Wednesday, June 24, 2015

वेरियर एल्विन और शुभ्रांशु चौधरी के दौर के बीच बदलता बस्तर....

इन दिनों दो पुस्तकें मैंने पढ़ी, पहली
पुस्तक उसका नाम वासु नहीं, यह शुभ्रांशु चौधरी की पुस्तक है दूसरी पुस्तक वेरियर
एल्विन ने लिखी है जिसका नाम मुड़िया एंड देयर घोटुल है। दोनों ही पुस्तकें बहुत
अच्छी भाषा में और कड़ी मेहनत के बाद लिखी गई है दोनों को लिखने का उद्देश्य
बिल्कुल अलग है एक पुस्तक बस्तर में नक्सलवाद को समझने लिखी गई है और दूसरी पुस्तक
बस्तर के सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को समझने।

इन पुस्तकों को लिखे जाने के बीच कितना
अंतराल गुजर गया होगा, मुझे नहीं मालूम लेकिन बस्तर में हुए असाधारण बदलावों की
झांकी देखने इन दोनों पुस्तकों को पढ़ना निहायत ही जरूरी है।



वेरियर एल्विन की पुस्तक में बस्तर की आदिम
महक छिपी है। हर लेखक में अपनी कृति के साथ अमर हो जाने की चाह रहती है और उसका
अक्स हमेशा कृति से झाँकता रहता है उसकी मौजूदगी कृति में हमेशा नजर आती है लेकिन
एल्विन इस लोभ से बच पाए हैं पूरी कृति में एल्विन कहीं नजर नहीं आते। बस्तर का
घोटुल स्वयं अपनी कहानी कहते नजर आता है। वेरियर ने बस्तर के घोटुलों में लंबा
वक्त गुजारा। उन्होंने सबसे जीवंत और सबसे नीरस घोटुलों का वर्गीकरण भी किया। इन
घोटुलों में रहने वाले युवाओं की भावनाओं का सुंदर रेखाचित्र खींचा।

इस पुस्तक को पढ़ना शुरू करने के पहले मेरी
धारणा थी कि ये ऊबाऊ मानव विज्ञान की पुस्तक होगी और इसमें वैसे ही उब भरी बातें
होंगी जैसे मुरिया शिकार प्रिय लोग हैं वे छितरे हुए समूहों में रहते हैं आदि-आदि।
लेकिन पुस्तक में बने घोटुल के चित्र ही पहली नजर में बनी इस धारणा को खारिज कर
देते हैं। रेमावंड के घोटुल में बने रेखाचित्र फ्रेंच आर्ट गैलरी की याद दिलाते
हैं इतनी सुंदर और मुक्त कला का जन्म घोटुल जैसे स्वस्थ औऱ खुले वातावरण में ही
होता होगा जहाँ आप पूरी तौर पर अपने को अभिव्यक्त कर सकते हैं बिना थोड़ी भी बंदिश
के कला की खुलकर अभिव्यक्ति।



एक आम हिंदुस्तानी की एक मुड़िया युवा-युवती
के प्रति धारणा क्या होती है? संभवतः बिल्कुल मेरी जैसी। इनका जीवन शांत नदी की
तरह का जीवन है कोई हलचल नहीं, लगभग विचार शून्य, भावनाएँ भी वैसे ही। वेरियर
प्रथमदृष्टया इस धारणा को तोड़ देते हैं इस पुस्तक में जो भी संग्रहित हुआ, सब कुछ
मुड़िया युवक-युवतियों ने बताया। दरअसल यह मुड़िया यूनिवर्सिटी थी जहाँ कई
शताब्दियों का संग्रहित ज्ञान स्थानांतरित कर दिया जाता था आने वाले पीढ़ियों को।
और यह ज्ञान क्या है प्रेम का ज्ञान। विचारों की उन्मुक्त अभिव्यक्ति का ज्ञान।

 हमारे यहाँ बौद्धिक चर्चा के केंद्र काफी हाउस
होते हैं गाँव में गुड़ी जहाँ अहर्निश संवाद के प्रेमी जमा हो जाते हैं हमारे जैसे
अंतर्मुखी व्यक्ति अगर इस महफिल में आ जाएँ तो दाँतों तले ऊंगलियाँ दबा लेते हैं
कि कितने प्रतिभाशाली लोग होते हैं दुनिया में, हर समस्या के बारे में अपनी खास मौलिक
राय रखने वाले लोग। जैसे वेदों को श्रुति कहा जाता था वैसे ही रेमावंड जैसे किसी
महानतम घोटुल में विचारवान मनीषी द्वारा कहे गए ऐतिहासिक वक्तव्य को श्रुति परंपरा
में रख लिया गया। जैसे भगवान कृष्ण का जीवन लीलाओं से भरा रहा वैसे ही मुड़िया
देवता लिंगोपेन का। लिंगोपेन की कहानियाँ रिसर्च का विषय हैं और फ्रायड ने यदि
इन्हें पढ़ा होता तो गहराई से प्रभावित होते।

मुड़िया पुरुषों की तुलना अगर स्त्रियों से
की जाए तो स्त्री ज्यादा स्वतंत्र व्यक्तित्व वाली होती है और घोटुल में पुरुष के
सारे यत्न स्त्री को रिझाने के लिए। शायद बस्तर की महानतम कला का विकास भी इसी वजह
से हुआ होगा। मुड़िया स्त्री को केश कला बहुत पसंद है और पुरुष इनके लिए सुंदर
कंघियाँ तैयार करते हैं इनकी कला किसी भी मायने में अंजता की चित्रकला और केशसज्जा
से कम नहीं।

लेकिन कुछ दशकों बाद लिखी पुस्तक उसका नाम
वासु नहीं, में बस्तर के चरित्र पूरी तौर पर बदल जाते हैं। इस पुस्तक के पात्र
प्रेम की चर्चा नहीं करते। वे सल्फी के गुणों की चर्चा नहीं करते, छिंद के पेड़ की
छाया उन्हें राहत नहीं देते। पुस्तक में शायद ही घोटुल की चर्चा हो। जिस एक मात्र
मानवीय स्वभाव की चर्चा वे करते हैं वो है लालच। कोई विचारधारा किसी सभ्यता के
जीवन को कितना बदल देती है शुभ्रांशु चौधरी की पुस्तक इसका सच्चा  दस्तावेज है।

इन दोनों पुस्तकों के बीच बस्तर के लिए जो
उम्मीद मुझे नजर आती है वो है साप्ताहिक बाजारों में। एक रात दंतेवाड़ा से रायपुर
जाते हुए मेरी आँख बास्तानार में अचानक खुल गई। वहाँ साप्ताहिक बाजार लगना था, मैंने
देखा उत्साह से भरे लोग उतरे हैं। महिलाएँ अपने छोटे बच्चों के साथ थीं। उनके
चेहरे पर अजीब सी चंचलता थी, वे जीवन से भरी हुई थीं। मुझे लगा कि उस रात स्वर्ग
बास्तानार में उतर गया है। ऐसे ही एक दिन जब मैं ओरछा गया था, वहाँ साप्ताहिक बाजार
में सल्फी की महफिल सजी थी, स्त्री पुरुष इस महफिल में बराबरी से शेयरिंग कर रहे
थे, शायद रात भर वो महफिल सजती। यह एक समतापूर्ण समाज था जहाँ सबकी भागीदारी थी
कोई छोटा-बड़ा नहीं।

3 comments:

  1. कितना कुछ बदला है इस अंचल में। काश वहाँ प्रशासन और व्यवस्था भी पहुँच पाई होती तो यह जंगलराज न होता। अभी भी बहुत देर नहीं हुई है। विकास के पैकेज नहीं, वास्तविक विकास पहुंचे जिसमें, नागरिकों की सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक, न्यायिक और स्वास्थ्य सुरक्षा की गारंटी हो।

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    1. respected sir, abhi bastar main hi hun, network se sampark kabhi kabhi hi ho pata hai. aapki baaton se main bilkul ittfak rakhta hun. thanks sir

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आपने इतने धैर्यपूर्वक इसे पढ़ा, इसके लिए आपका हृदय से आभार। जो कुछ लिखा, उसमें आपका मार्गदर्शन सदैव से अपेक्षित रहेगा और अपने लेखन के प्रति मेरे संशय को कुछ कम कर पाएगा। हृदय से धन्यवाद