Wednesday, June 24, 2015

वेरियर एल्विन और शुभ्रांशु चौधरी के दौर के बीच बदलता बस्तर....

इन दिनों दो पुस्तकें मैंने पढ़ी, पहली
पुस्तक उसका नाम वासु नहीं, यह शुभ्रांशु चौधरी की पुस्तक है दूसरी पुस्तक वेरियर
एल्विन ने लिखी है जिसका नाम मुड़िया एंड देयर घोटुल है। दोनों ही पुस्तकें बहुत
अच्छी भाषा में और कड़ी मेहनत के बाद लिखी गई है दोनों को लिखने का उद्देश्य
बिल्कुल अलग है एक पुस्तक बस्तर में नक्सलवाद को समझने लिखी गई है और दूसरी पुस्तक
बस्तर के सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को समझने।

इन पुस्तकों को लिखे जाने के बीच कितना
अंतराल गुजर गया होगा, मुझे नहीं मालूम लेकिन बस्तर में हुए असाधारण बदलावों की
झांकी देखने इन दोनों पुस्तकों को पढ़ना निहायत ही जरूरी है।



वेरियर एल्विन की पुस्तक में बस्तर की आदिम
महक छिपी है। हर लेखक में अपनी कृति के साथ अमर हो जाने की चाह रहती है और उसका
अक्स हमेशा कृति से झाँकता रहता है उसकी मौजूदगी कृति में हमेशा नजर आती है लेकिन
एल्विन इस लोभ से बच पाए हैं पूरी कृति में एल्विन कहीं नजर नहीं आते। बस्तर का
घोटुल स्वयं अपनी कहानी कहते नजर आता है। वेरियर ने बस्तर के घोटुलों में लंबा
वक्त गुजारा। उन्होंने सबसे जीवंत और सबसे नीरस घोटुलों का वर्गीकरण भी किया। इन
घोटुलों में रहने वाले युवाओं की भावनाओं का सुंदर रेखाचित्र खींचा।

इस पुस्तक को पढ़ना शुरू करने के पहले मेरी
धारणा थी कि ये ऊबाऊ मानव विज्ञान की पुस्तक होगी और इसमें वैसे ही उब भरी बातें
होंगी जैसे मुरिया शिकार प्रिय लोग हैं वे छितरे हुए समूहों में रहते हैं आदि-आदि।
लेकिन पुस्तक में बने घोटुल के चित्र ही पहली नजर में बनी इस धारणा को खारिज कर
देते हैं। रेमावंड के घोटुल में बने रेखाचित्र फ्रेंच आर्ट गैलरी की याद दिलाते
हैं इतनी सुंदर और मुक्त कला का जन्म घोटुल जैसे स्वस्थ औऱ खुले वातावरण में ही
होता होगा जहाँ आप पूरी तौर पर अपने को अभिव्यक्त कर सकते हैं बिना थोड़ी भी बंदिश
के कला की खुलकर अभिव्यक्ति।



एक आम हिंदुस्तानी की एक मुड़िया युवा-युवती
के प्रति धारणा क्या होती है? संभवतः बिल्कुल मेरी जैसी। इनका जीवन शांत नदी की
तरह का जीवन है कोई हलचल नहीं, लगभग विचार शून्य, भावनाएँ भी वैसे ही। वेरियर
प्रथमदृष्टया इस धारणा को तोड़ देते हैं इस पुस्तक में जो भी संग्रहित हुआ, सब कुछ
मुड़िया युवक-युवतियों ने बताया। दरअसल यह मुड़िया यूनिवर्सिटी थी जहाँ कई
शताब्दियों का संग्रहित ज्ञान स्थानांतरित कर दिया जाता था आने वाले पीढ़ियों को।
और यह ज्ञान क्या है प्रेम का ज्ञान। विचारों की उन्मुक्त अभिव्यक्ति का ज्ञान।

 हमारे यहाँ बौद्धिक चर्चा के केंद्र काफी हाउस
होते हैं गाँव में गुड़ी जहाँ अहर्निश संवाद के प्रेमी जमा हो जाते हैं हमारे जैसे
अंतर्मुखी व्यक्ति अगर इस महफिल में आ जाएँ तो दाँतों तले ऊंगलियाँ दबा लेते हैं
कि कितने प्रतिभाशाली लोग होते हैं दुनिया में, हर समस्या के बारे में अपनी खास मौलिक
राय रखने वाले लोग। जैसे वेदों को श्रुति कहा जाता था वैसे ही रेमावंड जैसे किसी
महानतम घोटुल में विचारवान मनीषी द्वारा कहे गए ऐतिहासिक वक्तव्य को श्रुति परंपरा
में रख लिया गया। जैसे भगवान कृष्ण का जीवन लीलाओं से भरा रहा वैसे ही मुड़िया
देवता लिंगोपेन का। लिंगोपेन की कहानियाँ रिसर्च का विषय हैं और फ्रायड ने यदि
इन्हें पढ़ा होता तो गहराई से प्रभावित होते।

मुड़िया पुरुषों की तुलना अगर स्त्रियों से
की जाए तो स्त्री ज्यादा स्वतंत्र व्यक्तित्व वाली होती है और घोटुल में पुरुष के
सारे यत्न स्त्री को रिझाने के लिए। शायद बस्तर की महानतम कला का विकास भी इसी वजह
से हुआ होगा। मुड़िया स्त्री को केश कला बहुत पसंद है और पुरुष इनके लिए सुंदर
कंघियाँ तैयार करते हैं इनकी कला किसी भी मायने में अंजता की चित्रकला और केशसज्जा
से कम नहीं।

लेकिन कुछ दशकों बाद लिखी पुस्तक उसका नाम
वासु नहीं, में बस्तर के चरित्र पूरी तौर पर बदल जाते हैं। इस पुस्तक के पात्र
प्रेम की चर्चा नहीं करते। वे सल्फी के गुणों की चर्चा नहीं करते, छिंद के पेड़ की
छाया उन्हें राहत नहीं देते। पुस्तक में शायद ही घोटुल की चर्चा हो। जिस एक मात्र
मानवीय स्वभाव की चर्चा वे करते हैं वो है लालच। कोई विचारधारा किसी सभ्यता के
जीवन को कितना बदल देती है शुभ्रांशु चौधरी की पुस्तक इसका सच्चा  दस्तावेज है।

इन दोनों पुस्तकों के बीच बस्तर के लिए जो
उम्मीद मुझे नजर आती है वो है साप्ताहिक बाजारों में। एक रात दंतेवाड़ा से रायपुर
जाते हुए मेरी आँख बास्तानार में अचानक खुल गई। वहाँ साप्ताहिक बाजार लगना था, मैंने
देखा उत्साह से भरे लोग उतरे हैं। महिलाएँ अपने छोटे बच्चों के साथ थीं। उनके
चेहरे पर अजीब सी चंचलता थी, वे जीवन से भरी हुई थीं। मुझे लगा कि उस रात स्वर्ग
बास्तानार में उतर गया है। ऐसे ही एक दिन जब मैं ओरछा गया था, वहाँ साप्ताहिक बाजार
में सल्फी की महफिल सजी थी, स्त्री पुरुष इस महफिल में बराबरी से शेयरिंग कर रहे
थे, शायद रात भर वो महफिल सजती। यह एक समतापूर्ण समाज था जहाँ सबकी भागीदारी थी
कोई छोटा-बड़ा नहीं।

Friday, December 19, 2014

प्रयाग शुक्ल

हिंदी साहित्य के प्रेमियों के साथ यह विडंबना है कि उनके समय के साहित्यकारों की फैनफालोविंग वैसी नहीं जैसी प्रसाद- निराला के दौर में रही होगी लेकिन यह इतनी भी कम नहीं हुई कि कोई भी साहित्य प्रेमी उनसे मिल ले। मैं अशोक वाजपेयी जी से मिलना चाहता था और काफी प्रश्न सोच रखे थे लेकिन जैसे ही उन्होंने अपना वक्तव्य समाप्त किया, उनके श्रोताओं ने उन्हें घेर लिया और वाजपेयी जी से मुलाकात टल गई। उनसे मुलाकात टल जाना बड़ी विडंबना होती लेकिन प्रयाग शुक्ल जी के साथ गुजारी आधे घंटे की दो यात्राओं ने इस कमी को पूरा कर दिया।
प्रयाग जी के साथ उन्हें छोड़ने हम होटल कैनयन तक गए, यह गोधूलि बेला का वक्त था लेकिन उन्होंने गोधूलि बेला शब्द का प्रयोग नहीं किया, उन्होंने कहा कि दिन ढलने और शाम शुरू होने से पहले का यह समय मुझे बहुत अच्छा लगता है। यह नये रायपुर की गोधूलि बेला थी, दूर तक घास के निर्जन मैदान। मैंने उनसे कहा कि हिंदी के कई शब्द अब उपयोग में नहीं आते, मसलन बनारस में बार-बार मुझे पंत की वो पंक्तियाँ याद आती रहीं सैकत शैया पर दुग्ध धवल, तन्वंगी गंगा ग्रीष्म विरल। अब स्लिम शब्द प्रचलन में है किसी स्लिम लड़की को तन्वंगी कह देंगे तो उसे अजीब लगेगा। फिर पंत की वो पंक्तियाँ याद आईं, प्रिये आज रहने दो यह गृह काज, आज जाने कैसी वातास छोड़ती सौरभ श्लथ उच्छवास, आज भी क्या तुम्हें सुहाती लाज।
मैंने उन्हें बताया कि कैसे आज अशोक जी ने अपने संबोधन में धवलकेशी शब्द का इस्तेमाल किया, मैंने यह शब्द सुना नहीं था लेकिन बहुत आकर्षक लगा।
फिर प्रयाग जी ने कहा कि सचमुच हिंदी के कई शब्द अब जिंदा नहीं है। उन्होंने कहा कि कविता से लय का जाना एक दुर्घटना थी। उन्होंने प्रसाद की एक पंक्ति सुनाई, मैंने इसे कभी सुना नहीं था लेकिन वे बड़ी विलक्षण पंक्तियाँ लगीं। फिर उन्होंने निराला जी के साथ अपने संस्मरण सुनाएँ। वे जब 19 वर्ष के थे तो एक बार उनके बड़े भैया उन्हें निराला जी के दारागंज स्थित घर ले गए। घर में शमशेर भी थे और नागार्जुन भी। शमशेर ने इनका परिचय कराया और कहा कि यह लड़का भी साहित्य में रुचि रखता है और आपका सानिध्य चाहता है। निराला जी ने कहा कि तुम कहाँ रहते हो, प्रयाग जी ने बताया कि कलकत्ता में। फिर निराला जी ने उनसे बंगला में बातचीत शुरू की। प्रयाग जी बांग्ला के एक शब्द का सही उच्चारण नहीं कर पाए तो निराला जी का चेहरा तमतमा गया और उन्होंने प्रयाग जी को बुरी तौर पर डाँटा।
फिर बस्तर पर चर्चा हुई। मैंने उन्हें लाला जगदलपुरी द्वारा लिखी रोपित पुत्र सल्फी नामक कविता के बारे में बताया। उन्होंने बताया कि कैसे एक बार स्वामीनाथन के साथ बस्तर प्रवास के दौरान एक आदिवासी ने उनकी कार रूकवा ली। कहाँ जाओगे पूछने पर उसने सड़क की दोनों दिशाओं की ओर इशारे किए, स्वामीनाथन ने कहा कि इसे सल्फी चढ़ गई है। इसे गाड़ी में नहीं बिठाना है। ऐसे ही नारायणपुर में पता पूछने के दौरान एक व्यक्ति ने स्वामीनाथन को पहचान लिया। उसने पता बताकर खुद पूछा कि क्या आप स्वामीनाथन हैं जिनके चित्र और तस्वीर इस बार दिनमान के अंक में छपी है। स्वामीनाथन खुश हुए और उन्होंने मेरा भी परिचय देते हुए कहा कि प्रयाग जी भी दिनमान में लिखते हैं।
प्रयाग जी ने मुझे राजिम प्रेम के बारे में भी बताया, उन्होंने कहा कि बीस साल पहले राजिम गया था, वहां संगम देखना और प्राचीन मंदिरों का दर्शन करना अविस्मरणीय अनुभव रहा। मैंने जाते ही डिस्पैच लिखा। मैंने उनसे पुनः आग्रह किया कि आप फिर राजिम चलें लेकिन समयाभाव की वजह से यह संभव नहीं हो सका।
वे एनएसडी से करीबी रूप से जुड़े हैं और संगीत-नाटक से जुड़ी एक पत्रिका निकाल रहे हैं जिसका नाम संगना है। उन्होंने मेरा पता लिया है उम्मीद है मुझे वे अपनी पत्रिका प्रेषित करेंगे।

Monday, December 15, 2014

निकष भैया और उनकी कविता

धमतरी की कुछ स्मृतियाँ मेरे दिमाग में रह गई हैं उसमें सबसे खास है बया का घोसला। मेरे घर के सामने एक कॉलेज था और उसमें बया ने तीन घोसले बनाए थे। पीले रंग की चिड़िया जब इसमें आती थी तो मुझे लगता था कि झांक की देखूँ, बया की फैमिली कैसी है। घर के पीछे भी कुछ खास था एक आम का पेड़, वो बुजुर्ग आम का पेड़ हर दिन सुबह कुछ छोटे आम गिरा देता था और हम उन्हें चटनी बनवाने के लिए घर ले आया करते थे।
वो घर इसलिए भी खास था कि मेरे युवा चाचा वहाँ रहते थे, वैसे वो युवा थे भी और नहीं भी, इसका कारण यह है कि मुझे सुराग मिलते रहे कि उनकी स्कूली शिक्षा की डगर फिसलन भरी रही। बुजुर्ग दादा जी भी इसी घर में रहते थे लेकिन अधिकतर बिस्तर में रहते थे और अक्सर मैं सुनता था कि वो कहते हैं कि मैं अस्पताल नहीं जाउँगा। मुझे तब नहीं मालूम था कि अस्पताल इतनी बुरी जगह होती होगी और मरने जाने के लिए सचमुच बहुत बुरी। उनकी केवल एक स्मृति है एक दिन हम कहीं जा रहे थे, पापा ने उन्हें बताया कि इन्हें लेकर घूमने जा रहा हूँ और तब पापा और दादा दोनों ने मुझे आशीर्वाद दिया था। उस छोटे से घर की कई यादें आती हैं इनमें से एक हैं नारायण लाल परमार जी। हमने दूसरी कक्षा में उनकी कविता पढ़ी थी और हमें बताया गया कि था कि यह कवि हमारे बगल में रहते हैं। मुझे बड़ा आश्चर्य होता था कि पाठ्यक्रम के कवि क्या सचमुच किसी के पड़ोसी हो सकते हैं। मैंने उन्हें कभी नहीं देखा, या देखा होगा तो अब उन्हें देखने की स्मृति नहीं।
एक बार पड़ोस के सभी बच्चों ने तय किया कि आज पुलाव बनेगा, किसी के घर से चावल लिया गया, कहीं से सब्जी। सब बच्चों ने निकष भैया के घर भोजन किया। दीदी को फिर कभी नहीं देख पाया।
फिर  हम लोगों ने धमतरी छोड़ दिया और कई बरस बाद निकष भैया से सामना हुआ।
देशबंधु पर टेबल पर बैठे अच्छे दिनों का इंतजार करते हुए किसी ने प्रतिक्रिया की, लिखो तो निकष परमार जैसा लिखो, नहीं तो उसी सैलरी पर घिसटते रहो। यह वाक्य मुझे बड़ा शुभ लगा क्योंकि इससे यह भी संभावना बनती थी कि अच्छा लिख पाने पर कुछ उम्मीद यहाँ भी बनती है और दूसरा निकष भैया यहीं पत्रकारिता में हैं।
एक बार अपने प्रिय लेखक निर्मल वर्मा पर डॉ. राजेंद्र मिश्र या किसी और की संकलित एक किताब देखी, उस पर एक चैप्टर निकष भैया ने लिखा था। उसकी एक लाइन हमेशा दिमाग में अंकित रहती है पहली बार निर्मल को पढ़कर जाना कि शराब पीने वाले लोग भी अच्छे हो सकते हैं।
अब जब हाथ में एक पूरा कविता संग्रह लग गया है तो यह जैकपॉट हाथ आने जैसा है।
.........................................
 उनके कविता संग्रह  का नाम है पृथ्वी पर जन्म लेने के बाद, इसकी पहली कविता इसी नाम से है।
दुनिया में हैं और भी लड़कियाँ
पर मैं तुम जैसी किसी लड़की को नहीं जानता

आकाशगंगा में हैं और भी नक्षत्र
मगर उनमें से
हम नहीं चुनते अपना सूर्य

और ग्रहों पर भी होगा जीवन
उसे कौन ढूढ़ता है
पृथ्वी पर जन्म लेने के बाद।

उनकी कविता अवकाश की कविता है। जैसे समंदर की रेत में एक शाम गुजार रहें हों और कविता बन रही हो। जैसे घर के सामने घोसला बना रही बया और एक कविता बन रही हो। जैसे सर्दियों में देर तक लिहाफ में दुबके हों और बन रही है कविता। उनकी कविता आदमी को मशीन बनाने के विरुद्ध है और शहर को कांक्रीट का जंगल बनाने के विरुद्ध भी, इसलिए ही उनकी दृष्टि सड़क बनाने पर कट गए उस पेड़ की ओर भी जाती है जिसका कुसूर यह था कि इस शहर में जिंदा रहने के लिए एक पेड़ का पेड़ होना काफी नहीं था।

उनकी कविता सर्दियाँ मुझे बहुत खास लगी जो छोटी-छोटी उम्मीदों और सपनों को लेकर आती है। उसके कुछ अंश

सर्दियों का मतलब है
नींद खुलने पर अंधेरा देखना
और यह सोचकर खुश होना
कि हम कितनी जल्दी उठ गए।

सर्दियों का मतलब है
तेंदू के पत्ते जलाकर तापी गई आग
और देर तक उसके आसपास बैठे रहने का सुख

सर्दियों का मतलब है बगीचे में जाना
कसरत करना
और ब्रूस ली बनने के सपने देखना

सर्दियों का मतलब है
सुबह दौड़ने के लिए बलदेव का आना
और छोटे भाई के साथ सारे घर को जगा जाना

सर्दियाँ
अब पहले जैसी नहीं रहीं

छोटा भाई काम से देर रात लौटता है
और सुबह जल्दी नहीं उठा पाता
बलदेव ट्रक चलाता है
और अक्सर शहर से बाहर रहता है।

जैसे मुक्तिबोध एक ही तरह की कविता हर बार लिखते रहे, अलग-अलग बिंबों से, वैसे ही निकष भैया की कविता भी अलग-अलग बिंबों में एक ही ओर जाती है। उनका वक्त और अवकाश जो खो गया शहर में।

दोस्तों के पते कविता से भी इसका आभास मिलता है।

जिंदा रहने की लड़ाई ने
जिंदा रहने की वजह के बारे में
सोचने का समय नहीं दिया
भीड़ के साथ दौड़ते-दौड़ते
मैं घर से बहुत दूर चला आया।

कुछ बरस पुरखों का पुण्य बेचकर पेट भरता रहा
फिर रोजी-रोटी के लिए मुझे गिरवी रखना पड़ा अपना वक्त
जिसे फिर छुड़ा नहीं सका।

घर वालों को जब जब जरूरत पड़ी
मेरे पास उनके लिए कुछ भी नहीं था
सिवा बहानों के

धीरे-धीरे बहाने खत्म हो गए
खत्म हो गए घर वालों के सवाल
दोस्तों की चिट्ठियों में लिखने लायक बातें खत्म हो गईं
और एक-एक कर उनके पते खो गए।

जब निकष भैया ब्रूस ली को कविता में ले आए हैं तो मैं भी नमक हराम फिल्म को उनकी कविता समीक्षा के दौरान ले आने की छूट ले सकता हूँ और दिये जलते हैं फूल खिलते हैं गाने के बीच अंतरे के दौरान राजेश खन्ना के लिए कहे गए अमिताभ बच्चन के शब्द मेरे लिए तो बड़े गुलाम अली, छोटे गुलाम अली तुम्ही हो को कुछ परिवर्तित कर यूँ कह सकता हूँ कि मेरे लिए तो विनोद कुमार शुक्ल और अशोक वाजपेयी निकष भैया ही हैं।


 

Friday, November 21, 2014

बनारस यात्रा 2


 गौदोलिया से वाराणसी की पुरानी और भव्य इमारतें देखते हुए भदोही के वो शख्स याद आए जो ट्रेन में बगल की सीट पर बैठे थे। उन्होंने अपनी जिंदगी का बड़ा हिस्सा मुंबई में गुजारा था और इंटीरियर पर काफी काम किया था। वे फिल्मीस्तान स्टूडियो में रहते थे और कई फिल्म स्टार के बंगलों में इंटीरियर के लिए निरीक्षण करने अपने कंपनी के प्रतिनिधिमंडल के साथ गए थे। उन्होंने बताया कि बंगलों में पाली हिल का दिलीप कुमार का बंगला बेमिसाल है। राजकपूर और अमिताभ बच्चन के बंगले की भी उन्होंने प्रशंसा की। उन्होंने बताया कि बाहर से ये बंगले बड़े पुराने लगते हैं जैसे सालों पहले इन्हें बनवाया गया हो लेकिन अंदर से बेमिसाल। सारी सुविधाएँ इनमें मौजूद होती हैं। इनका इंटीरियर शानदार होता है। उन्होंने बताया कि वैसे अब बंगले का क्रेज समाप्त हो चला है अब फिल्म स्टार पूरा फ्लोर बुक करा लेते हैं।
                                                                                                                    जैसे मुंबई में बंगला युग समाप्त हो रहा है वैसे ही वाराणसी में भी इसकी शुरूआत हो रही है। पुरानी इमारतों की जगह नये होटल्स आ रहे हैं उनका स्थापत्य पुराने शहर के स्थापत्य से बिल्कुल मैच नहीं खाता। वे रेशम में पैबंद की तरह लगते हैं लेकिन नई पीढ़ी को ज्यादा सुविधायुक्त भवन चाहिएँ। ऐसे में ट्रेन वाले महोदय मुझे गोदोलिया में याद आए, वाराणसी की इमारतें वैसे ही यथावत रहें अपने मूल स्वरूप में। उनमें अंदर से बदलाव किए जा सकते हैं। इस शहर को मरने से बचाने के लिए मोदी सरकार अगर यह करती है बहुत अच्छा होगा नहीं तो बनारस क्योटो तो बन जाएगा लेकिन उसकी आत्मा खो जाएगी।
                                                                मैदागिन से मैं राजघाट पहुँचा, इच्छा थी कृष्णमूर्ति आश्रम देखने की लेकिन सौभाग्य नहीं मिला। यहीं पर बैठकर कभी निर्मल वर्मा ने लिखा था। यहाँ से पत्थर की बेंच पर बैठता हूँ तो केवल गंगा नजर आती है हजारों साल की स्मृति धूप में खिली, खिलती हुई। हवा चलने पर आखरी साँस में अटके पत्ते भी गंगा में बह जाते हैं। शायद मृत्यु भी इसी तरह शांत झोंके की तरह आती हो लेकिन बताने वाला हमेशा के लिए काल सरिता में बह जाता है।
              बनारस घूमाने शिव जी ने दूसरे शख्स को आटोचालक के रूप में भेजा। वो बनारस की प्रतिभा का प्रतिनिधि उदाहरण मुझे लगा। आटोचालक की लंबी दाढ़ी थी, उसने रामनामी गमछा डाला हुआ था और कंधे भर रूद्राक्ष पहनी थी। उसमें प्रवचनकर्ता के सारे गुण मौजूद थे। उसने कहा कि आपकी सरकार तीर्थ यात्रा योजना चला रही है इससे हमारी सरकार ने भी प्रेरणा ग्रहण की है। मैंने पूछा कि मोदी के आने से बदलाव आएगा क्या। उसने कहा कि दो साल में बदलाव दिखेंगे। इसके पहले जितने नेता आए, सबने देश को लूटा। केजरीवाल के बारे में पूछने पर उसने दिलचस्प टिप्पणी की। वो तो इससे भी (मोदी) तेज है लेकिन उसकी मति फिर गई और दिल्ली की गद्दी छोड़ दी। मैंने पूछा कि बनारस के आदमी इतने अच्छे क्यों है। उसने पुरानी हरिश्चंद्र की कथा बताई। उसका अंदाज बहुत अद्भुत था, वो बार-बार कहता था कि आदमी की परछाई उससे कहाँ छूटती है वैसे ही हरिश्चंद्र का सत्य है जो बनारस में छूट गया। बीच में एक गंदा नाला नजर आया, मैंने पूछा कि क्या शहर भर का कचरा इसी जगह डाला जाता है उसने बताया कि दरअसल यह पुराने जमाने में नदी थी जिसका नाम था वरूणा। एक तरफ वरूणा, दूसरी तरफ असी। दोनों मिलकर वाराणसी बनाते हैं। अब दोनों बड़े गंदे नाले के रूप में बदल चुके हैं।
शायद इन्हीं दोनों नदियों के मिलन ने गंगा की इस जगह को काफी पवित्र बनाया हो। बनारस गुजर गया है लेकिन अब भी पंत की नौकाविहार कविता की पंक्तियां मन में बार-बार अनायास आ रही हैं। सैकत शैया पर दुग्ध धवल, तन्वंगी गंगा ग्रीष्म विरल, लेटी है श्रांत क्लांत निश्चल, तापसबाला गंगा निर्मल।



Thursday, November 20, 2014

बनारस यात्रा 1


 बनारस में नौका विहार करने के दौरान दो तरह के दिलचस्प यात्रियों के आगमन का वर्णन नाविक की जुबानी मिला। पहला नीता अंबानी का जिन्होंने अपना जन्मदिन इस बार बनारस में मनाया, उनके साथ 65 लोगों का स्टाफ आया, वे ताज इन और रेडिसन में ठहरे थे। किराया था 55 हजार रुपए-एक दिन। फिर राजे-रजवाड़ों का जिक्र आया। होल्कर, पेशवा, सिंधिया, राणा, कछवाहा, दरभंगा, नेपाल के ललिता। इन सबने गंगा किनारे घाट बनाए। पूछा क्या अब आते हैं रजवाड़े, नाविक ने कहा, नहीं इन्होंने बनारस छोड़ दिया। अब इन पर बड़े होटल्स हैं। दरभंगा का घाट अभी हाल ही में बिका, 140 करोड़ रुपए में। नाविक से पूछा कितना कमाते हो, बताया कि हर दिन दस हजार रुपए की कमाई हो जाती है। दशाश्वमेध घाट के पीछे पुरखों का घर है। उसके चेहरे पर संतोष का गहरा भाव था। जैसे शिव की नगरी में हर दिन हजारों लोगों को पुण्य यात्रा करा रहा हो।
 नौका विहार दशाश्वमेध घाट से अर्थात प्राचीन रूद्र सरोवर से शुरू हुआ। फिर एक खूबसूरत अनुभव में यह सफर बदलता गया। नदी से इतना सुंदर दृश्य और इतनी सुंदर पटकथा मैंने कभी किसी श्रीमुख से नहीं सुनी थी। जितनी मल्लाह ने बताई। देखिए ये बचुआ पांडेय घाट है पंडों का घाट, इधर नारद घाट कभी इसमें पति-पत्नी मिलकर न नहाएँ, नहीं तो लड़ाई तय है। यह श्रीमंत पेशवा का घाट है संभवतः कभी ऐसे ही स्नान के दौरान मोरोपंत ने पेशवा से रानी लक्ष्मी बाई को मिलाया हो। राजा हरिशचंद्र घाट और डोम राजा का घर। नाव वाले ने बताया कि डोम राजा के वंशज अब भी अपने महल में रहते हैं जो उनके घाट में बना है। इसके बगल से ललिता घाट है जो नेपाल के रजवाड़ों ने बनाया है। बिल्कुल बगल से एक भवन था जिसमें विधवा महिलाएं अपना समय गुजारती थीं और अब भव्य होटल है। इसके बगल से मानमंदिर है पीछे जंतर-मंतर सवाई राजा जयसिंह का। मान महल का नया रंगरोगन किया जा रहा था। प्लास्टर आफ पेरिस जो इमारतों को इतना सुंदर बना देता है वह मान महल को बदरंग कर रहा था। ऐसा लग रहा था कि अगर सारे घाट दरभंगा और मानमहल की तरह बिक गए तो बनारस समाप्त हो जाएगा। जैसे रेशम में पैबंद विचित्र लगता है वैसे ही पैबंद में भी रेशम लगा दें तो यह भी विचित्र ही लगेगा। शायद पुरानी इमारतों में एक अजीब किस्म की चमक आ जाती है जिसे इतिहास के प्रेमी ही देख पाते हैं मानमहल की ट्रैजडी केवल उन्हीं के लिए है।
लौटकर घाट पर पहुँचकर गंगा आरती देखना अविस्मरणीय अनुभव था। हम दशाश्वमेध घाट पर बैठे और एक घंटे गंगा आरती देखी। घाट पर भक्तजनों, पर्यटकों और विदेशी यात्रियों का जनसमूह था, कुछ नावों पर, कुछ घाटों में और कुछ छतों में। अच्युतं माधवं राम नारायणं के साथ जब आरती शुरू हुई तो मन में जो भाव उतरे, उन्हें शब्दों में उभारना मेरे लिए काफी कठिन है। शिव जी जब भी काशी आते होंगे, दिन भर कहीं भी गुजारे शाम को अपना त्रिशूल दशाश्वमेध घाट में गाड़ देते होंगे।
फिर अगले दिन बनारस की गलियों को। गौदोलिया से रिक्शा लिया और मैदागिन तक का सफर किया। रिक्शे में गुजारे 20 मिनट अब तक की सबसे मनोरंजक यात्राओं में से है। जब सफर शुरू किया तो देखा कि एक जापानी महिला और पुरुष ने अपना मोबाइल रिक्शे में एक स्टैंड में फंसा लिया था और बनारस का पैनोरैमिक व्यू ले रही थी। शायद अपनी रुचि से हो या हो सकता है कि वो जापान के किसी ऐसे प्रोजेक्ट का हिस्सा हो जो इसे क्योटो के तर्ज पर विकसित करने की तैयारी कर रही हो। पुराना बनारस ओल्ड इंडियन फोटोग्राफी के लाहौर की याद दिलाता है और मुगल काल की पुरानी दिल्ली की हवेलियाँ भी दिमाग में ताजा हो जाती है। हम एक बहुत पुराने समय में पहुँच जाते हैं जैसे अभी गंगा नहीं नहा आये, पूरी परंपरा से ऊर्जस्वित स्नान किया हो।

Saturday, September 20, 2014

द प्रिसेंस डायरी




पिछली बार जब सिंघम ने फिर से मल्टीप्लेक्स में वापसी की तो मेरे लिए केवल इतना संतोष छोड़ गया कि मैंने खूबसूरत फिल्म का प्रोमो देख लिया। इसी क्षण मैंने निश्चय किया कि इसे जरूर देखूँगा। बाद में पता चला कि यह हृषिकेश मुखर्जी की फिल्म खूबसूरत की कहानी के तर्ज पर बनाई गई है।
किसी खूबसूरत कहानी को दोबारा नए अंदाज में कहना वैसा ही है जैसा देवता की मूर्ति बनाना। आपको मूर्ति में भी वैसी ही जीवंतता, वैसे ही प्राण डालने होते हैं जैसे देवता में नजर आना चाहिए। बीते दिनों चश्मेबद्दुर फिल्म आई, इसमें सई पराजंपे की चश्मेबद्दुर की कहानी दोहराई गई थी लेकिन जब हसीना मान जाएगी, हीरो नंबर 1 जैसी फिल्म का कोई निर्देशक सई परांजपे की फिल्म को दोहराए तो क्या उसकी वैसी ही गरिमा रह पाएगी। खूबसूरत में भी इस बात की आशंका थी लेकिन बहुत कलात्मक ढंग से बनी नई फिल्म दर्शकों को वैसे ही आनंद से भरती है जैसी पुरानी फिल्म थी।
दीना पाठक पिछली फिल्म में दादी थी इस बार उनकी बेटी रत्ना पाठक ने यही भूमिका निभाई है यद्यपि रत्ना उस तरह से रौब गालिब करने में पूरी तौर पर असफल रही हैं जैसा उनकी मम्मी ने किया था लेकिन सोनम कपूर ने रेखा को पीछे छोड़ दिया। मुझे लगता है कि रेखा ने खूबसूरत में बहुत अच्छी एक्टिंग की थी लेकिन यह रोल उन पर सहज नहीं लग रहा था। सोनम कपूर पर यह रोल बहुत सहज लगा।
फिल्म का सबसे खूबसूरत हिस्सा उसके संवादों में है। इसमें प्रकट रूप से कुछ कहा जाता है और अंदर से कुछ और आवाज निकलती है जैसे कालिदास के नाटक अभिज्ञान शाकुन्तम में शकुंतला प्रकट रूप से कुछ कहती है और उसके अंतर्मन से कुछ और ही ध्वनि निकलती है।
कालिदास के क्लासिकल प्रेम का यह सुंदर उदाहरण खूबसूरत में हर जगह है। इसकी शूटिंग राजाओं के भव्य महलों में हुई है तो डेढ़ घंटे संग्रहालय जैसी जगह में घूमने का सुख भी यह फिल्म देती है।



Sunday, June 15, 2014

तब मेहरौली में घोड़े चलते थे..........

बचपन में मुझे एक फोटो स्टूडियो ले जाया गया, वहाँ काठ का एक घोड़ा था, मुझे मनाने की कोशिश की गई कि मैं इस पर बैठ जाऊँ लेकिन डर के मारे उस पर नहीं बैठ पाया होऊँगा। फिर फोटो खिंचाई गई, घोड़े के बिल्कुल बगल से खड़ा होकर। लंबे अरसे तक वो फोटो रही और मुझे शर्मिंदा किया जाता रहा कि मैं घोड़े पर नहीं बैठा। वो अच्छी सी फोटो खो गई, तमाम उन सबसे सुंदर चीजों की तरह जो हमारी जिंदगी में इतनी अहमियत रखते हैं लेकिन जिन्हें हम सहेज नहीं पाते।
लेकिन वो फोटो मेरी प्रतिनिधि फोटो है हमेशा नेतृत्व करने के मौके पर मैं बैकफुट में चला गया, फोटो स्टूडियो से बाहर भी मैंने उन अवसरों को खो दिया जब एक जिद्दी घोड़े जैसा अवसर सामने था और थोड़ी हिम्मत दिखानी थी। कल डिस्कवरी में एक प्रोग्राम दिखाया, सिकंदर महान के बचपन का, उनके पिता फिलिप के पास एक ऐसा घोड़ा था जिसे कोई नियंत्रित नहीं कर पा रहा था, बालक सिकंदर ने उसे कंट्रोल किया और तभी पता चल गया था कि ये बच्चा विश्वविजेता निकलेगा, उस घोड़े का नाम था बुकेफाल।
उन्हीं दिनों मासूम फिल्म का गीत लकड़ी की काठी बहुत लोकप्रिय हुआ था, घोड़ा अपना तगड़ा है देखो कितनी चरबी है चलता है मेहरौली में पर घोड़ा अपना अरबी है।
भले ही मेहरौली की सड़कों पर चलता है पर घोड़ा अरबी है। जब दिल्ली में रहना हुआ तो मेहरौली के बारे में जाना लेकिन वहाँ घोड़ा नहीं दिखा।
आखिरी बार घोड़ा गाड़ी में दुर्ग में सवारी की थी, पता नहीं पूरे छत्तीसगढ़ में इसी शहर में कैसे घोड़े अब भी बचे हुए हैं।

घोड़ों का हमारी दुनिया से धीरे-धीरे रूखसत होता जाना अजीब टीस से भर देता है। पहले कभी एक घुड़सवार भी दिख जाता था तो शक्ति का, जीवंतता का एहसास होता था। घोड़ों के किस्से से संपन्न हमारा इतिहास इस पीढ़ी में आकर एकदम विपन्न सा हो गया लगता है। अश्वमेध यज्ञ करने वाले आर्यों के वंशजों के लिए सचमुच अजीब बात है कि कोई लड़का खड़ा हो जाए, घोड़े के बगल में और फोटो खिंचाने से मना कर दे।

अगला जन्म हो तो मेरी इच्छा है कि राष्ट्रपति भवन में बची कैवलरी रेजिमेंट की टुकड़ी में मुझे जगह मिल जाए, घोड़ों की अंतिम पीढ़ियों के साथ समय बिताने का कुछ अवसर मिले।