Wednesday, August 14, 2013

कल मैं दोनों भाषण नहीं सुनुँगा................

 अभी फेसबुक पर नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी के पेज पर गया, नरेंद्र मोदी को लाइक करने वालों की संख्या थी २९ लाख, राहुल गांधी को पसंद करने वाले २ लाख, यानी यहाँ भी .... फेल, .... पास। इनके पेज में अपने फेसबुक दोस्तों को देखा। दो राहुल गांधी को पसंद करने वाले और दस नरेंद्र मोदी को पसंद करने वाले। साफ है हवा मोदी के पक्ष में है।
                                       मेरे अधिकतर दोस्त नरेंद्र मोदी को पसंद करते हैं लेकिन उनके विरोध की आफत को मोल लेते हुए भी मैं अपने अंदर की आवाज लिखना चाहता हूँ जिससे मुझे संतोष होगा।

जो मैं कहना चाहता हूँ वो कुछ यूँ है...........

कल प्रधानमंत्री का भाषण लाल किले से होगा, दशक भर से चल रही परंपरा के अनुकूल यह भाषण हम जैसों को बेहद उबाऊ लगेगा, भाषण के कुछ बिन्दुओं को छोड़कर जिनमें प्रधानमंत्री हर साल की तरह पाकिस्तान को प्रेम भरी नसीहत देंगे और अंत में कह देंगे कि देश इसे सहन नहीं करेगा, अन्य हिस्सों को लिखने में प्रधानमंत्री के भाषण लेखकों को काफी दिक्कत का सामना करना होगा। या वे हर बार कहते जाएंगे, हमारे सामने कठिन चुनौतियाँ है लेकिन हम इसका सामना दृढ़ता से करेंगे। वे इतने भावहीन अंदाज में इतनी बड़ी बातें कह जाएंगे कि साल भर में एक दिन जगने वाला हमारा राष्ट्रप्रेम भी सो जायेगा।


एक भाषण गुजरात से होगा, यह भाषण ओजमयी होगा, वक्ता सीधे प्रधानमंत्री को टारगेट करेंगे, दिल्ली की सरकार को टारगेट करेंगे। मित्रों गुजरात में... जैसे शब्द उनके भाषण में भी आएंगे, पहले के उलट इसकी भाषा इतनी कठोर होगी कि मैं उत्तेजना से नहीं, एक अजीब से विषाद से भर जाउँगा। क्या गांधी के देश में दुश्मन के प्रति भी इतना सख्त लहजा उपयोग में लाया जा सकता है?


दो भाषण होंगे, एक पीएम के और दूसरा पीएम इन वेटिंग के, दोनों ही भाषणों में कुछ चीजें मैं मिस कर जाऊँगा जो मैं हर साल भावपूर्ण होकर वाजपेयी जी के भाषण में सुनता था। उनका भाषण किसी को टारगेट नहीं करता था, किसी को चुनौती नहीं देता था, वो आत्मस्वाभिमान का प्रकटीकरण मात्र होता था। एक ऐसा भाव जो भारत का केंद्रीय भाव है। भारत किसी देश से छोटा या बड़ा नहीं होना चाहता, अन्य देशों की तरह उसका अपना वैशिष्ट्य है। उनका भाषण चुनाव के मकसद से नहीं होता था, वे प्रधानमंत्री के रूप में चीजों को देखते थे, कड़े फैसले लेते थे लेकिन जो सरकारें दामादों की बैसाखियों पर टिकी रहती हैं उनके नेता क्या इतना प्रखर भाषण दे सकते हैं। दो भाषण होंगे, एक भाषण बिल्कुल अर्थहीन और दूसरा भाषण राजनीतिक निहितार्थ लिये, इसके बड़े इम्पैक्ट भारत के भविष्य पर पड़ सकते हैं।

कल मैं दोनों भाषण नहीं सुनुँगा................

3 comments:

  1. आपका कहना कुछ हद तक सही है ... दोनों भाषण देश की गरिमा के अनुकूल नहीं हैं ... पर देश की गरिमा जितनी जरूरी है उतना ही जो कुछ आज हो रहा है उसका विरोध करने की भी है ... देश गांधी का न हो के उन सभी वीरों के बलिदानों का भी असर है जो अनाम होते जा रहे हैं आज ... पूर्णतः विकल्प सामने नहीं है .. इसलिए चुनावी विकल्प के रूप में जो ठीक है उसे जरूर अपनाना चाहिए, स्वार्थ से ऊपर उठ कर सभी देश वासियों को ...

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  2. अच्छा लिखा है / शुभकामनाएँ

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  3. नियमित लिखा करिए!

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आपने इतने धैर्यपूर्वक इसे पढ़ा, इसके लिए आपका हृदय से आभार। जो कुछ लिखा, उसमें आपका मार्गदर्शन सदैव से अपेक्षित रहेगा और अपने लेखन के प्रति मेरे संशय को कुछ कम कर पाएगा। हृदय से धन्यवाद