Sunday, July 7, 2013

सरकारें भूल रही पहली प्राथमिकता





बीती रात इंडिया न्यूज ने केदारनाथ हादसे से ठीक पहले दिन का फूटेज जारी किया, उसमें एक बच्चे को गौरीघाट से ऊपर पालकी वाले ले जा रहे थे। बच्चा रो रहा था, शायद उसे डर था कि उसे कहाँ ले जाया जा रहा है? अगले दिन बच्चे के साथ क्या हुआ, हम नहीं सकते? अजीब सा यह दृश्य था, इसे देखकर डिस्कवरी चैनल में देखा हुआ हिटलर के पोलैंड स्थित आश्वित्ज कैंप का दृश्य याद आ गया। एक दिन कैंप के अधिकारियों ने पकड़े हुए छोटे यहूदी बच्चों को बुलाया। उन्हें एक बिल्डिंग का मुआयना कराना था। बच्चे बहुत खुश थे, बच्चों के कपड़े निकलवा लिए गए। उन्हें कतार से बिल्डिंग के भीतर भेज दिया गया। दरवाजा बाहर से बंद कर दिया गया और जहरीली गैस अंदर छोड़ दी गई। इस तरह गोरिंग और हिटलर ने अपने फाइनल साल्यूशन को मूर्त रूप दे दिया।

                                   इन दो घटनाओं की समता नहीं की जा सकती लेकिन मेरे मन में इसके बाद तत्काल यही बिंब उभरा। इतने छोटे बच्चे जिन्होंने अभी जीवन शुरु भी नहीं किया था जिन्होंने पहाड़ केवल जैक एंड जिल जैसे पोयम्स में ही जाने थे, उनके लिए जीवन के इतने डरावने रूप को देखना कितना भयावह होगा? इसका दोष किसे है? इसका मंथन हमें करना होगा? तभी हमारे बचे रहने की सूरत नजर आयेगी?
          मुझे लगता है कि सबसे पहला प्रश्न राजनीति के स्वरूप पर होना चाहिए कि हमें सरकार आखिर क्यों चाहिए और इस दौर में सरकार की जरूरत हमें सबसे पहले किस चीज के लिए है। अगर परंपरा में इसकी जड़ें ढूँढे तो एक कहानी मिलती है बौद्ध ग्रंथों में। पहले लोग सुखी रहते थे, लेकिन जब संपत्ति का उदय हुआ तो लोगों में झगड़े होने लगे, इनके निपटारे के लिए और इन पर नियंत्रण रखने के लिए एक समवेत शक्ति का गठन किया गया जिसे राज्य का रूप दिया गया और इसका प्रधान राजा कहलाया। अर्थात राजा जो सुरक्षा दे। हिंदू ग्रंथों में भी यही बात है जब धरती में अत्याचार बढ़ गए तो देवताओं ने पृथु को धरती पर राज्य करने भेजा। उसने राक्षसों का दमन किया और लोगों को सुरक्षा दी।
                   नई सरकारों के लिए सुरक्षा सबसे आखिरी विषय होता है क्योंकि लोगों को सुरक्षा देने से उन्हें वोट नहीं मिलते, कुंभ मेले में सिक्योरिटी बढ़ा दी जाए तो जनता का ध्यान उस पर नहीं जाएगा, हाँ यहाँ पर सरकार द्वारा प्रायोजित भंडारा खोल दिया जाए तो पब्लिक जरूर दुआ देगी, कई चीजें जो पब्लिक को बहुत अच्छी लगती है और इससे वोट भी भरपूर मिलते हैं और इनसे विकास भी होता है वो राजनेताओं को बहुत भाती है क्योंकि इनसे उनकी जेबें भी भरती हैं। लोगों को सुकून के लिए हर पल बिजली देना भी उनमें से एक है। यह पूरी तौर पर विन-विन सिचुएशन होती है। पर्यटन भी ऐसा ही धंधा है। उत्तराखंड सरकार ने तमाम आशंकाओं के बावजूद लाखों लोगों को केदारघाटी में आने दिया। पर्यटकों को बड़ी आबादी को पोषित करने के लिए उत्तराखंड की आधारिक संरचना को झोंक दिया गया और पहाड़ों को खोखला कर दिया गया। इससे अनिष्ट आना ही था। एक बार अरूंधति राय ने वीक में एक आलेख लिखा था, उसकी हेडिंग मेरे दिमाग में आज तक कौंधती है। बिग डैम एवं न्यूक्लियर वीपन आर वीपन ऑफ मॉस डिस्ट्रक्शन।
                    गांधी की बातें उस दौर में पाश्चात्यवादियों को बकवास लगती थी लेकिन जब वे कहते थे कि हमें अपनी आवश्कताएँ सीमित रखनी चाहिए तो इसके पीछे गहरी सोच छिपी थी।
                   उत्तराखंड की विपदा को हमें नहीं भूलना चाहिए, हमारे समय के संकट से जूझने के लिए इसे सबक के रूप में याद रखना चाहिए और कुछ सचमुच में संतोष देने वाली चीज करने की कोशिश करनी चाहिए। इस समय थियो को लिखा वॉन गॉग का एक पत्र याद आ रहा है जिसमें उन्होंने रेनन को उद्धत करते हुए लिखा था। मनुष्य इस धरती में केवल खुश होने के लिए नहीं भेजा आया, वो केवल इमानदार होने के लिए भी नहीं भेजा गया, उसे भेजा गया है कुछ बड़ा हासिल करने, महान कार्य करने और उस क्षुद्रता से बाहर निकलने जिसमें हम सबका अस्तित्व घिसटता रहता है।



9 comments:

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  2. त्रासदी के एक महत्वपूर्ण पहलू को उभारा है आपने

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  3. सादा विचार और व्यवहार नेट क्रान्ति से पहले शायद पालन करना आसां रहा होगा पर मीडिया और नेट की क्रान्ति ने एक तरह जी जंग छेड दि है इन्सान की विभिन्न प्रवृतियों के बीच में ... अपनी चरम स्थिति पे जाने के बाद ही बदलाव की प्रक्रिया शुरू होने वाली है इससे पहले नहीं ...
    आपका दृष्टिकोण अलग सोचने को विवश करता है ...

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  4. बेहद सार्थक लेखन...मन को व्यथित भी करता है और सोचने को बाध्य भी....

    अनु

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  5. सरकार की फितरत ही है ऐसी..कोई भला क्या कर सकता है उन्हें तो बस 2014 का चुनावी महासंग्राम नज़र आ रहा है...उम्दा प्रस्तुति।।

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  6. सच कहा आपने हमारे देश में मानवीय सुरक्षा और भूलों से बचाव का कोई साधन नहीं, न कोई सोंचता है !
    शायद हम बहुत पिछड़े हैं !

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  7. निसंदेह साधुवाद योग्य लेखन....

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  8. सरकारें हैं लेकिन प्रशासन व्यवस्था लापता है - देश भर से। सरकार मे शामिल लोगों को ज़िम्मेदारी का पाठ तोपढ़ना ही पड़ेगा

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आपने इतने धैर्यपूर्वक इसे पढ़ा, इसके लिए आपका हृदय से आभार। जो कुछ लिखा, उसमें आपका मार्गदर्शन सदैव से अपेक्षित रहेगा और अपने लेखन के प्रति मेरे संशय को कुछ कम कर पाएगा। हृदय से धन्यवाद