बस्तर की अंदरूनी सड़कों पर
अक्सर पेड़ों में डंगालों में कलश मिल जाते हैं पास ही जली हुई चिता की राख और
करीब में बैठे परिजन। यहाँ मौत पर स्यापा नहीं होता। जैसा हमारी अदालतों में होता
है किसी को मृत्यु दंड देने से पहले पूछ लिया जाता है कि तुम्हारी आखरी इच्छा क्या
है फिर संभव हुआ तो उसकी इच्छा पूरी कर दी जाती है ताकि मरते वक्त अपनी एक रुचि
पूरी कर सके, उसकी आत्मा का बोझ थोड़ा सा ही सही कम किया जा सके। ऐसे ही यहाँ भी
मरने के बाद वैसे ही कृत्य किए जाते हैं जैसे मृतक अपनी जिंदगी में पसंद करता था।
अगर वो नृत्य पसंद करता था तो अहर्निश नृत्य प्रस्तुत किया जाता है। अगर उसकी रुचि
गीतों में हैं तो गीत प्रस्तुत किए जाते हैं। फिर उसके पसंद का आहार। ऐसा नौ दिन
चलता है।
फिर उसकी स्मारक पर एक
पत्थर रख दिया जाता है और उसकी पसंद की चीज यहाँ चित्रित कर दी जाती है। पूरे
बस्तर में महापाषाणकालीन स्तंभ बिखरे हैं जो बताते हैं कि इसका इतिहास कितना
पुराना है। दिल्ली, मुंबई और कोलकाता से बहुत पुराना और ये लोग ऐसे लोग हैं जो तीन
हजार साल या उससे भी पहले इसी इलाके में ऐसा ही जीवन जीते आए हैं।
अपने पूर्वजों की स्मृतियों को सबसे सुंदर तरीके
से रखने के लिए उन्होंने काष्ठ स्तंभ बनाए हैं। इन काष्ठ स्तंभों में शिकार के
दृश्य हैं। प्रेम के दृश्य हैं और अजीब बात है कि सैकड़ों बरसों में भी यह खराब
नहीं हुए हैं। कटेकल्याण रोड में कल ऐसा ही काष्ठ स्तंभ देखकर मैं मुग्ध रह गया। बेहद
खूबसूरती से इसमें अंकन किया गया था। पास ही कुछ महापाषाण कब्र थीं और इससे लगी
हुई गाटम की बस्ती।
इस
धरोहर के लिए पंचायत चिंतित रही होगी, इसलिए अब एक शेड इस पर लगा दिया गया है।
लेकिन पुरातत्व की दुश्मन दीमक नाम की प्रजाति ने जैसे संकल्प ले लिया है कि इसे
नष्ट करेगी। बीच से यह स्तंभ टूट रहा है शायद पूर्वजों की अंतिम स्मृति कुछ समय
बाद इस क्षेत्र से विदा ले लेगी।
क्रमशः
बस्तर एक ऐसा जिला है जिसके बारे में लोग जानना,पढ़ना और वहां लोगों की जिदगी के बारे में समझना चाहते हैं। आपकी पोस्ट ''बस्तर मृतक स्तंभ'' हमारी इस जरूरत को पूरा करती है। धन्यवाद आपका।
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