Friday, July 13, 2012

यहाँ से कोई सड़क नहीं जाती.....



अबूझमाड़...यहाँ से शुरू होता है। यह ओरछा है नारायणपुर जिले का विकासखंड और अबूझमाड़ का प्रवेश द्वार, सभ्य कहे जाने वाले संसार की सड़क यहीं तक पहुँचती है इसके आगे किसी ने नहीं देखा, बरसों से नहीं देखा। इस अंतिम कोने में एक बगीचा है सुंदर फूल है, ओरछा में इस जगह को संभवतः लंका कहते हैं इसलिए संभवतः सरकार ने अशोकवाटिका बनाने के लिए इसे बना दिया होगा।

 ओरछा यहाँ साप्ताहिक बाजार भरता है और लोग मीलों का सफर तय कर पहुँचते हैं यहाँ सामान जुटाने, श्रवणकुमार की तरह कंधे के दोनों ओर बोझ लादे मीलों का सफर तय करते हैं। साप्ताहिक बाजार की पहली शाम नाइट लाइफ की तरह होती है, दीपों से पूरा ओरछा रौशन रहता है। रात भर सल्फी का दौर चलता है। पुरुष-स्त्री दोनों ही इस महफिल में शामिल होते हैं। ऐसा लगता है कि स्त्रियाँ साहब बीबी गुलाम की मीना कुमारी की तरह हों जो अपने पति को अकेले नशे में नहीं छोड़ना चाहती, एक पिकनिक स्पॉट की तरह बाजार के आसपास का वातावरण होता है जहाँ सल्फी के इकोफ्रेंडली दोनें चारों ओर प्लास्टिक गिलासों की जगह बिखर जाते हैं। मासूमियत का सौंदर्य माड़िया स्त्रियों में फैला रहता है। कम उम्र की महिलाएँ अधिक सकुचाती हैं। अधिक उम्र की महिलाओं में सबसे संवाद करने का साहस होता है। महफिल सजी है और हम गाड़ी लेकर घुस गए। किसी के भी यह शान के खिलाफ होगा लेकिन उन्होंने चुपचाप जगह छोड़ दी, एक बुजुर्ग महिला अपने पोते को लिए हुई थी, उसने गाड़ी की खिड़की के पास आकर कहा कि हमेशा गाड़ी दिखाने की हठ करता है।

                                                     मेरे साथी कहते हैं कि उन्हें लग रहा है यहीं बस जाएं, हम एक सरकारी शिविर में आए हैं, शिविर समाप्त होने पर खाना खाने आश्रम जाते हैं। इतना स्वादिष्ट खाना मैंने कई दिनों से नहीं खाया था, साथी भी बहुत सारे थे पिकनिक जैसा आनंद आया। हाथ धोने के लिए आश्रम के पीछे आया, एक बड़ा सा पहाड़ था, पेड़ बिल्कुल करीब से नजर आ रहे थे। अद्भुत सौंदर्य चारों ओर बिखरा था।
               इतनी अपरिचित सी जगह और इतनी मुश्किल यात्रा, क्या यहाँ कोई सरकारी कारिंदा रहता होगा, हम सोच रहे थे, पता चला कि वहाँ के ब्लाक मेडिकल आफिसर १८ सालों से वहीं हैं। वे ग्वालियर के हैं लेकिन राज्य बनने के बाद भी वापस नहीं गये। उन्हें संगीत का गहरा शौक है, गाते भी हैं बजाते हैं। शायद अबूझमाड़ का गहरा एकांत उनकी एकांत साधना को और अधिक निखारता होगा।
                                                         नारायणपुर से ओरछा तक की यात्रा बेहद दिलचस्प रही। रास्ते में झारा घाटी और आमादेई घाटी में बलखाती माड़िन नदी के किनारे-किनारे गुजरना बेहद दिलचस्प अनुभव रहा। रास्ते भर अनेकों तितलियाँ मिलीं। इतनी तितलियाँ एक साथ मैंने कभी नहीं देखी थी। ओरछा से लौटने पर मैंने अपने एक साथी से कहा कि भगवान को जन्नत नहीं बनानी चाहिए क्योंकि जन्नत को जल्दी ही किसी की नजर लग जाती है और पैराडाइज लास्ट हो जाता है।
      कुछ दिनों पूर्व मंत्री महोदय के पीए ने यूँ ही बातों-बातों में कह दिया था कि क्या आपने प्योर माड़िया देखे हैं, इसके लिए आपको ओरछा के उस पार जाना होगा, राजकमल साहब जब एसडीएम थे तब गए थे मोटरसाइकिल से। मैं भी प्योर माड़िया देखना चाहता था लेकिन उस इच्छा के प्रति दुखी भी था जिससे कोई चीज आपके लिए नुमाइश बन कर रह जाए।
                                                       

Thursday, June 21, 2012

एक टाइगर से मुलाकात....



अभिज्ञान शाकुन्तलम के अंतिम प्रसंग में राजा दुष्यंत एक अत्यंत साहसपूर्ण बालक को शेर से खेलता हुआ देखते हैं, उन्हें रोमांच हो जाता है। शाकुंतलम की यह कथा हर घर में बच्चों को दादी-नानी सुनाते हैं। मिथकीय कथा से उभरकर अगर ऐसा कोई प्रसंग वास्तविक जीवन में मिले तो मन जरूर रोमांच से भर जाएगा। शेर से खेलने वाले टाइगर बॉय चेंदरू के संबंध में ऐसी जिज्ञासा थी। इस जिज्ञासा को लिए मैं बढ़ गया उसके गाँव गढ़बेंगाल।
            मेरे लिए इस मुलाकात का खास महत्व था लेकिन तब मेरे रोंगटे खड़े हो गये जब मैंने पाया कि चेंदरू घर में नहीं है। वो उसी नदी में मछली पकड़ने गया है जहाँ बरसों पहले एक स्वीडिश महिला ने उसे चपलता से मछली पकड़ते हुए देखा था। वहाँ उसकी बहू मिली, पोता भी था जिसके लिए कपड़े को बाँधकर सुंदर झोला बनाया गया था। बहू ने शर्माते हुए हमें बिठाया। हम काफी कुछ पूछना चाहते थे, वो सकुचा रही थी। अंत में उसे समाधान मिल गया। उसने चेंदरू पर स्वीडिश भाषा में लिखी एक पुस्तक हमें थमा दी। पुस्तक के चित्र वैसे ही थे एक साहसी बालक, भरत जैसा, जिसे शेर के दाँत गिनते दुष्यंत ने देखा था। मुझे लगता है कि सबसे विलक्षण चीजें कभी नष्ट नहीं होतीं, समय के साथ चेंदरू के सारे स्वीडिश तोहफे भले ही नष्ट हो गये हों लेकिन इस टाइगर बॉय पर लिखी यह पुस्तक सही-सलामत है। इसके चित्र अजंता के चित्रों की तरह बेमिसाल दिख रहे थे। बारी अब बहू की थी, उसने कहा कि उसके ससुर ने इज्जत तो बहुत कमाई लेकिन पैसे नहीं कमाये, ऐसा कहते हुए उसकी आवाज में लालच नहीं था, एक निष्छलता थी। उसके लिए यह एक दार्शनिक प्रश्न की तरह था लेकिन उसे यह नहीं मालूम था कि इसे दार्शनिक प्रश्न कहते हैं। अब कैसा है चेंदरू, यह पूछने पर उसने कहा कि अब पहले से अच्छा है लेकिन खाना नहीं खाता। उसके बेटे की संविदा नियुक्ति लग गई है डोंगर में, हफ्ते में एक बार आता है। चेंदरू दुखी है।
                                                  थोड़ी देर में मैंने लकड़ी के सहारे नदी की ओर से आते एक बुजुर्ग को देखा। फिल्मों में जैसा होता है, किताब की तस्वीर पूरी तौर पर बदल गई। चेंदरू बुजुर्ग हो चुका था। वो मिला पूरी आत्मीयता से। इतनी शोहरत कमाने के बाद भी उसमें किसी तरह का अहंकार नहीं था। अहंकार उसे कतई हो भी नहीं सकता था क्योंकि वह था सच्चा साहसी। हमेशा जिंदगी में रहा हीरो की तरह लेकिन उसने कभी शाकुन्तलम के लेखक कालिदास की तरह उज्जायनी के लिए अपना कनखल नहीं छोड़ा। उससे तकलीफें पूछीं, बताया कि बेटा साथ नहीं है बताया कि घर में खाना नहीं है। यह सब पूछने पर बताया। फिर मैंने पूछा कि वो स्वीडिश मैडम दोबारा आई या नहीं। उसने कहा नहीं। स्वभाव के अनुकूल मैंने मन में विदेशियों को गाली दी लेकिन फिर पुस्तक में अचानक उनका युवा चेहरा दिखा, वो एक शेर के साथ बैठी बड़ी खूबसूरत लग रही थीं। जाहिर है अब वो इस दुनिया में नहीं होंगी। उन पर मैंने कितना बड़ा अन्याय किया। चेंदरू से मैंने सिनेमा के दिलचस्प जीवन और स्वीडन यात्रा के बारे में पूछा। उसने एक-एक डिटेल दिए। फ्लाइट का समय भी उसे याद था। फिर पूछा, स्वीडन घूमने का दोबारा मौका मिलेगा तो जाओगे, उसने कहा हाँ। इस पकी उम्र में उसका जज्बा वैसा ही है। जब मैंने उसके मित्र शेरों के बारे में पूछा तो उसकी आँखों में चमक आ गई। उसने कहा कि वे दो थे। एक छोटा था जो बड़ा शरारती था, खेलने के लिए पंजे मारता, जब मैं छड़ी दिखाता तो दुबक जाता। बस्तर में शेर के कुछ किस्से भी उसने सुनाये। अपनी भाभी के साथ जुड़ा एक दिलचस्प वाकया भी बताया। उसके बेटे के दोस्त शोभा ने मुझे बताया कि उसे विदेश में रहने के प्रस्ताव मिले थे लेकिन उसने दृढ़ता से इंकार कर दिया। कुछ समय तक तो ऐसा रहा कि वो विदेशियों से मिलने से भी कतराता रहा, कहीं फिर उस रूपहली दुनिया में न ले जाएं, अबूझमाड़ के जंगलों से दूर। चेंदरू की कहानी गैरीबाल्डी की तरह लगती है। इटली के सम्राट विक्टर इमैन्युअल को एकीकरण का तोहफा देने के बाद उसने कोई पद स्वीकार नहीं किया, गेंहू के बीज लिए चला गया अपने द्वीप, जिसे उसने खेती करने खरीदा था। चेंदरू से मिलकर यह लगा कि वो वाकई विलक्षण है, उससे जुड़ी घटनाएँ संयोग नहीं है अपितु एक साहसी मनुष्य को कुदरत द्वारा दिया गया उपहार है। उससे काफी बातें करनी थीं, करनी हैं लेकिन हो नहीं पाई। इस दिलचस्प व्यक्ति से मिलने का कोई भी मौका मैं छोड़ना नहीं चाहूँगा।

Monday, June 11, 2012

दिल ए नादां तुझे हुआ क्या है..


दिल ए नादां तुझे हुआ क्या है गालिब का यह जुमला तीर की तरह आत्मा में बिंध गया है। हर पल एक बेचैनी रहती है करार नहीं मिलता, वही बुनियादी प्रश्न मैं यहाँ क्यों हूँ, क्या कर रहा हूँ, हर पल यही बिंधता रहता है कि मैं क्या कर रहा हूँ। इतने बरसों जीने के बाद भी जीवन का कोई व्यवस्थित मुहावरा अथवा सिद्धांत नहीं खोज पाया। अपने आत्म तक नहीं पहुँच पाया। उम्र की मैल मेरी काया में जमती चली जा रही है। मैं परिवार से दूर हूँ। उस सुख की छाया से दूर जिसमें कई बार बुनियादी प्रश्न स्थगित हो जाते हैं। सोचा था कि जब इनसे अलग होऊँगा तो जीवन को कोई आकार दूँगा, एक महत्वाकांक्षा थी कि एक ऐसा आकार दूँगा कि लोग कहेंगे कि उसमें देखो, उसने जीवन का कुछ दर्शन पाया है लेकिन मैं खोखला ही रहा। मानसून के बादल पहुँच गए हैं और इसने मेरी व्यथा को बढ़ा दिया है। शायद इसलिए ही कालिदास ने आषाढ़ के पहले दिन अपने महान ग्रंथ मेघदूतम की रचना की।
                                      शायद एक दिन ऐसा भी आए जब अपने ही मोह और सीमाओं के दायरे से बाहर आऊँ, फिलहाल तो आसमान में बादलों के थान के थान उतर गए हैं। वो आसमान की व्यथा हैं या मेरी अंतर की अभिव्यक्ति, कह नहीं सकता।

Thursday, June 7, 2012

बिना बोरियत अबूझमाड़ का एक क्षण

यहाँ कीचड़ से सनी गलियाँ नहीं, खंडहर होती झोपड़ियाँ नहीं, सुंदर साफ-सुथरी झोपड़ियाँ, विशाल पेड़ों से घिरा गाँव, खेतों में मेड़ नहीं, चहारदीवारी से घिरे खेत, अबूझमाड़ के गाँवों में जाना मेरे लिए अद्भुत अनुभव था। यहाँ की सबसे अद्भुत विशेषता है स्पेस, घर बड़े, आंगन बड़े और साफ सुथरे। लोग भी ऐसे ही, केवल चुपचाप किसी जगह बैठकर भी पूरा दिन इत्मीनान से बिना एक क्षण बोर हुए भी काट सकते हैं इसका अनुभव मुझे इसी जगह हुआ, एक शहरी आदमी के लिए यह अनुभव बेहद अद्भुत हो सकता है जिंदगी को जानने के लिए अबूझमाड़ भी आइए।

Friday, May 25, 2012

यम तुम ऐसे तो नहीं थे..

मेरी माँ को वट वृक्ष के तले कथा सुनते हुए ...
सहसा मुझे लगा कि यम तुम कितना बदल गए
तुम कितने दयालु थे सुहागिनों के लिए दे देते थे कितने आशीष...
अपनी बनाई हुई मर्यादाओं को भी देते थे छोड़...
सुहागिनों को सुहागवती होने का वर देते थे खुशी से...
फिर सहसा तुम्हे क्या हुआ...
कभी भी तोड़ देते हो नेह की डोर..
बिना बताए, बिलखने छोड़ देते हो सुहागिनों को
तुम्हें उनकी चूड़ियों की खनखनाहट अब बुरी लगने लगी है न
क्या तुम्हें अब गर्मियों में उनका अपने सत्यवान के लिए गिड़गिड़ाना बुरा लगने लगा है...
तुम इतना क्यों बदल गए यम

Monday, April 23, 2012

एलेक्स के लिए....



दंडकारण्य के घने जंगलों को मोटरसाइकल से जब चीरते हुए निकलते हैं एलेक्स
तब निर्भयता का एक सौंदर्य गढ़ते हैं दुनिया के लिए
गरीब की कुटिया में बैठकर उनके कुलदीपक से लगते हैं एलेक्स
वे उन सुरक्षा गार्डों की मौत पर रोते हैं जिन्हें सलामी देने की फुरसत भी अधिकारियों को नहीं होती
इतनी जिम्मेदारी के बाद भी  खुशनुमा चेहरा
क्या एलेक्स सचमुच कलेक्टर हैं?
उनके खुशनुमा चेहरे को देखकर तो बिल्कुल ऐसा नहीं लगता
वे दूसरे कलेक्टर्स की तरह रौबदार नहीं हैं
लेकिन हैं उनसे बहुत ज्यादा दबंग
वे शेर की तरह नक्सलियों से उनकी माँद में लड़ते हैं
उन लोगों के लिए भी जिनसे शायद वे इससे पहले कभी न मिले हो
एलेक्स, जल्दी आओ, हमें तुम्हारी बहुत जरूरत है
हमारा खून पानी हो चुका है उसमें गर्मी लाओ
हमारी संवेदना खुश्क हो चुकी है उसे जगाओ
एलेक्स हमें एक बार फिर आदमी बनाओ

Monday, December 5, 2011

क्यों अच्छा नहीं लगेगा, ऐसे जीना...


88 की उम्र में टि्वट करते थे देवानंद
फिक्र को धुंए में उड़ाते जुट जाते थे नई फिल्म की शूटिंग के लिए
82 की उम्र में डायलिसिस करा सीधे सेट पर पहुँचते थे शम्मी
भारत के अगले रॉकस्टार को तैयार करने का जुनून
दिखता था उनके अंदर

82 में ही आडवाणी निकालते हैं लंबी रथयात्रा
घंटों खड़े स्वीकार करते हैं अभिवादन जनता का
पीएम बनने का सपना युवा जो है
100 की उम्र में मैराथन दौड़ते हैं फौजा सिंह
बढ़ती उम्र से पैदा होने वाली निराशा को पीछे छोड़ते हुए
और 82 की उम्र में ही मेरे बड़े पिता जी
मंदिर में गिरने से पैर टूटने के बाद
फिर जाने लगे हैं मंदिर
78 की मेरी बुआ
कमर टूटने के बाद फिर खड़ी हो गई है
 शहर छोड़कर वो जा रही है उसी गाँव में,
 जहाँ उसकी कमर टूटी थी।
  86 की मेरी बुआ
  हड्डियाँ टूटने के इतने समाचार सुनकर
  चिंतित होकर कहती हैं ये इतने अधीर क्यों हैं
शांति से बैठें तो जी लेंगे कुछ और दिन...
सबको जीना अच्छा लगता है
क्यों अच्छा नहीं लगेगा, ऐसे जीना..