां ठीक से निभ रही हैं, या जानते बूझते भी परे की जा रही हैं ?

    प्रधान मंत्री भी किसी राजपरिवार के नहीं, लोकतान्त्रिक देश के प्रधानमन्त्री बनने वाले व्यक्ति की जवाबदेही होती है जनता के प्रति, उसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर चुप्पी साधे रखने का अधिकार होता ही नहीं ।

    बेटियों के पिता की चिंता हर व्यक्ति का अधिकार भी है, कर्त्तव्य भी। लेकिन प्रधानमन्त्री का कर्त्तव्य अपनी चिंता देश को सुनाना नहीं, बल्कि देश को यह बताना है कि बाकी बेटियों की सुरक्षा के सन्दर्भ में वे कर क्या रहे हैं, या क्या करने का प्रयास करेंगे ।

    किसी विषय पर आप या मैं या कोई अन्य जन चुप रहा सकते हैं, लेकिन प्रधानमन्त्री नहीं । "मनमोहन सिंह" को अधिकार हो सकता है चुप रहने का, प्रधान मंत्री को नहीं हो सकता ।

    यह बताइये, देश की सीमा पर तैनात एक सैनिक देश पर हमला करने वाले सैनिकों पर यह कह कर हथियार उठाने से इनकार करे कि वह निजी तौर पर अहिंसावादी है , तो वह आपके अनुसार कटघरे में होना चाहिए , उस पर अपने कर्त्तव्य से पीछे हटने का अभियोग होना चाहिए, या उसे अहिंसावादी कह कर उसकी तारीफें होनी चाहिए ?

    ReplyDelete
    Replies
    1. आपकी बातों से मैं सहमति रखता हूँ, प्रधानमंत्री की निष्ठा किसी परिवार के प्रति नहीं अपितु पूरे राष्ट्र के प्रति होती है और अगर मनमोहन सिंह को केवल खटाऊ की भूमिका मिलती थी तो उन्हें इंकार कर देना चाहिए, जहाँ तक चुप्पी साधने की बात है मैं इससे सहमत नहीं हूँ अन्ना के आंदोलन के वक्त पूरे पार्लियामेंट में उन्होंने अन्ना को सेल्यूट किया था, आप किस तरह का लोकपाल लाएंगे ये जनता पर या किसी खास सिविल सोसायटी कहे जाने वाले कुछ लोगों पर नहीं छोड़ा जा सकता। राष्ट्र के नाम संदेश भी उन्होंने दिया।
      अंतिम रूप से यह कहना चाहता हूँ कि मैं केवल एक पक्ष दिखाना चाहता था कि दोषी होने के बावजूद भी उनका कोई भी अपराध जानबूझकर नहीं किया गया, मैं उन्हें कटघरे में खड़े करने से मुक्त करने की बात नहीं कह रहा, ऐसा करने में केवल हिचक होती है ऐसा मैंने कहा।

      Delete
    2. समझ रही हूं, कि आपको जब लगता है कि , "यह व्यक्ति भर शक्ति अपनी ओर से, अपने सम्पूर्ण मन वचन कर्म से, देश की सेवा कर रहा है", तो उसे कटघरे में सिर्फ इसलिए रखना कि वह बहुत बोलता नहीं अपने काम के या अपने आगे के रास्ते के चुनाव के बारे में, आपको uncomfortable कर रहा है ।

      लेकिन एक बात यह है न सौरभ जी - यदि कोई सच ही अपने मन वचन कर्म से देश सेवा के लिए समर्पित हो, सच में समर्पित, तब तो उसे ये आलोचनाएं विचलित नहीं करेंगी, क्योंकि उसका ह्रदय जानते ही होगा कि वह अपना कर्म पूरी निष्ठा से कर रहा है । और यदि वह ऐसा नहीं कर रहा हो, तो उसे इन आलोचनाओं की अनुगूंज अपने ह्रदय में भी सुनाई देती होगी ।

      जब व्यक्ति एक सार्वजनिक जीवन चुनता है, जब उसके अच्छे बुरे, सही गलत फैसलों का असर पूरे राष्ट्र पर पड़ता है - तब समझिये कि उसने पूरे जीवन के लिए कटघरे में खड़े रहना स्वीकार कर ही लिया । और कटघरा एक सजा नहीं होता है सौरभ जी, यह एक ताउम्र परीक्षा है, जिसमे उसे ताउम्र खरा उतरता ही रहना होगा ।

      Delete
    3. Situation bahut hi samvedansheel hain halanki ham sab is baat se sahmat hain ki kuch na karana hain to us jagah pe hona uchit hai ya nahin lekin kai baat parishityon vash insaan ko kuch na karana bhi ek uchit action lagata hain. Voh jagah khali to nahin rahegi us kursi pe koi na koi to baithega aur voh is desh ka kitana bhala karega........... yeah bhi ek karan ho sakata hain bhisma ki chuppi ka...... "Ham mein se koi bhi unake intellect pe comment nahin kar sakata" to ho sakata hain unki us chuppi ke piche ham sabaki ki koi badi bhalai ho.

      Ek aur paksha yeah hain ki captain bankar game khelana aur player bankar game khelana dono mein bahut farak hota hain kai baar ham later bahut accha karate hain lekin former mein piche rah jaate hain......... "Success in any thing represents a state when you can be scientific about your art" but if you can't be former that does not mean you'r not an artist.
      "Bhisma Ki chuppi" waali baat acchi lagi :)

      Delete
  3. सौरभ जी, मुक्ति का अर्थ संसार से मुक्ति नहीं है, अहंकार से मुक्ति से है, अहंकार ही परमात्मा और व्यक्ति के मध्य में दीवार है..और परमात्मा का अर्थ कोई व्यक्ति नहीं है बल्कि यह जगत ही है..इसके कण-कण में परमात्मा है अर्थात मुक्ति का अर्थ हुआ व्यक्ति और संसार के मध्य दूरी से मुक्ति..मनमोहन सिंह के बारे में आपके विचार बहुत सार्थक हैं..निंदा से कोई लाभ नहीं..

    ReplyDelete


आपने इतने धैर्यपूर्वक इसे पढ़ा, इसके लिए आपका हृदय से आभार। जो कुछ लिखा, उसमें आपका मार्गदर्शन सदैव से अपेक्षित रहेगा और अपने लेखन के प्रति मेरे संशय को कुछ कम कर पाएगा। हृदय से धन्यवाद