बचपन में मैं दो लोगों से डरता था एक दादा जी के जमाने के पीपल
पेड़ में जमें भूतों से और दूसरा शामा से, उसका नाम शायद श्यामा रहा होगा, राजिम
में उसे लोग शामा बही कहते थे बही मतलब पागल। वो खपरैल लिए लोगों को डराती थी, अब
वो वहाँ नहीं रहती, मैंने उसके बारे में इधर के कई बरसों से नहीं पूछा। मैं बड़ा
हो गया हूँ विवाहित हूँ लेकिन शामा का डर शायद अब भी गया नहीं है। रास्ते में
झाड़ू लिए हुए गंदी सी साड़ी पहने महिलाओं से डर लगता है अब भी। फिर अचानक सोचता
हूँ कि ये भी किसी की माता होंगी, किसी की मासूम बच्ची होंगी जो अब बड़ी हो गई हैं
और अब भटकने को अभिशप्त हैं।
दो और घटनाएँ याद आती हैं। हमारा प्रेस शहर से दूर इंडस्ट्रियल एरिया में
था, रात के ग्यारह बजे का समय था। एक शादीशुदा महिला आई, उसके पैरों में बेड़ियाँ
जकड़ी हुई थीं, उसकी आँखों में आँसू थे, उसने फरियाद की, एक रात के लिए यहाँ पनाह
दे दो, अजीब सी करूणा उसकी आँखों में छलक रही थी लेकिन एक स्त्री को रात में पनाह
देना कई प्रश्नों को जन्म दे देता। हमारे चौकीदार ने मन को कड़ा किया और ताला लगा
दिया। उस महिला का क्या हुआ कोई नहीं जानता।
दूसरी घटना भी कुछ समय बाद ही घटी, उस दिन मेरा वीकली ऑफ था। मैं और मेरा
दोस्त शाम की तफरीह के लिए अनुपम गार्डन के पास दिनशॉ में बैठे थे। एक बहुत सुंदर
युवा लड़की रिक्शे से उतरी, उसने चप्पल भी नहीं पहने थे। बड़ी मासूमियत से किसी से
भी एक सज्जन का पता पूछती थी। अंत में उसे एक दुर्जन मिल गया, उसने कहा कि वो
जानता है उसका पता। वो उसके साथ चली गई। हम अनिर्णय की स्थिति में बने रहे, हम ऊपर
से बहाना करते रहे कि हम नहीं जानते कुछ भी, लेकिन हम जानते थे कि इसकी मानसिक
स्थिति ठीक नहीं है और इसका फायदा वो उठा सकता है। फिर भी हमने कुछ नहीं किया।
इसका पश्चाताप होता है लेकिन दोष हमारा भी उतना नहीं था। घटनाएँ इतनी तेजी से घटी
कि कुछ कर पाना मुश्किल था इसलिए भी कि यह मामला एक लड़की का था जिसके बारे में हम
कुछ भी नहीं जानते थे।
इसके बाद शहर में कुछ अफवाह सुनने को मिली, एक बहुत अमीर सेठ की लड़की
मानसिक अस्थिरता के चलते घर से बाहर निकल गई। उसका क्या हुआ, हम नहीं जानते।
यह एक ऐसी दशा होती
है कि हम ज्यादा कुछ नहीं कर सकते लेकिन हमारे सामने ही कई माँएँ भीख माँगती हैं
वे किस दशा से गुजरती हैं हम इनका अनुभव कर सकते हैं पैसे देने पर इनकी आँखों में
वैसा ही आशीष होता है जैसा माँ बेटे के सद्गुणों पर खुश होती है। इनकी आँखों की
करूणा और वत्सलता से प्रेमचंद की बूढ़ी काकी कहानी का आखरी हिस्सा याद आ जाता है
बूढ़ी काकी की थाली में पकवान सजे थे वो बड़ी तृप्ति से इसे खा रही थीं, स्वर्ग के
देवता भी इस अद्भुत दृश्य को उत्सुक भाव से देख रहे थे।