Tuesday, March 12, 2013

यात्रा और जीवन का फलसफा




 मैंने तीन कहानियाँ ऐसी सुनी हैं जिन्होंने मेरा यात्राओं के प्रति नजरिया बदला है। सबसे पहले बीगल नामक जहाज में निकले डार्विन की यात्रा। जब वे दक्षिण अमेरिका में टीरा के घने जंगलों से गुजर रहे थे तो उन्होंने एक मादा गोरिल्ला को स्वयं बर्फ झेलते हुए अपने बच्चे की रक्षा करते हुए दूध पिलाते देखा। डार्विन ने इसी क्षण समझ लिया कि मनुष्य के सबसे निकट के पूर्वज यही हैं। दूसरा विवेकानंद की रायपुर यात्रा है। इस यात्रा के दौरान उन्होंने प्रकृति को निकट से देखा और प्रथम आध्यात्मिक अनुभूति उनकी यहीं हुई। तीसरी यात्रा भारतेन्दु की पुरी यात्रा है। इस यात्रा ने उन्हें इस तरह आंदोलित किया कि सहस्त्राब्दि भर की काव्य यात्रा को स्थगित कर उन्होंने गद्य में हाथ आजमाने का निर्णय लिया।
                 मेरी वृत्ति यायावर की नहीं है। वो नये-नये स्थल चुनता है। मैं बार-बार उन्हीं जगहों में लौटना पसंद करता हूँ इसलिए नई जगह देख नहीं पाता, इसलिए मेरा अनुभव-जगत भी सीमित ही रह जाता है। फिर भी क्षणिक यात्राओं में ही सही, कई बार जीवन जीने के फलसफे मिलते हैं, इस बार शिर्डी-नासिक यात्रा से वापस लौटने के दौरान ऐसा ही हुआ। मैं खिड़की के किनारे बैठा था, शाम का सूरज ढल रहा था। ट्रेन की स्पीड काफी तेज थी। महाराष्ट्र के ग्रामीण परिवेश का खूबसूरत लैंडस्कैप आँखों के सामने से तेजी से गुजर रहा था। मुझे अचानक डिस्कवरी चैनल में देखा हुआ स्टीफन हॉकिंग का एक प्रोग्राम याद आ गया। उसकी विषयवस्तु कुछ यूँ थी, पूरे विश्व में एक ऐसी ट्रैक बनाई जाए जिसमें चलने वाली ट्रेन की स्पीड बढ़ाने के पूरे वैज्ञानिक इंतजामात किए जाए, प्रकाश के वेग के करीब पहुँचने पर इस बात की पूरी संभावना बनेगी कि इस ट्रेन के टूरिस्ट इस आकाशगंगा का थोड़ा सा हिस्सा घूम आएँ। यह सोचना काफी दिलचस्प है भविष्य में हो भी सकता है कि ऐसी ट्रेन बनें लेकिन निश्चित ही हम उसके यात्री नहीं हो पाएंगे। यह ख्याल आते ही मुझे यह महसूस हुआ कि आकाशगंगा न सही, इस यात्रा के बहाने ही हम ऐसी ट्रेन में सवार हैं जो इस सुंदर पृथ्वी के बहुत छोटे से हिस्से की सैर हमें करा रही है। अगर पुनर्जन्म न होता हो तो हमारे पास यह अंतिम मौका है इस सुंदर धरती को घूमने के लिए। हम अपने विषादों और चिंताओं में अपना जीवन नष्ट न करें, इस सुंदर मौके का इस्तेमाल करें।
                             ट्रेन जब सेवागांव से गुजरी तो गांधी जी की भी एक स्मृति उभर आई। गांधी फिल्म का दृश्य है। वे खंभात की खाड़ी में खड़े समुद्र की लहरों को देख रहे हैं और कस्तूरबा से कह रहे हैं कि सोचता हूँ कितनी दूर चला आया हूँ और अभी कितनी नई मंजिलें तय करनी है। मेरे हिस्से में अब तक थोड़ी ही यात्राएँ आई हैं और अपनी किस्मत को कोसते हुए मुझे कतील शिफाई की नज्म याद आ रही है।
छोटे बच्चों ने छू भी लिया चांद को, बड़े-बूढ़े कहानियां सुनाते रह गए..........
                            
                                                           

6 comments:

  1. सुंदर सोच! अपने बारे मे तो जनम जनम बंजारा कहा जा सकता है ...

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  2. यात्राएं वाकई ज्ञानवर्धन करती हैं. मुझे बैलगाड़ी और ट्रेन की यात्रा बहुत पसंद है. बाहर घूम कर जीवन को समझने में आसानी होती है. वैसे मैं भी अपना देश ज्यादा घूम नहीं सका हूँ. वक़्त मिलते ही सबसे पहले घूमने की योजना है.

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  3. मनुष्य के रूप में जन्म ही एक बड़ी बात है .... जाने फिर मिले न मिले
    जीवन का आनंद और उसे सार्थक बनाने की कोशिश होनी चाहिए
    सुन्दर प्रस्तुति ...
    साभार !

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  4. आपकी कलम प्रभावशाली है भाई जी !
    शुभकामनायें !

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  5. यात्रायें मनुष्य को अडजस्ट करना सिखातीं हैं। मैंने बहुत यात्रा की है, और मुझे यकीन है, उन यात्राओं ने मुझे बेहतर बनाया है ...बहुत ही अच्छी प्रस्तुति ..

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  6. यात्राऐं जीवन में खुशहाली लाती हैं , ज्ञान के साथ साथ चेहरो पर मुस्कान लाती हैं
    यायावर होना अच्छी प्रकृति है आशा है आप भी किसी यात्रा पर निकलें और कुछ खोज करें

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आपने इतने धैर्यपूर्वक इसे पढ़ा, इसके लिए आपका हृदय से आभार। जो कुछ लिखा, उसमें आपका मार्गदर्शन सदैव से अपेक्षित रहेगा और अपने लेखन के प्रति मेरे संशय को कुछ कम कर पाएगा। हृदय से धन्यवाद