Friday, June 21, 2013

जो अपने घर कभी नहीं आएंगे................



 आफिस से घर आने पर जब मेरी बेटी खुश होकर मुझसे लिपटती है तो एक अजीब सी संवेदना मुझे घेर लेती है। उन हजारों लोगों के प्रति जिन्होंने अपने परिजनों को उत्तराखंड में खो दिया। अब वे कभी नहीं आएंगे। सबसे वीभत्स तो यह कि इन धार्मिक यात्रियों की वे अंत्येष्टि भी नहीं कर पाएंगे। लाशें चारों ओर बिखरी हैं जो जिंदा बच गए हैं उन तक भी सहायता नहीं पहुँच पा रही है। एक माँ की व्यथा आज पढ़ी कि मेरे बच्चों पर बम गिरा दो लेकिन मैं उन्हें भूख से मरते नहीं देख सकती।
                                          राष्ट्रीय आपदा के इस क्षण में क्या इस देश को वैसा ही संकल्प नहीं दिखाना चाहिए जैसा अमेरिका में ९-११ के वक्त दिखा था फायर ब्रिगेड के कितने लोगों ने अपनी जान दी थी लेकिन इस देश की कितनी विडंबना है कि लोग विपदा में फंसे लोगों की मदद के बजाय उनसे बलात्कार करते हैं मृत लोगों के गहने और पैसे निकालते हैं। क्या मंत्रियों को अपने सारे हेलिकॉप्टर बाढ़ आपदा के लिए नहीं भेज देने चाहिए, क्या मंहगे एंटीलिया में रहने वाले और केदारनाथ की कृपा से करोड़ों बनाने वाले मुकेश अंबानी को थोड़ी सी सहायता अपने साथी भक्तों की नहीं करनी चाहिए। दुख की इस घड़ी में करने को बहुत कुछ है कितने लोग फंसे हुए हैं। अगर शासन तंत्र और पूंजीपति चाहे तो कितने घरों के चिराग लौटाए जा सकते हैं।
                                  जब छोटा था और जब किसी हादसे की खबर आती थी तो सोचता था कि आदमी के मर जाने पर लाश का क्या, लाश न मिले, अंतिम संस्कार न हो तो भी क्या? बाद में पता चला कि एक हिंदू के लिए अंतिम संस्कार का कितना महत्व है। हम गीता को मानते हैं जिसमें लिखा है कि आत्मा केवल वस्त्र बदलती है और एक संस्कार के रूप में अंतिम संस्कार कितना जरूरी होता है।
                                                        एक भजन याद आता है कभी प्यासे को पानी पिलाया नहीं, फिर गंगा नहाने से क्या फायदा? मैं यह भजन उनके लिए नहीं याद कर रहा हूँ जो केदारनाथ में गए और जिनकी जान चली गई। उनमें से बहुत से शुद्ध हृदय से गए थे। यह भजन इसलिए याद कर रहा हूँ कि ईश्वर को प्राप्त करने के लिए कर्मकांड जरूरी नहीं, शुद्ध हृदय से की गई प्रार्थना जरूरी है।
                                      एक मित्र ने अभी बताया कि उनके पेरेंट्स हर साल केदारनाथ जाते हैं। इतनी कठिन और जोखिम भरी यात्रा करने की क्या जरूरत? यह अजीब लगता है कुंभ मेले में भी भयंकर भीड़ को सहते हुए लाखों लोग पहुँच जाते हैं और हमेशा हादसे होते हैं? ऐसी अंधश्रद्धा का क्या करें?
                                                       दस साल पहले की कैलाश मानसरोवर का वाकया मुझे याद आता है। उस दल में कत्थक नृत्यांगना प्रोतिमा बेदी भी गई थीं। भारी भूस्खलन हुआ, बहुत थोड़े लोग बच पाए। एक माँ ने कहा कि मेरा बेटा शिव के दर्शन के लिए गया है वो जरूर वापस आयेगा। वो नहीं लौटा होगा और माँ पर क्या गुजरी होगी, हम सोच सकते हैं। ऐसे सबक हम भूल जाते हैं और तफरीह के लिए ऐसा जोखिम ले लेते हैं जिसकी हम सपने में भी कल्पना नहीं कर सकते।

5 comments:

  1. बहुत कुछ सोंचने पर विवश करती सटीक सामयिक अभिव्यक्ति...

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  5. दरअसल बहुत से कारणों से अपने देश में रहने वाले लोग बहुत केसुअल हो गए हैं ... ... किसी के प्रति संवेदना नहीं रही दिल में ... सभी कुछ राजनीति के चश्में से देखते हैं ... सामाजिक आन्दोलनों का आभाव पिछले १०० वर्षों से आया हुआ है ... राजनीति इतनी हावी है की हर बात के पीछे हर कोई राजनीति देखना चाहता है ... फिर भले ही वो गैर राजनितिक आंदोलन हो ...
    समाज को जागना होगा ... खास कर के बहुसंख्यक समाज को ... क्योंकि समस्याएं उनकी ही ज्यादा हैं ...

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आपने इतने धैर्यपूर्वक इसे पढ़ा, इसके लिए आपका हृदय से आभार। जो कुछ लिखा, उसमें आपका मार्गदर्शन सदैव से अपेक्षित रहेगा और अपने लेखन के प्रति मेरे संशय को कुछ कम कर पाएगा। हृदय से धन्यवाद